20150130

दोस्ती निभाते स्टार्स


बॉलीवुड के बारे में आमतौर पर अवधारणा है कि यहां रिश्ते नहीं निभाये जाते. सबकुछ प्रोफेशल रिश्तों पर आधारित होता है. लेकिन इसके बावजूद कुछ दोस्त हैं, जो अपने दोस्तों की दोस्ती के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. 

जायेद खान-ऋतिक रोशन
यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि ऋतिक रोशन और जायेद खान की बहन सुजैन खान का तलाक हो चुका है. लेकिन इससे उनके पारिवारिक रिश्तों में दरार नहीं आयी है. ऋतिक अब भी सुजैन के परिवार के करीब हैं. साथ ही सुजैन की बहन जायेद खान के ऋतिक हमेशा से दोस्त रहे हैं और दोस्ती निभाने के लिए वे फिल्म के ट्रेलर लांच पर भी आये और उन्होंने अपने दोस्त को काफी शुभकामनाएं भी दीं.
रणबीर कपूर-विक्रमजीत सिंह
फिल्म रॉय के ट्रेलर से दर्शकों को यह महसूस हो रहा होगा कि फिल्म में रणबीर कपूर मुख्य भूमिका में हैं. लेकिन हकीकत यह है कि रणबीर कई बार यह बात दोहरा चुके हैं कि फिल्म में वह मुख्य भूमिका में नहीं हैं. उन्होंने यह फिल्म अपने बचपन के दोस्त विक्रमजीत सिंह के लिए की है. चूंकि दोनों करीबी दोस्त हैं और रणबीर उनका दिल नहीं तोड़ना चाहते थे.
एकता कपूर-विद्या बालन
अगर आपको याद हो कि फिल्म वन्स अपन अ टाइन इन मुंबई दोबारा और चेन्नई एक्सप्रेस को लेकर काफी विवाद चल रहा था. लेकिन इस वजह से विद्या बालन और एकता कपूर के रिश्ते में दरार नहीं आयी. बल्कि विद्या ने तो फिल्म में कैमियो भी निभाया. चूंकि विद्या बालन को पहला मौका एकता कपूर ने ही दिया था और विद्या यह बात कभी नहीं भूलतीं. आज भी दोनों में काफी अच्छी दोस्ती है.
अनुपम खेर महेश भट्ट
अनुपम खेर और महेश भट्ट का रिश्ता भी बेहद खास है. दोनों ने शुरुआती दौर में काफी काम साथ  साथ किया. और आज भी अनुपम दोस्ती के नाम पर महेश भट्ट को गुरु दक्षिणा देते रहते हैं.
जिम्मी शेरगिल-नीरज पांडे
जिम्मी शेरगिल और नीरज पांडे भी करीबी दोस्त हैं. और जिम्मी ने नीरज से वादा किया है कि वह जब भी फिल्म बनायेंगे. जिम्मी को छोटा सा भी किरदार देंगे तो वे उसे निभाने से कतरायेंगे नहीं.जिम्मी ने हाल ही में दोस्ती की खातिर फिल्म बैंग बैंग में भी छोटी सी भूमिका निभायी.
सलमान खान
सलमान खान ने अब तक दोस्ती की वजह से कई फिल्मों में कैमियो किया है. खासतौर से वे उन दोस्तों के काम जरूर आते हैं, जो बुरे हालात में हों. प्रीति जिंटा की फिल्म इश्क इन पेरिस में उन्होंने एक गाना फिल्माया जो काफी लोकप्रिय भी रहा.
दिव्या-राकेश ओम प्रकाश मेहरा
दिव्या दत्ता और राकेश ओम प्रकाश मेहरा का रिश्ता भी बेहद घनिष्ठ हैं और यही वजह है कि दिव्या राकेश ओम प्रकाश् मेहरा की लगभग सभी फिल्मों में नजर आती हैं और राकेश उन्हें बेहतरीन किरदार भी देते हैं.

इनके अलावा राजकुमार हिरानी परिक्षित सहानी के अच्छे दोस्त हैं. इसलिए उनकी फिल्मों में भी नजर आते हैं. अजय देवगन और संजय दत्त काफी अच्छे दोस्त हैं. करन जौहर और निरंजन नांबियार बहुत अच्छे दोस्त हैं.

षमिताभ शीर्षक सेंशेनल के लिए नहीं दिया गया : अमिताभ बच्चन


 चीनी कम और पा जैसी यादगार फिल्में एक साथ दे चुकी अमिताभ बच्चन और आर बाल्की की  जोड़ी फिल्म षमिताभ से वापस आ रही हैं. सदी के महानायक अमिताभ बच्चन  बाल्की को खास निर्देशक करार देते हैं. उनका मानना है कि बाल्की हमेशा उनके सामने एक नयी चुनौती रखते हैं.

षमिताभ किस तरह की फिल्म है. धनुष का ष अमिताभ का मिताभ मिलकर षमिताभ बना है. फिल्म का यह शीर्षक रखने की क्या वजह थी. 
 ये अद्भुत फिल्म की कहानी है. अजीब सी कहानी है. हिंदी फिल्म जगत में पहली बार ऐसी फिल्म बनी है. ऐसा मुझे जहां तक मालूम है. वैसे षमिताभ नाम सिर्फ इसलिए नहीं रखा गया है कि सेशेंनल हो.आमतौर पर लोग सेशेंनल क्रिएट करने के लिए ऐसा नाम रखते हैं.  ये शीर्षक फिल्म की कहानी है. कहानी बनाते समय ही यह तय हो गया था कि फिल्म का यही नाम होगा. जब आप फिल्म देखेगी तब आपको पता चलेगा कि यही शीर्षक होना चाहिए था. फिल्म की कहानी धनुष और अ्िमताभ की है. दोनों में अलग अलग खूबियां है. एक में जो है. दूसरे में नहीं लेकिन दोनों मिलकर अच्छा कर सकते हैं. अक्षरा जो कि एक जर्नालिस्ट का किरदार निभा रही है.इस बात को समझती है दोनों को साथ में लाने का प्रयत्न करती है. किस तरह से एक हो जाने पर वो ऊंचाइयों को छूते हैं लेकिन फिर अहम आ जाते हैं. इगो आ जाते हैं. उसी पर फिल्म है. अभी के लिए आपको इतना ही बता सकता हूं.

आपने इस फिल्म में एक गीत भी गाया है. एक गायक के तौर पर भी आप सशक्त उपस्थिति दर्शा रहे हैं. 
 अरे तौबा,  गायकी के बारें में कुछ नहीं पता. मुझे गाना वाना आता नहीं है. कुछ ऐसी परिस्थितयां बन जाती है. जब निर्माता निर्देशक मुझसे कहते हैं कि आप ही गाईए. अच्छा लगेगा. इस फिल्म में जो मैंने गाया है इसकी भी एक कहानी है.आप जब फिल्म देखेंगी तब आपको मालूम होगा कि मेरी आवाज परफेक्ट थी.

संगीत से आपका कितना जुड़ाव है. 
 प्रत्येक शख्स के अंदर संगीत होता है. आपके भीतर भी है. मैं बस सीखने की कोशिश करता रहता हूं.

इस फिल्म में आपके साथ धनुष और अक्षरा जैसे युवा कलाकार है. रजनीकांत और कमल हसन के साथ आप काम कर चुके हैं. 
धनुष सुपरस्टार हैं. अक्षरा का अलग ही व्यक्तिव है. उनकी यह पहली फिल्म है. उन्हें थोड़ा और समय दीजिए कुछ भी फैसला करने से पहले.  नयी पीढ़ी से मैं बहुत आकर्षित हूं. लगन से उनकी क्षमता से. सभी बहुत प्रबल है. उनके काम को देखता हूं तो चकित रह जाता हूं.  हमारे सेट पर जो आम उम्र होती है. वो पच्चीस से तीस होती है. वहां मैं ७२ का हूं. किस तरह का काम करते हैं. सभी से मैं सीखने की कोशिश करता हूं. वैसे कैमरा आॅन होते ही हम एक्टर हो जाते हैं. फिर उम्र मायने नहीं रखती है.  क्यों नहीं जब हम काम करते हैं तो मै ंफादर फिगर हूं. हम सब कलाकार है. कैमरा जब शुरु होते हैं.

पा में आपका लुक चर्चा का विषय बना हुआ था इस फिल्म में आपने अपने लुक के लिए क्या किया था. 
बाल्की ने इस फिल्म में भी मेरे लुक के साथ एक्सपेरिमेंट किया है. अमिताभ  चिडचिड़ा सा शराब में लिप्त रहता है. इस तरह का इंसान ऐसा ही दिखेगा. बाल्की की यह धारणा थी. जिसके बाद ही मेरा लुक तैयार हुआ. वैसे पा में मेरे मेकअपमैन डोमिनी ने इस फिल्म में भी लॉस एंजिल्स से खास मेरे लिए आए थे. मेरे मेकअप मैन दीपक सांवत के साथ मिलकर उन्होंने मेरा मेकअप किया. पा में पांच घंटे मेकअप के लिए लगते थे इस फिल्म में ढाई घंटे लगे.
चीनी कम और पा दोनों ही फिल्मों में आप अभिनय के सर्वेश्रेष्ठ मुकाम को छूते दिखे क्या आपको लगता है कि एक निर्देशक के तौर पर बाल्की आपसे सर्वश्रेष्ठ अभिनय करा जाते हैं. 
नहीं ऐसा नहीं कहूंगा. कई निर्देशकों ने मुझे ऐसा मौका दिया है. हां यह जरुर है कि बाल्की ऐसी भूमिकाएं देते हैं. जो हमने कभी पहले नहीं किया है. एक्टर होने का यही लुत्फ है कि आपको कुछ अलग करने का मौका मिले. हम ब्लोटिंग पेपर की तरह है. हम चाहते हैं कि हम पर कोई स्याही फेकें. हम उसे अपने अंदर खींच सके.

यह बाल्की के साथ आपकी तीसरी फिल्म है. ऐसे में क्या इस बार कंफर्ट लेवल ज्यादा होता है. 
बाल्की के साथ मैंने जब काम शुरु किया था तब वे एड फिल्ममेकर थे. तब से ही एक लगाव था. एक कंफर्ट लेवल था. जब फिल्मों में आए तो वही चलता रहा वैसे एक  डायरेक्टर के साथ वो लगाव होना चाहिए. लगाव होने से आपकी पहचान बन जाती है. जो भी आपके भीतर उस किरदार से मिलता जुलता छिपा है. वो बाहर आ जाता है. इसके साथ ही व्यक्तित्व से जुड़ी भी कई बातें जानने को मिल जाती है. जो शूटिंग के दौरान जरुरी होती  है. जैसे मुझे सेट पर ज्यादा लोग पसंद नहीं है. मैं ज्यादा भीड़ के सामने शूटिंग करने में सहज नहीं हो पाता हूं. यह बात बाल्की समझते हैं. वैसे सेट पर कम लोग होते हैं तो इसका फायदा यह मिलता कि हम आराम से सिंक साऊंड में फिल्म की शूटिंग कर ली. सिंक साऊंड जरुरी है क्योंकि कई बार हम शूटिंग के वक्त अपने किरदार में इस कदर रच बस जाते हैं कि जरुरी नहीं कि डबिंग के वक्त भी हम उसी मोड़ में चले जाए.

फिल्म से जुड़ने से पहले कितना होमवर्क करना पड़ता है. 
 बहुत सारा. आपको लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूं लेकिन यह सच है. मैं कई बार अपने किरदार को नहीं समझ पाता हूं. क्या एक्सप्रेशन हो यह नहीं समझ पाता. इस फिल्म के दौरान मैं बाल्की से पूछता.जब हम स्क्रिप्ट डिश्कसन पर बैठते हैं. काफी समय बिताया. किस तरह का किरदार है. कैसे डायलॉग बोलेगा. वैसे आजकल तो बहुत अच्छी मैनेजमेट टेक्निक हो गयी है. वर्कशॉप होती है. एक जगह बैठकर स्क्रिप्ट रिडिंग होती है. सबकुछ क्लीयर हो जाने के बाद  यह सब अंत में कैमरा शुरु होता है. फिर जो भी  छोटी मोटी चीजें होती है. उन्हें निर्देशक शूटिंग के दौरान चेंज कर देता है. वैसे षमिताभ की पूरी स्क्रिप्ट को मैंने रिकॉर्ड किया है. रिकॉड करने के बाद सुनकर हमने परफॉर्म  र्  किया .कई बार हमें पता नहीं होती कि हमारी मुद्रा क्या होगी. इस तरह से रिकॉर्ड सुनकर करने से आसानी होती है.

बाल्की की फिल्म में ह्यूमर के साथ साथ एक संदेश भी निहित होता है. इस फिल्म में ऐसा अलग क्या है.
षमिताभ से संबधित यह बात है कि कई बार हम सोच लते हैं. हमारे पास जो है. वो कम है. उसका मूल्य हम नहीं पहचान पाते हैं. जब वो चला जाता है तभी हमें कीमत का एहसास होता है.  मोबाइल आपके पास है तो आप इधर उधर रख दे. खो जाएगा तो उसके खास होने का एहसास होगा. मैं यहां पर अपना एक उदाहऱण देना चाहूंगा. एक बार मेरा हाथ उठ गया था. बम में. पूरा मांस का ढेर.तंदूर चिकन सा बन गया था. ये कुछ नहीं था. अंगुलिया बी नहीं थी.  प्रतिदिन मांस काट काट के सब ये धीरे धीरे बनाया गया. मेरे हाथ का वेब देखिए पिघल गया. जब यह चला गया तब मैंने महसूस किया कि यह कितना जरुरी है. मैं इसके बिना शर्ट पैंट नहीं पहन सकता है. टॉयलेट तक नहीं जा सकता हूं. मुझे किसी की मदद चाहिए. शुक्र है मैंने अपना हाथ फिर से पा लिया. ऐसा मौका जिंदगी बहुत कम लोगों को देती है. सो जो भी आपके पास है. उसका मूल्य पहचानिए.


 आपके सामाजिक कार्यो में इन दिनों क्या नया हो रहा है.

सबसे बड़ा कार्य पोलियो का था. आठ साल का प्रयत्न था. भारत अब पोलियो मुक्त हो गया है लेकिन इसका श्रेय मुझे नहीं उन वर्करों को जाता है. जो तमाम विपरित परिस्थितियों में हर बच्चे तक पहुंच कर उन्हें दो बूंद जिंदगी की पिलायी. इस पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी है. जिससे आपको मालूम होगा कि वर्कर असली हीरो है. हम लोग प्रचार करते हैं.हमारे चेहरे और आवाज की वजह से ज्यादा मानते हैं लेकिन उसका एक्चुल प्रैकिट्ल कैसे होता है. यह किसी वर्कर से जानए. जो विरोध का भी सामना किया है. कोई कहता है कि जहर है बच्चे खराब है. एक कम्युनिटी बोलती है हमारे यहां नहीं चलती है. ऐसे में भारत को पोलियो मुक्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है. वैसे आसपास के पड़ोसी देश जो है. उनकी वजह से खतरा अभी पूरी तरह से टला नहीं है. पोलियो के अलावा मैं डायबिटिज, टीबी और हेपिटाइटिस के बारे में भी काम कर रहा हूं. टीबी और हेपिटाइटीज बी के लिए इसलिए भी आकर्षित हुआ हूं क्योंकि मैं खुद इनसे ग्रसित रह चुका हूं. मैं इसलिए बता रहा हूं कि यह किसी को भी हो सकता है.  हेपिटाइटिस स मैं उस वक्त ग्रसित हु्आ जब मेरा  १९८२ में एक्सीडेट हुआ था.  ६० से १०० बोतल खून गया था. जो उस वक्त डिटेक्ट नहीं हो पाया था. कुछ तीस साल के बाद वो डिटेक्ट हुआ. ये मुझे दस साल पहले मुझे पता चला कि मेरा लीवर ७५ प्रतिशत खराब हो गया है २५ प्रतिशत पर जीवित हूं. अगर आप सही समय पर पक़ड सके और इळाज करे तो लीवर आप पांच प्रतिशत पर भी जीवित रह सकते हैं. मैं महान हूं यह बताने के लिए नहीं कह रहा.  मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि समय रहते आप अपनी बीमारी का इलाज कराएं. 

यह तो बस शुरुआत है...


 बॉलीवुड के लिए यह सकारात्मक संकेत हैं. बॉलीवुड को एक बार फिर से नये और अलग मिजाज के लेखक व निर्देशक मिल रहे हैं, जो बॉलीवुड की बने बनाये ढांचे से बाहर निकल कर नया रचने का प्रयास भी कर रहे हैं. उनकी पहली फिल्म से ही वे अपने हुनर को हस्ताक्षर बना रहे. आनेवाले सालों में इन नयी प्रतिभाओं पर निगाहें रहेंगी. 


रामकुमार सिंह( जेड प्लस)
डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म जेड प्लस की कहानी एक  आम आदमी की कहानी है. असलम नामक एक आम आदमी पंचर की दुकान चलाता है. लेकिन एक दिन उसकी किस्मत पलटती है. देश के प्रधानमंत्री एक पीपल वाले पीर बाबा की दरगाह पर जाते हैं. और वहां उनकी मुलाकात असलम से होती है. असलम उन्हें हिंदी में कुछ कहते हैं और प्रधानमंत्री कुछ और समझ कर असलम को जेड प्लस सेक्योरिटी दे देते हैं. एक आम आदमी की जिंदगी में कितने बदलाव आते हैं. जब उसे जेड प्लस की सेक्योरिटी मिलती है. यही इस फिल्म की कल्पना है. यह फिल्म कल्पना के स्तर पर ही लीक से हट कर है. और यही वजह है कि फिल्म के लेखक रामकुमार सिंह ने अपनी इस परिकल्पना को चंद्रपकाश द्विवेदी की मदद से एक नया आयाम दिया. रामकुमार सिंह का फिल्मी खानदान से कोई वास्ता नहीं. लेकिन उन्होंने एक बेहतरीन फिल्म लिखी है और व्यंग्यात्मक कहानी लिखने में वे माहिर हैं. जेड प्लस यह दर्शाती है. सो, बॉलीवुड में लेखक के रूप में उन्हें और भी मौके मिलने चाहिए. रामकुमार सिंह को इस साल स्क्रीन अवार्ड में बेस्ट स्टोरी की श्रेणी में नॉमिनेट भी किया गया था. राजनीति, राजनीति का खेल, आम आदमी, आम आदमी की मनसा, उसकी लालसा और उसकी भावनाओं को बखूबी पिरोया गया है जेड प्लस में.
उमाशंकर सिंह ( डॉली की डोली)
फिल्म डॉली की डोली महिला दर्शकों को बेहद पसंद आ रही हैं. फिल्म की कहानी एक लुटेरी दुल्हन पर आधारित है. लेकिन फिल्म में एक महिला की सोच को बखूबी दर्शाया गया है. फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं. खासियत यह है कि बेहद कम अंतराल में लेखक ने दर्शकों का बखूबी मनोरंजन किया है. फिल्म में ऐसे कई संवाद हैं, जो हिंदी सिनेमा में पहले नहीं सुने गये हैं. बिना भाषणबाजी किये भी आप किस तरह दर्शकों तक संदेश पहुंचा सकते. यह इस फिल्म की कहानी की ताकत है. फिल्मों के अंत को लेकर इन दिनों निर्देशक व लेखक गंभीर नहीं हैं. अधिकतर फिल्में इंटरवल के बाद दिलचस्प नहीं रह जातीं. लेकिन उमाशंकर सिंह बतौर लेखक इसमें कामयाब हुए हैं. फिल्म की नायिका एक जगह कहती हैं कि उन्हें भर्ता केवल लड़कों का बनाना आता है. यह फिल्म के प्रभावशाली संवादों में से एक है. साथ ही दादी मां का किरदार निभा रहीं महिला द्वारा बार बार यह संवाद दोहराना कि बेटी दे दी सबकुछ दे दिया भी कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाल जाता है.
विभु पुरी ( हवाईजादा)
विभु पुरी की फिल्म हवाईजादा आमतौर पर बनाये जाने वाले विषयों से बिल्कुल इतर सोच के साथ बनाई गयी फिल्म है. फिल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित है, जिन्होंने दुनिया का पहला हवाई जहाज बनाया था. विभु पुरी ने एक ऐसे विषय का चुनाव किया है, जो मुख्यधारा से बिल्कुल अलग है. विभु पुरी फिल्म इंस्टीटयूट की देन हैं और उन्होंने संजय लीला भंसाली के साथ काफी काम किया है. लेकिन अब वह अपनी पहचान और उड़ान भरने को तैयार हैं.
अभिषेक डोगरा( डॉली की डोली)
अभिषेक डोगरा ने भी बॉलीवुड में अपनी नयी शुरुआत की है. वे फिल्म डॉली की डोली के निर्देशक हैं. अभिषेक ने बताया कि पहले उन्होंने अरबाज खान को कई बार मेसेज किये. लेकिन जवाब नहीं मिले थे. लेकिन एक दिन अरबाज खान ने अभिषेक को बुलाया और नैरेशन सुनने के बाद उन्होंने कह दिया कि कहीं और कहानी मत सुनाना मैं यह फिल्म कर रहा. अभिषेक मानते हैं कि बॉलीवुड में नयी प्रतिभाओं को मौके मिल रहे हैं. अगर वाकई टैलेंट हों और आपकी कहानी में दम हो तो. वे मानते हैं कि अरबाज खान जैसे निर्माता नयी प्रतिभाओं की कद्र करते हैं.

अमित शर्मा( तेवर)
भले ही फिल्म तेवर कामयाब नहीं रही. लेकिन फिल्म के निर्देशक अमित शर्मा काफी चर्चित रहे. अमित लोकप्रिय एड फिल्म मेकर हैं और तेवर से उन्होंने पहली शुरुआत की है. गुगल रीयूनियन के लोकप्रिय विज्ञापन का निर्माण अमित ने किया था.
अभिषेक बर्मन( टू स्टेट्स)
अभिषेक बर्मन की भी टू स्टेट्स पहली फिल्म है. फिल्म चेतन भगत के उपन्यास पर आधारित थी. इस फिल्म को दर्शकों का भरपूर प्यार मिला और फिल्म ने 100 करोड़ क्लब में अपना नाम दर्ज किया. अपनी पहली शुरुआत से ही अभिषेक ने साबित कर दिया कि वे 100 करोड़ क्लब में शामिल होने का हुनर रखते हैं,.
शशांक खेतान( हंप्टी शर्मा की दुल्हनियां)
हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया के निर्देशक शशांक खेतान की फिल्म हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया को दर्शकों ने काफी पसंद किया. विशेष कर फिल्म में लीड किरदार निभा रहे वरुण धवन और आलिया भट्ट की जोड़ी को बेहद पसंद किया गया. लेखन की दृष्टि से इस फिल्म को बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया था शशांक ने. 

बेबी का संदेश


नीरज पांडे की फिल्म बेबी हाल के वर्षों में बनी आतंकवाद के मुद्दे पर एक महत्वपूूर्ण फिल्म है. न सिर्फ फिल्म का प्रस्तुतिकरण बल्कि फिल्म के संदेश भी दिलचस्प हैं. फिल्म में आफताब नामक किरदार अहम भूमिका निभा रहा. अंत तक नीरज ने यह तिलिस्म बनाये रखा है कि कहीं वह ऐन वक्त पर धोखा न दे जाये. लेकिन वह बेबी टीम की मदद करता है. स्पष्ट है कि नीरज ने इस सोच को बदलने की कोशिश की है कि किसी एक धर्म के व्यक्ति को आतंकवादी कहना सही नहीं. एक दृश्य में एक आतंकवादी गिरोह का व्यक्ति कहता है कि हम धर्म के कॉलम में बोल्ड होकर मुसलमान लिखते हैं. इस पर अक्षय का किरदार अजय कहता है कि ऐसे कई मुसलमान हैं, जो देश को सुरक्षित रखना चाहते हैं और उनकी मदद कर रहे और बाहर में खड़े सभी व्यक्ति गुणगान इसलिए गा रहे, चूंकि उन्हें पता नहीं कि वह आतंकवादी गिरोह का व्यक्ति है. हम धर्म के कॉलम में बोल्ड से इंडियन लिखते हैं. नीरज ने यहां भी एक साफ तसवीर प्रस्तुत करते हुए भारत में सभी धर्म निरपेक्षता से अपने कदम बढ़ा सकते. यहां धर्म के नाम पर बढ़ रहे संकीर्ण सोच को रोकना बेहद जरूरी है. वर्तमान समय में ऐसी फिल्मों की जरूरत इसलिए भी है. चूंकि यहां हर दूसरे दिन धर्म पर वार हो रहा. हर धर्म खुद को सर्वोपरि साबित करने के लिए मासूमों को गुमराह कर रहा है. इस वक्त फिल्मों के माध्यम से एक महत्वपूर्ण संदेश देने की जरूरत है. लेकिन परेशानी यह है कि अब भी भारत में दर्शक इस कदर मूर्ख बन रहे कि वे फिल्में देखे बिना फिल्म पर बवाल मचाने लगते हैं. वे कानों सुनी बातों पर भरोसा करने लगते हैं. और ज्यादातर वैसी बातें ही लोगों के जेहन में जिंदा रह जाती हैं, जो नकारात्मक हैं. सकारात्मकता दर्शकों को कम नजर आती है. लेकिन यह बेहद जरूरी है कि ऐसी फिल्में बनें और दर्शकों की सोच बदले. नजरिया बदले.

औरत होने का मजा व जमाना


इन दिनों एक वाशिंग पाउडर के विज्ञापन में दो महिलाएं आपस में बात कर रही होती हैं कि हमारे जमाने में कितनी कम सैलरी मिला करती थी. तो दूसरी बोलती है कि अब देखो, मेरी बहू मेरे बेटे से ज्यादा कमाती है.औरत होने का मजा तो इस जमाने में है. तभी बेटे की आवाज आती है, जो अपनी पत् नी से शिकायत कर रहा होता है कि उसने पति की शर्ट क्यों नहीं धोयी. इसके बाद विज्ञापन में एक बेहतरीन टैगलाइन है कि क्या कपड़े धोना केवल लड़कियों का ही काम है. यह विज्ञापन थियेटर में बेबी फिल्म की शुरुआत से पहले दिखाया गया. और फिर फिल्म शुरू होती है, जिसमें मासूम सी दिखने वाली अभिनेत्री तापसी पन्नू एक क्रिमनल के साथ होटल के कमरे में फंसी है. वह अपने बॉस को फोन करती है तो बॉस बोलता है कि उसे बिजी रखो आता हूं. अभिनेत्री अपने बाल बांधती है और उस क्रिमनल से अकेली ही भिड़ जाती है. अपने बॉस के आने तक वह क्रिमनल को लहुलुहान कर चुकी होती है. बॉस उसे आश्चर्य से देखता है. जाहिर है उसके बिजी रखने का मतलब किसी और संदर्भ में था. लेकिन अभिनेत्री ने अपनी कुशलता का प्रमाण दिया. इसी शुक्रवार रिलीज हुई फिल्म डॉली की डोली में डॉली को प्रेम में धोखा मिलता है. लेकिन जिस प्रेमी ने उसे धोखे दिये हैं वह दोबारा उसे अपनी पत् नी बना कर खुश है. उसे लगता है कि आखिर उसकी जीत हुई. लेकिन डॉली उससे इस अंदाज में अपना हिसाब बराबर करती है. दरअसल, हमारे सामाजिक ढांचे में   काम करने की जिम्मेदारियां औरतों को और कारनामें करने की जिम्मेदारियां पुरुषों को सौंपी गयी है. यह विज्ञापन यह दर्शाता है कि दौर कितना भी बदला हो.सोच अब तक नहीं बदली है. लेकिन फिल्मों के माध्यम से छोटे छोटे ही सही लेकिन महिलाओं को हर रूप में सुदृढ़ और मजबूत दिखाने की मुहिम अच्छी है. 

जी की नयी शुरुआत


ज़ी टीवी ने एक नए शो की शुरुआत की है।  जी टीवी ने पिछले कुछ सालों में एंटरटेनमेंट चैनलों की भागदौड़ में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाबी हासिल कर रहा।  चूँकि जहाँ अन्य चैनल एक दूसरे को यह दर्शाने की कोशिश कर रहे कि उनके शोज मेरे शोज से बेहतर हैं।  ऐसे में पिछले साल ज़ी ने [पहले ज़िन्दगी चैनल की शुरुआत की. इस चैनल ने हिंदी टेलीविजन के इतिहास में एक नयी दस्तक दी।  एक नयी जान डाली।  कई सालों के बाद छोटे परदे के तेवर बदले।  और अब फिर से ज़ी ने एक नए चैनेल एंड की शुरुआत की है।  इस चैनल का चेहरा शाहरुख़ खान बने हैं।  वे एक नॉन फिक्शन शो को होस्ट कर रहे हैं।  जाहिर है चैनल को कामयाबी मिलेगी।  ज़ी ने ज़िन्दगी की शुरुआत कर एक रिस्क ही लिया था।  लेकिन उस प्रयोग को मिली सफलता से ज़ी का हौसला बढ़ा है।  और यह बेहद जरुरी भी था। चूँकि भारत में छोटे चैनलों के साथ यह परेशानी है कि अगर उनका कोई प्रयोग सफल न हो तो वह  नए प्रयोग करने से डरते हैं।  हाल में सोनी  ने एक नए शो की शुरुआत की थी।  इत्ती सी ख़ुशी।  शो का कॉन्सेप्ट आम शो से अलग था।  शो एक ऐसी लड़की की कहानी पे आधारित था. जो अचानक १२ साल के बाद कोमा से उठती है।  और फिर अपने उन १२ सालों को तलाशने की कोशिश करती हैं, शो आम शो से अलग भी था।  लेकिन सिर्फ टी आर पी के आधार पर उसे बंद कर दिया गया।  लेकिन यह एक सराहनीय प्रयास था और बेहतरीन प्रयास था। सो यहाँ फिल्में अच्छी हैं या नहीं।  इसका निर्णय बॉक्स ऑफिस कलेक्शन करती है और शोज अच्छे हैं या नहीं इसका निर्णय भी केवल टी आर पी के आंकड़ों पर होता है। इसकी वजह से ही यहाँ प्रयास काम हो रहे और सृजनशीलता का हनन हो रहा।  दरअसल टीवी की दुनिया में भी प्रयोग के कई विकल्प हैं। महज जरुरत है एक मंच की और साथ ही सृजनशीलता को सम्मान की नजरों से देखने की। तभी नए प्रयोग हो पाएंगे।  और यह बेहद जरूरी है कि ऐसे प्रयासों को सराहा जाये।  

प्रकृति की गोद में सेलिब्रिटी


 एक अखबार की  खबर है कि हॉलीवुड के कई कलाकार इन दिनों खेती करने में  दिलचस्पी ले रहे हैं. उनकी यह कोशिश प्रकृति से जुड़ने के लिए हो रही है. इनमें नामी गिरामी अभिनेता ब्रैड पिट का नाम भी है. उनका पूरा परिवार आॅरगेनिक सब्जियां उगाते हैं और अपनी जिंदगी वे खुशी से बीता रहे हैं. सारी चकाचौंध के बीच ब्रैड को अपने खेत में सारी खुशियां मिलती हैं. उनके अलावा ऐलिजाबेथ हर्ली भी हॉलीवुड की सफल किसानों में से एक हैं. वे भी आॅरगेनिक सब्जियां उगाती हैं और उनका यह व्यवसाय भी है. उनकी लगभग 400 एकड़ जमीन में सारी चीजें उपलब्ध हंैं और उन्हें इसमें बहुत खुशी मिलती है. कंट्री सांग की स्टार जीनेथ पालथ्रो भी ऐसी ही अभिनेत्री में से एक हैं. इनके अलावा जेक, सियाना मिलर जैसे कलाकारों को भी खेती करने में काफी दिलचस्पी है. यह जताता है कि भले ही हॉलीवुड के कई कलाकार चकाचौंध को तवज्जो दें. लेकिन वह जानते हैं कि प्रकृति के बीच ही उन्हीं खुली हवा में उन्हें सुकून के पल मिलते हैं. बॉलीवुड में भी कई हस्तियों के फार्म हाउस हैं. मगर केवल चूनिंदा लोग ही वहां जानते हैं. बॉलीवुड की हस्तियों ने फार्म हाउस को इसलिए  रखा है, ताकि वह प्रोपर्टी में निवेश कर सकें. हालांकि आमिर खान के चाचा मंसूर खान पिछले कई सालों से लगातार मुंबई की दुनिया से दूर हैं और वह सिर्फ फार्म हाउस में अपनी पसंद की सब्जियां उगा रहे हैं और वे इससे बेहद खुश भी हैं. खुद आमिर खान उन्हें कई बार वापस लाने की कोशिश कर चुके हैं. लेकिन वे तैयार नहीं हैं. इनके अलावा मिथुन चक्रवर्ती भी उनमें से एक हैं. जो जब अभिनय नहीं कर रहे होते हैं. तब वे फार्म में ही रहते हैं और अपने पेड़ पौधों और जानवरों की सेवा किया करते हैं. चूंकि यही हकीकत है कि प्रकृति जो सुकून हमें देती है वह कोई मॉल या रेस्तां नहीं दे सकता.

शिवकर तलपड़े की कहानी लोगों तक पहुंचानी ही थी: विभु पुरी


 शिवकर तलपड़े ने दुनिया का पहला अनमैन्ड प्लेन बनाया था. लेकिन इस बारे में काफी कम लोगों को जानकारी है. ऐसे दौर में जहां बायोपिक भी लोकप्रिय हस्तियों के ही बनाये जा रहे थे. निर्देशक विभु पुरी ने एक अलग विषय चुना और अलग मिजाज से इस फिल्म का निर्माण किया है. ऐसी विषयपरक आमतौर पर मराठी फिल्मों में ही नजर आ रही थी. लेकिन विभु पुरी अपनी पहली ही फिल्म से एक उम्मीद की किरण लेकर आते हैं कि वे अलग मिजाज की फिल्में बनायेंगे. पीरियड फिल्में बनाना आसान काम नहीं. लेकिन जोखिम वही उठाते हैं जो जज्बा रखते हैं. 
शुरुआत
मैं दिल्ली से हूं. मैंने जामिया से मास कम्युनिकेशन किया. लेकिन मैं वहां भी बोर होने लगा था. फिर मैंने एडवटाइजिंग में काम किया.लेकिन वहां भी मैं बोर हो गया था. मैं उस वक्त समझ ही नहीं पा रहा था कि दरअसल मैं क्या करना चाहता हूं. मेरे माता पिता को भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करना चाहता हूं. मुझे ये नहीं पता था कि मुझे क्या करना है. लेकिन मुझे ये पता था कि मुझे क्या नहीं करना है. लेकिन जब मैं पुणे के फिल्म इंस्टीटयूट में आया. उस वक्त मैंने महसूस किया कि मैं जिस चीज की तलाश में था. वह यही है. मैं यही आना चाहता था. मेरा मानना है कि फिल्म इंस्टीटयूट आपको वह माहौल देता है कि आप फिल्मों के बारे में सोच सकें. आप घंटों सिर्फ फिल्मों की बातें करें. अपने आप से मिलें कि आखिर आप करना क्या चाहते हो. मैं ये सारी चीजें बहुत एंजॉय कर रहा था और यही वजह है कि मैं खुशी खुशी पढ़ाई करने लगा. मैंने डायरेक् शन में कोर्स पूरा किया. आमतौर पर 3 साल में कोर्स पूरा हो जाता है. मगर मैंने 4 साल में पूरा किया ताकि वहां थोड़ा वक्त दे सकूं और सीख सकंू. मैं डेस्टनी में बिलिव करता हूं. मेरा मानना है कि भगवान ने मुझे यह विषय दिया है कि मैं इस पर फिल्म बनाऊं. मैं अब भी अगर कंफ्यूज होता हूं तो मैं इंस्टीटयूट चला जाता हूं और वहां से मुझे फिर से आइडिया मिलता है तो वापस आ जाता हूं. मेरे लिए फिल्म इंस्टीटयूट मेरा क्रियेटिव हाउस है.
मौके मिले
जब मैंने इंटरेंस दिया था. उस वक्त भीड़ बहुत थी डायरेक् शन में. लेकिन काफी भीड़ में मेरा चयन हुआ तो मैंने महसूस किया कि मैं यह काम अच्छे तरीके से कर सकता हूं. फिर उसी दौरान विशाल भारद्वाज आये थे वह ब्लू अंब्रेला बना रहे थे. मैंने उनसे कहा कि मैं आपको अस्टिट करना चाहता हूं. तो उन्होंने कहा आ जाओ. मैं चला गया. वहां काफी सीखा. फिर संजय लीला भंसाली आये थे कॉलेज़. वहां उन्होंने मेरा काम देखा था तो उन्होंने कहा कि कोर्स खत्म करने के बाद मेरे पास आ जाओ. उस वक्त मेरे दोस्तों को भी लगा कि अरे वाह इसे तो अब मुंबई में जाकर स्ट्रगल भी नहीं करना होगा. मंै रातों रात वहां का स्टार बन गया था. जहां सब सोच रहे थे कि उन्हें जाकर स्ट्रगल करना होगा. वहां पांच लोग एक साथ रहेंगे. वैसे में मुझे मौका मिल चुका था.  मैं भी कहूंगा कि मुझे उस तरह से स्ट्रगल नहीं करना पड़ा. मैंने भंसाली सर के साथ काफी काम किया. सांवरिया में मैंने पोस्ट अस्टिेंट काम किया था. मैंने उनके साथ फिल्म लिखी. फिर गुजारिश के डॉयलॉग और उसके गाने लिखे. फिर शीरीन फरहाद लिखी.  मैंने अपनी भी एक स्क्रिप्ट लिखी थी चनाब गांधी. लेकिन वह फिल्म बन नहीं बन पायी. लेकिन एक वक्त के बाद मुझे लगा कि मुझे अपने कंफर्ट जोन से निकल कर अपने आकाश की तलाश तो करनी ही होगी.  मुझे लगा कि अगर बरगद बनना है तो बरगद के नीचे रह कर नहीं बन सकते. तभी मैं अच्छा निर्देशक कहला सकंूगा. जो मैं करना चाहता हूं.कर सकूंगा. मैं नहीं चाहता था कि भंसाली सर से कहूं कि वह मेरी फिल्म बना दें. मैं चनाब गांधी पर फिल्म बनाना चाहता था. लेकिन उस वक्त बात नहीं बन पायी. फिल्म बन नहीं पायी. हालांकि मैं उस विषय से बहुत जुड़ा हुआ था.  मैं अपने तरीके से कुछ करना चाहता था और उसी दौरान मेरे मन में बस यह ख्याल आया कि कोई व्यक्ति है जो हवाई जहाज बना देता है. लेकिन लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं. मैं इस फिल्म के माध्यम से उन्हें बस ट्रीब्यूट देने की कोशिश कर रहा हूं. शेष कुछ नहीं. मैं इस बहसबाजी में नहीं पड़ना चाहता कि क्या मैं जो दिखा रहा सही है या नहीं. बस मैं एक बात जानता हूं कि एक व्यक्ति ने इतना बड़ा काम किया. लेकिन उन्हें वह सम्मान हासिल नहीं हुआ. बस इसी भाव से मैंने यह फिल्म बनाई है.
पीरियड फिल्म
पीरियड फिल्म बनाना मुश्किल काम है. निश्चित तौर पर.चूंकि शिवकर तलपड़े के बारे में काफी कम जानकारी थी. इसलिए हम इसे फिक् शन बायोपिक बोल रहे. चूंकि हमने खुद कई चीजें जोड़ी हैं फिल्म में. उस दौर में कैसा माहौल होता होगा. लोग कैसे बातें करते होंगे. घोड़ा व तांगा कैसा होगा. कपड़े कैसे होंगे. हमने कई कॉस्टयूम खुद से भी बनाये. काफी कुछ खुद क्रियेट किया. तो इन चीजों में काफी वक्त लगा मुझे. लेकिन मुझे संतुष्टि है कि आखिरकार इस विषय को मूल रूप दे पाया.
क्रियेटिव काम
मुझे पढ़ना लिखना बहुत अच्छा लगता है और पढ़ाई लिखाई के दौरान ही यही विषय मुझे मिला और मुझे लगा कि मुझे इस पर फिल्म बनानी चाहिए. चनाब गांधी पर फिल्म नहीं बनी तो मुझे बहुत दुख हुआ था. मैं अपनी किसी फिल्म को वेंचर नहीं कहता. मैं उसे अपना बच्चा कहता हूं.  मेरी इच्छा थी कि मैं जेआरडी टाटा पर फिल्म बनाऊं. मैंने कहीं पढ़ा था कि हिंदुस्तान में जो पहला लाइसेंस इश्यू हुआ था वह जेआरडी टाटा को हुआ था तो मुझे यह विषय रोचक लगा. मुझे यह भी जानकारी मिली कि उस वक्त मुल्क एक था और जो पहला जहाज उन्होंने उड़ाया था वह कराची से बांबे के लिए के लिए था. मेरे लिए यह दिलचस्प था. लेकिन िकसी ने उसी दौरान शिवकर तलपड़े के बारे में ये अदभुत जानकारी दी. तो मैं चौका. उसके बाद मैंने इस विषय पर रिसर्च शुरू किया और मुझे लगा कि ये कहानी लोगों तक पहुंचानी ही चाहिए. मेरे लिए अब यही चुनौती थी कि जो नहीं हैं. उनकी पूरी कहानी लोगों तक पहुंचानी है. और इस विषय पर काफी कम दस्तावेज थे. लेकिन मैंने लोगों से मिलना शुरू किया. रिसर्च किया और तब जाकर यह फिल्म बनी.

अभिनय का जज्बा


बिपाशा बसु ने हाल ही में दिये एक इंटरव्यू में कहा कि वे कभी वैसे किरदारों वाली फिल्मों में काम नहीं करेंगी, जिसमें उन्हें अपना वजन बढ़ाना हो. उनका मानना है कि वे फिल्मों के लिए अपनी फिटनेस से खिलवाड़ नहीं कर सकतीं. चाहे जो भी हो वह अपना वजन किसी किरदार के लिए नहीं बढ़ा सकतीं. दरअसल, वर्तमान दौर में अभिनेत्रियां अभिनय को नहीं अपनी फिटनेस को अपनी प्राथमिकता मानती हैं. वे मानती हैं कि उनकी फिटनेस ही उन्हें अपनी अगली फिल्म में टिकट दिला सकता है. यही वजह है कि जब फिल्मों का निर्माण शुरू होता है. उस वक्त उनकी पीआर एजेंसी भी ऐसी खबरों को तवज्जो देने लगते हैं कि इस एक्टर ने अपना इतना वजन बढ़ाया. इसने इतना घटाया. हालांकि वर्तमान में कंगना रनौट और विद्या बालन जैसी अभिनेत्रियां भी हैं, जिन्हें किरदारों की ऐसी भूख है कि उनसे आप चाहें जो भी करवा लो. वे कर लेंगी. विद्या बालन ने फिल्म डर्टी पिक्चर्स के लिए काफी वजन बढ़ाया था.वर्तमान में अभिनेत्रियां अपने किरदारों में ढलने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपने बालों को छोटे करवाती हैं या बड़े करवाती हैं. और इसका जम कर शोर शराबा भी करती हैं. लेकिन अभिनय की तैयारी पर न तो उनके पीआर कुछ कहते हैं और न ही वे खुद. और अगर सवाल पूछे भी जायें तो उनके जवाब ऐसे होते हैं. मानो उनसे कुछ अश्लील सवाल पूछ दिये हों. वे इस तरह के सवालों का जवाब देने में दिलचस्पी भी नहीं दिखाती हैं. हालांकि प्रियंका चोपड़ा भी हर तरह के किरदार निभाने के लिए तैयार रहती हंै. लेकिन अब भी उन अभिनेत्रियों की संख्या अभी भी कम है, जो हर तरह के जोखिम उठा सकें. वे अपनी सारी मेहनत स्पेशल आयटम नंबर तक करती हैं. लेकिन किरदारों में ढलने के लिए नहीं. यही हकीकत है कि आज सारी चीजें प्राथमिक हैं. सिवाय अभिनय के

करीना का मिजाज


 करीना कपूर खान ने निर्णय लिया है कि वे अभिषेक चौबे की फिल्म उड़ता पंजाब में मुख्य किरदार निभायेंगी. खबर है कि इस फिल्म में शाहिद भी मुख्य किरदार में हैं. हालांकि यह भी खबर है कि इस फिल्म में शाहिद व करीना के साथ में कोई सीन नहीं फिल्माये जायेंगे. लेकिन अगर यह हकीकत है तो करीना ने एक अच्छा निर्णय लिया है. उन्होंने इसके साथ ही साथ यह भी निर्णय लिया है कि वे राजकुमार गुप्ता की फिल्म में काम करेंगी. राजकुमार गुप्ता और अभिषेक चौबे दोनों के साथ उन्होंने पहले काम नहीं किया है. मुमकिन हो कि करीना कपूर को अब इस बात का एहसास हो गया है कि उन्हें नये और लीक से हट कर निर्देशकों के साथ काम करना चाहिए. वे अपने कंफर्ट जोन से निकलने की कोशिश कर रही हैं. चूंकि वे यह भी भलिभांति जानती होंगी कि उन्हें अपने कंफर्ट जोन में रहते हुए अच्छी फिल्में नहीं मिली. वे दोस्ती के नाम पर फिल्में करती जा रही थीं. हालांकि उन्होंने मधुर भंडारकर की भी फिल्म हीरोइन की. लेकिन कामयाब नहीं रहीं. सो, करीना महसूस कर रही होंगी कि वे नंबर वन की कुरसी से वे हट चुकी हैं. ऐसे में उन्हें मेहनत करने की बहुत जरूरत है. ताकि वे दोबारा उस श्रेणी में शामिल हो सकें. और सबसे ज्यादा जरूरी है कि उन्हें खान और सुपरसितारों के साथ फिल्में करनी छोड़नी होगी. तभी वह अपनी अलग छवि बना पाने में कामयाब होंगे. हालांकि उनकी कुछ सीमाएं हैं. लेकिन उनकी प्रतिभा इतनी सीमित भी नहीं कि उन्हें दोबारा नंबर वन की कुरसी न मिले. हाल में उन्होंने कई अच्छी फिल्मों को न कहा है. शायद अब वह अलग मिजाज की फिल्में करना चाहती हैं. तभी उन्होंने लीक से हट कर काम कर रहे निर्देशक राजकुमार गुप्ता और अभिषेक दोनों को हां कहा है. झारखंड के संदर्भ में खास बात यह है कि दोनों ही निर्देशक झारखंड से ही संबंध रखते हैं. 

कंगना को सम्मान


 कंगना रनौट ने बहुत पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि वे फिल्मी अवार्ड समारोह की हिस्सा नहीं बनेंगी. चूंकि उनका मानना है कि अवार्ड समारोह में न सिर्फ वक्त की बर्बादी होती है, बल्कि पैसों की भी बर्बादी होती है. उन्हें हरगिज पसंद नहीं कि अवार्ड समारोह में वे जो परिधान पहना करती थीं. बाद में वह परिधान वह दोबारा दोहरा नहीं पाती थीं, जिसे बनाने में उन्हें काफी पैसे खर्च करने पड़ते थे. लोकप्रिय अभिनेत्रियों में कंगना शायद पहली अभिनेत्री होंगी, जिन्होंने फिल्मी अवार्ड समारोह की अनदेखी करनी शुरू की है. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि वे किसी अवार्ड की हकदार नहीं. वर्ष 2014 में सभी जानते हैं कि क्वीन बॉलीवुड की न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक रहीं. बल्कि फिल्म में महिलाओं के लिए कई संदेश हैं. निश्चित तौर पर प्रियंका चोपड़ा की फिल्म मैरी कॉम के अलावा कोई भी क्वीन को टक्कर नही देता. लेकिन प्रियंका से भी अधिक कंगना अवार्ड की हकदार हैं. चूंकि क्वीन में आम लड़की का जो किरदार उन्होंने निभाया है. वे उसे भलिभांति निभा गयी हैं. लेकिन चूंकि कंगना ने खुद को समारोह से दूर रखने का निर्णय ले लिया है. सो, प्रायोजकों ने यह मान लिया है कि उन्हें निमंत्रण भेजना का क्या फायदा. सो, वे उन्हें पुरस्कार थमा रहे, जो अवार्ड समारोह में उपस्थिति दर्ज करा सकें. वर्ष 2013 में भले ही दीपिका पादुकोण सर्वश्रेष्ठ  अभिनेत्री की हकदार थीं. लेकिन वर्ष 2015 में उनकी फिल्म हैप्पी न्यू ईयर या फाइडिंग फैनी कहीं से प्रियंका और कंगना का मुकाबला नहीं करतीं. खुद दीपिका भी यह बात मंच पर स्वीकार चुकी हंै. दरअसल, इन दिनों पैसों का खेल बन चुका है अवार्ड समारोह. कुछ चुनिंदा अवार्ड समारोहों से उम्मीदें भी थीं. तो धीरे धीरे वे भी अपना विश्वसनीयता खो रहे हैं. आनेवाले सालों में ऐसे अवार्ड समारोह के प्रति कलाकार और उदासीन होंगे

ंिनर्देशक पर निर्माता हावी


निर्माता निर्देशक करण जौहर का सपना केवल निर्देशक बनने का ही था. यही वजह थी कि अपना होम प्रोडक् शन के बावजूद वे आदित्य चोपड़ा की शरण में गये और वही से उन्होंने निर्देशन की बारीकी सीखी. शाहरुख खान और काजोल भी स्वीकारते हैं कि दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में सबसे ज्यादा मेहनत करन जौहर ने ही की थी. वे उस वक्त सेट पर हर तरह का काम किया करते थे. हर तरह की कमान संभाल लेते थे. चूंकि उनमें वही जज्बा था. वे निर्देशक ही बनना चाहते थे. इस बात से नकारा भी नहीं जा सकता कि उनकी शुरुआती दो फिल्में कुछ कुछ होता है और कभी खुशी कभी गम पारिवारिक मूल्यों पर गहरी छाप छोड़ती है.लेकिन अचानक उन्होंने निर्देशन की कुर्सी को पीछे ढकेल कर एक निर्माता की कुर्सी संभाली. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उनके पिता यश जौहर ने मरने से पहले उनके नाम एक चिट्ठी छोड़ी थी, जिसमें उन्होंने एक पिता होने के नाते अपनी ुपूंजी व पूंजी निवेश का पूरा ब्योरा अपने बेटे को दिया था. यश कर्ज में डूबे थे. उस वक्त करण भी निर्माण के कार्य को गंभीरता से नहीं ले रहे थे. लेकिन पिता की मौत ने उनके सपने को ही बदल दिया. वे पिता के सपने को जीने लगे. दरअसल, हकीकत यही है कि जब आप अपनी किसी अजीज चीज को खो देते हैं. आपके सपने बदल जाते हैं. कई बार आप किसी और के दबाव की वजह से अपने सपने जीना छोड़ देते हों. कई बार हालात मजबूर कर देते हैं. लेकिन कई बार आप अपनी खुशी से अपने पिता के अधूरे सपने को पूरा करने की कोशिश करते हैं. यश जौहर का यह सपना था कि धर्मा प्रोडक् शन ब्रांड बने और वर्तमान में यश का  वह सपना पूरा हो चुका है. लेकिन इस सपने को पूरा करते करते शायद करन के निर्देशक मन पर निर्माता हावी है. तभी उनकी निर्देशित बाद के दौर की फिल्मनों में वे संवेदना नजर नहीं आती. 

मंटो की वापसी


नंदिता दास ने निर्णय लिया है कि वे फिराक के बाद जिस फिल्म को निर्देशित करना चाहती हैं. वह मंटो पर आधारित होगी. नंदिता पिछले कई सालों से सआदत हसन मंटो की जीवनी, उनकी लिखी कहानियों व रेडियो प्लेज पर शोध कर रही हैं. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि उनकी यह फिल्म मंटो पर बायोपिक नहीं होगी. बल्कि वे अपनी फिल्म में 1942 से लेकर 1952 तक के दौर को दिखाना चाहती हैं. यह 10 साल मंटो की जिंदगी के अहम साल रहे हैं. चूंकि इसी दौरान उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा. उन पर कई तरह के चार्जेज लगे. नंदिता उनकी बेटियों से मिली हैं और वे लगातार इस पर काम भी कर रही हैं. नंदिता का मानना है कि मंटो ने जो लड़ाई कई सालों पहले लड़ी थी. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लड़ाई दरअसल, वह वर्तमान दौर में प्रासंगिक है. चूंकि वर्तमान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर कई विवाद चल रहे हैं. इस फिल्म के जरिये नंदिता की कोशिश होगी कि मंटो द्वारा सेक्स वर्क्स पर लिखी गयी उनकी कहानियां उनके दर्द को भी दिखाया जाये.नंदिता जानती हैं कि वे पूरी कहानी खुद नहीं लिख सकतीं. सो वे मीर अली हुसैन का भी साथ ले रही हैं. गुलजार साहब पिछले कई सालों से लिटरेटर महोत्सवों के माध्यम से मंटो को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं. चूंकि गुलजार साहब भी मानते हैं कि मंटो आज भी प्रासंगिक हैं. उनकी कहानियों में हकीकत के साथ साथ जो व्यंग्य होता था. वह आज नामुमकिन है मिलना. पांच शब्दों में अपनी बात कह जाने का हुनर मंटो को बखूबी आता था. नंदिता की सोच की सराहना होनी चाहिए कि वे मंटो की मुलाकात वर्तमान पीढ़ी से करायेंगी और निश्चित तौर पर दौर बदला है.मंटो वक्त से आगे की सोच रखते हैं और शायद वर्तमान में दर्शक व युवा पीढ़ी उनके लिखे, उनकी सोच को बेहतरीन तरीके से समझ पायेगी. मंटो की इस वापसी का बेसब्री से इंतजार 

कच्ची उम्र के रिश्ते


ेसोनम कपूर की फिल्म डॉली की डोली जल्द ही प्रदर्शित होने वाली है. वह इस फिल्म में एक ठग महिला का किरदार निभा रही हैं, जो अपने दुल्हों को ठग कर पैसे लेकर भाग जाती है. हाल ही में दावतएइश्क में भी यह ट्रैक दर्शाया गया है. हालांकि फिल्म में केंद्र विषय यह नहीं था.सोनम कपूर इस फिल्म को लेकर उत्साहित हैं. जाहिर है कि फिल्म का वह शीर्षक किरदार निभा रही हैं. तीन नायकों के बीच वे अकेली अभिनेत्री हैं. सो, फिल्म में उन्हें अपने अभिनय का हुनर दिखाने के पूरे मौके मिले हैं. फिल्म के सिलसिले में हुई बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि अपने करियर के शुरुआती दिनों में वे अपने पिता अनिल कपूर से कोई सलाह नहीं लेती थीं. वह महज 21 साल की थीं और उस वक्त उन्हें हर फिल्म को लेकर उत्साह महसूस होता था. लेकिन धीरे धीरे वह परिपक्व हुई हैं और अब पिता की सलाह पर गौर भी करने लगी हैं. कुछ दिनों पहले गुलजार द्वारा निर्देशित किरदार धारावाहिक के एपिसोड यूटयूब में देखा. सिकोड़ में दो पीढ़ियों की कहानी दिखाई गयी है. इसमें दो दोस्त जो विभाजन के दौरान बंट चुके हैं. दोनों एक जगह एकत्रित होते हैं. और उनके साथ उनके बच्चे भी आते हैं. दादा और बच्चों के जेनरेशन में बातें करने का अंदाज, जीवनशैली हर कुछ बदल चुकी है. बच्चे मां को भी यार कह कर बुलाते हैं और मां ऐतराज जताती है. दरअसल, यह हकीकत है कि एक जेनरेशन तभी नया होता है. जब एक जेनरेशन पुराना होता है. बढ़ती उम्र के साथ हम नयी उमंग में होते हैं और हमें अपने माता पिता की बातें भी अच्छी नहीं लगतीं. धीरे धीरे हम उनकी उंगलियों से अपनी उंगलियां छोड़ कर भाग निकलते हैं. माता पिता उन्हें कच्ची उम्र का समझ कर उनका साथ देना चाहते हैं. लेकिन हम उनकी उंगलियां पकड़ कर चलना नहीं. बल्कि उन्हें चलाना और सिखाना चाहते हैं.

सत्यजीत रे की ट्राइलॉजी


लंदन में रहनेवाले पॉल किंग सत्यजीत रे की फिल्मों के दीवाने हैं. और यही वजह है कि  वे सत्यजीत रे की अपु ट्राइलॉजी से प्रभावित हैं. अपनी आगामी फिल्म पैडिंगटन में वे अपु ट्राइलॉजी के कई दृश्य जिनसे वे प्रभावित हैं. उन्हें अपने अंदाज में दर्शायेंगे. वे स्वीकारते हैं कि सत्यजीत रे एक अलग मिजाज के निर्देशक थे. और उनकी फिल्मों में संवेदना अलग तरह से दर्शाई जाती रही है और यही वजह है कि पॉल सत्यजीत रे से प्रभावित होकर अपनी फिल्मों में उन्हें जिंदा रखने की कोशिश करना चाहते हैं. जहां हर बार भारतीय फिल्मों पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि भारतीय फिल्में विदेशी फिल्मों से प्रभावित होती हैं. वही जब ऐसी खबर आती है तो निश्चित तौर पर यह बात महसूस होती है कि सत्यजीत रे की फिल्मों में जो संवेदना थी वह यूनिवर्सल थी. जो लोगों के दिलों को अब भी छूती है. दरअसल, फिल्में भले ही किसी भी पृष्ठभूमि पर बनी हो. किसी भी परिस्थिति में बनी हो. लेकिन अगर उसकी संवेदना व भावना दुनिया में किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति के दिल तक पहुंचती है तो स्पष्ट है कि उस फिल्म की व्यापक पहुंच है. हाल के दौर में रितेश बत्रा की फिल्म लंचबॉक्स ने कुछ इसी अंदाज में अपने आॅडियंस की तलाश की. यह फिल्म भारत से अधिक विदेशों में देखी गयी. जिस वक्त यह भारत में रिलीज भी नहीं हुई थी. विदेश में इसने बॉक्स आॅफिस पर बेहतरीन कमाई कर ली थी. लंचबॉक्स में जो कहानी दिखाई गयी. उससे दुनिया का हर व्यक्ति खुद को जुड़ा महसूस करता है. यों तो आइडिया के स्तर पर दो अलग अलग स्थानों पर बैठा व्यक्ति भी किसी एक आइडिया से प्रभावित हो सकता है. जैसे राजकुमार हिरानी ने स्वीकारा कि उनकी फिल्म पीके की कहानी पहले इनस्पेशन की तरह लिखी गयी थी. लेकिन बाद में उन्हें बदलाव करने पड़े. दरअसल, फिल्म किसी एक केंद्र बिंदू पर हर किसी को प्रभावित करती है
शमिताभ अमिताभ 

अमिताभ बच्चन se हाल ही में मुलाकात हुई।  उनकी नयी फिल्म शमिताभ के सिलसिले में।  वे इस फिल्म को लेकर बेहद उत्साहित हैं।  आम तौर पर वह  अपनी फिल्मों में बारे में कभी अधिक प्रशंसा करते नजर नहीं आते।  लेकिन इस बार उन्होंने दावा किया है कि फिल्म का जो प्लाट है।  इस प्लाट पर अबतक कोई हिंदी फिल्म नहीं बानी है। निस्संदेह बात अमिताभ ने  कही है तो कहीं न कहीं इसमें हकीकत भी हो।  अमिताभ ने इसी बातचीत के दौरान कहा कि हम कभी भी उस चीज की फ़िक्र नहीं करते , जो हमारे पास है। लेकिन जब हम उसे खोते हैं तो हमें एहसास होता है कि उस चीज की जिंदगी में क्या एहमियत है। उन्होंने दोहराया कि शमिताभ इसी सोच के इर्द गिर्द बनी कहानी है। अमिताभ ने बताया कि किसी दौर में उन्होंने अपने हाथों का आधा हिस्सा खो दिया था।  उस वक़्त उन्हें किसी और का सहारा लेना पड़ता था।  उस वक़्त उन्होंने महसूस किया था कि हाथ की क्या एहमियत है।  उसी दिन उन्होंने यह भी बताया कि वह हेपेटाइटिस बी से भी ग्रसित हैं।  फिल्म कूली के दौरान जब उन्हें चोट आई थी और वह अस्पताल में थे उस वक़्त उन्हें जो रक्त चढ़ाया गया था।  उसमे से किसी व्यक्ति का रक्त संक्रमित था।  सो, अमिताभ इन दिनों लोगों को इस बीमारी से बचने के लिए जागरूक कर रहे हैं।  उन्हें ख़ुशी है कि पोलियो मुक्त भारत बनाने में उनका छोटा ही सही मगर योगदान तो है। दरअसल , अमिताभ शायद शमितभ में अपने किरदार को भलीभांति इसलिए निभा पा रहे चूँकि वे खुद को सम्पूर्ण होकर भी सम्पूर्ण नहीं मानते।  उन्हें कई बीमारियां हैं और वे हर दिन इससे जूझते हैं।  लेकिन उनके चेहरे की चमक और तेज दर्शाता हैं  कि वह  सकारात्मक तरीके से जी रहे हैं और खुश हैं।  वह वास्तविक जिंदगी में भी शमितभ ही हैं।  और खुद अपने दोहरी जिंदगी से लड़ रहे और आगे बढ़ रहे।  एक तो सुपरस्टार वाली जिंदगी और दूसरी एक ७२ वर्ष के बुजुर्ग , कई बीमारियों से जूझते हुए।  

व्यंग पर हमला


 पेरिस के एक मैग्जीन के दफ्तर में घुस कर पत्रकारों की हत्या की गयी. यह पूरी दुनिया में पत्रकारिता के लिए शर्मनाक है. कार्टून व कार्टूनिस्ट पर इससे भी पहले विवाद होते रहे हैं. भारत में इससे पहले भी कार्टूनिस्टों पर हमले होते रहे हैं. सिर्फ कार्टूनिस्ट नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कई माध्यमों पर विवाद होते रहे हैं. हमले होते रहे हैं. अभी कुछ दिनों पहले ही आनंद पटवर्धन की फिल्म राम के नाम की स्क्रीनिंग पर रोक लगाई गयी. बाद में फिल्म यूटयूब पर जारी की गयी. इन दिनों भारत में सोशल मीडिया नेटवर्क पर कई माध्यमों से राजनीतिज्ञ, पत्रकारों व फिल्मी दुनिया की हस्तियों के मजाक बनाये जा रहे हैं.  एकता कपूर, शाहरुख खान ऐसे व्यंगात्मक धारावाहिकों के मजे लेते हैं. यहां तक की गोलडन केला अवार्ड जैसे पुरस्कार भी स्वीकारते हैं. खुद विनोद दुआ जो कि बेहद लोकप्रिय पत्रकार हैं, उन्होंने हाल में अपने ऊपर बनाये व्यंगात्मक वीडियो को अपने वॉल पर शेयर किया. इससे न सिर्फ यह प्रतीत होता है कि वे इस विधा को समझते हैं. बल्कि यह भी कि वह अभिव्यक्ति की स्वत्रंता की इज्जत भी करते हैं. व्यंग की दुनिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण सूत्र रहे हैं. भारत में आरके लक्ष्मण जैसे कार्टूनिस्ट इसलिए लोकप्रिय और प्रतिष्ठित माने गये. चूंकि उन्हें वह सम्मान दिया गया. लेकिन धर्म के नाम पर जिस तरह दुनिया में दंगे हो रहे. हमले हो रहे. आनेवाले समय के लिए यह कठिन समय है. बेहद जरूरी है कि देश को धर्म निरपेक्ष राज्य के रूप में देखा जाये. वरना, खुदा, ईश्वर के नाम पर यूं ही जान जाती रहेंगी. हकीकत यह है कि फिलवक्त पूरी दुनिया में महज व्यंग ही एकमात्र विधा जिंदा है, जिसके माध्यम से वार किया जा सकता है. ताकि चोट लगे भी हो. लेकिन चोट देने वाले उजागर न हो. यह कठिन समय है. जहां धर्म के नाम पर केवल नकारात्मक घटनाएं घटित हो रही हैं. 

सुपरस्टार्स की जोड़ी


 सैफ अली खान ने अपने करियर के शुरुआती दिनों में अक्षय कुमार के साथ फिल्म मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी में काम किया था. फिल्म में वह फिल्म स्टार की भूमिका में थे और वे वास्तविक जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहते थे कि लोग उन्हें असल दुनिया में भी हीरो मानने लगे. शुरुआती दिनों अक्षय कुमार और अजय देवगन ने कुछ फिल्मों में साथ काम किया. सलमान खान और आमिर खान ने अंदाज अपना अपना में साथ काम किया, शाहरुख सलमान ने भी कुछ फिल्में कीं. ऋतिक रोशन और शाहरुख खान ने साथ में सफल फिल्म कभी खुशी कभी गम में साथ काम किया. आमिर और अजय ने साथ साथ इश्क में काम किया. शाहरुख और सैफ ने भी कल हो न हो में साथ काम किया. लेकिन आज ये जोड़ियां कभी भी किसी फिल्म में साथ नजर नहीं आयेंगी. चूंकि सभी ने सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर लिया है. अब ये जोड़ियां बनना असंभव है. निर्देशकों की चाहत है कि वे दो सुपरस्टार को लेकर किसी एक फिल्म का निर्माण करें.लेकिन आज हर स्टार अपने ओहदे को पहचानते हैं और अपनी कीमत जानते हैं. सो, निर्देशकों के पास इन दिनों नये कलाकारों को चुनने के सिवा कोई और विकल्प है ही नहीं. खबर है कि वरुण धवन और शाहरुख रोहित शेट्ठी की फिल्म में साथ नजर आयेंगे. वरुण अपने करियर के शुरुआती दौर में हैं और उनके लिए शाहरुख के साथ काम करना किसी जैकपॉट से कम नहीं. ठीक उसी तरह जैसे ऋतिक ने अपने करियर के शुरुआती दौर में शाहरुख के साथ कभी खुशी कभी गम क़िया. लेकिन आज वह शाहरुख के समंतर खड़े हैं. इसमें उनकी मेहनत और लगन है. उन्होंने अपनी खास पहचान बनायी. वरुण धवन को भी यह निर्णय लेना होगा कि वह बरगद के पेड़ के नीचे रह कर छाव लेना चाहेंगे या अपना आकाश खुद बनायेंगे. 

ाायोपिक बॉलीवुड


पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड  में बायोपिक फिल्मों को अहमियत मिली है. मैरी कॉम, भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्मों ने हौसला बढ़ाया. बॉलीवुड में इस साल भी बायोपिक फिल्मों का दौर रहेगा. 

 हवाईजादा
विभु पुरी की फिल्म हवाईजादा भी एक बायोपिक फिल्म है. यह फिल्म शिवाकर बापूजी तलपड़े पर आधारित है. फिल्म के निर्देशक का मानना है कि यह तलपड़े पर आधारित फिक् शनल बायोपिक है. शिवाकर तलपड़े ने भारत का पहला अनमैन्ड हवाई जहाज बनाया था. उन्होंने 1895 में ही इसका निर्माण कर लिया था. राइट ब्रदर्स से भी पहले. फिल्म में आयुष्मान खुरादा मुख्य किरदार निभा रहे हैं. यह फिल्म पीरियड ड्रामा के रूप में दर्शाई जा रही है. और इस साल की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक है.
एमएस धोनी
झारखंड के एमएस धोनी पर स्पेशल 26, बेबी, अ वेडनेस डे जैसी फिल्में बना चुके निर्देशक नीरज पांडे फिल्म बनाने जा रहे हैं. इस फिल्म में महेंद्र सिंह धोनी के रांची से लेकर पूरी दुनिया में छा जाने तक के सफर को दर्शाया जायेगा. इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत मुख्य किरदार निभा रहे हैं.  धोनी किस तरह छोटे शहर से आये और उन्होंने भारत को वर्ल्ड कप विजेता बनाया. इस पर भी फिल्म प्रकाश डालेगी. साथ ही उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के कई पहलुओं को भी फिल्म में दर्शाया जायेगा. सुशांत सिंह राजपूत का मानना है कि धोनी कई लोगों के लिऐ प्रेरणा के स्रोत हैं और वह खुश हैं कि उन्हें धोनी का काल्पनिक पात्र निभाने का मौका मिल रहा है.
मोहम्मद अजहरुद्दीन
एमएस धोनी के साथ साथ एकता कपूर मोहम्मद अजहरुद्दीन पर भी बायोपिक फिल्म बना रही हैं. इस फिल्म का निर्देशन कुणाल देशमुख कर रहे हैं. फिल्म में लीड किरदार इमरान हाशमी निभा रहे हैं. प्राची देसाई फिल्म में अजहर की पहली पत् नी का किरदार निभा रही हैं. यह भी खबर है कि करीना फिल्म में संगीता बिजलानी का किरदार निभायेंगी.
संजय दत्त पर बायोपिक
राजकुमार हिरानी संजय दत्त पर बायोपिक बनाने जा रहे हैं. चूंकि संजय दत्त की जिंदगी में काफी उतार चढ़ाव रहे हैं. सो, राजकुमार हिरानी चूंकि संजय के बेहद करीब हैं. उन्होंने निर्णय लिया है कि वह फिल्म बनायेंगे. परदे पर संजय दत्त को रणबीर कपूर दर्शायेंगे. जी हां, रणबीर फिल्म में लीड भूमिका निभाने वाले हैं.
अमृता प्रीतम
साहिर लुधियानवी व अमृता प्रीतम की प्रेम कहानी पर आधारित बायोपिक का निर्माण जल्द ही शुरू होगा. इस फिल्म में अमृता का किरदार सोनाक्षी सिन्हा निभाने जा रही हैं. खबर है कि फिल्म में साहिर का किरदार इरफान खान निभा रहे हैं.
चार्ल्स सोबराज
मैं और चार्ल्स नामक बायोपिक फिल्म के निर्माण की भी शुरुआत हो चुकी है. इस फिल्म में लीड किरदार रणदीप हुड्डा निभा रहे हैं. फिल्म में मुख्यत: चार्ल्स सोबराज के तिहार जेल से भाग जाने वाली घटना व उनसे जुड़ी दिलचस्प घटनाओं पर प्रकाश डाला जायेगा.
आनेवाले सालों में 
अनुराग बसु की इच्छा थी कि वे रणबीर कपूर को लेकर किशोर कुमार की जीवनी पर बायोपिक फिल्म बनायें. लेकिन किशोर कुमार के परिवार के एक मत न होने पर फिलहाल बसु ने यह प्रोजेक्ट बंद कर दिया है. इनके अलावा खबर है कि करण जौहर ने हॉकी के लीजेंड ध्यानचंद पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया है. और संभव है कि फिल्म में शाहरुख खान उनका किरदार निभायेंगे. अनुराग कश्यप मानव अधिकार एक्टिविस्ट शाहिद आजमी पर फिल्म बना रहे हैं. साथ ही वह लोकप्रिय गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह पर भी फिल्म बनाने में दिलचस्पी ले रहे हैं. इनके अलावा विद्या बालन की भी इच्छा है कि वह आगे भी बायोपिक फिल्म का हिस्सा बनें. 

मैं खुद चाहती थी कि बेबी मुझे मिले : तापसी पन्नू


तापसी पन्नू इस इस बात से खुश हैं कि उन्हें फिल्म बेबी में अपना अलग अंदाज दर्शाने का मौका मिला है. पेश है  
मैं संतुष्ट हूं
मुझे इस बात की कोई हड़बड़ी नहीं कि मुझे और फिल्में मिलेंगी या नहीं. अभी मेरे पास मौके हैं या नहीं. मुझे लगता है कि मैं सोच कर  फिल्मों की दुनिया में नहीं आयी थी. मैं तो सिर्फ पॉकेट मनी के लिए आ गयी थी. मॉडलिंग करती थी तो अच्छे पैसे आ जाते थे. लेकिन धीरे धीरे जब फिल्में मिलने लगी तो लगा कि मैं इस करियर में अपना नाम बना सकती हूं. वरना, मैं तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी और मैं बहुत अच्छी स्टूडेंट थी. मुझे लगा था कि आगे मैं किसी अच्छे कॉलेज से एमबीए करके अच्छी नौकरी करूंगी. हां, मगर मुझे डेस्क जॉब नहीं करता था. इसलिए इंफोसिस की नौकरी छोड़ दी. मैं अपने काम से संतुष्ट हूं. मुझे फिल्में पाने के लिए किसी गलत रास्ते पर जाने की जरूरत नहीं. मेरी मेहनत है तो मिल जायेगी मुझे फिल्में.
लोगों को लगता है मैं साउथ इंडियन हूं
एक सरदारन कैसे साउथ फिल्मों में काम कर सकती हैं. लोग मेरे बारे में ऐसा ही सोचते हैं. मेरा नाम भी थोड़ा वैसा ही है. तापसी पन्नू. सुना सुना सा नाम नहीं है. तो लोगों को लगता है कि मैं साउथ की ही रहनेवाली हूं. लेकिन हकीकत यह है कि मेरी शुरुआत साउथ से इसलिए हुई कि क्योंकि मुझे साउथ से ज्यादा अच्छे आॅफर मिले तो मैंने वहां काम शुरू कर दिया. 4 साल के करियर में लगभग 16 फिल्मों में काम कर लिया है. मैंने तय किया है कि मैं दोनों तरफ काम करती रहूंगी.
बेबी करनी ही थी 
वैसे मुझे आदत नहीं है कि मैं किसी फिल्म के पीछे भागूं. लेकिन बेबी में जैसा किरदार है. मैंने इस फिल्म के पीछे खुद को बहुत भगाया. फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे को लगता था कि चश्मेबद्दूर में स्वीट सी दिखने वाली लड़की बेबी में रफ एंड टफ कैसे दिख सकती है.लेकिन मैं जब आयी तो पहले फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर से मिली. फिर वे कनविंस हुए कि मैं ये किरदार कर सकती  हूं तो फिर मेरा चुनाव हुआ. इस फिल्म से मैं अपनी बबली सी दिखने वाली इमेज बदलना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि मैं रफ एंड टफ दिखूं. इस फिल्म की खासियत है कि फिल्म में संवाद बहुत कम हैं. जबकि चश्मेबद्दूर में और मेरी आनेवाली फिल्म रनिंग शादी डॉट कॉम में मैंने काफी बातें की हैं. सो, मुझे लगता था कि यहां मुझसे संवाद क्यों नहीं बोलवा रहे हैं. लेकिन आप फिल्म देखेंगे तो समझ लेंगे कि फिल्म में मेरे संवाद कम क्यों हैं.
मम्मी फिल्मों की फैन
मेरी मां हमेशा से फिल्मों की फैन रही हैं. वह धर्मेंद्र की बहुत बड़ी फैन हैं. तो उन्हें खुशी होती है कि मेरी फिल्में आ रही हैं. मेरे बारे में अखबारों या मैगजीन में आये तो वह उसकी कटिंग निकाल कर रखती हैं. यह मां की बड़ी खूबी है कि उन्हें अपनी बेटी के काम से खुशी है. पहले पापा को परेशानी थी. लेकिन अब उन्हें भी मेरा करियर अच्छा लग रहा है.
अक्षय के साथ अनुभव
अक्षय के साथ काम करके मजा आया. चूंकि यह फिल्म एक् शन पर ही आधारित  है तो जाहिर है अक्षय के साथ काम करने का अनुभव भी शानदार रहा. काफी कुछ सीखा उनसे. साथ ही मैंने अपने किरदार के लिए कार्व मागा सीखा है. इस बात की मुझे खुशी है कि इस फिल्म के बहाने मुझे कुछ नया करने का मौका मिला. आगे भी मुझे ऐसी फिल्में मिलेंगी तो मैं करती रहूंगी. 

वॉटरब्वॉय आबिद सुरति


आबिद सुरति पेशे से तो लेखक,पेंटर, कार्टूनिस्ट हैं.जो धर्मयुग पत्रिका के नियमित पाठक रहे हैं. वे धब्बूजी को नहीं भूल  सकते. उन्होंने बहादुर नामक एक ऐसा कॉमिक किरदार रचा, जिसे लाखों प्रशंसक मिले. 80-90 के दशक में जिन जेनरेशन ने बढ़ना सीखा होगा, वे इंद्रजाल कॉमिक के रोचक जाल में न फंसे हों. ऐसा हो ही नहीं सकता. गौरतलब है कि किसी दौर में राज कपूर की बेहद इच्छा थी कि वे आबिद द्वारा गढ़े किरदार इंस्पेक्टर आजाद पर आधारित फिल्म बनाये. आबिद सुरति का यह अकाडेमिक परिचय है. लेकिन व्यक्तित्व के रूप में इन्हें जानना आवश्यक इसलिए है. चूंकि मुंबई में जहां जिंदगी भागती रहती है. हर दिन एक जिंदगी दूसरी जिंदगी से टकराती है. लेकिन वे बेपरवाह अपनी धुन में आगे बढ़ जाती है. आबिद इस दौर में भी थमते हैं और एक महान कार्य करते हैं. आबिद मुंबई के उन सारे स्थानों पर जहां पानी के नल खराब हैं और बेवजह पानी बर्बाद हो रहे. उन नलों की या तो मरम्मत कराते हैं या फिर जहां नल खुले हैं. उन्हें बंद करते हैं. आबिद मानते हैं कि इससे देश को नहीं तो कम से कम अपने राज्य मुंबई जहां पानी की बहुत किल्लत है. पानी की परेशानी से बचाया जा सकता है. आबिद अपने मां के संघर्ष के दिनों को याद करते हैं. चूंकि उस वक्त लंबी कतार में लग कर उनकी मां को पानी भरना पड़ता था. सो, वह इसकी कीमत अच्छी तरह से समझते हैं. दरअसल, आबिद जैसी शख्सियत केवल नाम और चकाचौंध की दुनिया को तवज्जो नहीं देते. वे अपने कर्तव्यों में विश्वास करते हैं. आबिद जैसी शख्सियत हमारे लिए प्रेरणास्रोत हैं. सलमान खान के पिता सलीम खान की भी कोशिश होती है कि वे बैंड स्टैंड को साफ सुथरा रखने की कोशिश करें और उन्होंने कई बच्चों को रोजगार भी मुहैया कराया है. ऐसे छोटे छोटे प्रयास सराहनीय हैं और इन्हें उजागर करना ही चाहिए.

दर्शक व शिकायतें


हाल ही में एक अंगरेजी अखबार ने टीवी कंटेंट को लेकर बीसीसीसी में दर्ज हुई शिकायतों पर एक आलेख प्रकाशित किया था. उस आलेख में वे सारी शिकायतों को शामिल किया गया है, जो अब तक बीसीसीसी में दर्ज हुए हैं. आश्चर्यजनक बात यह है कि दर्शकों ने धारावाहिकों व शोज के कंटेंट को लेकर जो शिकायत दर्ज की है. वह दरअसल, शिकायत नहीं उनकी जिज्ञासा है. किसी ने कुछ धारावाहिकों को धर्म विरोधी माना है तो कुछ दर्शकों ने यह शिकायत दर्ज की है कि हम इस एपिसोड का पुन: प्रसारण कैसे देख सकते  हैं. कुछ दर्शकों की शिकायत है कि किरदार का नाम यह क्यों है. यह क्यों नहीं...दरअसल, भारत में अब तक बड़े दर्शक वर्ग में जब फिल्में देखने की सभ्यता और उसे परखने की सभ्यता का विकास नहीं हुआ है तो टेलीविजन तो अब भी लोग बिल्कुल हल्के में लेते हैं. इस कमिटी का गठन और इसे लागू इसलिए किया गया था ताकि दर्शकों को कंटेंट को लेकर अगर कुछ अश्लीलता या हिंसा या फिर कुछ भी आपत्तिजनक चीजें नजर आती हैं तो वे इसे लेकर शिकायत कर सकते हैं. लेकिन दर्शकों के शिकायत के  स्तर को देख कर यह तसवीर स्पष्ट होती है कि दर्शकों के बड़े तबके के लोगों में अब भी जागरूकता नहीं. समझ नहीं. टीवी देखने की कला से वे रूबरू नहीं. वे इस कमिटी को गंभीरता से नहीं ले रहे. वे चीजों से बेपरवाह हैं. जो बुरी चीजें परोसी जा रही हैं. वे इसे आम फीडबैक बॉक्स की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. जबकि अगर वह गंभीरता से इसे लें तो वैसी कई चीजें टीवी पर प्रसारित होने से रोकी जा सकती है, जो वाकई उचित नहीं है. भारत में यों ही बमुश्किल कानून या कमिटी का गठन हो पाता है और वह सुचारू रूप से काम कर पाती है. अगर इस तरह की बचकानी शिकायतें मिलेगी तो संभव है कि कुछ दिनों में मूर्तरूप धारण कर लेगी. 

2014 लेखा-जोखा


आज साल का आखिरी दिन है. हर साल की तरह इस का भी लेखा जोखा हर अखबार में प्रकाशित है. बॉलीवुड के लिए वर्ष 2014 चौंकानेवाला साल है. चूंकि इस साल नयी प्रतिभाओं को मौके बेहद कम मिले हैं. ज्यादातर कामयाबी फिल्मी खानदान से जुड़े लोगों को मिली है. खान्स का दबदबा बना रहा. नयी कहानियों को खास मौके नहीं मिले. यह बॉलीवुड के लिए सोचनीय बात है. चूंकि यहां बेहद जरूरी है कि वैसी फिल्मों का भी निर्माण हों, जिससे नयी प्रतिभाएं जुड़ी रहें. इस साल बॉलीवुड जगत में अगर किसी ने सबको चौंकाया तो वह है सोशल मीडिया पर स्पूफ बनानेवाली टीम. जिनमें टीवीएफ, एआइवी  सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहे. सेलिब्रिटीज ने इन्हें भी अपनी पब्लिसिटी का माध्यम बनाया और इनके शोज भी हिट होते रहे. हालांकि एक अच्छी बात यह भी हुई है कि अब यूटयूब पर भी धारावाहिकों के प्रसारण का प्रचलन शुरू हुआ है. इसी साल एक खास बात यह रही कि टेलीविजन जगत को जिंदगी नामक शगुफा मिला. जिंदगी चैनल की वजह से ही फवाद खान जैसे बेहतरीन कलाकार को बॉलीवुड में एंट्री मिली और जल्द ही अब माहिरा खान भी शाहरुख के साथ लीड किरदार में नजर आयेंगी. जिंदगी चैनल ने टेलीविजन शोज का नजरिया बदला. वर्षों से हम सोप ओपेरा की बातें सुनते आ रहे थे. उसका वास्तविक रूप अब निखर कर सामने आया. शो, कांसेप्ट हर रूप में जिंदगी ने टेलीविजन के भारतीय अवतार को ललकारा और नतीजन कुछ नये मिजाज के धारावाहिकों के निर्माण की शुरुआत हो रही है. यह साल बॉलीवुड में आलिया भट्ट के नाम रहा. साल में उनकी चार फिल्में रिलीज हुईं और चारों फिल्में कामयाब रहीं. रणदीप हुड्डा को भी हर फिल्म में सराहा गया. तीनों खान एक साथ एक मंच पर आये. करन अर्जुन साथ आये. 

अभिनेता अभिनेत्री का श्र म


प्रियंका चोपड़ा मधुर भंडारकर के साथ फिल्म मैडमजी का निर्माण शुरू नहीं कर पा रही हैं. चूंकि उन्होंने जो डेट्स मधुर की फिल्म के लिए निकाल रखा था. वह उन तारीखों में व्यस्त हैं. चूंकि उनकी फिल्म बाजीराव मस्तानी की शूटिंग और आगे बढ़ा दी गयी है और इस वजह से प्रियंका मैडमजी कर पाने में असमर्थ हैं. लेकिन प्रियंका ने इसके लिए आलेख लिखने तक  संजय लीला भंसाली से अतिरिक्त धनराशि की मांग नहीं की है. वही दूसरी तरफ ऋतिक रोशन ने साफतौर पर यह घोषणा की है कि अगर उन्हें कोई भी निर्देशक उनके निर्धारित दिन से अधिक दिन में शूटिंग के लिए बाधित करता है तो वह प्रत्येक दिन के अनुसार अलग  से फीस की डिमांड करेंगे और इस बात से आशुतोष ग्वारिकर बेहद परेशान हैं. चूंकि वह जिस फिल्म का निर्माण कर रहे हैं, उनमें उन्हें अधिक दिनों की आवश्यकता भी पड़ सकती है और ऐसे में अगर अधिक धनराशि देनी पड़े तो उनका बजट बिगड़ सकता है. गौर करें, तो यहां भी अभिनेत्री की सोच व अभिनेता की सोच में फर्क है. एक तरफ अभिनेत्री के जेहन में यह बात है कि उन्हें संजय लीला भंसाली की फिल्म में काम करने का मौका मिल रहा है और इसके लिए वे अपनी बाकी फिल्मों को आगे बढ़ा रही हैं. लेकिन दूसरी तरफ अभिनेता यह मानने को तैयार नहीं. दरअसल, बॉलीवुड में यों ही अभिनेत्रियों को मेहनताना कम मिलता है और यही मानसिकता है कि भिनेत्री अभिनेताओं से अधिक शारीरिक श्रम नहीं करती हैं. जबकि प्रियंका, दीपिका, विद्या बालन के बारे में सभी जानते हैं कि ये सभी अभिनेत्रियां बेहतरीन अदाकारा हैं और मेहनती भी हैं. फिल्म बर्फी में जितना रणबीर कपूर ने कमाल किया. प्रियंका द्वारा निभाया किरदार झिलमिल भी सबके करीब है. लेकिन फिर भी चर्चा बर्फी की ही अधिक हुई है. जबकि दोनों समान तारीफ के काबिल हैं.

अनुराग की चोखेर बाली


अनुराग बसु ने निर्णय लिया है कि वे छोटे परदे पर चोखेर बाली नामक धारावाहिक का निर्माण व निर्देशन करें. जहां एक तरफ अनुराग कश्यप का मन फिलहाल छोटे परदे से उखड़ा सा है. अनुराग बसु चोखेर बाली बनाने की तैयारी में हैं. इस शो में राधिका आप्टे प्रमुख भूमिका निभा रही हैं. अनुराग बसु से जब भी बातचीत होती है. वे हमेशा इस बात को दोहराते हैं कि टेलीविजन की दुनिया ने उन्हें पैसा बनाना सिखाया और काम करना सिखाया. उन्होंने लंबे अरसे तक टेलीविजन के लिए काम किया है. चूंकि वे मानते हैं कि वहां हर दिन के लिए आपको तैयार होना पड़ता है. हर दिन एपिसोड की डेडलाइन होती है. जबकि फिल्म में आप सिर्फ एक विषय के इर्द गिर्द काम करते हैं. सो, वे हमेशा नये लोगों को सलाह देते हैं कि टेलीविजन करें. उससे रोजी रोटी मिलती है और पहचान भी मिलती है. तर्जुबा तो होता ही है. हालांकि युवा जिन्हें फिल्मों में अपनी पहचान बनानी है. वे इन बातों पर अमल न के बराबर ही करते हैं. उन्हें यही महसूस होता है कि फिल्मों में ही उन्हें काम मिलेगा और उन्हें फिल्में ही करनी है. इस वजह से वे अपने हाथ में टेलीविजन के आये कामों को भी न कह देते हैं. और यही वजह है कि कई युवा सिर्फ सपने देखते रह जाते हैं. यह कड़वा सच है कि बॉलीवुड में एंट्री हासिल करना टेढ़ी खीर है. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि आप अपने लिए सीढ़ियां नहीं बना सकते. कई लोगों के जेहन में यह बात होती है कि टेलीवुड का सम्मान नहीं है. टेलीवुड में सारे बुरे ही धारावाहिक बनते हैं. हो सकता है कि अभिनय के दृष्टिकोण से अभिनेता व अभिनेत्रियों को थोड़ी परेशानी हो भी. मगर परदे के पीछे काम कर रहे तकनीशियनों के लिए यह सीखने का अच्छा मौका होता है और इस अवसर का उन्हें जम कर फायदा उठाया जाना चाहिए. ताकि उन्हें आगे बॉलीवुड में मदद मिले.

आॅस्कर का शोर शराबा

 इन दिनों कई बॉलीवुड हस्ती जम कर इस बात का प्रोमोशन कर रहे हैं कि उनकी फिल्म आॅस्कर का हिस्सा बन रही हैं. उनकी फिल्म को आॅस्कर में यह मान सम्मान मिल रहा है. जबकि हकीकत यह है कि आॅस्कर के इस शोर शराबे के बीच एक बड़ी हकीकत यह है कि आॅस्कर भारत से इन फिल्मों को नामांकित नहीं कर रहा, बल्कि आॅस्कर के कई सेगमेंट ऐसे भी होते हैं, जिसमें फिल्म के निर्देशक या कलाकार एक निश्चित राशि देकर वह सेगमेंट खरीद कर अपनी चीजें वहां प्रस्तुत कर सकते हैं. आॅस्कर को लेकर हर वर्ष यह शोर मच रहा. न सिर्फ आॅस्कर बल्कि कान महोत्सव में भी भारत के कई आर्थिक रूप से संपन्न निर्माता अपने बेटे या बेटी की फिल्मों के लिए वहां के स्थान खरीदते हैं और फिर उनकी पब्लिसिटी करते हैं. लेकिन भारत में अखबारों या चैनलों में इन बातों को इस तरह दर्शाया जाता है, मानो उन्हें वाकई वह सम्मान मिल रहा हो. और दर्शक भी उन्हें देख कर यही अनुमान लगाते हैं और सच मान बैठते हैं. जबकि यह बेहद जरूरी है कि दर्शक या पाठक भी अपनी बुद्धि का प्रयोग करें. वे इन अवार्ड या फिल्मोत्सव के  आॅफिशियल वेबसाइट पर जायें और वहां जाकर सारे सेगमेंट देखें. उन्हें खुद ब खुद इसकी जानकारी हासिल हो जायेगी. फिल्म जेड प्लस में लेखक व निर्देशक ने इस बात को बखूबी दर्शाया है कि किस तरह आम आदमी को बेवकूफ बनाया जाता है. किस तरह मोहरा भी आम आदमी होता है और शिकार भी. दर्शकों के लिए भी यह बात लागू होती है. जिन फिल्मों को भारत में एक भी दर्शक न मिले हों. उन्हें कैसे आॅस्कर में स्थान मिल जायेगा. हमें इस तरह भी अपनी सोच का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. वर्षों से कई फिल्मकार दर्शकों को बेवकूफ बनाते आ रहे हैं. लेकिन अब दर्शकों को चाहिए कि वे अपनी बुद्धिमता से समझें और फिर सूझबूझ रखें.

युद्ध की विफलता


अनुराग कश्यप ने स्वीकारा है कि सोनी टीवी पर प्रसारित धारावाहिक युद्ध कामयाब नहीं रहा. इसकी वजह यह थी कि अमिताभ बच्चन महानायक हैं और उन्हें साधारण व्यक्ति के रूप में देख कर दर्शक चकित थे. इसके साथ ही अनुराग कश्यप ने माना है कि टेलीविजन पर विज्ञापन बहुत ज्यादा आते हैं और युद्ध जिस तरह का शो था. उसमें विज्ञापन की वजह से लोगों का लींक टूटा और धारावाहिक कमजोर साबित हुआ. टेलीविजन जगत में अपनी असफलता पर पहली बार किसी ने इस तरह की बात कही है. निस्संदेह अनुराग कश्यप सार्थक निर्देशक हैं और उन्होंने एक सटीक पहलू रखा है. चूंकि वर्तमान में किसी धारावाहिक के प्रसारण से पहले ही उनके विज्ञापन का प्रबंध कर लिया जाता है. अमेरिका या विदेशी धारावाहिकों में इस तरह की प्रथा नहीं है. लेकिन टेलीविजन जगत अब भी आर्थिक रूप से इतना मजबूत नहीं हुआ है कि वह बिना किसी विज्ञापन के प्रसारित हो सके. जाहिर सी बात है युद्ध को भी कई विज्ञापन मिले होंगे और बड़े ब्रांड्स जुड़े होंगे. चूंकि शो से अमिताभ बच्चन का नाम जुड़ा हुआ था. लेकिन दर्शकों की मानसिकता को समझना भी मुश्किल है. वही अभिनेता आॅरो के रूप में भी बड़े परदे पर दर्शकों को लुभाता है. कौन बनेगा करोड़पति की शान अमिताभ ही हैं. वहां भी वे आम व्यक्ति की तरह ही लोगों से बातें करते हैं. लेकिन वहां वे कामयाब हैं. विदेशी धारावाहिकों के तर्ज पर ही बनी 24 भी खास कमाल नहीं दिखा पाई थी. जबकि इस शो से भी बॉलीवुड के बड़े हस्ती का नाम जुड़ा हुआ था. अनुराग का मानना है कि अमेरिकी टीवी सीरिज  ट्रू डिटेक्टीव भी अगर विज्ञापन के साथ प्रस्तुत हो तो वह सामान्य नजर आयेगा. बहरहाल भारत में विज्ञापन के बिना कोई निर्माण कल्पना मात्र ही है. चंूकि मनोरंजन से विज्ञापन व मार्केट की दुनिया का अपना युद्ध है.

बदलते दौर के रिश्ते


ऋषि कपूर हाल में मुंबई के  जहांगीर आर्ट गैलरी के आर्ट एग्जीविशन के लिए उपस्थित थे. ऋषि ने इस दौरान अपनी पुरानी यादों को शेयर करते हुए कहा कि उनकी हमेशा से इच्छा थी कि वह पेंटर या सिंगर बनें. लेकिन वह एक्टर बन गये, बचपन में वह जहांगिर आर्ट गैलरी में हमेशा आया करते थे. और वहां जब उन्हें कोई सिर्फ ऋषि के नाम से पुकारता था तो उन्हें बेहद अच्छा लगता था. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अब दौर बदल गया है. यह जरूरी नहीं कि आप अपने बच्चे के साथ वही रिश्ता कायम रखें, जो कभी आपके और आपके पिताजी का था. अमिताभ बच्चन ने भी कुछ दिनों पहले यह बात शेयर की थी कि वे अपने पिता हरिवंशराय बच्चन के बेहद करीब थे. जबकि दोनों में ज्यादा बातचीत नहीं होती थी. लेकिन फिर भी अमिताभ अपने पिता से जुड़े रहे. लेकिन वही संवाद आज उनके और अभिषेक के बीच में नहीं हैं, क्योंकि जेनरेशन बदला है. पहले वह खामोशी हुआ करती थी. लेकिन फिर भी बातें होती थीं. अब बातें होकर भी बेवजह बातें नहीं होतीं. गौरतलब है कि ऋषि कपूर भी राज कपूर से काफी डरते थे और दोनों में अलग सा रिश्ता था. लेकिन फिर भी दोनों करीब थे. इन दिनों ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर कट्रीना के साथ अपने नये आशियाने में हैं. लेकिन ऋषि को यह बात पसंद नहीं. हालांकि वे खुद इस बात  को दोहराते हैं कि कपूर खानदान में बच्चों पर रोक टोक नहीं लगाई जाती. वे अपने निर्णय लेते हैं और फिर खुद ही गलतियों से सीखते हैं. जाहिर है इस बार भी वह उन्हें समझा नहीं रहे होंगे. लेकिन हकीकत यही है कि हर दौर में रिश्तों में बदलाव आते हैं. फिल्मी हस्तियां भी हमारी तरह आम इंसान ही हैं. वहां भी रिश्तों में बदलाव आना मुनासिब है. ऋषि कपूर की कभी इच्छा नहीं थी कि रणबीर सांवरिया जैसी फिल्मों से शुरुआत करें. लेकिन रणबीर खुद अपने निर्णय लेते हैं

अगली है अगली


कलाकार : सुरवीन चावला, राहुल भट्ट, रॉनित रॉय, तेजीस्वनी कोल्हापुरी
विनीत कुमार सिंह
रेटिंग : 2.5 स्टार

अनुराग कश्यप एक अलग किस्म की दुनिया जीते हैं. लेकिन उनकी दुनिया बिल्कुल आम जिंदगी से मेल खाती है.वे गलियों के ऐसे कोने तक पहुंच जाते हैं. जहां स्पाइ कैमरा भी न पहुंचता हो. आप कह सकते हैं कि अनुराग कश्यप बॉलीवुड के स्पाइ कैमरे वाले निर्देशक हैं. वे अपनी कहानियों में ऐसा दर्द दिखाते हैं,जिन्हें देख कर आप कांप जायें, कुछ इसी क्रम में वे फिल्म अगली लेकर आये हैं. फिल्म अगली का हर पात्र अगली है. वहां दोस्ती,प्रेम, पति, पत् नी, पिता पुत्री, पिता, पुत्र हर रिश्ते में सभी मतलबी  हैं. अनुराग के किरदार ग्रे शेड होते हैं और इस फिल्म में भी उनका वह मिजाज बरकरार है. लेकिन फिल्म एक अहम मुद्दे को खंगालती है. बच्चों को अगवाह किस तरह किया जा रहा है. कहानी वहां घूमती है. लेकिन इसी बीच कई कहानियां सामने आती है. एक नकारा अभिनेता है, जिसने शादी की है. लेकिन पत् नी से प्रेम नहीं. एक पत् नी है, जिसे पैसा चाहिए सो वह दूसरी शादी कर लेती है. एक पुलिस आॅफिसर है, जो पत् नी से प्रेम करता है. लेकिन जताता नहीं और उसका अंदाज बेहद डरावना है. एक दोस्त है, जो दोस्ती की आड़ में अपने दोस्त को ही उल्लू बना रहा है. फिल्म की कहानी एक बच्ची के गुमशुदा होने पर आधारित है. उसकी खोज में सभी लगे हुए हैं. पूरी पुलिस फौज लगी है. वह कई तरीकों से तलाश कर रही है. लेकिन अंत में जो चेहरा सबके सामने आता है. वह चौंकानेवाला है. इस बीच सबके असली चेहरे नजर आते हैं. अनुराग की यह फिल्म भी उनकी बाकी फिल्मों की तरह अलग मिजाज की है. हकीकत के बेहद करीब. लेकिन इस फिल्म में कई दृश्य बेमतलब बढ़ाये गये हैं. जो हरगिज बर्दाश्त नहीं होते. फिल्म किसी के कंधों पर टिकी है तो वह है रॉनित रॉय और दोस्त की भूमिका निभा रहे विनीत कुमार सिंह के. दोनों ने ही बेहतरीन अभिनय किया है. इस फिल्म से रॉनित का अभिनय और निखरा है और विनीत के रूप में दर्शकों को एक अच्छा कलाकार मिल चुका है. विनीत लगातार अपने अभिनय में निखार ला रहे हैं. आम दर्शकों को फिल्म बेहद रोचक नहीं लगेगी. हालांकि वे दर्शक जिन्हें हकीकत देखना पसंद है और थ्रीलर में यकीन रखते हैं. वे इन्हें पसंद करेंगे. फिल्म का अंतराल काफी ज्यादा है. फिल्म की कहानी देख कर यह महसूस होता है कि फिल्म को 1 से 1.5 घंटे में भी समेटा जा सकता था. 

जिंदगी में सांता


क्रिसमस के मौके पर सांता क्लॉज के आगमन की प्रथा है. हालांकि क्रिसमस बीत चुका है. लेकिन अब भी सीक्रेट सांता का स्वागत व आगमन जारी है. बी टाउन में इसे लेकर काफी उत्सुकता रहती है. इन दिनों दफ्तरों में भी सीक्रेट सांता का प्रचलन शुरू हुआ है. दरअसल, सांता की भी यही मान्यता है कि वह बच्चों को बता कर उन्हें तोहफे नहीं देते. सलमान खान बॉलीवुड के सांता में से एक हैं, जिनकी वजह से कई परिवार आबाद हैं. लेकिन वह इसका ढिंढोरा नहीं पीटते. अभिनेत्री परिणीति चोपड़ा मानती हैं कि आदित्य चोपड़ा उनकी जिंदगी के सांता हैं, क्योंकि उन्होंने उन्हें पहला मौका दिया. जबकि उन्हें पता भी नहीं था कि वह भी अभिनय कर सकती हैं. वह तो यशराज में नौकरी किया करती थीं. करन जौहर भी आदित्य चोपड़ा को ही अपना सांता मानते हैं, क्योंकि करन जौहर को बढ़ावा देने वाले, उन्हें प्रोत्साहित करने वाले भी वही हैं.  अली फजल मानते हैं कि राजकुमार हिरानी ने उन्हें पहला मौका दिया था और उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि उन्हें 3 इडियट्स जैसी फिल्म में काम करने का मौका मिल सकता है. और वह भी आमिर खान के साथ. सुशांत सिंह राजपूत को सबसे पहले शामक डाबर ने कहा था कि वह फिल्मों में कोशिश करें, चूंकि वे फिल्मों के लिए बने हैं. कुछ इसी तरह जॉनी वॉकर को बलराज साहनी ने पहचाना. तो वे शायद उनके सांता होते अगर आज वह जिंदा होते.दरअसल, हम अपनी जिंदगी में उनके कृतज्ञ हो जाते हैं, जिन्होंने ंहमें पहला मौका दिया हो. जिन्होंने हमें राह दिखाई हो. फिर हम उन्हें गुरु दिवस के  मौके पर गुुरु का नाम दें. या फिर क्रिसमस के मौके पर सांता का...लेकिन हकीकत यही है कि हर किसी की जिंदगी में एक सांता या सीक्रेट सांता जरूर होता है,जिन्हें हम जिंदगी भर प्यार लुटाते हैं. फिर चाहे उसका इजहार हो या न हो. 

अवार्ड समारोह का महीना

कंगना रनौट ने निर्णय लिया है कि वे अब अवार्ड समारोह का हिस्सा नहीं बनेंगी. उनका मानना है कि वहां जाकर वक्त की बर्बादी काफी होती है. और उन्हें काफी महंगे परिधान बनवाने पड़ते हैं. बाद में वह उन परिधानों का इस्तेमाल भी नहीं कर पातीं. वही पिछले कई सालों से आमिर खान ने स्पष्ट कर दिया है कि न तो उनकी फिल्में अवार्ड समारोह का हिस्सा बनेगी और न ही वे स्वयं. अजय देवगन को भी अवार्ड समारोह में दिलचस्पी नहीं है. हालांकि पिछले कुछ सालों से वे परफॉरमेंस देते नजर आ रहे हैं. वही इससे उलट उनकी पत् नी काजोल भले ही फिल्मों में नजर न आयें. अवार्ड समारोह में अवश्य नजर आती हैं. हाल ही में अवार्ड समारोह से जुड़ी ही एक खबर सामने आयी कि रणदीप हुड्डा को अवार्ड समारोह में बुलाया तो गया. लेकिन जब कई घंटों तक उनके अवार्ड की घोषणा नहीं की गयी तो वह अवार्ड  समारोह छोड़ कर चले गये.दरअसल, बॉलीवुड में इन दिनों इतने अवार्ड समारोह आयोजित हो रहे हैं कि कई कलाकारों में अवार्ड को लेकर उदासीनता ही देखने को मिल रही हैं. हालांकि अब भी कई कलाकार ऐसे हैं, जो अवार्ड समारोह में अवश्य नजर आते हैं. इनमें शाहरुख खान का नाम सबसे  ऊपर हैं. वे लगभग हर बड़े अवार्ड समारोह के हिस्सा होते हैं और उनकी एंकरिंग दर्शकों को बेहद पसंद है. पिछले कई सालों से अवार्ड समारोह में कई कहानियां बनते और बिगड़ते भी देखा गया है. रेखा अमिताभ का आमना सामना होते ही कैमरा उन पर  साधा जाता है. करीना ने कई सालों के बाद शाहिद को एक अवार्ड समारोह में ही हाय-हल्लो कहा. ऐश्वर्य राय बच्चन और सलमान खान का आमना सामना भी कई बार अवार्ड समारोह में ही होता है. रितेश देशमुख, फरहान अख्तर, शाहिद कपूर, शाहरुख खान और सैफ अली खान अवार्ड समारोह के लोकप्रिय एंकर हैं.

पीरियड फिल्मों की तरफ वापसी


जल्द ही हम नये साल में प्रवेश करेंगे. लेकिन बॉलीवुड इन दिनों पीछे मुड़ कर देखना चाह रहा. मसलन बॉलीवुड में एक बार फिर से एक साथ कई पीरियड फिल्में बन रही हैं. 

पीरियड फिल्में बनाना एक कठिन कला है. वह इस लिहाज  से की, पीरियड फिल्मों में सेट के निर्माण कार्य में काफी परेशानी होती है. उसमें काफी बजट की जरूरत होती है. सो, कई पीरियड पर आधारित स्क्रिप्ट आगे नहीं बढ़ पाती.लेकिन इन दिनों कई बड़े निर्देशकों ने पीरियड फिल्मों में अपनी दिलचस्पी दिखाई है. और ये फिल्में आनेवाले सालों में दर्शकों के सामने होंगी.
बांबे वेल्वेट
अनुराग कश्यप की बहुप्रतिक्षित फिल्म है बांबे वेल्वेट. इस फिल्म की शूटिंग श्रीलंका में की गयी है. फिल्म में रणबीर कपूर और अनुष्का शर्मा मुख्य किरदार निभा रहे हैं. यह फिल्म बांबे की कहानी पर आधारित है. चूंकि फिल्म पुराने बांबे की है. जब लोग इसे बांबे के रूप में जानते ते. मुंबई के नहीं. सो, यह फिल्म पीरियड फिल्म है. पीरियड फिल्म होने की वजह से फिल्म का बजट काफी अधिक है. पहले यह फिल्म पीके के साथ रिलीज होने वाली थी. लेकिन बाद में फिल्म की रिलीज तारीख आगे बढ़ा दी गयी है.
बाजीराव मस्तानी
संजय लीला भंसाली की फिल्म यों भी भव्य सेट पर आधारित होती है. लेकिन इस बार उनका विषय ही बाजरीव मस्तानी है. सो, निश्चिततौर पर फिल्म में पीरियड को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है. फिल्म में दीपिका, रणवीर सिंह और प्रियंका मुख्य किरदारों में हंैं. इस फिल्म का बजट भी काफी अधिक है.
मोहनजोदाड़ो
आशुतोष गोवारिकर इससे पहले जोधा अकबर के रूप में पीरियड फिल्म बना चुके हैं और फिल्मों के विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पीरियड फिल्में बनाने में आशुतोष ग्वारिकर अच्छी समझ रखते हैं और निश्चित तौर पर यह फिल्म पसंद की जायेगी. इस फिल्म के लिए आशुतोष ने ऋतिक रोशन को कास्ट किया है. खास बात यह है कि उन्होंने ऋतिक के लिए लगभग तीन सालों तक इंतजार किया है. फिल्म की शूटिंग शुरू हो चुकी है. और आशुतोष को पूरा भरोसा है कि ऋतिक फिल्म में बेहतरीन अभिनय करेंगे.
डिटेक्टीव ब्योमकेश बक् शी
दिबाकर बनर्जी की यह फिल्म भी पीरियड ड्रामा है. इसमें पुराने कोलकाता को स्थापित करने की कोशिश की गयी है. फिल्म में कोलकाता का पुराना स्वरूप दिखाया जायेगा. साथ ही वे चीजें जो पुराने कोलकाता में थी. जब इसे कलकत्ता पुकारा जाता था. उस वक्त की कई चीजें देख कर दर्शक चौंकेंगे. हालांकि पीरियड फिल्मों के लिए कोलकाता अब भी सबसे सटीक शहर है.चूंकि अब भी यहां की कई चीजें नहीं बदली हैं और इससे फिल्मकार को काफी सहुलियत होती है. इस फिल्म में सुशांत सिंह मुख्य किरदार निभा रहे हैं.
हवाईजादा
आयुष्माना खुराना की यह पहली पीरियड फिल्म होगी. यह फिल्म शिवकार बापूजी तलपड़े पर आधारित है, जिन्होंने भारत का पहला अनमैन्नड एयरप्लेन बनाया था. आयुष्मान ने कहा है कि उन्हें इतिहास में हमेशा से दिलचस्पी रही है और निश्चित तौर पर दर्शकों को यह फिल्म पसंद आयेगी. जैसे भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में पसंद आयी हैं.
इनके अलावा सुजोय घोष भी एक पीरियड फिल्म का निर्माण कर रहे हैं. जॉन अब्राह्म की आगामी फिल्म मोहम बागन पर आधारित होगी, जिन्होंने 1911 में आइएफए शील्ड जीता था. 

धर्म के ठेकेदार


धर्म के ठेकेदारों ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर फिल्म पीके के खिलाफ आंदोलन शुरू किया है. उनका मानना है कि फिल्म पीके में भगवान शिव के अवतार के पीछे फिल्म के नायक को क्यों भागते हुए दिखाया गया. क्यों फिल्म में निर्देशक ने कहा है कि जो डर गया...वह मसजिद गया. फिल्म में क्यों एक पाकिस्तानी किरदार सरफराज की तरफदारी की गयी है. यह फिल्म हिंदुत्व धर्म को ठेस पहुंचाती है. शायद ऐसी ही बातों से दंगे छिड़ते हैं. फिल्म की अच्छी बातें हम स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. हिंदी सिनेमा में अरसे बाद किसी फिल्म ने यह अवधारणा बदलने की कोशिश की है, कि मुसलिम है तो यह जरूरी नहीं कि वह धोखा देगा ही. जो आम लोगों में प्रचलित अवधारणा है. फिल्म में ठप्पा की बात होती है. फिल्म में धर्म को फैशन स्टेटमेंट कहा गया है. जहां, वेशभूषाएं बदलते ही धर्म बदल जाते हैं. लेकिन इन बातों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा. न सिर्फ पीके बल्कि ओह माइ गॉड जैसी फिल्में लगातार धर्म निरपेक्षता को कायम रखने की बातें कर रही हैं. लेकिन लोगों को इनके नकारात्मक रूप अधिक नजर आ रहे हैं. किसी सुपरस्टार द्वारा पीके के विषय पर अभिनय किया जाना बेहद जरूरी था, चूंकि यही कहानी किसी आम कलाकार के माध्यम से की जाती तो शायद निर्देशक अपनी सोच को आम आदमी तक बमुश्किल पहुंचा पाते. गीतकार वरुण ग्रोवर ने फेसबुक वॉल पर सही बात लिखी है कि राजकुमार हिरानी जैसे निर्देशकों की फिल्म पर आप फैसला नहीं सुना सकते. दरअसल, पीके जैसी फिल्में आपके विचार, आपकी सोच को टटोलती हैं, कि आप क्या सोच रखते  हैं. इस सच से मुकरा नहीं जा सकता कि पिछले कई दशकों से पाकिस्तानी किरदार हिंदी फिल्मों में मुजरिम के रूप में गिरफ्त हैं. बेवजह. मगर पहली बार किसी निर्देशक ने उन्हें बाइज्जत बरी होने का मौका दिया है.

पॉपकार्न परसाई का prasang

इस रविवार हरिशंकर परसाई पर आधारित एक नाटक पॉपकॉर्न परसाई देखने का अवसर
मिला। अभिनेता दयाशंकर पाण्डेय ने अपने इस एकल नाटक में कई विभिन्न किरदार
निभाए।  दयाशंकर का यह एक एकल नाटक, जिसमें वह  लगातार एक घंटे तक दर्शकों  रू
ब रू रहे।  वे कहीं भटके नहीं।  शायद उनकी इन्हीं खूबियों की वजह से  लगान और
स्वदेस  जैसी फिल्मों के हिस्सा रहे  आशुतोष जैसे निर्देशक पसंद हैं।  मनोरंजन
जगत को ऐसे वर्सेटाइल कलाकारों की जरूरत है।  इस एकल नाटक में आज की बात थी और
बीते दौर की भी।  इसी नाटक के एक हिस्से में बात होती है कि निजता और प्रतिभा
ये दोनों एक साथ नहीं रह सकती। लेकिन मुंबई एक मायानगरी है।  जहाँ दोनों एक
साथ रहती हैं।  नाटक सार्थक इस रूप में भी था चूँकि इस नाटक में कई महत्वपूर्ण
पहलुओं को संजोया गया था।   मनोरंजन के इस जगत में हर जगह घोस्ट  घूमते फिरते
नजर  आते हैं।  यह घोस्ट वास्तविक के घोस्ट नहीं हैं , बल्कि मनोरंजन की
दुनिया में इन्हें घोस्ट राइटर के रूप में जाना जाता है।  जिनकी किस्से
कहानियों  के लिए उन्हें चंद पैसे तो मिल जाते हैं।  मगर नाम नहीं मिलता।
दरअसल , विशेषकर हिंदी का छोटा पर्दा तो इन्हीं भूत प्रेतों से गुलज़ार हैं।
 जहाँ ओन स्क्रीन  भूत प्रेत यानि हॉरर शोज हिट हैं।  वही दूसरी तरफ आधे से
जयदा लिखे जाने वाले धारावाहिक इन घोस्ट राइटर की ही देन हैं।  चूँकि छोटे
परदे को कहानी की जरुरत है।  और लेखक चाहिए। मगर नाम नहीं।  हाल ही में एक
लेखक ने बताया कि उन्हें एक फाइव स्टार होटल में एक प्रोडूसर ने मिलने के लिए
बुलाया।  वे चाहते थे कि लेखक  उनके  लिए फिल्म की कहानी लिख दें। लेकिन  उस
प्रोडूसर के पास कहानी की फीस के लिए पैसे नहीं हैं। दरअसल परसाई का यह  नाटक
इसलिए भी प्रासंगिक हैं।  चूँकि  आज भी लेखकों को वह मान सम्मान नहीं हैं।

सिनेमा का स्पर्श

फिल्म पीके में एक भिखारी नजर आयेंगे. दृश्य में वह भीख मांगते नजर आते हैं. कई अखबारों में इन दिनों इस बात को प्रमुखता से दर्शाया जा रहा है. अखबारों में लिखा जा रहा है कि उसकी किस्मत खुल गयी. बकायदा मनोज नामक इस भिखारी ने अपनी बातचीत में बताया कि उनका भी आॅडिशन लिया गया था. इससे पहले फिल्म बॉबी जासूस में जब विद्या बालन ने एक भिखारी का वेश धारण किया था तो उन्होंने यह अनुभव किया था कि एक भिखारी की जिंदगी क्या होती है. चूंकि वहां बैठे बैठे एक भिखारी ने विद्या को डांट दिया था. उन्होंने विद्या से कहा था कि वह उनका इलाका हैं, उनकी वजह से लोग उन्हें भीख नहीं दे रहे. कई सालों पहले दिलीप साहब ने भी एक फिल्म में भिखारी का किरदार निभाने के लिए भिखारी की जिंदगी को करीब से देखने की कोशिश की थी. यह सिनेमा का ही तिलिस्म है, जो स्लमडॉग के बच्चों को कुछ वक्त के लिए ही सही मिलिनेयर बनने का मौका मिला. यह सिनेमा का ही तिलिस्म है, जो लोग आज मान बैठे हैं, चूंकि वह भिखारी फिल्म पीके में नजर आये हैं. उनकी जिंदगी अब बदल जायेगी. सिनेमा के तिलिस्म  में वह असर है, वह तेज है कि वह रंक को राजा, राजा को रंक तब्दील कर सकता है. सिनेमा के स्पर्श मात्र से ही कैसे बदलाव आते हैं. इसका अनुमान आप इस प्रकरण से लगा सकते हैं. यह सिनेमा का तिलिस्म ही है, जो कहीं दूर किसी गांव के छोटे से छप्पड़ वाले घर में बैठे एक युवा को शाहरुख खान बनने के लिए प्रेरित कर देते हैं. मुमकिन है कि फिल्म फैन में मनंीष शर्मा कहीं न कहीं यह दर्शाने की कोशिश करें. हालांकि यह अनुमान मात्र ही है. फिल्म बिल्लू में भी एक दोस्त, एक फैन और एक आम आदमी की कहानी दिखाने की कोशिश की गयी है. वहां भी सिनेमा का तिलिस्म स्पष्ट नजर आता है. 

धर्म का फैशन स्टेटमेंट


 फिल्म : पीके
कलाकार : आमिर खान, अनुष्का शर्मा, सौरभ शुक्ला,
निर्देशक : राजू हिरानी
रेटिंग : 3.5 स्टार
अनुप्रिया अनंत
 फिल्म के ट्रेलर में बार बार पीके यानी आमिर खान बोलते नजर आते हैं. नहीं पहचाना का हमका...हम पीके हूं पीके...वाकई पीके देखते वक्त आप आमिर को नहीं पहचान पायेंगे. चूंकि फिल्म में वह जिस अवतार में नजर आये हैं. आप यही महसूस करेंगे कि आप आमिर खान को नहीं,वाकई पीके को देख रहे हैं. राजू हिरानी की फिल्म पीके वर्तमान दौर में बनी आवश्यक फिल्मों में से एक है. दरअसल, राजू हिरानी ने अपने ट्रेलर में ही फिल्म का सार दर्शाया दिया है, जिसे अगर दर्शक फिल्म देखने के बाद ही समझ पायेंगे. जैसा कि पीके ट्रेलर में बोलता है. कंफूजिया गये क्या...हकीकत यही है कि फिल्म की कहानी यही है कि हम कंफ्यूजन में क्यों हैं. जब फिल्म का पहला पोस्टर जारी किया गया था. हंगामा काफी बरपा. कि आखिर आमिर ने नग्न तसवीर वाली पोस्टर कैसे प्रदर्शित होने दी. लेकिन फिल्म देख कर आप इस बात का निर्णय खुद ले सकेंगे. यह एक अनुभव है, और बेहतर है कि दर्शक कहानी खुद देख कर खुद समझें. राजू हिरानी की फिल्मों के  गाने, राजू हिरानी के किरदारों के नाम, दृश्य यूं ही सैर सपाटों के लिए फिल्मों में नजर नहीं आते. उनका अपना लॉजिक होता है. तर्क होता है और सबके खास बात वह तर्कसंगत होता है. आमिर खान का इस फिल्म से जुड़ना आम लोगों तक फिल्म की कहानी के उद्देश्य को पहुंचाने के लिए बेहद जरूरी था. चूंकि आम दर्शक पीके यानी आमिर खान से जुड़े हैं. वे उनकी बातों पर भरोसा करेंगे. राजू अपने अंदाज में हमें एक कंफ्यूजन से भरी दुनिया में ले जाते हैं, जहां धर्म फैशन का चोला पहन कर अपने खेल खेल रहा है. धर्म कुछ नहीं लोगों का स्टाइल स्टेटमेंट है. यह समझाने की कोशिश की गयी है.नोट पर गांधी हैं तो इज्जत है. कॉपी में हैं तो रद्दी...यह नजरिया राजू हिरानी जैसे निर्देशक ही दर्शा सकते हैं. रांग नंबर क्या है. राइट नंबर क्या है. इन सबके बीच झूठ का सच क्या है. जो सच है. वह सच है क्या...इस पूरे झूठ के सच के मायाजाल को भलिभांति समझना हो तो यह फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए. राजू ने फिल्म की कहानी में दो बार तब्दीलियां की हैं. जिन्होंने ओह माइ गॉड देखी है.उन्हें यह फिल्म उसके करीब नजर आयेगी. लेकिन अलग बात यह है कि निर्देशक ने अपनी सोच में भिन्नता बरकरार रखी है. और वही फिल्म की खासियत है. राजू की खूबी है कि वह किसी विशेष धर्म पर कटाक्ष न करते हुए अपनी बात रखते हैं. वे अवधारणाओं को तोड़ते हैं. पीके के रूप में आप यह कल्पना कर सकते हैं कि वह आॅडियंस हैं, उसे भ्रमित किया जा रहा है. वह भ्रम में है भी और नहीं भी. धर्म को बनाने वाले व बांटने वाले हम हैं. राजू हिरानी की फिल्मों से एक बात स्पष्ट होता है कि उनके जेहन में गांधीजी की सोच ईश्वर, अल्ला, तेरो नाम...सबको सनमति दे भगवान की हमेशा गूंज होती है. वे उनके अनुयायी हैं और उनकी सार्थक बातों को वह इस फिल्म के माध्यम से भी पहुंचाने की कोशिश करते हैं. यह फिल्म कुछ और सार्थक बातें दर्शाती हैं कि यह धरती सबसे रोचक और दिलचस्प हैं और यहां रहने वाले इंसान प्रभावशाली. चूंकि जिस रूप में सही लोग संगत के असर में आते हैं. संगत का यह असर क्या होता है. यह आपको फिल्म देखने के बाद ही एहसास होगा. अरसे बाद आपको क्लाइमेक्स के साथ खुद को जुड़ा पायेंगे. सो, फिल्म देखें और अनुभव करें. और अंत में...आपने वह कहावत सुनी होगी...कोई दूसरे ग्रह से आकर आपको बतायेगा क्या? क्या सही है क्या गलत?...इस कहावत को याद रखियेगा.

मेरा साया की सच्ची कहानी


जिंदगी चैनल पर इन दिनों एक शो मेरा साया का प्रसारण हो रहा. इस शो में  50 वर्ष की उम्र में गर्ववती होनेवाली एक महिला की कहानी का चित्रण किया गया है. दिलचस्प बात यह है कि शो के निर्माताओं ने जब एक वर्ष पूर्व सौलेहा की मुख्य भूमिका के लिए रूबीना अशरफ से संपर्क किया था तो रूबीना को अपनी असल जिंदगी में गर्भावस्था से जुड़ा वाक्या याद आया. दरअसल, रूबीना की 23 साल की बेटी की भी प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही थी जैसा कि परदे पर सौलेहा की बेटिी जाविया की है. रूबीना के गर्भवती होने की बात सुन कर उनकी बेटी ने उनसे आंखें मोड़ ली थी. उनके बीच कई गलतफहमियां भी पैदा हो गयी थी. यही वजह है रूबीना यह किरदार निभाने के लिए तैयार हुईं, चूंकि वह भी उस दर्द को महसूस कर चुकी हैं. मेरा साया के माध्यम से एक महत्वपूर्ण कहानी कहने की कोशिश की गयी है. भारत में भी शायद ऐसी कई महिलाएं हैं, जो गर्भवती न होने की वजह से कई परेशानियां झेलती हैं. आज भी महिलाओं को बांझ जैसे क्रूरूर शब्दों से नवाजा जाता है. लेकिन शायद ही भारत में ऐसी कहानियों को प्रमुखता देकर परदे पर प्रदर्शित  करने की कोशिश की गयी है. छोटा परदा भले ही अब भी महिला प्रधान माध्यम है, लेकिन अब भी इस तरह के संवेदनशील मुद्दों को उजागर करने में हम अब भी इतने हिम्मतवाले नहीं हुए. हम बड़े सितारों के साथ अश्ललील फिल्में बनाने में कामयाब हो जाते हैं. लेकिन ऐसे विषयों पर अब गंभीरता से कभी नहीं सोचते. मेरे करीबी दोस्त, जो काफी समय से स्तन कैंसर पर फिल्म निर्माण करना चाहते हैं. उन्होंने इसके लिए कई सुपरस्टार्स अभिनेत्री से संपर्क भी किया है. लेकिन किसी भी अभिनेत्री को ऐसी फिल्मों में दिलचस्पी नहीं. जबकि यह एक गंभीर मुद्दा है. यहां महिलाओं की आयटम सांग की संख्या बढ़ती जायेगी. मगर उनपर गंभीर फिल्में बनने का साहस जुटाना मुश्किल है.

ोहनत करो तो दर्शक कनेक्ट करते ही हैं : सुमित


ेसुमित सचदेव इन दिनों ये हैं मोहब्बते में मणि का किरदार निभा रहे हैं. दर्शकों को अब भी वे गोमजी के रूप में याद हैं.
सुमित, आप काफी समय से टेलीविजन से दूर रहे. फिर अचानक ये हैं मोहब्बते से जुड़ने की खास वजह क्या रही?
स्टार प्लस और बालाजी की जोड़ी के साथ काम करना एक अनोखा अनुभव है. दूसरा यह कि ये हैं मोहब्बते बिल्कुल अलग कांसेप्ट का शो है. जब मुझे शो में अपनी भूमिका के बारे में पता चला तो मुझे पूरा विश्वास था कि शो में मेरे किरदार पर भी काफी काम किया जा रहा है. और दूसरी बात यह है कि मैं एकता की बहुत इज्जत करता हूं. उन्हें प्रतिभा की परख है. और यही वजह है कि मैंने यह भूमिका तुरंत स्वीकार कर ली.
लोग अब भी आपको क्योंकि ... के गोमजी के रूप में पहचानते हैं. क्या आपको नहीं लगता कि आप उसे इमेज से बाहर नहीं निकल पाये हैं?और इससे आपको नुकसान हुआ है.
बिल्कुल नहीं, बल्कि गोमजी के किरदार ने ही एक अभिनेता के तौर पर मुझे शोहरत दी है. मैं शोभा आंटी और एकता का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे बेहतरीन किरदार दिया. लेकिन अब मुझे ये भी विश्वास हो रहा है कि इस शो में भी दर्शकों को मेरा काम अच्छा लग रहा है, मुझे जिस तरह से रिस्पांस मिल रहा है. मैं खुश हूं.
आप इस शो में सकारात्मक भूमिका में हैं. जबकि पहले आपने नेगेटिव भूमिकाएं निभाई हैं. कितना कठिन रहा.
एक अभिनेता के रूप में आपको ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और इस प्रोफेशन की खूबी भी यही है. मेरा मानना है किरदार कैसा भी हो, आप मेहनत करते हैं तो आप दर्शकों से कनेक्ट कर ही लेते हैं.
आपके अपने को स्टार से कैसे संबंध हैं?
मैं करण पटेल और द्विंयाका त्रिपाठी के साथ स्क्रीन स्पेस मिलने से काफी खुश हूं, दोनों बहुत प्रतिभाशाली और सहयोगी कलाकार हैं. दोनों ने खुले दिल  से मेरा स्वागत किया है और हमारी काफी अच्छी दोस्ती भी हो गयी है.
टीवी से दूर थे. उस दौरान क्या क्या किया?
ट्रैवलिंग करना पसंद है. तो घूमना फिरना हुआ. साथ ही अपना बिजनेस संभाल रहा था. लेकिन अभिनय मेरे लिए पैशन है तो वह मैं हमेशा करता ही रहूंगा.
इतने सालों में आपको टीवी की दुनिया में क्या बदलाव नजर आ रहे हैं?
मुझे लगता है कि अब छोटा परदा छोटा नहीं है. अब अलग अलग मिजाज के शोज आ रहे हैं.नये और टैलेंटेड कलाकारों को कितने मौके मिल रहे हैं और यह बेहद जरूरी भी है. बड़ी इंडस्ट्री बन चुकी है तो काफी लोगों को रोजगार भी मिल रहा है और यह अच्छी बात है. साथ ही शोज के कांसेप्ट, उनका प्रेजेंटेशन सबकुछ बदल गया है और काफी विकास हो रहे हैं. मुझे लगता है कि आनेवाला समय टेलीविजन के लिए अच्छा ही है. 

बांग्ला सिनेमा का अस्तित्व


 लीव मिंट डॉट कॉम की खबर है कि बांग्ला सिनेमा इन दिनों अपने दर्शकों को खो रहा है. पिछले कुछ सालों में थियेटरों में बांग्ला फिल्में देखने वालों की दर्शकों की संख्या बहुत कम हो गयी है. एक रिसर्च के मुताबिक 54 प्रतिश्त दर्शकों ने कोलकाता के थियेटर में जाकर फिल्में नहीं देखी है.  भारतीय सिनेमा में बांग्ला सिनेमा ने क्या योगदान दिया है. यह जगजाहिर है. अब भी बांग्ला सिनेमा को क्लास यानी बुद्धिजीवी वर्ग का सिनेमा माना जाता है. अब भी विशेषज्ञ मानते हैं कि बांग्ला सिनेमा ने ही क्षेत्रीय सिनेमा को बढ़ावा दिया है और उसकी गरिमा को बरकरार रखा है. फिल्मों के विषय, कांसेप्ट, लेखन निर्देशन इससे सभी वाकिफ हैं. लेकिन इसके बावजूद अगर सिनेमा में दर्शकों की कमी आ रही है, तो यह वाकई चौंकानेवाली खबर है. चूंकि बांग्ला सिनेमा के दर्शकों का मिजाज भारत के अन्य सभी राज्यों के दर्शकों से अलग है. इससे स्पष्ट है कि दर्शक यह महसूस कर रहे हैं कि बांग्ला सिनेमा इंडस्ट्री में भी पिछले कुछ सालों में गिरावट आयी है. तभी दर्शक घट रहे हैं. यह बेहद जरूरी है कि बांग्ला सिनेमा का अस्तित्व बरकरार रखा जाये. चूंकि क्षेत्रीय सिनेमा में सबसे समृद्ध इतिहास इसी राज्य का है. इन दिनों मराठी सिनेमा ने जो विषयपरक फिल्मों को महत्व देना शुरू किया है. वह कहीं न कहीं बांग्ला सिनेमा की देन है. सत्यजीत रे, ऋतुपर्णो घोष, ऋत्विक घटक जैसे शख्सियतों ने ही विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा को पहचान दिलाई है. और बेहद जरूरी है कि इस सिनेमा का अस्तित्व बरकरार रहे. कमियां और खामियां कहां हैं, इस पर सिनेमा की सोच रखने वाले बांग्ला फिल्मों के निर्देशकों व रंगकर्मियों को चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि यह वाकई गंभीर मुद्दा है. वरना, बॉलीवुड में जिस तरह मसाला फिल्में हावी है. कहीं बांग्ला सिनेमा में भी यह लत न लग जाये.

sarthak filmein


फिल्म बॉबी जासूस को देखने के बाद सेंट्रल रेलवे   अधिकारियों ने निर्णय  लिया है कि  वे बॉबी जासूस जैसे किसी  जासूस को हायर करेंगे।  ताकि वह रेलवे स्टेशन पर हो रहे अवैध काम पर निगरानी रख सकें। और उन्होंने   इसके  लिए विद्या बालन  की जमकर तारीफ़ भी की गई है।   किसी फिल्म का सकरात्मक प्रभाव है\, हालाँकि  इस फिल्म ने खास कमाई नहीं की है। लेकिन  इसके असर को नकारा नहीं  सकता। दरअसल किसी फिल्म का यह भी सामाजिक दायित्व है कि आप सिर्फ फिल्म से मनोरंजन की  ही उम्मीद न रखें।  इस रूप में  भी  अगर  कोई फिल्म   प्रभावित  करती है तो ये फिल्म की कामयाबी है।  आमिर खान के शो सत्यमेव जयते   के बाद कई सार्थक कदम उठाये गए हैं।   हॉलीडे फिल्म  लोगों को यह सन्देश मिला कि एक आर्मी ऑफिसर किस तरह छुट्टी पर रहते हुए भी काम पर पर तैनात रहता है।  फिल्म सिंघम पुलिस की ताकत  और सोच को दर्शाती है।  जेड प्लस जैसी फिल्में हकीकत दर्शाती हैं।  लेकिन अफ़सोस यह है कि २०१४ में बॉलीवुड में  मसाला फिल्में ही हिट हुई।  जबकि पिछले साल कई विषयपरक फिल्मों को प्रोत्साहन मिला। यह आनेवाले समय के लिए खतरे  का ऐलान है ,. चूँकि  ऐसी फिल्मों को बढ़वा नहीं मिलेगा तो  ऐसी  फिल्मों का निर्माण कम होगा।  और बुरी फिल्मों की संख्यां बढ़ेगी। अफसोस है कि  इस साल एक्शन जैक्शन  जैसी बुरी फिल्मों keee achchi kamai hui hai. humskals jaisi filmein bhi nuksaan mei nahi rehti . lekin  choti filmon ke saath anyay ho jata hai. isme shatir ki tarah distributer bhi kaam karte hain. we bade producer se saat gath rakhte hain aur choti filmon ko thetre hi nahi milte. ek sarahniy baat yahi hai ki marathi cinema ne apni jagah kayam kar li hai. is saal lai bhari jaisi masala filmon ko saflata mili to eilizabeth ekdasi jaisi wishypark filmein bhi pivche nhai rahi
. 2015 se umeedein hain ki sarthak filmon ko badhawa m,ile 

औपचारिक इंडस्ट्री


सुपरस्टार रजनीकांत के पूरे परिवार ने इस वर्ष उनका जन्मदिन अलग अंदाज में मनाया. उन्होंने चेन्नई के थियेटर में जाकर आम दर्शकों के बीच रजनीकांत की फिल्म लिंगा देखी. इस दौरान गौर करने वाली बात यह थी कि वे फैन्स के बीच में ही बैठे थे. उन्होंने अपने लिए अलग से सीट रिजर्व कर नहीं रखी थी. बॉलीवुड व साउथ में फैन के अंदाज अलग हैं और उनके सेलिब्रिटी भी अलग मिजाज के हैं. बॉलीवुड में एक दशक बीत चुके हैं. लेकिन अब सेलिब्रिटीज अपनी फिल्मों की स्क्रीनिंग में आम लोगों के साथ शिरकत करना हरगिज मंजूर नहीं करते. जबकि इसी बॉलीवुड में किसी दौर में एक मुहूर्त शॉट में इंडस्ट्री के कई दिग्गज शामिल हो जाते थे. फिल्म अंदाज अपना अपना के मुहूर्त में धर्मेंद्र व सचिन जैसे कई शख्स मौजूद थे. हालांकि अब पहले की तरह फिल्मों के मुहूर्त का प्रचलन भी नहीं. अब केवल बी ग्रेड फिल्मों का ही मुहूर्त होता है. बड़ी फिल्मों के तो प्रोमो की लांचिंग होती है. और सबकुछ भव्य होता है. अब औपचारिकता पूरी करने के लिए भी कलाकार एक दूसरे के जश्न में शामिल नहीं होते. लांचिंग के दौरान केवल फिल्म के कलाकार ही मौजूद होते हैं. कई फिल्मों में तो फिल्म के पूरे कास्ट को भी निमंत्रण नहीं मिलता. पिछली बार यमला पगला दीवाना 2 के म्यूजिक लांच पर काफी कलाकार मौजूद थे.लेकिन यह अपवाद था. अब तारीफ करनी भी है तो टिष्ट्वटर पर एक दूसरे की तारीफ कर दी जाती है. मगर दक्षिण में अब भी सेलिब्रिटीज और फैन के बीच पूरी तरह औपचारिक रिश्ता नहीं रहा है. यह बात जगजाहिर है कि रजनीकांत अपने प्रशंसकों से बिल्कुल अपने अंदाज में मिलना जुलना पसंद करते हैं. पिछले दिनों तो एक फिल्म की बड़ी कामयाबी में उस फिल्म के लीड कलाकारों के सिवा फिल्म के कलाकारों को भी निमंत्रण नहीं था. रिश्ते अब सिमट रहे हैं. मौसमों की तरह.

मीडिया में महिला

अभी कुछ दिनों  पहले दूरदर्शन की एक एंकर का सोशल मीडिया पे जमकर मजाक उड़ाया गया।  अंजाम यह हुआ कि उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।  मुद्दा यह था कि एक रिपोर्टर जिन्हें फिल्म के महोत्सव   की रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया था।  वहां वे बिना किसी जानकारी के मौजूद थीं और प्रसारण लाइव हो रहा था।  हाल ही में पेशावर में हुए आतंकवादी हमलों के बाद पाकिस्तानी चैनल की एक महिला रिपोर्टर फिर से चर्चा में हैं।  चूँकि रिपोर्टिंग करते वक़्त वह भावुक होकर रो पड़ी।  कई लोगों को इस बात से अधिक शोक है कि एक रिपोर्टर कैसे रिपोर्टिंग करते वक़्त रो सकती हैं। उन्हें अपनी भावनाओं को काबू कर ही रिपोर्टिंग करनी चाहिए।  कई सालों पहले बरखा दत्त पर कई दोषारोपण हुए थे।  जब उन्होंने कारगिल पर रिपोर्टिंग की थी। कुछ दिनों पहले जब एक महिला रिपोर्टर ने अपनी दोनों टाँगे रिपोर्टिंग के दौरान खोयी तो लोगों ने उसका भी मजाक बनाया कि उस महिला रिपोर्टर को क्या जरुरत थी अति उत्साही होने की।  एक महिला रिपोर्टर ने जब अ[पने चैनल के मालिक पर ऊँगली उठाई तब यही सोशल मीडिया मौन रही  पिछले दिनों फिल्म ऊँगली में दर्शाया जाता है कि किस तरह एक पुरुष रिपोर्टर की मदद से ही एक महिला रिपोर्टर को अच्छी स्टोरी मिलती है।  फिल्म पेज ३ में भी नायक नायिका को कहता है कि तुम्हे जाकर सिर्फ पेज ३ की रिपोटिंग करनी चाहिए।  कक्राईम की  स्टोरी करना तुम्हारे वश की बात नहीं।  फिल्म रिवाल्वर रानी में नायिका का मां महिला रिपोर्टर को खरीद लेता है और खुद उसे पैसे देकर स्टिंग ऑपेरशन करता है।  दरअसल , रील और रियल दोनों ही परदे पर महिला रिपोर्टर की छवि  में हमेशा खामियां ही निकली गई हैं।   ए . क्षेत्र को भी हो।  महिलाओं को खुद को हर बार केंद्र में रख कर खरी खोटी सुनाया जाता रहा है। यह दर्शाया जाता है कि अगर अपने बलबूते पे कुछ किया तो चरित्र ख़राब और अगर पुरुष की सहायता ली तो , सहारे के बिना कुछ भी सम्भव नहीं। मगर इस सोच को बदलने की सख्त जरुरत है 

नयी छवि बनाने की कोशिश


 इस वर्ष कई अभिनेत्री अपनी बनी बनाई छवि से बाहर निकल कर नयी छवि बनाने की कोशिश में जुट गयी हैं. 
 वर्ष 2014 में कंगना रनौट की फिल्म क्वीन काफी पसंद की गयी. इनके अलावा कई फिल्में आयीं, जिनमें अभिनेत्रियों ने कमाल किया. लेकिन ज्यादातर फिल्में पुरुष प्रधान ही रहीं. लेकिन इस वर्ष यकीनन अभिनेत्रियों ने अलग मिजाज की फिल्में करने की ठान ली है. 
सोनाक्षी सिन्हा
सोनाक्षी सिन्हा बहुत जल्द अमृता प्रीतम का किरदार निभाती नजर आयेंगी. इससे पहले उन्होंने ज्यादातर पुरुष प्रधान फिल्में की हैं और उनमें ज्यादातर फिल्में नाच गाने वाले रहे हैं. लेकिन इस बार सोनाक्षी ने तय किया है कि वह अब इंटेंस किरदार निभायेंगी. इससे पहले उन्होंने लुटेरा में अलग तरह का किरदार निभाया था. लेकिन इसके बाद वे लगातार एक सी फिल्में करने लगीं. जाहिर सी बात है, उन्हें भी इस बात का एहसास हो चुका है कि दर्शक उन्हें एक ही रूप में देख कर बोर हो चुके हैं और अगर उन्होंने बदलाव नहीं किये तो उन्हें मुंह की खानी पड़ सकती है. इसलिए उन्होंने अपना अंदाज बदला है और इस गंभीर किरदार को निभाने के लिए हामी भरी है.
ऐश्वर्य राय बच्चन
ऐश्वर्य राय बच्चन ने हर जॉनर की फिल्में की हैं. लेकिन ऐसा बहुत कम ही हुआ है कि उन्होंने एक् शन फिल्म की हो. इस बार जबकि वह अपनी वापसी दोबारा कर रही हैं. उन्होंने तय किया है कि वह ढर्रे पर नहीं चलेंगी. वह खुद में बदलाव करने के लिए तैयार हो गयी हैं और उन्होंने इस बात एक् शन फिल्म का सहारा लिया है. शायद ही इससे पहले दर्शकों ने ऐश को इस रूप में देखा होगा. ऐश संजय गुप्ता की फिल्म जज्बा में कई तरह के स्टंट दिखाती नजर आयेंगी.
कट्रीना कैफ
कट्रीना कैफ को ज्यादातर वैसे ही किरदार दिये जाते रहे हैं, जिनमें वह बबली सी नजर आयें. लेकिन अनुराग बसु की फिल्म जग्गा जासूस में और फैंटम में वह बिल्कुल अलग अंदाज व मिजाज में नजर आनेवाली हैं. इसके  साथ ही फिल्म फितूर में भी वह अलग भूमिका में होंगी. हालांकि उनके किरदार के बारे में अभी तक अधिक घोषणा नहीं हुई है. लेकिन माना जा रहा है कि कट्रीना इस बार अपनी बनी बनाई छवि को तोड़ने में कामयाब होंगी.
रेखा
रेखा जल्द ही फिल्म फितूर में नजर आयेंगी. उन्होंने कश्मीर में फिल्म की शूटिंग शुरू भी कर दी है. रेखा ने इससे पहले इस तरह का किरदार नहीं निभाया है. खबर है कि वह क्वीन का किरदार निभा रही हैं और उनकी वेशभूषा को खास तरीके से तैयार किया जा रहा है. इस फिल्म को लेकर खुद रेखा भी बहुत उत्साहित हैं और उनका मानना है कि यह फिल्म उन्हें उनकी अन्य फिल्मों की तूलना में बिल्कुल अलग स्तर पर स्थापित करेंगी.
अनुष्का शर्मा
करन जौहर ने हाल ही में इस बात की घोषणा की है कि बांबे वेल्वेट में जैसा किरदार अनुष्का शर्मा ने निभाया है. अब तक किसी ने नहीं निभाया है. इस फिल्म के बारे में अभी सारी बातें रहस्यमयी ही रखी जा रही है. कहीं किसी भी तरह की घोषणा नहीं की गयी है. खबर है कि इस फिल्म में अनुष्का के लुक और किरदार को अलग मिजाज का रखा गया है और अनुष्का का किरदार रणबीर के अभिनय को टक्कर देगा. अब देखना यह है कि करन जौहर की बातें वाकई सही होती हैं या नहीं.
ेंसोनम कपूर
सोनम कपूर ने फिल्म खूबसूरत से तो साबित कर ही दिया कि जो निर्देशक यह मान बैठे थे कि उन पर सिर्फ घरेलू या भारतीय किरदार ही शोभा देते हैं तो वे गलत सोच रखते थे. उनकी आगामी फिल्म डॉली की डोली में उनका बोल्ड अवतार सभी दर्शकों को नजर आनेवाला है. यह फिल्म पूरी तरह से डॉली यानी सोनम कपूर पर ही केंद्रित हैं और उन्होंने इसमें ऐसे कई बोल्ड संवाद भी बोले हैं. जिन्हें अब से पहले किसी फिल्म में सुना नहीं गया है.
जैकलीन फर्नांडीस
जैकलीन को फिल्म किक से किक मिली है. उनका करियर अभी संभला नजर आ रहा है. खबर है कि फिल्म रॉय में उनकी दोहरी भूमिका है. और फिल्म में वे अपने डबल रोल में दर्शकों को चौंकानेवाली  हैं. इससे पहले ऐसा किरदार जैकलीन ने कभी नहीं किया था. सो, सभी उन्हें देख कर चौंकनेवाले हैं.