20131127

शुरुआत के दो साल


शुरुआत...आमतौर पर हिंदी अखबारों में इस शब्द को लेकर लोग काफी संदेह में रहते हैं कि शुरुआत में र में छोटी मात्रा होगी या बड़ी. मुझे भी शुरुआती दौर में काफी परेशानी होती थी. मैंने इसे इस ट्रिक से याद किया कि शुुरुआत हमेशा छोटी होती है. बाद में आपकी मेहनत और लगन से वह शुरुआत आकार लेती है. कुछ ऐसी ही शुरुआत आज की ही तारीख में वर्ष  2011 में मैंने इस छोटे से स्तंभ चित्रपट से शुरू की थी. यह छोटा सा सफर आज दो साल का हो गया. पहली बार जब मुझे कहा गया था कि इस स्तंभ को नियमित रूप देना है. उस वक्त मैं नर्वस थी. चूंकि अभी मैं सिनेमा की दुनिया में नयी हूं. सिर्फ चार साल ही तो हुए हैं. लेकिन शुक्रगुजार हूं प्रभात खबर के वरिष्ठों का, जिन्होंने मेरा प्रोत्साहन बढ़ाया और मुझे लिखने के लिए निरंतर प्रेरित करते रहे. जानती हूं कि उनकी उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरी. लेकिन सीखने के क्रम में ही मुझे उन्होंने इस छोटे से कोने में मेरी फिल्मी दुनिया से जुड़े छोटे अनुभव को ही समटेने और फिर उनमें रंग भरने का एक मौका तो दिया है. फेसबुक के माध्यम से जब चित्रपट पढ़ कर लोग अच्छी या बुरी कोई भी प्रतिक्रिया देते हैं तो सबसे ज्यादा सुकून होता है कि लिखने का मकसद तो पूरा हो रहा. यह संयोग है कि इस स्तंभ में मेरा पहला आलेख झारखंड के इम्तियाज अली पर ही आधारित था और आज दो साल पूरे होने पर मैं इम्तियाज से मिली तो उनसे इस बात का जिक्र किया. तो उन्होंने अच्छी प्रतिक्रिया दी. इन दो सालों में सिनेमा 100 सालों में प्रवेश कर चुका है. नियमित लिखने के बावजूद अब भी लगता है कि सिनेमा के 100 वें क्या पहले हिस्से में भी कदम नहीं रख पायी हूं. मेरी कोशिश होगी कि इस स्तंभ के माध्यम से आपको फिल्मी दुनिया के रहस्य से जिस तरह खुद रूबरू होती रहती हूं. रूबरू कराती रहूं. आप सभी पाठकों का आभार.

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