20140531

इतनी खूबसूरती से टीवी पर लखनऊ को किसी ने नहीं देखा होगा : नीलेश



पत्रकारिता, उपन्यास लेखन, फिल्म लेखन व गीतकार के बाद अब नीलेश मिश्र का अगला पड़ाव टीवी है.  नीलेश खुद को कहानीकार ही मानते हैं.रेडियो की दुनिया में भी वे बादशाह हैं. टेलीविजन की दुनिया में वह पहला कदम बढ़ा रहे हैं. लाइफ ओके  पर जल्द ही इस शो का प्रसारण शुरू होगा.  
शो का कांसेप्ट 
मेरे लिए रेडियो की स्टार है. सो, शो का कांसेप्ट भी रेडियो से ही आया है. यह शो स्टोरी टेलर के रूप में होगा. फिक् शन शो होगा.  लेकिन कांसेप्ट वाइज यह रेडियो जैसा होगा.  इसमें सूत्रधार होंगे. निर्णायक होंगे. हम  इस शो के माध्यम से हमारी कविताएं हमारी कहानियों को लाने की कोशिश है. इस शो में ओरिजनल गाने भी होंगे जो हमारी टीम ही लिख रही है. और मेरी कविताएं. हम ओरिन्जनल सांग हो कोशिश करें. हम पहले इस शो के लिए स्टार टीवी से बात कर रहे थे. डिस् कशन चल रहा था. उन्होंने ही कहा कि उन्हें नये कांसेप्ट चाहिए. उन्हें हमने यह आइडिया दिया और उन्हें अच्छा लगा तो इस शो का संयोग बन गया. यह एक लव स्टोरी है जो लखनऊ शहर में आधारित है. इस लव स्टोरी में दो प्रेमी युगल की कहानी दिखाई जायेगी.
टीवी से कतराता था
मैं हकीकत बता रहा हूं कि मैं पहले टीवी से बेहद कतराता था. यही एक माध्यम था, जिसमें मैंने हाथ नहीं आजमाया था. लोग कहते थे कि आजादी छीन जाती है. काफी दखल होती है. लेकिन मैं लकी हूं कि मुझे आजादी मिल रही है. अपने ढंग से इस शो को पूरा संवारने का मौका मिला है. जब मैं इस शो के लिए काम करना शुरू किया तो लगा कि  टीवी के राइटिंग के  अपने ग्रामर हैं. पता नहीं इसमें फिट बैठ पाऊंगा या नहीं.लेकिन मेरे लिए एक्साइटिंग रहा. वक्त पर काम पूरा हो गया है. इस शो को हमारी मंडली ने मिल कर लिखा है. मंडली के कुछ सदस्य मुंबई के हैं तो कुछ बाहर से. हमारी मंडली टीम यादों का इडियटस बॉक्स के माध्यम से ही बनी, जिनमें  आयुष तिवारी, सम्राट चक्रवर्ती, मोहम्मद अदीम, ऋतिविक सीरिज हैं. सम्राट धनबाद है.  आयुष रांची के हैं.
लखनऊ शहर है खास
 इस शो के माध्यम से आप लखनऊ को एक नये नजर से देखेंगे. अच्छा लग रहा था. जहां बचपन बीता है. वही फिर से सूत्रधार के रूप में कैमरे के सामने जाना, फिर परफॉर्म करना. नोस्टोलोजिक रही पूरी जर्नी. उसी  गोमती नगर को कैमरे की नजर से दिखाना अलग अनुभव रहा. जिसे हमेशा देखते रहा हूं. लखनऊ  रोचक शहर लगता है. हम वही बड़े हुए हैं. सो,  इस शहर को उतने ही करीब से देख पाते हैं.  इस शो के माध्यम से लखनऊ के कई चेहरे सामने आये हैं.  एक लखनऊ है जो  नवाबों का लखनऊ है. जहां पर लखनऊ प्रेमियों का जमावड़ा होता है तो दूसरा  लखनऊ के छोड़ पर है. गांव है.  और वह धीरे धीरे शहर बनते जा रहे हैं.  एक शहर होकर भी एक से नहीं है. कुछ बदल रहा है तो कुछ बदलता नहीं चाहता. एक स्टोरीटेलर के लिए इस तरह के दिलचस्प शहर का होना उनकी कहानी को सार्थक बनाता है.  पूरी तरह से डिस्कवर करने का मौका था इस बार अपने शहर को. इस शो के माध्यम से वह सारे दृश्य टीवी पर नजर आयेंगे, जो कि अब से पहले टीवी पर कभी नहीं आये थे.  लखनऊ को टीवी पर इतनी खूबसूरती से कभी किसी ने नहीं देखा होगा. यहां के पार्क यहां की खासियत हैं और जिस तरह वे टीवी पर नजर आयेंगे. इतने सुंदर पहले कभी नहीं लगे होंगे. मुझे शहर की हरियाली देखना.  मॉन्यूमेंट्स को कैमरे की नजर से देखना अदभुत था यह पूरा दृश्य. इसके लिए सिनेमेटोग्राफर ऋषि बधाई के पात्र हैं. साथ ही शो के को प्रोड़ूसर सनसाइन जिन्होंने ना बोले तुम न मैंने कुछ कहा और मिले जब हम तुम जैसे शो का निर्माण किया है. उन्होंने इस कंटेंट को समझा. और खूबसूरती से इसे परदे पर उतारा. 

असल जिंदगी में नहीं करता हीरोपंती : टाइगर श्राफ


वे मार्शल आर्ट्स में पारंगत हैं. वे डांस में पारंगत हैं. उनकी शारीरिक बनावट व नाम की वजह से  शायद दर्शक यह अनुमान लगायें कि वह स्वभाव में थोड़े कठोर होंगे. लेकिन हकीकत यह है कि टाइगर श्राफ बेहद शर्मिले और शांत स्वभाव के हैं. उनके पिता जैकी जितने बिंदास हैं. टाइगर उतने ही शर्मिले हैं. कभी फुटबॉल उनका पहला प्रेम था. लेकिन अब अभिनय कर रहे तो पूरी शिद्दत से. चूंकि वे खुद मानते हैं कि काम वही करो जिसमें दिल दे सको. 

सबसे पहला सवाल, आपका नाम टाइगर क्यों रखा गया?
क्योंकि मैं बचपन में लोगों को दांत बहुत कांटता था. काफी शरारती था. तो जानवरों की तरह कांता नोचता था लोगों तो मॉम डैड ने नाम ही यही रख दिया.
हीरोपंती आपकी लांचिंग फिल्म है. बड़े स्तर पर यह लांचिंग हो रही है. इस लांचिंग को आप किस तरह देख रहे?इस लांचिंग को लेकर काफी चर्चा है?
मेरे लिए ड्रीम लांचिंग है. इसमें मुझे मौका मिल रहा. एक साथ कई विधाओं को दिखाने का. इसमें मैं एक् शन कर रहा. डांस कर रहा. एक्टिंग कर रहा. इस फिल्म रोमांस, ड्रामा, कॉमेडी इमोशन सब है. एक परफेक्ट लांच है.हां, चर्चा की वजह यह है कि मैं जैकी श्राफ का बेटा हूं. एक स्टार सन से उम्मीदें ज्यादा होती हैं. हालांकि यह मेरी ताकत है और मुझे लगता है कि मुझे और मेहनत करनी है. 23 मई को वह मेहनत वसूल हो जायेगी.
शुरू से ही सोच रखा था कि एक्टिंग ही करनी है?
नहीं शुरू से मुझे स्पोर्ट्स में दिलचस्पी रही है. डांसिंग, जिमनास्टिक ये सब पसंद था मुझे और ध्यान भी इन्हीं चीजों पर था. ग्रेजुएशन करने के बाद( बायलोजी) करने के बाद लगा कि अब क्या करना है. अफसोस की बात है. लेकिन मंै केवल स्पोर्ट्स ही खेलता था.पढ़ाई  में खास मन नहीं लगा. मैं बिल्कुल खो गया था.लेकिन उस वक्त काफी सारे आॅफर आने लगे.जिनमें से एक हीरोपंती थी. सो, मैंने तय किया कि एक्टिंग करूं. हालांकि मेरे दोस्त, मेरी मम्मी के दोस्त, सभी कहते थे कि टाइगर तू भी तो एक्टिंग ही करेगा न. बचपन से वह एक्सपेक्टेशन थी कि हीरो बनेगा डैडी की तरह. लेकिन मैंने शुरू से नहीं सोचा था.
जैकी को आपने जब बताया कि आप अभिनय के लिए अब तैयार हैं तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी. और उन्होंने क्या क्या टिप्स दिये?
वैसे बापू खुश ही हुए. उन्होंने मुझे खास टिप्स नहीं दिये. वह तो मुझे कांपीटीटर मानते हैं ( हंसते हुए) वह इतना ही बोलते हैं कि तू बोलना कम. सुनना ज्यादा. वैसे भी हकीकत में मैं ज्यादा बोल नहीं पाता. शर्माता हूं.  फिल्म में मैं हीरोपंती दिखा रहा. खूब बोला बाली कर रहा. लेकिन असलियत में मैं हीरोपंती अपनी जिंदगी में बिल्कुल नहीं दिखाता.
आपके पिता की फिल्म हीरो का रीमेक बन रहा. लेकिन आपने उस फिल्म से खुद को दूर क्यों रखा.
हां, वह फिल्म मुझे आॅफर हुई थी और हीरोपंती से पहले हुई थी. पर मैं जानबूझ से उससे दूर रहा. क्योंकि मुझे अपने पिताजी के साथ कोई कंपैरिजन नहीं चाहिए था. मैं उनके जैसा नहीं हूं. दोनों में बहुत फर्क है. उनकी जो खासियत है और मेरी जो खासियत है. अलग है. मेरे पिताजी की बॉडी लैंग्वेज है. उनकी पर्सनैलिटी अलग है. उनका डांसिंग स्टाइल सब मुझसे अलग है. मैंने मार्शल आर्ट और बाकी चीजों में बकायदा ट्रेनिंग ले रखी है. वह बिंदास हैं. मैं शर्मिला हूं.  हम दोनों में कोई भी समानता नहीं है.
सुभाष घई से आपके पिता का काफी गहरा रिश्ता रहा है और आप भी उनके बेहद करीब हैं?
हां, बिल्कुल सुभाष घई साहब हमेशा मुझे कहते थे कि अरे टाइगर टू स्टार बनेगा. एक किस्सा है कि जब मेरा जन्म हुआ था. उसी वक्त उन्होंने साइंिनंग अमाउंट के रूप में मेरे हाथों में दे दी थी. उस वक्त फिल्म हीरो आयी थी. और वह मुझे इसके रीमेक में लेना भी चाहते थे.
आप बहुत सुपरटिशियस हो?
दरअसल, मैं स्प्रीचुअल हूं. आप देखें मैंने गले में ताबिज पहन रखी है. साथ ही नजर कवच पहन रखा है. पता नहीं कहां से आया. लेकिन मुझे इन चीजों पर बहुत बिलिव है. मैं सेफ्टी के लिए रखता हूं. जिस फिल्ड में जा रहा हूं. वह इनसेक्योर है. कंप्टीटिटिव है तो ये चीजें मदद करती हैं.
जैकी से किन बातों के लिए डांट पड़ती है.
यही कि बापू पूरी तरह से वेजीटेरियन हैं और वह घर पर मुझे नॉन वेज खाने से रोकते हैं. लेकिन मैं छूप छूप कर खाता रहता हूं.
जैकी की पसंदीदा फिल्म कौन सी है?
मुझे शिवा का इंसाफ पसंद है. चूंकि उस फिल्म में बापू सुपरमैन बने हैं और हर बच्चे के लिए उसका पिता सुपरहीरो ही होता है. इसलिए मुझे वह फिल्म पसंद है. 

होलीडे मजाकिया फिल्म नहीं : अक्षय कुमार


होलीडे नाम सुन कर भले ही आप यह अनुमान लगायें कि फिल्म हल्की फुल्की होगी. लेकिन हकीकत यह है कि होलीडे एक बेहद गंभीर मुद्दे पर बनी फिल्म है. इस फिल्म में अक्षय कुमार मुख्य किरदार निभा रहे हैं. होलीडे में आंतकवाद के किस रूप का चित्रण हैं. 
अक्षय होलीडे के बारे में बतायें. लोग अनुमान लगा रहे कि यह कोई कॉमेडी फिल्म होगी?
जी नहीं. यह सोच बिल्कुल गलत है. होलीडे बेहद गंभीर फिल्म है. यह एक मोस्ट वॉच फिल्म है. यह मैं इसलिए नहीं कह रहा चूंकि यह मेरी फिल्म है. बल्कि इसलिए क्योंकि इसमें रियल टेरेरिज्म को दिखाया गया है. फिल्म के निर्देशक मुर्गुडोज ने विषय पर काफी काम किया है और फिल्म आपको एजुकेट करती है. फिल्म में कई रीयल इंसी्डेंट्स पर आधारित दृश्य है. यह एक इंटेलिजेंट थ्रीलर है.
फिल्म में आपका किरदार क्या है?
मैं फिल्म में आर्मी आॅफिसर की भूमिका में हूं और मैं होलीडे के लिए एक शहर में आता हूं और वहां मैं रियलाइज करता हूं वहां आतंकवाद के बीज हैं. मैं अपने आर्मी कलिग के साथ वहां के लोगों को बचाने की कोशिश करता हूं.  मुझे इस फिल्म की कहानी इतनी पसंद आयी थी कि मैं नैरेशन में फिल्म का सिर्फ फर्स्ट हाफ सुन कर ही फिल्म को हां कह दिया, मैं विपुल से कहा कि सेकेंड हाफ जो भी होगा आइ डोंट केयर. मुझे ये फिल्म करनी है. हम पहले ये फिल्म हिंदी में बनाने वाले थे. लेकिन निर्देशक मुर्गडोज की इच्छा थी कि पहले इसे साउथ में बनायें. तो हम राजी हो गये. मुर्गडोज की आप पहले भी गजनी फिल्म देख चुके हैं और अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी फिल्मों में किस तरह का ट्रीटमेंट होता है. लोग कहते हैं कि अरे उनकी फिल्मों में वॉयलेंस का ओवडोज होता है. लेकिन इस फिल्म में मैंने जब उनके साथ काम कर लिया है तो मुझे यह एहसास हो गया कि वे काफी टैलेंटेड हैं. वे कई बार खुद पुलिस चॉकी चले जाते हैं और वहां जाकर वहां के केस स्टडी करते हैं. इस फिल्म में एक दृश्य है. जहां टॉर्चर होता है. हमने अब तक हिंदी फिल्मों में यही दिखाया है कि मुंह पर पानी मार दो हो गया. लेकिन इस फिल्म में ऐसा नहीं होता. जो टॉर्चर दिखाया गया है, वह रियल लाइफ में वाकई सैनिकों के साथ होता है तो यह निर्देशक की बारीकी है.
अक्षय, कुछ मसाला फिल्मों के बाद आप फिर एक ब्रेक लेते हैं और गंभीर फिल्म बनाते हैं. स्पेशल 26 की तरह. तो क्या कोई स्ट्रेजी है?
नहीं कोई स्ट्रैजी नहीं है. बस मुझे जो किरदार अच्छे लग जाते हैं. मैं कर लेता हूं. एक साल में मेरी चार फिल्में आ जाती हैं. तो हर रूप में दर्शकों को दिखना चाहिए न. बस यही ख्याल रखता हूं. और मुझे ऐसा करने में मजा भी आता है. हर फिल्म के बाद मैं 7-8 दिन का ब्रेक इसलिए लेता हूं कि फिर से दोबारा खुद को दूसरी फिल्म के लिए तैयार कर सकूं.दूसरी बात है कि यह संभव नहीं कि आप हर बार ओह माय गॉड जैसी फिल्में बनाता रहूं. चूंकि वैसी स्क्रिप्ट हर बार आपके पास नहीं आती. तो कुछ तय नहीं है. जैसे जैसे मिलते हैं मौके करता जाता हूं काम.
ेंसोनाक्षी सिन्हा के साथ यह आपकी चौथी फिल्म है. आप सोनाक्षी को लकी चार्म मानते हैं. क्या यह वजह है कि आपके साथ वह लगभग हर फिल्म में नजर आ रही हैं?
नहीं ऐसी बात नहीं है कि हर फिल्म में सोनाक्षी ही हैं. मैं तो तमन्ना के साथ भी काम कर रहा, काजल के साथ काम किया, अभी तापसी पन्नू के साथ कर रहा. सोनाक्षी के साथ फिलहाल होलीडे ही है. इसके बाद हम दोनों साथ में फिलहाल किसी फिल्म में आ रहे. ऐसी योजना नहीं. सोनाक्षी मेहनती लड़की हैं और कम वक्त में उन्होंने अच्छी पहचान बना ली है. और इसलिए उन्हें अच्छे आॅफर और काम मिल रहा है.
आपके बेटे आरव और आपकी बांडिंग के बारे में बताएं. 
आरव को फिल्मों में दिलचस्पी नहीं हैं. उन्हें मार्शल आर्ट करना पसंद है और वह गोल्ड मेडलिस्ट भी हैं. हम कहीं भी घूमने जा रहे तो यह प्लानिंग उनकी होती है कि हमें कहां जाना है और क्या करना है. मैं और वह बिल्कुल दोस्त की तरह हैं. बिटियां भी धीरे धीरे बड़ी हो रहीं, फिर उनसे भी दोस्ती हो जायेगी.
मार्शल आर्ट को लेकर आप हमेशा गंभीर रहते हैं?
हां, मैं चाहता हूं कि हर स्कूल में बच्चों को मार्शल आर्ट अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाये. चूंकि यह बेहद जरूरी है. इससे व्यक्ति सेल्फ डिफेंस कर सकता और उसके पास सेल्फ कांफिडेंस भी आता है. 

शौक बड़ी चीज है



अभिनय उनकी जिंदगी का हिस्सा है. लेकिन जिंदगी नहीं है. जी हां, ऐसे कई सेलिब्रिटिज हैं, जो अभिनय के साथ साथ कई दिलचस्प चीजों का शौक रखते हैं.

 पालतू जानवरों के देवा मिथुन चक्रवर्ती
मिथुन चक्रवर्ती जब फिल्मों में नहीं होते तो उनकी दुनिया उनके कुत्तों और उनके पाले गये जानवरों के बीच ही गुजरती है. खास बात यह है कि वे उन कुत्तों को जानवर नहीं मानते. उन्होंने उन कुत्तों को अपना सरनेम दे रखा है और वे उन्हें चार पैर के कुत्ते बुलाते हैं. मिथुन ने मुंबई, कोलकाता समेत ऊटी में हर जगह कई जानवरों को पाल रखा है और उनकी देखभाल वह खुद करते हैं. जानवरों के प्रति उनके प्रेम को देख कर ही फिल्म वीर में उन्हें एक लंबा हॉर्स रेसिंग सीन दे दिया गया था. जिसे करने में उन्हें परेशानी भी हो रही थी. चूंकि उन्होंने काफी भारी कॉस्टयूम भी पहन रखा था. मिथुन बताते हैं कि फिल्म में घोड़े को यह समझ ही नहीं आ रहा था कि कट हो चुका है. वह उन्हें भगा कर लेता जा रहा था. लेकिन बाद में मिथुन ने किसी कोड में बात की और यह बात घोड़े को समझ में भी आयी. मिथुन कहते हैं कि उन्हें जानवरों के बीच बहुत मजा आता है और इसलिए वे हर तरह से इस काम में मग्न रहते हैं.
इंटीरियर डिजाइनर अभय देओल
अभय देओल की बॉलीवुड की दुनिया में यही इमेज है कि वह या तो अच्छे अभिनेता हैं या फिर समाज सेवक़. जबकि हकीकत यह है कि अभय खाली वक्त में इंटीरियर डिजाइनिंग करने का शौक रखते हैं. उन्हें घर सजाना बेहद पसंद है. और उन्होंने इसके लिए न्यूयॉर्क से वुड कार्विंग कोर्स भी कर रखा है.
कवित्री विद्या बालन
विद्या बालन सशक्त अभिनेत्री हैं. यह सभी जानते हैं. लेकिन कम लोगों को ही यह जानकारी है कि विद्या बालन को कविताएं लिखना बेहद शौक हैं और वह जब जब खुश होती हैं. कविताएं लिखती हैं. जब जब जीवन में परेशानियां आती हैं, तब भी वह कविताएं ही लिखती हैं. इसके अलावा उन्हें साड़ीज कलेक्ट करने का भी बेहद शौक है. वे जहां भी जाती हैं. उस शहर की साड़ियां जरूर खरीद लेती हैं. जब वह एक्ट्रेस नहीं थीं. उस वक्त उन्हें लोकल ट्रेन में कानों की बालियां खरीदना पसंद था.
अपडेट शाहरुख खान
शाहरुख खान को तकनीक से बेहद प्यार है और यही वजह थी कि उन्होेंने फिल्म रा.वन बनाया. उन्हें गैजेट्स और नयी नयी तकनीकी चीजों से इस कदर प्यार है और उन्हें एकत्रित करने का इस कदर शौक है कि उन्होंने अपने घर मन्नत में एक पूरा फ्लोेर सिर्फ गैजेट्स और वीडियो गेम्स से भर रखा है. जहां वे अपने दोनों बच्चों के साथ वक्त बिताते हैं. इसके अलावा जब वह लंदन वाले घर पर होते हैं तो वहां वे अपने बच्चों के साथ फुटबॉल खेलने का आनंद उठाते हैं. फुटबॉल खेलना उनका पसंदीदा शौक है.साथ ही उन्हें कार का बहुत शौक है. यही वजह है कि उनके पास अब तक लगभग 10 कार हैं और सारी कारें उनके घर पर ही खड़ी रहती हैं.
 मास्टर शेफ कंगना रनौत
कंगना रनौत बहुत ही अच्छी कुक हैं. और उन्हें कुकिंग का शौक है. यही वजह है कि वे जिन फिल्मों में भी काम करती हैं. वहां के सेट पर सभी लोगों के लिए खाना जरूर बनाती हैं. कंगना के पास वक्त हो तो वह अपने घर पर सभी दोस्तों को खाने के लिए जरूर न्योता देती रहती हैं.
रैपर रणवीर सिंह
हमने रणवीर सिंह को अभिनय के तो कई रूपों में देख लिया है. लेकिन एक शौक जो रणवीर को अभिनय से बिल्कुल जुदा करती है, वह यह है कि उन्हें रैपिंग का बेहद  शौक है और यही वजह है कि उन्हें फिल्म लेडीज वर्सेज रिकी बहल के  एक गाने में रैप करने का मौका मिला. हाल ही में उन्होंने कंडोम के विज्ञापन में भी रैप किया है.
ब्लॉगर अमिताभ
अमिताभ बच्चन को ब्लॉगिंग करने का बेहद शौक है और वह अपने खाली वक्त में यही काम करते हैं. साथ ही उन्हें खाली वक्त में अपने पिता द्वारा लिखी गयी किताबों को पढ़ते हैं और उनकी तसवीरों को देख उनका स्मरण किया करते हैं. उन्हें अपने पिता की लिखी किताबें पढ़ कर काफी ऊर्जा मिलती है. इसके अलावा अमिताभ को तरह तरह के पेन, शॉल एकत्रित करने का बेहद शौक है. साथ ही वह कार के भी बेहद शौकीन हैं.

कुछ विज्ञापन ऐसे भी


 चुनाव का दौर है. परिणाम आने में कुछ ही दिन बाकी हैं. इस बार प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के लिए खड़े हर उम्मीदवार ने दावा किया है कि वह धर्म या जाति के आधार पर काम नहीं करना चाहते. बहरहाल उनके दावे उनके पास. लेकिन इन दिनों टेलीविजन के विज्ञापन वाकई अपनी तरफ से कई कोशिशें कर रहे हैं, ताकि वह धर्म के आधार पर भेद करने वाले लोगों को सच्चाई दिखायें. एक चायपत्ती के विज्ञापन में एक हिंदू परिवार को पहले मुसलिम परिवार के घर चाय पीने से आपत्ति जताते और बाद में फिर उनका निमंत्रण स्वीकार कर दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाते हुए दिखाया जाता है. दरअसल, हकीकत यही है कि वर्तमान में विज्ञापन समाज को जितने अच्छे सीख दे रहे हैं. और चंद शब्दों में अपनी बात कह जा रहे हैं. फिल्में भी वह कमाल नहीं कर पा रही हैं. याद हो कि कुछ दिनों पहले गूगल रियूनियन पर आधारित जो विज्ञापन जारी किया गया था और उसमें एक मुसलिम और हिंदू की दोस्ती के गाढ़ेपन को दर्शाया गया. वह न सिर्फ दिलचस्प था. बल्कि अतुलनीय भारत की पहचान भी था. एक विज्ञापन में एक दोस्त दूसरे दोस्त से कहता है कि अपने तरफ का है तो इसे ही जीताऊंगा और फिर दूसरा दोस्त उसकी आंखें खोलता है. एक सीमेंट के प्रचार में एक बच्चा दीवार की परिभाषा इस रूप में देता है कि मैं और सलीम अच्छे दोस्त थे. लेकिन अब हमारे बीच दीवार खड़ी हो चुकी है. अब हम दोस्त नहीं रहे. वाकई विज्ञापन अच्छे संवाद और अच्छी कहानी के माध्यम से दर्शकों को पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे कि हां, मजहब नहीं सिखाता कि आपस में बैर रखना. हिंदी हैं हम वतन हैं. ऐसे विज्ञापनों की भारत को फिलवक्त सख्त जरूरत है. ये भी अगर सोच में बदलाव लाने में सफल हो पायें तो चलचित्र माध्यम का उद्देश्य कुछ हद तक तो जरूर पूरा होगा होगा. 

साधना का रैंप पर चलना



गुजरे जमाने की मशहूर अभिनेत्री साधना हाल ही में डिजाइनर सान्या एनसी के लिए रैंप वॉक करती नजर आयीं. यह पहली बार था,जब साधना किसी फैशन शो का हिस्सा बनीं और वह रैंप पर वॉक करती नजर आयीं. उन्हें यह सम्मान देने के लिए खुद रणबीर कपूर भी उपस्थित थे. साधना गुलाबी साड़ी में अपने पल्लू को संभालती हुई, लोगों का अभिनंदन कर रही थीं. उनके चेहरे की चमक और होंठों की मुस्कान यह साफ बयां कर रही थीं कि उन्होंने लंबे अरसे से लोगों के इस प्यार से दूरी बना ली थी. जबकि आज भी जब लोगों ने उनका दीदार किया तो उसी शिद्दत और मोहब्बत से.  इस फैशन शो के वीडियो देखें तो जिस तरह साधना बार बार दर्शकों से मुस्कुरा कर आंखों से ही बातें कर रही थीं. उससे स्पष्ट हो रहा था कि साधना उस मंच को इतनी जल्दी छोड़ कर नहीं जाना चाह रही थीं. दरअसल, एक कलाकार  कभी अपनी लोकप्रियता खोना नहीं चाहता.साधना पिछले कई सालों से सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आयीं. उन्होंने आम लोगों से और लाइमलाइट से पूरी तरह दूरी बना ली थी. चूंकि कुछ सालों पहले उनके चेहरे का आॅपरेशन हुआ और ऐसा साधना का मानना था कि लोगों ने उनके खूबसूरत चेहरे को देखा है. उन्हें वह अपना यह रूप नहीं दिखा सकतीं. लेकिन निस्संदेह सान्या एनएसी के माध्यम से उन्हें दर्शकों का जो प्यार मिला. उसे देख कर साधना को यह जरूर एहसास हुआ होगा कि शायद वह गलत थीं. साधना के लिए रैंप पर आना भले ही पहली बार था. लेकिन साधना फैशन स्टेटमेंट तो कई सालों बन चुकी थीं. गौरतलब है कि उनका हेयर कट तब से लेकर अब तक लोकप्रिय है. हेयर डिजाइनर ने कट का नाम ही साधना कट रख दिया और  बीते दौर में ही नहीं बल्कि अब तक लड़कियों में यह कट लोकप्रिय है. इस लिहाज से फैशन की दुनिया में साधना लीडर रहीं.

लोकप्रियता खोते शो


 छोटे परदे के लिए हमेशा ही बड़ा परदा बड़ा रहा है. वे हर लिहाज से बड़े परदे को कॉपी करने की कोशिश करते रहते हैं. लेकिन इन दिनों हद हो रही है. इन दिनों टेलीविजन के कुछ धारावाहिकों को छोड़ दें तो लगभग हर धारावाहिक बॉलीवुड के किरदारों या कहानियों की नकल करता नजर आ रहा है. धारावाहिक मधुबाला की जब शुरुआत हुई थी तो एक फिल्म स्टार की जिंदगी पर आधारित थी. इसके दूसरे संस्करण में भी कहानी फिल्मी दुनिया के इर्द गिर्द घूम रही थी कि अचानक ट्रैक बदल दिया गया. इसमें कुछ दिनों तक फिल्म खिलौना की कहानी दिखाई गयी. धारावाहिक बानी में खून भरी मांग की कहानी दिखाई गयी. गौर करें तो ससुराल सिमर का में खलनायक की भूमिका निभा रही महिला की तो वेशभूषा ही पूरी तरह से रामलीला में सुप्रिया पाठक द्वारा निभाये गये किरदार से मेल खाता है. धारावाहिक बेइतहां और रंगरसिया धारावाहिक की कहानी एक सी है और इसमें कई फिल्मों के मिश्रण है. मसलन घरवाली बाहरवाली जैसी फिल्मों की कहानी. तुम्हारी पाखी की कहानी में भी वही ट्रैक चल रहा, जो कि जोधा अकबर में दिखाया जा रहा है. कुछ महीनों पहले बड़े अच्छे लगते में दिखाया जा रहा है. स्पष्ट है कि धारावाहिकों के लेखक जिन्होंने पिछले कुछ सालों में बेहतरीन काम किया है. वे इन दिनों एक दूसरे की नकल करने में लगे हुए हैं और नकल के चक्कर में कहानियों को बुरी शक्ल दे रहे है. यही वजह है कि धीरे धीरे दर्शक खोते जा रहे. जो नये शो आ रहे. उनकी कहानियां भी एक सी ही है. एक मुट्ठी आसमान में भी बदले की आग जल रही है तो एक हसीना में भी वही कहानी दोहरायी जा रही है. फिलवक्त टीवी के लेखकों को सचेत होकर नयी कहानी की खोज करनी चाहिए. इस लिहाज से डोली अरमानों की, दीया और बाती अपने उद्देश्य में कामयाब हो रहे हैं.

हॉलीवुड की सीरिज िफल्में


हॉलीवुड के सुपरस्टार ह्मुग जैकमैन एक बार फिर से वोल्वोरिन में सुपरहीरो की भूमिका निभाने जा रहे हैं. वोल्वोरिन सीरिज की यह सातवीं कड़ी है. जैकमैन वह पहले अभिनेता हैं, जिन्होंने एक ही सुपरहीरो का किरदार सबसे ज्यादा बार निभाया है. वोल्वोरिन की पिछली सारी कड़ियां हिट रही हैं. लेकिन एक अभिनेता के रूप में जैकमैन क्या कभी उस एक किरदार से बोर नहीं होते होंगे. यह सवाल जब जैकमैन से पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि वह इसके लिए फिल्म के लेखक और निर्देशक की सोच की दाद देना चाहेंगे जो उन्हें हर बार कुछ नया करने का मौका देते हैं. एक अभिनेता के तौर पर वह किरदार का नाम या सीरिज नहीं देखते, बल्कि यह देखते हैं कि उस किरदार के पास कितने कांफिलिक्टस हैं और कितने आॅब्सटेकल्स हैं. दरअसल, हॉलीवुड की सीरिज फिल्मों की सफलता का राज यही है. वहां की कहानियों में निर्देशक व लेखक इतने ताने बाने बुनते हैं कि एक किरदार को भी बार बार उसे निभाना अच्छा लगता है और दर्शकों को भी एक किरदार के कई अवतार देखने में आनंद आता है. हम प्राय: रोना रोते हैं कि हमारे पास हॉलीवुड की तरह तकनीक नहीं, लेकिन कहानी के आधार पर तो हम हॉलीवुड की बराबरी कर ही सकते हैं. फिर क्यों हमारे यहां सीरिज में बननेवाली फिल्में धराशायी हो जाती हैं. हम कृष के पहले और तीसरे संस्करण में क्यों कई परत या कोई नयी और अनोखी चीज नहीं देख पाते, जो कि उन्हें एक दूसरे से अलग करें. ऐसा कर पाना निश्चय ही संभव है. चूंकि यहां बात कहानी की है. कहानी में ही अगर किरदार को कई परतों में अपने अभिनय को दर्शाने का मौका मिले तो फिर वाकई किरदार भी उसे जीवंत तरीके से निभाना पसंद करता है और उसमें कोई नयापन ला पाने में कामयाब होता है. सोच के आधार पर बॉलीवुड हॉलीवुड की बराबरी तो कर ही सकता है.

टेलीविजन का बदला स्वरूप


अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने इसी स्तंभ में लिखा था कि पिछले कई महीनों से टेलीविजन के धारावाहिक में रुचि खत्म होती जा रही है. चूंकि लगभग सारे धारावाहिक एक ही कहानी और ट्रैक पर चल रहे हैं. लेकिन अब अच्छी खबर यह आ रही है कि टेलीविजन के अच्छे दिन फिर से आ चुके हैं. जीटीवी जल्द ही जिंदगी  नामक एक चैनल की शुरुआत कर रहा है, और यह चैनल मुख्यत सांस्कृतिक कार्यक्रमों को दिखायेगा. सिर्फ भारत ही नहीं भारत से बाहर की सांस्कृतिक कहानियां भी इसमें शामिल की जायेगी. जीटीवी के आॅफिशियल से बातचीत होने पर उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि हां, दर्शक वर्तमान में चल रहे धारावाहिकों के प्लॉट से बोर हो चुके थे. इसलिए उन्हें फ्रेश कहानियां देनी बेहद जरूरी है. जीटीवी के साथ साथ लाइफ ओके पर बांवरे नामक शो की शुरुआत हो रही है और यह शो भी लव स्टोरी पर ही आधारित है. लेकिन यह टीवी पर दिखाई जाने वाली आम प्रेम कहानियों से जुदा होंगी. दरअसल, वर्तमान में टेलीविजन के मेकर्स को इस बात की सख्त जरूरत भी थी कि वे किसी भी तरह दर्शकों को कुछ अलग चीजें देने की कोशिश करें. चूंकि दर्शक भी एक ही तरह के धारावाहिकों को देखते हुए बोर हो चुके हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि टेलीविजन रिश्तों और जज्बातों को दर्शाने का एक सशक्त माध्यम है. इसमें कोई शक नहीं कि क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया जैसे शो की जरूरत नहीं, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देना भी जरूरी है. शबाना आजिमी भी इन दिनों दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहे एक म्यूजिकल शो की एंकरिंग कर रही हैं. ये सारी कोशिशे हिंदुस्तान समेत सरहद पार की सभ्यताओं से भी हमें रूबरू करायेंगे और यह वर्तमान समय की जरूरत भी हो. सो, ऐसे चैनल की शुरुआत का स्वागत किया जाना चाहिए

अभद्र सुचित्रा


 किरण खेर को चुनाव में जीत मिलने के बाद अभिनेत्री सुचित्रा कृष्णमूर्ति ने किरण खेर की तारीफ में कुछ ऐसी बातें टिष्ट्वट कर दी हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि औरतों की मानसिकता में भी कुछ अभद्र बातें होती हैं और एक महिला भी दूसरी महिला की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं. सुचित्रा ने लिखा है कि किरन खेर ने गुल पनाग को हराया है. क्योंकि भारत को महिलाओं और मां की जरूरत है, न कि क्लीवेज फ्लेशर्स की. इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सोनम ने बिल्कुल सही बातें टिष्ट्वट की हैं कि कोई महिला कैसे किसी महिला के खिलाफ ऐसी बातें लिख सकती हैं. सुचित्रा खुद महिला हैं और उन्हें ऐसी अभद्र बातें कहना शोभा नहीं देता. यह कोई फिल्मी अखारा नहीं. हाल ही में हिमेश रेशमिया की फिल्म द एक्पोज में दो अभिनेत्रियों को लड़ते हुए दिखाया गया है. दोनों हाथापाई करती हैं. ठेठ शब्दों में कहें तो झोठा झठुव्वल करती हैं. लेकिन फिल्म में भी इतनी अभद्रता नहीं दिखाई गयी है. सुचित्रा आमतौर पर भी प्रीटि जिंटा को कई बार खरी खोटी सुनाती नजर आती हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि आमतौर पर हम पुरुषों को ही कोसते आते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि एक महिला भी दूसरी महिला को गलत नजरिये से देखती है. गुल चुनाव हारी हैं. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं कि उन्हें इस तरह से बेइज्जत किया जाये. एक पॉलिटिकल नेता के रूप में नहीं, कम से कम अपनी फिल्म फर्टनिटी के रूप में तो सुचित्रा में इतनी संवेदनशीलता होनी चाहिए कि वे इस तरह की अभद्र बातें न करें. खासतौर से जबकि वह खुद पब्लिक फिगर हैं. फिर सुचित्रा और मुलायम सिंह की बातों में क्या फर्क रह जायेगा. यह बेहद जरूरी है कि हम बड़े बड़े भाषणों से पहले खुद को सुधारें. एक महिला पहले दूसरी महिला का सम्मान करना तो सीखें. 

आंखें खुलीं करीना की


करीना कपूर खान पिछले कुछ महीनों में लाइमलाइट से दूर हो चुकी थीं. इसकी वझह यह नहीं थी कि वे खुद दूर हुईं बल्कि दर्शकों ने उन्हें दरकिनार कर दिया था. वजह साफ है कि उनकी कुछ फिल्में कामयाब नहीं रहीं और कुछ महत्वपूर्ण फिल्में जो उनकी झोली में आनेवाली थीं. उन्होंने अपनी हठ के कारण उन्हें छोड़ दिया. लेकिन शायद अब उनकी आंखें खुल रही हैं और वे खुद को वापस नंबर वन की कुर्सी पर विराजमान करने की कोशिश में जुट गयी हैं. उन्होंने  बिजॉय नांबियार की स्क्रिप्ट सुनी हैं और उम्मीदन वे उन्हें हां भी कहेंगी. चूंकि पिछली कुछ फिल्में जो उन्होंने छोड़ी हैं. वे सारी फिल्में कामयाब हो चुकी हैं. और बाकी अभिनेत्रियों ने उन किरदारों को लपक कर अपना स्थान कायम कर लिया है. जाहिर सी बात है करीना जो  स्वयं  को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की खास अभिनेत्री मानती हैं. उन्हें इन बातों का अनुमान हो चुका होगा कि यहां हर दूसरे दिन दर्शक उन्हें ही शीर्ष पर बिठाते हैं. करीना की आंखें उस वक्त खुलीं जब इस बार आइफा फिल्मोत्सव में उन्हें रेड कार्पेट पर खास अहमियत नहीं मिली. जितनी हर बार मिलती थी. जबकि वह अपने पति सैफ अली के साथ वहां मौजूद थीं. इससे स्पष्ट है कि विदेशों में भी वह लोकप्रियता खो रही हैं. ऐसे में अपने हठ को छोड़ कर उन्हें बिजॉय की फिल्म को हां कह दिया तो कुछ प्रयोगात्मक बदलाव तो उनके किरदार में जरूर आयेंगे. वजह यह है कि बिजॉय भले ही अभी स्थापित निर्देशक न बन पायें. लेकिन उनकी फिल्में आम सिनेमा से अलग तो होती ही हैं. करीना को वर्तमान में हर उन प्रयोगात्मक निर्देशक के साथ काम करना चाहिए. जिनके साथ काम करने से वह बचती रही हैं. तभी वह अपनी एक अलग पहचान बना कर वापसी कर पायेंगी. वरना, वह ब्रांड अंबैस्डर के रूप में ही अधिक नजर आती रहेंगी.  

मार्शल आर्ट के हितेशी अक्षय


पिछले दिनों अक्षय से मुलाकात हुई. अक्षय मार्शल आर्ट को बेहद पसंद करते हैं. वे खुद इसमें पारंगत भी हैं. वे मानते हैं कि मार्शल आर्ट  जिंदगी में सेल्फ डिफेंस और सेल्फ डिसिप्लिन. यानी आत्मसुरक्षा और आत्म अनुशासित रहना सिखाती है. और उनका यह भी मानना है कि अगर भारत में मार्शल आर्ट को कभी पाठयक्रम में अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए. चूंकि हर व्यक्ति के लिए मार्शल आर्ट आवश्यक है. वह इससे खुद को सुरक्षित रख पाने में कामयाब होता है. वे अपने बच्चे को यह विधा सीखा रहे हैं और वह चाहते हैं हर बच्चा बचपन से ही इसे सीखे. उनसे जब यह सवाल पूछा कि क्या वह कब्बडी, या फुटबॉल लीग जैसी किसी लीग का हिस्सा बनेंगे तो उन्होंने साफ कहा कि वह सिर्फ और सिर्फ मार्शल आटर््स को ही प्रोमोट करना चाहेंगे. अक्षय कुमार ने एक और बेहतरीन जानकारी दी कि वे प्रत्येक वर्ष मार्शल आटर्् का एक टूर्नामेंट रखते हैं और इस टूर्नामेंट वे पूरे विश्व से मार्शल आर्ट के खिलाड़ियों को न्योता देते हैं और फिर भारत में यह आयोजन किया जाता है. अक्षय बताते हैं कि उन्हें इसमें  इस बात से ज्यादा खुशी मिलती है. न कि किसी फिल्मी पार्टी का हिस्सा बन कर. दरअसल, अक्षय की यह सोच बेहतरीन है और वह अपने काम में पूरी तरह एकाग्रता रखते हैं. अक्षय के ही माध्यम से सही, लेकिन यह हकीकत है कि मार्शल आर्ट व इस तरह के अन्य विधाओं को सेलिब्रिटिज के प्रोत्साहन की जरूरत है. कल्पना करें कि कोई फिल्म इस विधा पर बने और अभिनेता के रूप में अक्षय कुमार हों और अभिनेत्री नीतू चंद्रा हों. तो वह एक दिलचस्प फिल्म बन सकती ह'ं. चूंकि नीतू भी हिंदी सिनेमा की चुनिंदा अभिनेत्रियों में से एक ह'ं. जो ताइकांडो व कई इस तरह की कई विधाओं में पारंगत ह'ं.सो, ऐसी फिल्मों को भी बढ़ावा मिले, तो बेहतरीन बात होगी.

प्रयोग का समर्थन


  फिल्म हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया के किसिंग सीन को लेकर काफी विवाद हो रहे हैं. इस पर सेंसर की कैची चली है. इस पर सुप्रसिद्ध फिल्मकार महेश भट्ट ने एक वेबसाइट पर महत्वपूर्ण बातें कही है. चीन में आज भी सिनेमा स्तंभ न बन पाया और न ही सिनेमा को वह सम्मान हासिल है. जो भारत में है. भारत में सिनेमा मजबूत स्तंभ इसलिए बन पाया, चूंकि यहां फिल्म को लेकर व्यापक सोच रखा जा रहा था. यही वजह है कि अब तक कई फिल्में अपने विषय के मुताबिक खरी उतरी. महेश भट्ट ने उस आलेख में इस बात का जिक्र किया है कि किस तरह उनकी फिल्म जख्म को कई प्रदेशों में रिलीज नहीं होने दिया गया था. फना को गुजरात ने रिलीज होने से रोका गया था. अब तक फिल्मों को लेकर राज्यों तक उसका विरोध ही होता रहता है. लेकिन इस खबर के मुताबिक धीरे धीरे फिल्मों की नाल कसी जा रही है और यह आने वाले समय के लिए सही नहीं. भारत में सिनेमा ने अपना रूप बदला है और यह बेहद जरूरी भी है. भारत को जितनी जरूरत पारिवारिक फिल्मों की है, सांस्कृतिक फिल्मों की है उतनी ही जरूरत वास्तविक फिल्मों (रियलिस्टिक फिल्मों) की भी जरूरत है. चूंकि फिल्मों के माध्यम से ही भारत में कई ऐसी कहानियां कही गयी. जिससे हम सभी अब तक अज्ञात थे. सो, यह जरूरी है कि सिनेमा को वह आजादी मिले जो अब तक मिलती आयी है. किसी व्यक्ति विशेष और राज्य विशेष की चाहत से फिल्में बनीं तो फिल्में अपना अस्तित्व खो बैठेंगी. सिटिलाइट्स, शाहिद जैसी फिल्में खुल कर दर्शकों को सामने नहीं आ पायेंगी. द डर्टी पिक्चर्स को एक अश्लील फिल्म करार दिया जायेगा. गंैग्स आॅफ वासेपुर जैसी फिल्मों को अश्लील शब्दों वाली फिल्में कह दिया जायेगा. प्रयोग होने जरूरी हैं और प्रयोग का समर्थन होना भी अति आवश्यक है.

अनुपम के 30 साल


अनुपम खेर अभिनीत फिल्म सारांश के निर्माण के हाल ही में 30 साल पूरे हुए और इसके साथ ही अनुपम खेर ने भी इंडस्ट्री में 30 साल पूरे किये. हालांकि अनुपम खेर का आगमन फिल्म आगमन से हुआ था. लेकिन उन्हें पहचान मिली सारांश से. उस वक्त अनुपम महज 28 साल के थे और उस वक्त उन्होंने एक मध्यमवर्गीय रिटायर्ड व्यक्ति का किरदार निभाया, जिसने अपना बेटा खो दिया था. यह महेश भट्ट की पारखी नजर का ही कमाल था, जिन्होंने 28 साल के अनुपम से इतनी बड़ी उम्र का किरदार निभवाया. और अनुपम ने उसे बखूबी निभाया भी. अनुपम ने अपने टिष्ट्वटर पर इस बात का जिक्र किया है कि किस तरह सारांश ने उनकी जिंदगी बदली. अनुपम हिंदी सिनेमा के उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिन्होेंने शुरुआती दौर में ही ढलती उम्र के किरदारों को गले लगाया. चूंकि वे इस बात से अवगत थे कि उन्हें मुय किरदार निभाने के मौके नहीं मिलेंगे. वे अपनी कमजोरी और ताकत दोनों से अवगत थे. गौरतलब है कि किसी दौर में प्रेम चोपड़ा ने कई फिल्में यह सोच कर ठुकरा दी थी कि उन्हें लगता था कि वे लीड किरदार निभायेंगे और अभिनेता ही बनेंगे. लेकिन बाद में उन्हें भी अपनी सीमाओं का एहसास हुआ. दरअसल, अनुपम उन कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने जिंदादिली से अभिनय को जिया. वे आज भी जिस तरह के किरदार निभाते हैं. उन्हें देख कर स्पष्ट होता है कि वे अभिनय को गंभीरता से लेते हैं. न कि किरदारों को. अनुपम ने इन 30 सालों में कई पड़ाव बनाये. जिनमें से न समथिंग टू अनुपम अंकल जैसे शो हमेशा याद किये जायेंगे. साथ ही अपने अभिनय के कई रूपों को दर्शकों तक पहुंचाया. हालांकि इन दिनों वे एक से किरदार निभाते नजर आने लगे हैं. लेकिन अनुपम जैसा अभिनेता हिंदी सिनेमा के लिए वरदान ही है.

अहम है बैनर


जल्द ही फिल्मीस्तान नामक एक फिल्म रिलीज हो रही है. इस फिल्म का निर्देशन नितिन कक्कर ने किया है. यह फिल्म 6 जून को रिलीज हो रही है. लेकिन मैंने यह फिल्म दो सालों पहले ही देखी थी. मामी फिल्मोत्सव में इस फिल्म का चयन हुआ था. साथ ही इस फिल्म के निर्देशक ने फिल्म की कई स्क्रीनिंग रखी थी. लेकिन फिल्म को पहली बार पहचान तब मिली जब फिल्म को राष्टÑीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. लेकिन उस वक्त भी फिल्म को रिलीज कर पाने में निर्देशक नितिन असमर्थ थे. और उन्होंने फिल्म को रिलीज न हो पाने की व्यथा हमें बतायी भी थी. लेकिन देर आये दुुरुस्त आये. फिल्मीस्तान को यूटीवी बैनर ने स्वीकारा. और अब फिल्म 6 जून को रिलीज हो रही है. नितिन को जब राष्टÑीय पुरस्कार मिला. हमारी बातचीत हुई थी और उन्होंने बताया था कि किस तरह राष्टÑीय पुरस्कार मिल जाने के बावजूद फिल्मों को रिलीज कराना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अब भी एक कठिन टास्क है. लेकिन यूटीवी बैनर मिलने के बाद फिल्म का जम कर प्रोमोशन हो रहा और यह बेहद जरूरी भी है. चूंकि फिल्म उस योग्य भी है. फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह सिनेमा और क्रिकेट दो मूल्कों के बीच एक खास कड़ी है. नितिन और उनकी पूरी टीम बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने जज्बा छोड़ा नहीं. दरअसल, हकीकत यही है कि हमारे यहां अब भी फिल्में कहानियों की वजह से नहीं, बल्कि बैनर और स्टार कास्ट की वजह से ही बड़ी होती है. सो, यह बेहद जरूरी है कि यूटीवी की तरह और भी बड़े प्रोडक् शन हाउस व कॉरपोरेट हाउस ऐसी छोटी छोटी फिल्मों को मौके दें ताकि कम बजट वाली फिल्मों को दो दो साल रिलीज के लिए इंतजार न करना पड़े. बड़े प्रोडक् शन भी ऐसी फिल्मों को अपना नाम देने में इतना वक्त न लगायें. तभी ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहन मिल पायेगा.

20140514

स्थापित कलाकारों के भाई बहन

कट्रीना कैफ की बहन इसाबेल ने निर्णय ले लिया है कि फिलवक्त वह बॉलीवुड से अपने करियर की शुरुआत नहीं करेंगी. उन्होंने कनेडियन फिल्म डॉ कैबी को अपनी लांचिंग फिल्म के रूप में चुना है. वही दूसरी तरफ रणबीर कपूर और करीना कपूर के भाई यानी उनकी बुआ के बेटे अरमान जैन लेकर हम दीवाना दिल नामक फिल्म से अपनी पहली शुरुआत करने जा रहे हैं.सोनम कपूर के भाई हर्षवर्धन भी फिल्मों में अपनी पारी की शुरुआत करने जा रहे हैं. वही सोनम की भी बुआ के बेटे मोहित फिल्म फगली से शुरुआत कर रहे हैं. मसलन फिलहाल  अब बारी स्थापित कलाकारों की टोली के भाई बहनों की है. लेकिन खास बात यह है कि जहां एक तरफ सोनम कपूर ने अपने भाई हर्षवर्धन की लांचिंग के लिए राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म से दरकिनार कर लिया. रणबीर और करीना के समझाने पर ही रीमा ने अपने बेटे को फिल्म में आने का मौका दिया है. वही दूसरी तरफ कट्रीना ने बहन इसाबेल को फिलहाल इस इंडस्ट्री से दूर रहने की सलाह दी है. गौरतलब है कि इसाबेल काफी समय से हिंदी सीख रही थीं. स्पष्ट था कि वह बॉलीवुड में दाखिले की ही तैयारी कर रही थीं. लेकिन अचानक उनकी बड़ी बहन का उन्हें यह सलाह दिया जाना. निश्चित तौर पर कैट इस बात से वाकिफ हैं कि इतने सालों में उन्होंने जितनी कोशिशें की हैं. और वह लगातार मेहनत कर रही हैं. इसके बावजूद नयी नवेली अभिनेत्रियां भी जब करन जौहर के शो में जाती हैं तो कट्रीना की एक्टिंग स्किल्स को सबसे कम आंकती हैं तो ऐसे में उनकी बहन इसाबेल के लिए मुसीबतें और आयेंगी. सो, इस कदम पर एक बड़ी बहन की तरह उनका निर्णय सही लगता है. दरअसल, वह भी नहीं चाहती होंगी कि उनकी बहन नाकामयाब हो. सो, वह सही समय के इंचतजार में हैं

कुछ विज्ञापन ऐसे भी


 चुनाव का दौर है. परिणाम आने में कुछ ही दिन बाकी हैं. इस बार प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी के लिए खड़े हर उम्मीदवार ने दावा किया है कि वह धर्म या जाति के आधार पर काम नहीं करना चाहते. बहरहाल उनके दावे उनके पास. लेकिन इन दिनों टेलीविजन के विज्ञापन वाकई अपनी तरफ से कई कोशिशें कर रहे हैं, ताकि वह धर्म के आधार पर भेद करने वाले लोगों को सच्चाई दिखायें. एक चायपत्ती के विज्ञापन में एक हिंदू परिवार को पहले मुसलिम परिवार के घर चाय पीने से आपत्ति जताते और बाद में फिर उनका निमंत्रण स्वीकार कर दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाते हुए दिखाया जाता है. दरअसल, हकीकत यही है कि वर्तमान में विज्ञापन समाज को जितने अच्छे सीख दे रहे हैं. और चंद शब्दों में अपनी बात कह जा रहे हैं. फिल्में भी वह कमाल नहीं कर पा रही हैं. याद हो कि कुछ दिनों पहले गूगल रियूनियन पर आधारित जो विज्ञापन जारी किया गया था और उसमें एक मुसलिम और हिंदू की दोस्ती के गाढ़ेपन को दर्शाया गया. वह न सिर्फ दिलचस्प था. बल्कि अतुलनीय भारत की पहचान भी था. एक विज्ञापन में एक दोस्त दूसरे दोस्त से कहता है कि अपने तरफ का है तो इसे ही जीताऊंगा और फिर दूसरा दोस्त उसकी आंखें खोलता है. एक सीमेंट के प्रचार में एक बच्चा दीवार की परिभाषा इस रूप में देता है कि मैं और सलीम अच्छे दोस्त थे. लेकिन अब हमारे बीच दीवार खड़ी हो चुकी है. अब हम दोस्त नहीं रहे. वाकई विज्ञापन अच्छे संवाद और अच्छी कहानी के माध्यम से दर्शकों को पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे कि हां, मजहब नहीं सिखाता कि आपस में बैर रखना. हिंदी हैं हम वतन हैं. ऐसे विज्ञापनों की भारत को फिलवक्त सख्त जरूरत है. ये भी अगर सोच में बदलाव लाने में सफल हो पायें तो चलचित्र माध्यम का उद्देश्य कुछ हद तक तो जरूर पूरा होगा होगा. 

20140512

मिथुन के चार पैर के बच्चे


 जानकी विश्वनाथन की हाल ही में रिलीज फिल्म ये है बकरापुर में बकरे का नाम शाहरुख है. इस बात को लेकर काफी चर्चा है कि जानकी ने जानबूझ कर बकरे का नाम शाहरुख रखा, ताकि उन्हें लोकप्रियता मिले. चूंकि किसी जानवर का नाम शाहरुख रखना महज इत्तेफाक नहीं हो सकता. इस बारे में मेरी यह राय है कि जो यह मानते हैं कि किसी जानवर का नाम किसी अभिनेता के नाम पर रखा जाना कोई अपराध है. उन्हें अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती से सीख लेनी चाहिए. मिथुन के मुंबई के बंगलो में लगभग 38 कुत्ते हैं और उन्होंने अपने  ऊंटी के फाम्र हाउस में उससे भी ज्यादा कुत्ते पाल रखे हैं. मिथुन को इस बात से सख्त आपत्ति है कि उनके कुत्तों को कोई कुत्ता कह कर बुलाये. उन्होंने न हर कुत्तों को नाम दे रखा है. बल्कि उन्होंने अपना सरनेम भी दे रखा है. मसलन अगर कुत्ते का नाम टॉमी है तो मिथुन उन्हें टॉमी मिथुन चक्रवर्ती कह कर बुलाते हैं. मिथुन भी हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय सितारों में से एक हैं और हाल ही में व्हाट्स एप के प्रमुख ने भी माना है कि वे मिथुन के गाने व डांस के फैन हैं. लेकिन अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद उन्हें इस बात से कतई शर्म महसूस नहीं होती कि वे जानवरों को अपने बच्चों की तरह पालते हैं. वे फक्र से कहते हैं कि उनके चार पैर वाले बच्चे भी हैं. मिथुन सिर्फ महज दिखावे के लिए या अपनी रोयल अंदाज को साबित करने के लिए ऐसा नहीं करते, बल्कि वे खुद कोलकाता के केनल क्लब आॅफ इंडिया के सदस्य भी हैं, जो जानवरों के संरक्षण के लिए काम करता है. कुछ सालों पहले आमिर के इस बयान पर कि अभी शाहरुख ( एक पड़ोसी के कुत्ते का नाम) मेरे तलवे चाट रहा है...पर बवाल उठा था.  लेकिन इन तमाम बातों के बीच मिथुन जैसे अभिनेता अगर इस रूप में आते हैं तो यह उनकी जिंदादिली और जानवरों के लिए उनके बेइतहां प्यार को दर्शाता है.

20140510

आॅस्कर में कुश


कुश नामक एक शॉर्ट फिल्म है. जिसका चयन आॅस्कर मेंं किया गया है. कुश एक ऐसे स्टूडेंट की कहानी है, जो अपनी कक्षा में एकमात्र सिक्ख है. यह फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है. एक टीचर है जो अपनी फील्ड ट्रिप से वापस आता है और उस 10 साल के सिक्ख बच्चे को बचाने की कोशिश करता है. यह फिल्म सुभाशिष भुटानी ने बनायी है. सुभाशिष भारतीय मूल के निवासी हैं और विदेश में रहते हैं. सुभाशिष की इस फिल्म की जानकारी यू टयूब से मिली. इस फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद तुरंत मैंने यूटयूब पर 1984 के दंगे को लेकर बनी बीबीसी की कई डॉक्यूमेंट्री भी देखी. इस लिहाज से सुभाशिष ने इस विषय पर एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाई है. हां, यह हकीकत है कि हम इतिहास को पीछे छोड़ते जा रहे हैं. हमें 1984 के दंगों से अब कुछ लेना देना नहीं. शायद नयी जेनरेशन इसके बारे में जानना भी न चाहे. लेकिन सुभाशिष ने इतने गंभीर मुद्दे को फिल्म कुश के माध्यम से जिस खूबसूरती और सरलता से दर्शाया है. हिंदुस्तान के लिए यह आवश्यक फिल्म है. लेकिन अफसोस है कि आॅस्कर में नामांकन होने के बावजूद इस फिल्म की खास चर्चा नहीं है. लोगों को इसकी जानकारी नहीं है. वजह यह भी हो सकती है कि इस फिल्म को लोकप्रिय न करने की भी कोशिश की जा रही हो. लेकिन सुभाशिष की तरह ही वर्तमान के निर्देशकों को ऐसे विषय जो महत्वपूर्ण हैं. लेकिन केवल इतिहास के पन्नों तक ही सीमित हैं. उन्हें उकेरना चाहिए. देशभक्ति फिल्में बनाने के लिए अब निर्देशकों के पास वक्त नहीं. लेकिन इतिहास के इन महत्वपूर्ण पड़ावों को फिल्मों के माध्यम से सरलता से समझा और सिखा जा सकता है. सो, ऐसी फिल्में अहम हिस्सा हैं. भारत में भी इस तरह की शॉर्ट फिल्मों को बढ़ावा मिले तो बेहतर तसवीर बन सकती है. 

दिलचस्प मराठी फिल्में

 रितेश देशमुख की निर्मित दो फिल्में बालक पालक और यल्लो. दोनों फिल्में महत्वपूर्ण फिल्में हैं और ये मराठी भाषाओं में बनी फिल्में हैं. इन फिल्मों में जिस तरह विषय को खूबसूरती से दर्शाया गया है. उसे देख कर क्षेत्रीय फिल्मों के निर्देशकों पर गुमान होता है. निस्संदेह वर्तमान दौर में क्षेत्रीय फिल्मों में सबसे बेहतरीन फिल्मों का निर्माण हो रहा. रितेश देशमुख आमतौर पर हिंदी फिल्मों में जिस तरह की फिल्में कर रहे. उनसे उनकी छवि एक हास्य अभिनेता की बन चुकी है. लेकिन मराठी फिल्म में वे जिस तरह के विषयों का चुनाव कर रहे हैं. उनकी संवेदनशीलता इससे साफ नजर आ रही हैं. रितेश की दोनों ही फिल्मों को कई पुुरस्कार से नवाजा जा चुका है. दरअसल, हाल में मैंने जितनी मराठी फिल्में देखी हैं. वे सारी फिल्मों की खासियत यह है कि इन फिल्मों में विषयों को सरलता से दिखाया जा रहा है. फिल्म में हास्य के पुट भी होते हैं. फिल्म हरीचंद्राची फैक्ट्री में भी यही खासियत थी कि फिल्म में ह्मुमर कमाल का था. यही वजह है कि मराठी फिल्में लगातार विकसित हो रही हैं. अच्छे निर्देशक, अच्छे विषयों के साथ पूरे शान से इस क्षेत्र में आ रहे हैं. मराठी फिल्मों को सरकार के द्वारा भी अच्छी मदद मिल रही है. अच्छे कलाकार अच्छी सोच के साथ इस क्षेत्र में आ रहे हैं. मराठी फिल्मों का भविष्य बहुत उज्जवल है. अगर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को भी कुछ इस तरह का सहयोग मिले तो निश्चित तौर पर अन्य भाषाओं में भी बेहतरीन फिल्में बनेंगी. क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छे निर्देशक आयेंगे. रितेश मराठी होने के नाते एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे. वे सिनेमा के दोनों पहलुओं एंटरटेनमेंट और आर्ट को साथ लेकर चल रहे हैं और यह सकारात्मक संकेत हैं.रितेश की तरह अन्य हिंदी भाषी कलाकार, जहां से संबंध रखते हैं. वहां की क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के लिए उन्हें कदम उठाने चाहिए

वर्तमान के भाई बहन


जोया अख्तर की फिल्म में रणवीर सिंह प्रियंका चोपड़ा के भाई का किरदार निभायेंगे. अभी कुछ महीने पहले रिलीज हुई फिल्म गुंडे में दोनों ने नायक नायिका की भूमिका निभायी. जोया की इच्छा थी कि भाई बहन को केंद्र में रख कर बनाई जा रही इस फिल्म में वास्तविक जिंदगी के भाई बहन रणबीर कपूर और करीना कपूर किरदार निभायें. लेकिन दोनों ने ही फिल्म के लिए हां नहीं कहा तो जोया आगे बढ़ीं और उन्होंने प्रियंका का रणवीर सिंह का चुनाव कर लिया है. यह फिल्म वाकई दिलचस्प होगी. वजह यह है कि हाल के दिनों में दो सुपरसितारा कलाकारों को भाई बहन के किरदारों में देखना दिलचस्प तो होगा ही. साथ ही अगर आप स्वभाव में देखें तो प्रियंका और रणवीर सिंह में कई समानताएं हैं. प्रियंका भी स्वछंद हैं और अपनी भावनाओं को सार्वजनिक रूप से दर्शाने में उन्हें कोई परहेज नहीं. रणवीर सिंह भी कुछ ऐसे ही मौज मस्ती करनेवाले कलाकारों में से एक हैं. जोया ने अगर उनके स्वभाव को ध्यान में रख कर कहानी लिखी है तो वाकई दोनों कलाकार इससे न्याय करेंगे. चूंकि बचपन में आमतौर में भाई बहन एक से ही होते हैं. धीरे धीरे दोनों की सोच बदल जाती है. जिस तरह करीना कपूर और रणबीर कपूर एक परिवार के होते हुए भी दो अलग जुदा लोग हैं. जबकि प्रियंका और रणवीर दो परिवारों के होने के बावजूद एक से दिखते हैं. कम ही लोगों को जानकारी होगी कि प्रियंका रणवीर सिंह की वजह स े फिल्म गुंडे छोड़नेवाली थी. चूंकि रणवीर का अत्यधिक खुलापन उन्हें रास नहीं आया था. जबकि बाद में दोनों बेहद अच्छे दोस्त हो गये. चूंकि दोनों मस्तीखोर हैं और बिंदास हैं. हिंदी सिनेमा में हरे रामा हरे कृष्णा में भाई बहन के रिश्ते को बखूबी से दिखाया गया है. वर्तमान में ऐसी कहानियां कम बन रही हैं. लेकिन उम्मीद है कि जोया इस फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय करेंगी. 

रजनीकांत का टिवटर से जुड़ना



सुपरस्टार रजनीकांत ने हाल ही में टिष्ट्वटर से खुद को जोड़ा.  किसी ने फेसबुक पर अपडेट किया कि रजनीकांत ने टिष्ट्वटर को नहीं बल्कि टिष्ट्वटर ने रजनीकांत को जोड़ा है. उनकी बातों से स्पष्ट है कि कम से कम हिंदुस्तान में ट्विटर से ऊंचा कद रजनीकांत का है और यह कद उन्होंने खुद बनाया है. उन्होंने खुद यह सम्मान हासिल किया है. उनके टिष्ट्वटर में जुड़ने के साथ ही उनके कई प्रशंसक उनके फॉलोअर्स बन गये. रजनीकांत ने अपना पहला टिष्ट्वटर ईश्वर को समर्पित किया. चूंकि रजनीकांत भगवान में बेहद विश्वास करते हंै. गौरतलब है कि हाल ही में वह किसी मंदिर में गये थे. जहां उन्होंने ऐसा वेश धारण कर रखा था कि लोग उन्हें पहचान भी न पाये. रजनीकांत सुपरस्टार हैं और भारत के लोगों में जो पागलपन रजनीकांत के लिए है. वह शायद ही किसी अन्य अभिनेता के लिए हो. रजनीकांत उन चूनिंदा लोकप्रिय अभिनेताओं में से एक हैं, जिनके प्रशंसक उन्हें आप कह कर ही संबोधित करते हैं और सामने ही नहीं पीठ पीछे भी उनकी तारीफ ही करते हैं. आमतौर पर हिंदी सिनेमा के कलाकारों को यह सम्मान हासिल नहीं. हम सामने आने पर उन कलाकारों के साथ तसवीरे लेने के लिए उत्सुक होते हैं. लेकिन उनके जाते ही उन कलाकारों के बारे में बुरी बातें कहनी शुरू कर देते हैं. मेरे परिचित चेन्नई में कार्यरत हैं. वे बताते हैं कि वहां आमतौर पर भी वे दर्शक जब आपस में बातें करते ैहंै तो उनकी बातों में रजनीकांत की तारीफ की बातें ही होती हैं. रजनीकांत जिस जमाने से सक्रिय हंैं. उस जमाने में टिष्ट्वटर या सोशल नेटवर्किंग साइट्स नहीं थे. और यह भी स्पष्ट है कि रजनी किसी दिखावे में यकीन नहीं रखते न ही उन्हें पब्लिसिटी की जरूरत है. वे अगर टिष्ट्वटर पर आये हैं तो किसी नये प्रयोग के लिहाज से ही. उम्मीदन  आने वाले समय उनके फॉलोअर्स की संख्या बड़ी तादाद में बढ़ेगी.

पिता से जुदा टाइगर


 दो दिनों पहले जैकी श्राफ के बेटे टाइगर श्राफ से मुलाकात हुई. जल्द ही उनकी फिल्म हीरोपंती रिलीज हो रही है. सुभाष घई और सलमान खान मिल कर जैकी की फिल्म हीरो का रीमेक बना रहे हैं. फिल्म निखिल आडवाणी निर्देशित करने वाले हैं. टाइगर से जब यह सवाल पूछा कि क्या वजह रही कि उन्होंने खुद को हीरो की रीमेक फिल्म से खुद को दूर रखा. तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि क्योंकि मैं बापू जैसा नहीं हूं. टाइगर अपने पिता को बापू और पिताजी कह कर ही संबोधित कर रहे थे. उन्होंने साफ किया है कि उनके पिता जैकी की जो छवि है. वे उससे खुद को दूर रखना चाहते हैं. यही वजह है कि वे मार्शल आर्ट, डांस व कई तरह के नयी विधाओं में खुद को पारंगत कर रहे हैं. दरअसल, टाइगर भी इन बातों से तो वाकिफ हो चुके होंगे अब तक कि इस इंडस्ट्री में सफल पिता के साथ उनकी तूलना होती ही रहेगी. सो, वे शुरुआती दौर से ही अपने लुक, अपनी फिल्मों के चुनाव को लेकर सजग हैं. और वाकई वे परदे पर जैकी के बेटे नजर नहीं आ रहे हैं. टाइगर खुद स्वीकारते हैं कि वे न सिर्फ परदे पर बल्कि वास्तविक जिंदगी में भी अपने पिता से जुदा हैं. उनके पिता जितने बिंदास हैं. टाइगर उतने ही अंर्तमुखी हैं. जाहिर सी बात है कि जब उन्होंने रियल जिंदगी में अपने पिता की छवि को अपनी छाप बनाने की कोशिश नहीं की है. उन्होंने एक अलग धारा का चयन किया. तो वे फिल्मों में अपने पिता की छवि को लेकर चलने की मनसा बिल्कुल नहीं रखते होंगे. अच्छा है कि टाइगर अपनी इस सोच में स्पष्ट हैं. चूंकि आनेवाले समय में उन्हें अपने पिता के साथ की तूलना के लिए तैयार रहना होगा. अगर वह ऐसे जवाब देंगे तो उनका आत्मबल नहीं टूटेगा. और वे इन सवालों का आत्मविश्रास के साथ सामना कर पायेंगे. वरना, कई स्टार किड की जिंदगी उनके पिता से की गयी तूलनात्मक विश्लेषण में ही गुजर जाती है

ये अमोल गुप्ते का सिनेमा है



हां, यह अमोल गुप्ते का सिनेमा है. किसी दौर में हम बातें किया करते थे कि यह गुरुदत्त का सिनेमा है. यह सत्यजीत रे का सिनेमा है. कुछ इसी तरह हम शान से कह सकते कि हमारे पास अमोल गुप्ते का सिनेमा है. जिस शिद्दत से अमोल फिल्में बना रहे हैं. यह उनके सिनेमा की खासियत है. वर्तमान समय में अमोल गुप्ते की फिल्मों की जरूरत है. उनकी फिल्मों में क्राफ्ट है. फिल्म की शुरुआत में अमोल गुप्ते ने अपने फिल्मी प्रोडक् शन के लोगो में ही यह कहानी बयां कर दी है कि वह सिनेमा के माध्यम से क्या कहानी कहने की कोशिश कर रहे हैं. अमोल की फिल्मों में वही भावना, वही संवेदना नजर आती है. जो कभी राजकपूर व सत्यजीत रे व उस दौर के निर्देशकों में नजर आती है. अमोल ने तारे जमीं पर की पटकथा में जो संवेदना दिखाई है. अपनी तीसरी फिल्म में भी उन्होंने उस मासूमियत को बरकरार रखा है. अमोल की फिल्मों की खासियत है कि उसमें संदेश है. अमोल बच्चे को बच्चों की तरह नहीं लेते. वे मानते हैं कि सिनेमा बच्चों का खेल नहीं और इसलिए बच्चों के लिए भी गंभीर फिल्में बनानी चाहिए. और वे अपने इस उद्देश्य को पूरा भी कर रहे हैं.
हवा हवाई उनके सोच, उनकी विचार, उनकी मासूमियत का एक्सटेंशन है. अमोल ने एक साथ बाल शोषण, किसान आत्महत्या जैसे मुद्दे को भी पूरी जिम्मेदारी से दिखाया है. हवा हवाई एक साथ कई कहानियां कह जाती है. इसमें अर्जुन वाघमारे की कहानी है, जो कि अपने पिता से बेहद प्यार करता है और उनके मूल्यों को लेकर चलता है. जिसके घर में प्रार्थना की खास जगह है. वही दूसरी तरफ लकी सर की कहानी है. जिसे स्कैटिंग के माध्यम से उन सपनों को साकार करना है, जिसे कभी उनके माता पिता ने देखा है और तीसरी कहानी अर्जुन के दोस्तों की कहानी है. जो झोपड़पट्टी के हैं. जो छोटी उम्र में किसी गैरेज में काम करते हैं, जो कोई कचरा बिनता है. तो कोई गजरा बेच कर अपनी रोजी रोटी इकट्ठा कर रहा. अमोल ने मुख्य किरदार का नाम यूं ही अर्जुन नहीं रखा है. बल्कि इसकी सार्थकता को भी बयां किया है. अर्जुन के दोस्त उसे क्यों एकलव्य बुलाते हैं. इसे भी चरितार्थ किया है. किस तरह एक छोटा बच्चा घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए छोटी उम्र में काम करना शुरू करता है. किस तरह एक चाय दुकान पर काम करनेवाला हर लड़का राजू बन जाता है. और अपने बचपन की तरह अपना वास्तविक नाम भी खो देता है. फिल्म में जिंदगी की कई बारीकियां हैं. जो आपको प्रभावित करती हैं. किस तरह अपनी जिंदगी से कठिन समय में भी सकारात्मकता की तलाश की जा सकती है. यह अर्जुन के माध्यम से दर्शाने की कोशिश की गयी है.
इस कहानी एक और खासियत यह हंै कि फिल्म में शुरू से ही बच्चे को स्कैटिंग की दुनिया  के सपने नहीं दिखाये जाते. अर्जुन वह दुनिया देखता है और फिर उसकी उसमें रुचि जगती है. मसलन आप बचपन से या पेट से ही किसी विधा में पारंगत नहीं होते. आप देखते हैं. फिर धीरे धीरे रुचि जगती है और फिर आप उस रुचि को अपने अनुसार रचने और खुद को उसमें रमने की कोशिश करते हैं. अमोल गुप्ते के बेटे हैं पार्थो. पार्थो वर्तमान दौर के पारंगत बाल कलाकारों में से एक हैं. भविष्य में वे गंभीर फिल्मों के लिए उपयुक्त अभिनेता साबित होंगे. फिल्म में सह कलाकारों ने भी बेहतरीन योगदान दिया है.