20130513

अनुराग कश्यप फिल्में देख देख कर पैदा किया फिल्मी कीड़ा



वर्ष 1993 में दिल्ली के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से मेरी जर्नी शुरू हुई. उसी फिल्मोत्सव के बाद मुझे लगा कि मुझे फिल्में बनानी हैं. मैंने इस फेस्टिवल में विटोरियो डिसिका जैसे फिल्मकारों की फिल्में देखीं थीं. वही चिल्ड्रेन आर वाचिंग, बाइसाइकिल थीफ और दूसरी फिल्में देखी. वहीं फिल्मों से प्यार हो गया. उसी साल मैच फैक्ट्री गर्ल भी आयी थी. इन फिल्मों ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला और फिर क्या था. मैं पागल हो गया फिल्मों के पीछे. बैग पैक किया और आग गया मुंबई.  मुंबई आने से पहले की जर्नी की बात करूं और अपने बचपन व सिनेमा के जुड़ाव की बात तो मुझे याद है कि मैं फिल्में देखने का शौकीन शुरू से था. पता नहीं क्यों देखता था. लेकिन अच्छा लगता था देखना.उस वक्त पिताजी बहुत नाराज हुए थे. चूंकि मैं तब स्ट्रीट थियेटर करता था तो काफी कंफ्यूज रहता है. पता नहीं था क्या करना है. पिक्चर कैसे बनती है. मेरे पास कोई एक्सपोजर नहीं था सिनेमा का. डिसिका देखा था. उसके बाद यह एक्सपोजर थोड़ा बदला. बचपन में हमारे मोहल्ले में क्लब था. वही हफ्ते में दो बार फिल्में देखते थे. मैं उस वक्त छह साल का था तो हर फिल्म देखने भी नहीं मिलती थी. यूपी के रेणपुर में मेरा बचपन गुजरा. वहां एक ही थियेटर था. चलचित्र नाम था उसका. उवही जाकर मैंने आंधी और कोरा कागज देखी थी. उस वक्त पिताजी को मेरी यह हरकतें अच्छी नहीं लगती थीं. वे कहते कि ये बड़ों का सिनेमा है. इसे क्यों देखते हों. लेकिन मैं देखता था. उन फिल्मों के इमेज आज भी दिमाग में जिंदा है. उसके बाद फिल्में देखने का सिलसिला टूट गया. फिर जब मैं हॉस्टल पहुंचा तो वहां फिल्में देखने लगा. खासतौर से शनिवार को देखा करता था. उस वक्त सबसे अधिक बार दो बदन ही दिखाया जाता था. चूंकि प्रिसिंपल की फेवरिट फिल्म थी. प्रोजेक्ट्र पर देखते थे वह फिल्म. लेकिन बाद में मेरा कई सालों तक फिल्मों से नाता टूट गया. देहरादून में पढ़ने के बाद जब दिल्ली आया तो यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. वहां फिल्में देखने लगीं.यूनिवर्सिटी के आस पास के सिनेमा थिेटरों में जाता था. उसी दौरान फिल्म अनटचबेल देखी तो लगा कि अंगरेजी फिल्में भी देखनी चाहिए और इसी तरह मैंने उस वक्त वर्ल्ड सिनेमा की कई फिल्में देखीं. कई इंटरनेशनल फिल्मोत्सव में शामिल हो जाता था फिल्में देखने के लिए. सिनेमा का एक्सपोजर वहां से मिलने लगा. फिर मुंबई आ गया. मुंबई में तब क नयी जर्नी शुरू हुई. उस वक्त पता नहीं चल रहा था क्या करना है. एक्टिंग कि निर्देशन. ये भी समझ नहीं आता था किसके पास जाऊं. फिर तनाव में आकर मैं नाटक लिखा करता था. नाटक लिख कर मैं गोविंद निहलानी के पास गया तो उन्हें मेरा काम पसंद आया. उसके बाद गोविंद जी के लिए एक नाटक का काम किया. मुझे उस वक्त कोई न तो दिशा मिल रही थी न कुछ. मैं तनाव में आकर कई बार फोन बंद करके रहने लगा. लेकिन इसी बीच मुझे टैक्सी ड्राइवर फिल्म देखने का मौका मिला. उस वक्त इस फिल्म से मैं अलग तरीके से ही जुड़ गया. फिर मैं श्रीराम राधवन, श्रीधर राघवन से मिला. श्री राम राघवन ने अपनी बातचीत में जितनी किताबों का जिक्र किया. वे मैं अपनी कॉपी में लिख लेता था. फिर वे सारी किताबें खरीदता था. एक दिन श्रीधर ने ही बताया कि ये किताबें साांताक्रूज स्टेश्न के पास मिलती हैं. मैंने वही से कई किताबें खरीदी पढ़ी. वहीं जेम्स एम केम को पढ़ने के बाद फिर एक बेचैनी सी आ गयी. धीरे धीरे काम मिला. एक फिल्म की कहानी लिखनी शुरू की. लेकिन निर्देशकों ने कहा कि फिल्म नहीं बनेगी. मैंने पूछा क्यों तो कहा कि स्क्रिप्ट मजेदार नहीं है. मैं दोबारा उसे लेकर बैठा और रातोंरात मैंने दोबारा स्क्रिप्ट लिखी. बाद में वह फिल्म बनी मुझे क6ेडिट भी मिला. धीरे धीरे शिव सुब्ररमणयम, श्रीधर , श्रीराम ने ही आगे बढ़ाया. फिर मनोज बाजपेयी को रामगोपाल ने कहा कि मुझे तुम्हारे साथ फिल्म बनानी है. लेकिन एक नया रायटर दो. मनोज ने मेरा नाम सुझाया. मैं पहले चौंका की रामू की फिल्म लिखने का मौका मिलेगा. फिर मैं मिला. बातें हुईं और सत्या लिखी. उसी वक्त से मैंने और भी बहुत कुछ लिखना शुरू किया और निर्देशन का जज्बा धीरे धीरे पैदा हो गया. मैंने पांच लिखना शुरू की. उस वक्त पांच का नाम मिराज रखा था. स्क्रिप्ट पूरी हुई. मैंने पांच लिखते वक्त फन नामक एक फिल्म देखी थी जिसे देख कर मैं फिर प्रभावित हुआ. पांच की कहानी फन से मिलती जुलती है. और यही मेरी जर्नी की शुरुआत हुई फिल्म मेकिंग की. पांच कभी प्रदर्शित नहीं हुई. लेकिन मैंने फिल्में बनाना नहीं छोड़ा. वह जूनून जो मेरे अंदर आ चुका था. आज भी है.फिल्में देख देख कर मैंने फिल्में बनानी सीखी है. और हमेशा इसे बनाता रहूंगा.

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