20130514

किरदार का होमवर्क



इन दिनों फिल्म औरंगजेब के प्रोमोशन के लिए पूरी टीम गुड़गांव में जा रही है. वजह यह कि फिल्म की कहानी गुड़गांव की पृष्ठभूमि पर आधारित है. खबर है कि अुर्जन कपूर जो कि फिल्म में लीड किरदार निभा रहे हैं. वे इस फिल्म के किरदार में डूबने के लिए गुड़गांव का रहनसहन अपनायेंगे. दरअसल, किसी भी फिल्म के किरदार को निभाने के लिए किसी भी कलाकार के लिए यह बेहद अहम होता है कि वे जब भी किसी किरदार को निभाये तो उसमें ढलने की पूरी कोशिश करे. लेकिन यह सब फिल्म के किरदार को निभाने से पहले किया जाना चाहिए. चूंकि यही किसी भी कलाकार का होम वर्क होता है. किसी दौर में संजीव कुमार को जब सत्यजीत रे जैसे निर्देशक की तरफ से फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में काम करने का मौका मिला तो संजीव इस बात से नर्वस थे कि वे सत्यजीत रे की फिल्म में काम करने जा रहे हैं और उस वक्त तक उन्होंने सत्यजीत रे की कोई फिल्म देखी ही नहीं थी. सो, उन्होंने मुंबई से दूर लगभग 2 महीने का लंबा ब्रेक लिया और पुणे के फिल्म इंस्टीटयूट गये. जहां पीके नायर ने उन्हें फिल्म आर्काइव की मदद से सत्यजीत रे की कई फिल्में दिखायीं. फिल्म देखने के बाद संजीव कुमार भी सत्यजीत रे की शैली से अवगत हुए और फिर उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी में बेहतरीन परफॉरमेंस दिया. दरअसल, यही हकीकत है कि किसी फिल्म के किरदार को निभाते वक्त अगर वाकई कलाकार फिल्म के निर्देशक की पहले बनी फिल्में देख लें और खुद होमवर्क करें तो निश्चित तौर पर उनकी फिल्मों के किरदार में निखार आता है. किसी दौर में कलाकार एक साथ एक ही फिल्म पर काम करते थे. सो, उनके पास वक्त होता था. वह एक फिल्म पर पूरा ध्यान देते थे. आज के दौर में रणबीर कपूर, आमिर खान और ऋतिक रोशन अपने किरदारों पर ध्यान देते हैं.

20130513

जज्बात वही आशिकी नयी

urmila kori
1990 में आयी महेश भट्ट निर्देशित रोमांटिक फिल्म ‘आशिकी’ अपने समय की सफल फिल्मों में से एक है. लगभग 23 साल बाद भट्ट कैंप एक बार फिर प्यार के उसी जज्बात को नये अंदाज में ‘आशिकी टू’ से परदे पर परिभाषित करने जा रहा है. आदित्य रॉय कपूर और र्शद्धा कपूर इस फिल्म में मुख्य भूमिका में हैं. इन सितारों का कहना है कि ‘आशिकी टू’ पुरानी ‘आशिकी’ से काफी अलग है. जैसे पीढ.ी में बदलाव आया है वैसे ही फिल्म की कहानी में भी कई परिवर्तन आये हैं. दोनों में कोई समानता है तो वह है खास प्रेम कहानी. आदित्य रॉय कपूर और र्शद्धा कपूर से इस फिल्म और उनके कैरियर पर हुई बातचीत के प्रमुख अंश


राहुल रॉय और अनु अग्रवाल अभिनीत फिल्म ‘आशिकी’ को उसके गीत-संगीत की वजह से खास पहचान मिली थी. ‘आशिकी टू-’ का संगीत भी सभी को लुभा रहा है. कुणाल बताते हैं कि ‘आशिकी टू’ पुरानी ‘आशिकी’ की न तो रीमेक है, न ही सीक्वल. फिर भी दोनों में एक समानता है. इनका संगीत और अलग तरह की प्रेम कहानी. इसी समानता के कारण इस फिल्म का नाम ‘आशिकी टू’ है. 

यह फिल्म आपको कैसे मिली? 

आदित्य रॉय कपूर : भट्ट कैंप से ऑडिशन के लिए फोन आया. मैंने ऑडिशन दिया और मुझे यह फिल्म मिल गयी. मैं बहुत खुश हूं कि अपने कैरियर की सोलो लीड में मैं एक रोमांटिक फिल्म का हिस्सा हूं. 

र्शद्धा कपूर : मुझे यह फिल्म मोहित सूरी ने ऑफर की थी. हम पहले भी किसी और फिल्म के लिएमिल चुके थे, लेकिन वह फिल्म किसी कारणवश नहीं बन पायी. मोहित ने मुझे बताया था कि उन्होंने मुझे इस फिल्म में इस वजह से लिया, क्योंकि जब वह मेरे घर मुझसे मिलने आये थे, तब मैंने कोई मेकअप नहीं किया था. बालों का जूड.ा बनाया हुआ था. चश्मा पहना हुआ था. ‘आशिकी टू’ की लड.की का किरदार भी एक सिंपल-सी लड.की का ही है. मेरी सिंपलिसिटी उन्हें भा गयी और उन्होंने मुझे यह फिल्म ऑफर कर दी. 

क्या आपने पहले वाली ‘आशिकी’ देखी है और क्या उससे कोई रिफरेंस प्वाइंट भी लिया है? 

आदित्य रॉय कपूर : मैने जब वह फिल्म देखी थी तब मैं 6-7 साल का था, लेकिन यह फिल्म साइन करने के बाद मैंने वह फिल्म नहीं देखी, क्योंकि मैं ‘आशिकी’ से प्रभावित होकर यह फिल्म नहीं करना चाहता था. 

र्शद्धा कपूर : मैं जब 2 साल की थी तब मैंने वह फिल्म देखी थी, लेकिन यह फिल्म ‘आशिकी’ का रीमेक नहीं है, न ही सीक्वल है. यह बात मोहित ने मुझे पहले ही क्लीयर कर दी थी. इसलिए मुझे दोबारा ‘आशिकी’ देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई. 

फिल्म के प्रोमो से यह अमिताभ बच्चन और जया बान की फिल्म ‘अभिमान’ की कहानी नजर आ रही है. जहां दो सिंगर्स कपल के बीच उनका इगो आ जाता है. 

आदित्य रॉय कपूर : यह फिल्म ‘अभिमान’ की तरह है या नहीं, मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वह फिल्म देखी ही नहीं है. मैंने पुरानी फिल्में ज्यादा नहीं देखी है इसलिए आपको नहीं बता पाऊंगा. 

र्शद्धा कपूर : नहीं, इस फिल्म की कहानी उस तरह की नहीं है. वह अलग तरह की फिल्म है. यह बहुत ही सिचुएशनल फिल्म है. 

अपने किरदार के लिएआपको किस तरह की तैयारी करनी पड.ी? 

आदित्य रॉय कपूर : अब तक मैंने ‘गुजारिश’,‘लंदन ड्रीम्स’ और ‘एक्शन रीप्ले’ जैसी फिल्में की हैं, जहां मैं सपोर्टिंग एक्टर था लेकिन इस बार मैं सेंटर ऑफ अट्रैक्शन सेट पर था. इसलिए शुरुआत में थोड.ा मुश्किल लगता था लेकिन मोहित ने सब मैनेज कर लिया. उसने मुझे कठपुतली नहीं बनाया. वैसे, मैंने अपनी आवाज, बॉडी लैग्वेज सब पर काम किया. बाल भी कटवाने पडे.. मुझे गिटार बजाना आता है इसलिए इसकी मुझे खास तैयारी नहीं करनी पड.ी. 

र्शद्धा कपूर : इस फिल्म में मैं महाराष्ट्रियन लड.की के किरदार में हूं. अपनी मां की तरफ से मैं महाराष्ट्रियन ही हूं, इसलिए मुझे किरदार के लिए अपनी बॉडी लैग्वेज या बोलचाल पर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड.ी. 

क्या आप हमेशा से अभिनय को ही कैरियर बनाना चाहते थे?

आदित्य रॉय कपूर : जब मैं वीजे था, तब मैंने कैरियर के बारे में सोचा ही नहीं था. मैं मजे के लिए वह काम करता था. फिर मुझे यह सब अच्छा लगने लगा तो मैंने महसूस किया कि मैं यह करूंगा. 

र्शद्धा कपूर : जैसा की सभी जानते हैं कि मेरे पिता शक्ति कपूर फिल्मों के चरित्र अनिभेता हैं. बचपन में मां के साथ मैं उनकी फिल्मों के सेट पर जाने लगी थी. फिल्मों की शूटिंग के दौरान जब हीरो पापा को मारता था, तो मैं रोने लगती थी. एक दिन मम्मी ने मुझे समझाया कि पापा एक्टर हैं और वह जो कुछ भी कर रहे हैं, वो एक्टिंग हैं. उसी दिन मैंने इस शब्द से खुद को जोड. लिया. 

आपके लिए प्यार की परिभाषा क्या है ? 

आदित्य रॉय कपूर : मुझे अब तक यह हुआ नहीं है. जब मैं सातवीं क्लास में था, तब प्यार हुआ था. मैं उससे शादी भी करना चाहता था. मुझे लगता है कि प्यार एक जुनून है, एक पागलपन है. रिलेशनशिप के मायने हर दिन बदलते जा रहे हैं. जब प्यार में पड.ूंगा तो शायद इसे समझ सकूंगा. तभी आपको बता पाऊंगा. 

र्शद्धा कपूर : लव मेरे लिए पागलपन का दूसरा नाम है. प्यार में आपको एक दूसरे के लिए पागल होना चाहिए. तभी मेरे लिएआप प्यार में हैं, वरना नहीं हैं. 

अपने पार्टनर में आप क्या खूबी चाहते हैं? 

आदित्य रॉय कपूर : उसके बाल घुंघराले हों, दांत चमकीले हों. शायद लुक पर मैं नहीं बोल पाऊंगा. हां नेचर में यह जरूर चाहूंगा कि उसमें एक साई हो और वह खुद पर विश्‍वास करती हो. हमेशा अपने दिल की सुनती हो. 

र्शद्धा कपूर : मेरे पार्टनर को एंडवेचर्स होना ही होगा. जैसे उसे खाना पसंद हो, घूमना पसंद हो, फिल्में देखना पसंद हो. ट्रैकिंग पर जाना अच्छा लगता हो. आलसी लड.के मुझे पसंद नहीं हैं. 

को-एक्टर के तौर पर आप एक दूसरे को कैसा पाते हैं? 

आदित्य रॉय कपूर : र्शद्धा बहुत ही प्रतिभाशाली लड.की है. घमंड बिल्कुल भी नहीं है. वह टीमवर्क को जानती है. उसे पता है कि एक्टिंग भी टीम वर्क का ही नतीजा है. 

र्शद्धा कपूर : आदित्य वंडरफुल कोस्टार है, जो आपको शूटिंग के दौरान एकदम सहज कर देता है. आपको पूरा स्पेस देता है.

इस फिल्म में बोल्ड सीन करते हुए आप दोनों कितने सहज थे? क्या आप मानते हैं कि ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिए ऑफ स्क्रीन केमिस्ट्री भी जरूरी होती है? 

आदित्य रॉय कपूर : फिल्म में उतने बोल्ड सीन नहीं हैं, जितना आप सोच रहे हैं. यह एक साफ सुथरी फिल्म है. हां, ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिएऑफ स्क्रीन दोस्ती होनी जरूरी है. वरना आप सेट पर पहले दिन गये और हाय मैं आदित्य हूं बोलकर किसिंग सीन सहजता से नहीं कर पायेंगे. फिल्म की शूटिंग से पहले हमने वर्कशॉप किया था, जहां हम अच्छे दोस्त बन गये थे. 

र्शद्धा कपूर : ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिए कलाकारों के बीच में सहजता का होना जरूरी है. वह दोस्ती से ही हो सकती है. आदित्य बहुत अच्छे और सहज इंसान हैं. आपसे जल्द ही उनकी दोस्ती हो जायेगी.राहुल रॉय और अनु अग्रवाल अभिनीत फिल्म ‘आशिकी’ को उसके गीत-संगीत की वजह से खास पहचान मिली थी. ‘आशिकी टू-’ का संगीत भी सभी को लुभा रहा है. कुणाल बताते हैं कि ‘आशिकी टू’ पुरानी ‘आशिकी’ की न तो रीमेक है, न ही सीक्वल. फिर भी दोनों में एक समानता है. इनका संगीत और अलग तरह की प्रेम कहानी. इसी समानता के कारण इस फिल्म का नाम ‘आशिकी टू’ है. 

यह फिल्म आपको कैसे मिली? 

आदित्य रॉय कपूर : भट्ट कैंप से ऑडिशन के लिए फोन आया. मैंने ऑडिशन दिया और मुझे यह फिल्म मिल गयी. मैं बहुत खुश हूं कि अपने कैरियर की सोलो लीड में मैं एक रोमांटिक फिल्म का हिस्सा हूं. 

र्शद्धा कपूर : मुझे यह फिल्म मोहित सूरी ने ऑफर की थी. हम पहले भी किसी और फिल्म के लिएमिल चुके थे, लेकिन वह फिल्म किसी कारणवश नहीं बन पायी. मोहित ने मुझे बताया था कि उन्होंने मुझे इस फिल्म में इस वजह से लिया, क्योंकि जब वह मेरे घर मुझसे मिलने आये थे, तब मैंने कोई मेकअप नहीं किया था. बालों का जूड.ा बनाया हुआ था. चश्मा पहना हुआ था. ‘आशिकी टू’ की लड.की का किरदार भी एक सिंपल-सी लड.की का ही है. मेरी सिंपलिसिटी उन्हें भा गयी और उन्होंने मुझे यह फिल्म ऑफर कर दी. 

क्या आपने पहले वाली ‘आशिकी’ देखी है और क्या उससे कोई रिफरेंस प्वाइंट भी लिया है? 

आदित्य रॉय कपूर : मैने जब वह फिल्म देखी थी तब मैं 6-7 साल का था, लेकिन यह फिल्म साइन करने के बाद मैंने वह फिल्म नहीं देखी, क्योंकि मैं ‘आशिकी’ से प्रभावित होकर यह फिल्म नहीं करना चाहता था. 

र्शद्धा कपूर : मैं जब 2 साल की थी तब मैंने वह फिल्म देखी थी, लेकिन यह फिल्म ‘आशिकी’ का रीमेक नहीं है, न ही सीक्वल है. यह बात मोहित ने मुझे पहले ही क्लीयर कर दी थी. इसलिए मुझे दोबारा ‘आशिकी’ देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई. 

फिल्म के प्रोमो से यह अमिताभ बच्चन और जया बान की फिल्म ‘अभिमान’ की कहानी नजर आ रही है. जहां दो सिंगर्स कपल के बीच उनका इगो आ जाता है. 

आदित्य रॉय कपूर : यह फिल्म ‘अभिमान’ की तरह है या नहीं, मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वह फिल्म देखी ही नहीं है. मैंने पुरानी फिल्में ज्यादा नहीं देखी है इसलिए आपको नहीं बता पाऊंगा. 

र्शद्धा कपूर : नहीं, इस फिल्म की कहानी उस तरह की नहीं है. वह अलग तरह की फिल्म है. यह बहुत ही सिचुएशनल फिल्म है. 

अपने किरदार के लिएआपको किस तरह की तैयारी करनी पड.ी? 

आदित्य रॉय कपूर : अब तक मैंने ‘गुजारिश’,‘लंदन ड्रीम्स’ और ‘एक्शन रीप्ले’ जैसी फिल्में की हैं, जहां मैं सपोर्टिंग एक्टर था लेकिन इस बार मैं सेंटर ऑफ अट्रैक्शन सेट पर था. इसलिए शुरुआत में थोड.ा मुश्किल लगता था लेकिन मोहित ने सब मैनेज कर लिया. उसने मुझे कठपुतली नहीं बनाया. वैसे, मैंने अपनी आवाज, बॉडी लैग्वेज सब पर काम किया. बाल भी कटवाने पडे.. मुझे गिटार बजाना आता है इसलिए इसकी मुझे खास तैयारी नहीं करनी पड.ी. 

र्शद्धा कपूर : इस फिल्म में मैं महाराष्ट्रियन लड.की के किरदार में हूं. अपनी मां की तरफ से मैं महाराष्ट्रियन ही हूं, इसलिए मुझे किरदार के लिए अपनी बॉडी लैग्वेज या बोलचाल पर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड.ी. 

क्या आप हमेशा से अभिनय को ही कैरियर बनाना चाहते थे?

आदित्य रॉय कपूर : जब मैं वीजे था, तब मैंने कैरियर के बारे में सोचा ही नहीं था. मैं मजे के लिए वह काम करता था. फिर मुझे यह सब अच्छा लगने लगा तो मैंने महसूस किया कि मैं यह करूंगा. 

र्शद्धा कपूर : जैसा की सभी जानते हैं कि मेरे पिता शक्ति कपूर फिल्मों के चरित्र अनिभेता हैं. बचपन में मां के साथ मैं उनकी फिल्मों के सेट पर जाने लगी थी. फिल्मों की शूटिंग के दौरान जब हीरो पापा को मारता था, तो मैं रोने लगती थी. एक दिन मम्मी ने मुझे समझाया कि पापा एक्टर हैं और वह जो कुछ भी कर रहे हैं, वो एक्टिंग हैं. उसी दिन मैंने इस शब्द से खुद को जोड. लिया. 

आपके लिए प्यार की परिभाषा क्या है ? 

आदित्य रॉय कपूर : मुझे अब तक यह हुआ नहीं है. जब मैं सातवीं क्लास में था, तब प्यार हुआ था. मैं उससे शादी भी करना चाहता था. मुझे लगता है कि प्यार एक जुनून है, एक पागलपन है. रिलेशनशिप के मायने हर दिन बदलते जा रहे हैं. जब प्यार में पड.ूंगा तो शायद इसे समझ सकूंगा. तभी आपको बता पाऊंगा. 

र्शद्धा कपूर : लव मेरे लिए पागलपन का दूसरा नाम है. प्यार में आपको एक दूसरे के लिए पागल होना चाहिए. तभी मेरे लिएआप प्यार में हैं, वरना नहीं हैं. 

अपने पार्टनर में आप क्या खूबी चाहते हैं? 

आदित्य रॉय कपूर : उसके बाल घुंघराले हों, दांत चमकीले हों. शायद लुक पर मैं नहीं बोल पाऊंगा. हां नेचर में यह जरूर चाहूंगा कि उसमें एक साई हो और वह खुद पर विश्‍वास करती हो. हमेशा अपने दिल की सुनती हो. 

र्शद्धा कपूर : मेरे पार्टनर को एंडवेचर्स होना ही होगा. जैसे उसे खाना पसंद हो, घूमना पसंद हो, फिल्में देखना पसंद हो. ट्रैकिंग पर जाना अच्छा लगता हो. आलसी लड.के मुझे पसंद नहीं हैं. 

को-एक्टर के तौर पर आप एक दूसरे को कैसा पाते हैं? 

आदित्य रॉय कपूर : र्शद्धा बहुत ही प्रतिभाशाली लड.की है. घमंड बिल्कुल भी नहीं है. वह टीमवर्क को जानती है. उसे पता है कि एक्टिंग भी टीम वर्क का ही नतीजा है. 

र्शद्धा कपूर : आदित्य वंडरफुल कोस्टार है, जो आपको शूटिंग के दौरान एकदम सहज कर देता है. आपको पूरा स्पेस देता है.

इस फिल्म में बोल्ड सीन करते हुए आप दोनों कितने सहज थे? क्या आप मानते हैं कि ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिए ऑफ स्क्रीन केमिस्ट्री भी जरूरी होती है? 

आदित्य रॉय कपूर : फिल्म में उतने बोल्ड सीन नहीं हैं, जितना आप सोच रहे हैं. यह एक साफ सुथरी फिल्म है. हां, ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिएऑफ स्क्रीन दोस्ती होनी जरूरी है. वरना आप सेट पर पहले दिन गये और हाय मैं आदित्य हूं बोलकर किसिंग सीन सहजता से नहीं कर पायेंगे. फिल्म की शूटिंग से पहले हमने वर्कशॉप किया था, जहां हम अच्छे दोस्त बन गये थे. 

र्शद्धा कपूर : ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री के लिए कलाकारों के बीच में सहजता का होना जरूरी है. वह दोस्ती से ही हो सकती है. आदित्य बहुत अच्छे और सहज इंसान हैं. आपसे जल्द ही उनकी दोस्ती हो जायेगी.

गैंग्स ने बदल दी जिंदगी : हुमा

हुमा ने अपनी पहली ही फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से दर्शकों के दिलों में अपनी अलग जगह बना ली. फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में उन्होंने जिस तरह ठेठ बिहारी लड.की का किरदार निभाया, फिर ‘लव शव ते चिकन खुराना’ में वे पंजाबी बन कर लोगों के सामने आयीं और अब फिल्म ‘एक थी डायन’ में वह एक अलग ही रूप में दर्शकों के सामने होंगी. बेहद बातूनी हुमा हमेशा की तरह बेहद रोचक तरीके से सारे सवालों का जवाब देती गयीं. बातचीत हुमा से.. 

हुमा, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में एकदम बिंदास किरदार फिर ‘लव शव..’ में पंजाबी कुड.ी का किरदार, तो इस बार कहां डायनों के बीच आ फंसी आप?

अरे, मैं फंसी बिल्कुल नहीं हूं. मैं यहां भी आपको बिंदास ही नजर आऊंगी. पहले आप फिल्म तो देखिए. इस फिल्म में भी मैं अपने स्वभाव के मुताबिक ही किरदार निभा रही हूं. खूब मस्ती करती हूं. नाचती गाती हूं. इमरान जो कि फिल्म में जादूगर हैं, मैं उनकी गर्लफ्रेंड का किरदार निभा रही हूं. 

इस फिल्म को करने की खास वजह क्या रही?

‘एक थी डायन’ जैसी फिल्म को आप न कह ही नहीं सकते. मेरा तो इस फिल्म के लिए बाकायदा ऑडिशन हुआ था. विशाल जी ने मेरी फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ देखी थी. उनको मेरा काम अच्छा लगा था. उन्होंने मुझे बुलाया. दो दिन ऑडिशन चला. फिर कहानी सुनायी गयी. स्क्रिप्ट दी गयी और मुझे लग रहा था कि मुझे इस फिल्म का हिस्सा होना ही है, क्योंकि जिस तरह से ये कहानी लिखी गयी है, जितने टर्न एंड ट्विस्ट हैं फिल्म में, वो बिल्कुल अलग असर छोड.ते हैं. फिल्म के सारे कैरेक्टर अच्छे हैं. इससे पहले मैंने ऐसे जॉनर में काम नहीं किया था. मेरे पास कभी ऐसा ऑफर आया भी नहीं था, लेकिन मैं ऐसे किरदार करना जरूर चाहती थी. विशाल भारद्वाज के साथ किसी ऐसी फिल्म में काम करना एक नयी अभिनेत्री के लिए बड.ी बात है. मेरे लिए तो यह बेवकूफी ही होती अगर मैं फिल्म को न कहती.

फिल्म के निर्देशक तो कत्रन अय्यर हैं, लेकिन सभी केवल विशाल की ही बातें कर रहे हैं. निर्देशक के बारे में तो थोड.ी जानकारी दें? कैसा रहा उनके साथ का अनुभव?

ये उनकी पहली फिल्म है, लेकिन वे कमाल के निर्देशक हैं. आपको फिल्म देखने के बाद कहीं भी नहीं लगेगा कि यह उनकी पहली फिल्म है. उन्होंने किस तरह एक अनयूजअल-सी कास्टिंग सोची और फिल्म के किरदार में हर किरदार को कितनी महत्ता से दिखाया है, उसे गढ.ा है, इसका एहसास आपको फिल्म देख कर ही होगा. कत्रन सर काफी समय से इंडस्ट्री से जुडे. रहे हैं. उन्होंने काफी काम किया है. इसलिए, इस फिल्म में वे सारे अनुभव का इस्तेमाल कर रहे हैं. साथ ही फिल्म के कलाकार कल्कि, कोंकणा, इमरान सभी के साथ काम करके बहुत मजा आया.

हुमा, अब इंडस्ट्री का रवैया आपकी तरफ किस तरह बदला है. क्या अब लोग आपको पहले से अधिक तवज्जो देने लगे हैं?

ईमानदारी से कहूं तो मैंने बहुत स्ट्रगल नहीं किया है. मुझे बहुत प्यार मिला है. मैंने कभी महसूस नहीं किया कि आउटसाइडर हूं. बाहर से आयी हूं. हां, मगर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ मेरे लिए लकी साबित हुई. इस फिल्म ने मुझे बदला है. 

हां,यह जरूर है कि इंडस्ट्री में मेरा कोई गॉड फादर नहीं रहा. लेकिन ‘गैंग्स’ की वजह से लोगों ने मुझे अच्छे रोल देने शुरू कर दिये और शुरुआती दिनों में ही इतने अच्छे निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिलता है, तो इससे बड.ी खुशकिस्मती और क्या होगी. आप कह सकती हैं कि ‘गैंग्स’ मेरे लिए टर्निंग प्वाइंट रहा. इस फिल्म से मैंने बहुत सीखा है. आज जो हूं, इसी की वजह से हूं.हुमा ने अपनी पहली ही फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से दर्शकों के दिलों में अपनी अलग जगह बना ली. फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में उन्होंने जिस तरह ठेठ बिहारी लड.की का किरदार निभाया, फिर ‘लव शव ते चिकन खुराना’ में वे पंजाबी बन कर लोगों के सामने आयीं और अब फिल्म ‘एक थी डायन’ में वह एक अलग ही रूप में दर्शकों के सामने होंगी. बेहद बातूनी हुमा हमेशा की तरह बेहद रोचक तरीके से सारे सवालों का जवाब देती गयीं. बातचीत हुमा से.. 

हुमा, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में एकदम बिंदास किरदार फिर ‘लव शव..’ में पंजाबी कुड.ी का किरदार, तो इस बार कहां डायनों के बीच आ फंसी आप?

अरे, मैं फंसी बिल्कुल नहीं हूं. मैं यहां भी आपको बिंदास ही नजर आऊंगी. पहले आप फिल्म तो देखिए. इस फिल्म में भी मैं अपने स्वभाव के मुताबिक ही किरदार निभा रही हूं. खूब मस्ती करती हूं. नाचती गाती हूं. इमरान जो कि फिल्म में जादूगर हैं, मैं उनकी गर्लफ्रेंड का किरदार निभा रही हूं. 

इस फिल्म को करने की खास वजह क्या रही?

‘एक थी डायन’ जैसी फिल्म को आप न कह ही नहीं सकते. मेरा तो इस फिल्म के लिए बाकायदा ऑडिशन हुआ था. विशाल जी ने मेरी फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ देखी थी. उनको मेरा काम अच्छा लगा था. उन्होंने मुझे बुलाया. दो दिन ऑडिशन चला. फिर कहानी सुनायी गयी. स्क्रिप्ट दी गयी और मुझे लग रहा था कि मुझे इस फिल्म का हिस्सा होना ही है, क्योंकि जिस तरह से ये कहानी लिखी गयी है, जितने टर्न एंड ट्विस्ट हैं फिल्म में, वो बिल्कुल अलग असर छोड.ते हैं. फिल्म के सारे कैरेक्टर अच्छे हैं. इससे पहले मैंने ऐसे जॉनर में काम नहीं किया था. मेरे पास कभी ऐसा ऑफर आया भी नहीं था, लेकिन मैं ऐसे किरदार करना जरूर चाहती थी. विशाल भारद्वाज के साथ किसी ऐसी फिल्म में काम करना एक नयी अभिनेत्री के लिए बड.ी बात है. मेरे लिए तो यह बेवकूफी ही होती अगर मैं फिल्म को न कहती.

फिल्म के निर्देशक तो कत्रन अय्यर हैं, लेकिन सभी केवल विशाल की ही बातें कर रहे हैं. निर्देशक के बारे में तो थोड.ी जानकारी दें? कैसा रहा उनके साथ का अनुभव?

ये उनकी पहली फिल्म है, लेकिन वे कमाल के निर्देशक हैं. आपको फिल्म देखने के बाद कहीं भी नहीं लगेगा कि यह उनकी पहली फिल्म है. उन्होंने किस तरह एक अनयूजअल-सी कास्टिंग सोची और फिल्म के किरदार में हर किरदार को कितनी महत्ता से दिखाया है, उसे गढ.ा है, इसका एहसास आपको फिल्म देख कर ही होगा. कत्रन सर काफी समय से इंडस्ट्री से जुडे. रहे हैं. उन्होंने काफी काम किया है. इसलिए, इस फिल्म में वे सारे अनुभव का इस्तेमाल कर रहे हैं. साथ ही फिल्म के कलाकार कल्कि, कोंकणा, इमरान सभी के साथ काम करके बहुत मजा आया.

हुमा, अब इंडस्ट्री का रवैया आपकी तरफ किस तरह बदला है. क्या अब लोग आपको पहले से अधिक तवज्जो देने लगे हैं?

ईमानदारी से कहूं तो मैंने बहुत स्ट्रगल नहीं किया है. मुझे बहुत प्यार मिला है. मैंने कभी महसूस नहीं किया कि आउटसाइडर हूं. बाहर से आयी हूं. हां, मगर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ मेरे लिए लकी साबित हुई. इस फिल्म ने मुझे बदला है. 

हां,यह जरूर है कि इंडस्ट्री में मेरा कोई गॉड फादर नहीं रहा. लेकिन ‘गैंग्स’ की वजह से लोगों ने मुझे अच्छे रोल देने शुरू कर दिये और शुरुआती दिनों में ही इतने अच्छे निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिलता है, तो इससे बड.ी खुशकिस्मती और क्या होगी. आप कह सकती हैं कि ‘गैंग्स’ मेरे लिए टर्निंग प्वाइंट रहा. इस फिल्म से मैंने बहुत सीखा है. आज जो हूं, इसी की वजह से हूं.

आयटम गर्ल की सीमा रेखा



 फिल्म शूटआउट एट वडाला के एक आयटम गीत लैला तेरी ले लेगी तू लिख के लेले नामक गाने ने इन दिनों धूम मचा रखी है. फिल्म में सनी लियोने को आयटम गर्ल के रूप में प्रस्तुत करने की खास वजह यह है कि इन दिनों सनी लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय किन कारणों से यह जगजाहिर है. सनी ने कुछ दिनों पहले महेश भट्ट की फिल्म जिस्म 2 से अपने बॉलीवुड करियर की शुरुआत की है. और इसके बाद वह एकता कपूर की रागिनी एमएमएस 2 में काम कर रही हैं. इसके अलावा सनी को जो बाकी फिल्में मिल रही हैं, उन सभी में वे कमोवेश एक ही चीजें कर रही हैं. इस आयटम नंबर में भी सनी को जान बूझ कर ऐसे सारे मूव्स दिये गये हैं, जो दर्शकों को उत्तेजित करें. दरअसल, सनी लियोने शायद इस बात से वाकिफ नहीं कि यहां भी वे उसी रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं. जैसी उनकी छवि है. कोई भी निर्देशक उनकी लोकप्रियता को ही भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि जब आप व्यक्तिगत रूप से सनी से बात करें तो आप महसूस करेंगे कि सनी काफी आत्मविश्वासी लड़की हैं. वे भी बेहतरीन किरदार कर सकती हैं. अगर उन्हें मौके मिले तो. लेकिन हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री का तो यह चलन है कि वे आयटम गर्ल को आयटम गर्ल के रूप में ही प्रस्तुत करती हैं. यहां आयटम गर्ल सिर्फ आयटम ही कर सकती हैं. हां, मगर अभिनेत्रियां चाहें तो वह आयटम भी कर सकती हैं और लीड किरदार भी. जबकि पुराने दौर में हेलेन जैसी अभिनेत्रियां सिर्फ कैब्रे के लिए फिल्मों में नहीं होती थीं. बिंदू , शशिकला जैसी अभिनेत्रियां फिल्मों की अहम हिस्सा होती थीं.लेकिन अब दौर बदल गया है. आयटम गर्ल बनी अभिनेत्रियां अपने फिल्मों के आयटम गीतों में कोई सीमा न रखती हों. लेकिन वह लगातार अगर सिर्फ इसी तरह खुद को प्रस्तुत करती रहीं तो फिल्मों में उनकी सीमा जरूर सीमित रह जायेगी.

बदतमीज दिल रणबीर का



इन दिनों रणबीर कपूर की फिल्म ये जवानी है दीवानी का नया गीत दिल बदतमीज दर्शकों को बेहद पसंद आ रहा है. विशेष कर युवाओं को यह गीत बेहद लुभा रहा है. इस गाने में रणबीर कपूर जिस मस्ती के मूड में नजर आ रहे हैं. और जिस मस्ती से उन्होंने अपने सारे डांसिंग मूव्स किये हैं. वह आपके मूड को भी रिफ्रेश कर देता है. दरअसल, रणबीर उन कलाकारों में से एक हैं, जो अपने काम को गंभीरता से लेते हैं लेकिन खुद को नहीं. रणबीर कपूर खानदान के चिराग हैं. लेकिन उनमें कपूर खानदान वाला रयिशी व्यवहार बिल्कुल नहीं है. उनकी मां नीतू सिंह ने एक बार अपनी बातचीत में कहा था कि रणबीर को पार्टी या डांस पसंद नहीं है और वह बेहद शर्मिले हैं. लेकिन रणबीर को पिछले जितने भी पब्लिक अपीयरेंसेज में देखा है. वे अपनी मां के इस कथन से उलट ही नजर आये. किसी भी अवार्ड समारोह में जब वह स्टेज पर होते हैं तो उनकी हरकतें दर्शकों को हंसाती हैं. हाल ही में एक अवार्ड समारोह में जिस तरह रणबीर अनुराग की धोती पकड़ कर, उनके पीठ पर सवार हो गये थे.यह दर्शाता है कि वे कितने खुशमिजाज आदमी है. बर्फी फिल्म की सफलता के बाद भी हुई सक्सेस पार्टी में सुबह चार बजे तक नाचते रहे थे. करीना कपूर की शादी में भी उन्होंने खास कार्यक्रम डांस गाने का ही रखवाया था. आमतौर पर भी जब वह मीडिया के सामने आते हैं तो अपने अलग अलग एक्सप्रेशन और शरारतों से सबका दिल जीत लेते हैं. कपूर खानदान जैसे परिवार से निकला यह शख्स दिल से वाकई खुशमिजाजी है और हंसमुख है. स्पष्ट है कि रणबीर खुद पर परिवार के उसूल हावी नहीं होने देते. वे लड़कियों से फ्लर्ट भी करते हैं तो शान से. रणबीर बेहतरीन कलाकार हैं. और सुपरस्टार भी. लेकिन आम जिंदगी में वह मस्तमौला हैं और हर किसी तरह ही मस्ती में सराबोर रहना चाहते हैं.

तन्हाई में निकला चांद तन्हाई में ही ढल गया



चांद तन्हा है और आसमां तन्हा, दिल मिला है कहां कहां तन्हा..गजल की यही दो पंक्तियां इसे गढ़नेवाले के दर्द को साफ साफ बयां कर रहे हैं. बूझ गयी आस...छुप गया तारा...उनके लिखे एक एक शब्द दरअसल, उनकी जिंदगी के अफसानों को बयां करते हैं. उनके पास दौलत थी. शोहरत थी. चांद से उनका खास नाता था. शायद इसलिए चूंकि वह खुद चांद सी सुंदर थीं जो रातों में भी जगमगाती थीं और दूसरों के घरों को भी रोशन करती थी. ये और बात है कि उनके खुद के जीवन में कभी रोशनी ने एक बार भी झांकने की कोशिश नहीं की. फिल्मों के भारी कॉस्टयूम उस वक्त पहनना शुरू कर दिया, जब उन्हें खुद कपड़ें पहनने का सहुर भी न था.देखते देखते वह हिंदी सिनेमा की मीना बन गयी. हां, उस मीना पत्थर की तरह ही. चमकदार, खूबसूरत, शक्ल और सुरत भी ऐसी जैसे कुदरत ने खुद उन्हें फुर्सत से गढ़ा हो. फिल्म पाकीजा का गीत चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो दरअसल, मीना कुमारी की जिंदगी के ही एक हिस्से को दर्शाता है. किस्मत तो ऐसी कि रुपहले परदे पर उनकी वजह से फिल्मों ने खूब धन बटोरा. लेकिन असल जिंदगी में उनके पास तन्हाई के सिवा कुछ न था. जिस वक्त उनके हाथों में लेमन चुस होना चाहिए था और दुल्हन सी सजी गुड़ियां वाले खिलौने होने चाहिए थे. उस वक्त वह फिल्मों में कैमरे के सामने आ गयीं. अपने रंगमिजाज पिता अली बख्श की वजह से उन्हें मजबूरन केवल चार साल की उम्र से ही फिल्मों में प्रवेश करना पड़ा. बस फिर क्या था. एक बार जो परिवार को सोने की चिड़िया मिली. फिर वह चिड़िया उड़ती गयी, लेकिन सोना मिला परिवार को. फिल्म लेदरफेस में पहली बार मीना कुमारी ने बेबी मीना के नाम से बाल कलाकार के रूप में काम किया था. फिल्म बैजू बावरा ने उन्होंने पहली बार फिल्मी दुनिया में कदम रखा. इससे पहले वह माहजबीं बानो के नाम से जानी जाती थीं. लेकिन विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी बना दिया. ये मीना फिल्मी दुनिया में खूब चमकी. खूबसूरत होने के साथ साथ अभिनय में उनका कोई सानी नहीं था. फिल्म पाकीजा, साहेब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में उनके करियर की माइलस्टोन फिल्में साबित हुई. दिल एक मंदिर, नूरजहां, बहारों की मंजिल, मेरे अपने जैसी फिल्में उनके जीवन की महत्वपूर्ण फिल्में रहीं. फिल्मों से इतर मीना कुमारी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था. मीना ने भले ही अपनी जिंदगी में बहुत गम देखे. लेकिन वे दूसरों की जिंदगी में हमेशा खुशियां भरने की कोशिश किया करती थीं. उन्होंने ही सबसे पहली बार बलराज साहनी को कहा था कि वह बेहतरीन अभिनेता हैं और उन्हें यूं साइड किरदार करके अपनी प्रतिभा का दुरोपयोग नहीं करना चाहिए. बलराज साहनी ने स्वयं इस बात की चर्चा अपनी आत्मकथा में की है. धर्मेंद्र भी फिल्मों में मीना कुमारी की वजह से ही आये. नरगिस मीना कुमारी के बेहद करीब थी. जब नरगिस काम पर जाती थीं तो वे मीना कुमारी के पास अपने बच्चों को छोड़ कर जाया करती थी. मीना नरगिस के बच्चों का ख्याल एक मासी की तरह रखती. तब्बसुम भी बताती हैं कि मीना कुमारी बेहद नेक दिल की बंदी थीं. उनसे किसी और का दर्द देखा नहीं जाता था. वे पैसों की लालसा नहीं रखती थीं. उनकी जिंदगी में जो रिक्त स्थान था. उसे सिर्फ प्यार से भरा जा सकता था. लेकिन सिर्फ वहीं न भर पाने की वजह से वे हमेशा तन्हाई में जीती रहीं. मीना कुमारी और निर्देशक कमाल अमरोही ने किसी दौर में निकाह किया. कमाल उस वक्त मीना के प्यार में पागल थे. लेकिन बाद में धीरे धीरे मीना कमाल के लिए भी केवल सोने की चिड़िया बन कर रह गयीं. चूंकि मीना कमाल की जिन फिल्मों में होतीं. वे फिल्में कामयाब होतीं. बाकी फिल्में नहीं. सो, कमाल ने मीना का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. ये बातें मीना को खलती थीं. लेकिन वह बेबस थी. मजबूर थीं. लोगों का मानना है कि पाकीजा फिल्म के निर्माण में उस वक्त 17 साल का समय लगा था. और इसकी वजह से ही मीना और कमाल दूर हुए . कमाल से अलग होने के बाद मीना ने धर्मेंद्र व प्रदीप कुमार में एक साथी की तलाश की. लेकिन वे यहां भी नाकामयाब रहीं. उस दौर में अशोक कुमार होमियोपैथी का इलाज करते थे. मीना के वे अच्छे दोस्त थे. उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता था. सो, वे मीना कुमारी को कई बार होमियोपैथी की दवाई दिया करते थे. लेकिन मीना जिंदगी से निराश हो चुकी थी. उनके जीवन का एकमात्र साथी शराब ही बन कर रह गया. उन्होंने बाद के दौर में फिल्मों के सेट पर भी शराब पीनी शुरू कर दी थी.  मीना ने एक नायिका के रूप में हर तरह के किरदार निभाये. और उनकी अदाकारी का यह जादू था कि लोग उस दौर में केवल मीना के नाम से फिल्में देखने चले आते थे. उस दौर के पोस्टर्स में खासतौर से मीना कुमारी की तसवीरों को केंद्र में रख कर पोस्टर्स बनाये जाते थे. ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक आ सकें. मीना कुमारी एक बार महाबलेश्वर से लौट रही थीं. उस वक्त एक दुर्घटना की शिकार हो गयी थीं. उस वक्त मीना कुमारी की उंगली कट गयी थी. लेकिन उन्होंने परदे पर यह कभी जाहिर नहीं होने दिया. उन्होंने लगभग हर फिल्म में इस अंदाज में दुपट्टा पकड़ा कि उनकी वह कटी उंगली कभी नजर ही नहीं आयी. मीना कुमारी की आंखें बचपन में काफी छोटी थी. तो उनके परिवार वाले उन्हें पहले चीनी कह कर बुलाते थे. इस बात से मीना काफी चिढ़ जाया करती थी. मीना को कमाल प्यार से मंजू कह कर बुलाया करते थे. और इसलिए मीना को अपना यह नाम काफी प्रिय था.  मीना को बचपन से ही शेरो शायरी का भी शौक था. सो, वह जब शायर बनती तो खुद को नाज बना लेती थीं. उन्होंने एक दौर में कई गजल व नगमें लिखें और उन्हें खुद आवाज भी दी. आज भी आप यू टयूब पर उनकी आवाज में सुन सकते हैं. अपने फिल्मों की किरदारों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें ट्रेजेडी क्वीन माना. दरअसल, उनकी वास्तविक जिंदगी भी हमेशा ट्रेजेडी से भी भरी रही. मीना कुमारी की जिंदगी का सफर कुछ ऐसा ही रहा, कि चांद कुछ इस तरह तन्हाई में निकला और तन्हाई में ही ढल गया. तमाम बातों के बावजूद उनकी मदहोश कर देनेवाली सशक्त अभिनय का हिंदी सिनेमा जगत हमेशा कायल रहेगा.  जब वह फिल्मों में रोती थी तो परदे के इधर बैठे दर्शक भी रो उठते थे. लेकिन फिर इस दुनिया ने कभी मीना के जीवन के दर्द को समझने की कोशिश नहीं की. वह अकेली जीती रहींं और अकेली ही तन्हाईयों से जूझ कर इस दुनिया से विदाई ले ली. वर्ष 1972 में पाकीजा रिलीज हुई और उसी वर्ष मीना ने दुनिया को अलविदा कह दिया.

बाइसाइकिल थीफ हर किसी की प्रेरणा



मैं   ने फिल्में देखने का तरीका सीखा बाइसाइकिल थीफ से. इसी फिल्म से मैंने फिल्में देखने का नजरिया सीखा. न सिर्फ सीखा बल्कि यह भी जानने की कोशिश की, कि फिल्में सिर्फ एंटरटेनमेंट का जरिया नहीं होती हैं, बल्कि उससे बढ़ कर भी बहुत कुछ होती है. निस्संदेह इस फिल्म में एंटरटेनमेंट भी है. लेकिन ह्मुमन इमोशन भी है और इसी वजह से यह फिल्म आपको एक अलग ही दुनिया में पहुंचा देती है. एक सीन में जहां एक आदमी साइकिल चुराता है और फिर उसे सभी पीटते हैं और खड़ा बच्चा देख कर रोता रहता है. वह सीन मेरे जेहन में हमेशा जिंदा रहता है. उस बच्चे को देख कर लगता है कि वह खुद मैं हूं. उस पूरे सीन में जो इमोशन है. एक पिता और बच्चे का वह फिल्म के बाद भी आपके साथ रहता है. मुझे यह सीन देख कर अपने पिता की याद आती है. जिस तरह वह इमरजेंसी के वक्त भूख हड़ताल पर बैठे थे और आंदोलन कर रहे थे. पता नहीं क्यों वह सीन देखता हूं तो मुझे उन्हीं दिनों की याद आती है. यह फिल्म एक पिता पुत्र के रिश्ते पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्म थी. इस फिल्म के इमोशन को देख कर ही मैंने सीखा कि फिल्मों में इमोशन का कितना अहम रोल होता है.यह फिल्म मैंने न जाने कितनी बार देखी होगी, लेकिन जब भी देखता हूं. आज भी रोता हूं. यह मेरे लिए सबसे अहम हिस्सा है. जिंदगी का. फिल्में बनाने की धुन शायद मैंने इसी फिल्म से सीखी है. एक फिल्मकार बाइसाइकिल थीफ जैसी फिल्म तभी बना सकता है, जब वह आम जिंदगी के जीवन से प्रभावित हो. फैंटेसी दुनिया में न जी रहा हो. और यही फिल्में आपको एक अलग लीक की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित भी करती है. इसी फिल्म को देखने के बाद मैंने दो महीने के बाद अपना बैग पैक किया और निकल गया फिल्मों को जीने के लिए. और आ गया मुंबई में. आज मैं जो कुछ भी हो. इसी फिल्म की वजह से हूं. आज भी जब यह फिल्म देखता हूं तो नोस्कोलोजिक हो जाता हूं. बीते दिनों की याद आने लगती है. किसी सफल फिल्म की यही खूबी तो है कि उसके दर्शक उससे हमेशा जुड़े रहें                   अनुप्रिया

मेरी अपनी कहानी है गिप्पी

फिल्म गिप्पी का ख्याल कैसे आया?

फिल्म गिप्पी मेरी अपनी कहानी है. मेरी जिंदगी में ऐसा तो कोई लव-शव हुआ नहीं था. लेकिन एक बात जरूर थी कि जब मैं छोटी थी, तो काफी गुलथुल थी. बिल्कुल गिप्पी की तरह. मेरे परिवार में जैसे मेरे मां-पापा थे, भाई था, वैसे ही फिल्म में किरदारों को दिखाया है. मैंने सोचा कि कुछ लिख देती हूं और देखती हूं कि करन जाैहर को पसंद आती है या नहीं. तो मैंने लिखी स्टोरी फिर अयान को दी. अयान ने ही स्क्रिप्ट करन तक पहुंचायी. उनको पसंद आयी. क्योंकि वे भी मानते हैं कि 13-14 साल की उम्र में हर किसी की कहानी ऐसी ही होती है. उनकी कहानी भी ऐसी ही थी. वे भी थोडे. चबी से थे तो लोग उन्हें भी चिढ.ाते थे. क्या होता था उस उम्र में, इसी बात को इस फिल्म में दर्शाया गया है.

इससे पहले आपने कभी किसी को असिस्ट किया था?

हां, इससे पहले मैंने वेक अप सिड में बतौर असिस्टेंट के रूप में काम किया था. अयान मेरे फैमिली फ्रेंड हैं और जब मैं विदेश से फिल्म मेकिंग की पढ.ाई पूरी करके आयी तो उन्होंने ही मुझे कहा कि मुझे सेट पर काम करना चाहिए. उस वक्त वे वेक अप सिड पर काम करने जा रहे थे. तो मैं उनके साथ जुड. गयी. जब जुड.ी तो पता चला कि बॉलीवुड में फिल्म बनाना बिल्कुल अलग है. विदेशों में आपको फिल्में ज्यादा दिखाते हैं और वहां का ग्रामर अलग होता है. लेकिन मैं थोड.ी फिल्मी हूं और मुझे हिंदी फिल्में करन जाैहर काइंड ऑफ फिल्में पसंद हैं, तो धीरे-धीरे मजा आने लगा और फिर इसी दौरान अयान ने ही कहा कहानी लिखो और उनकी वजह से ही आज मैं ये सब कर पायी हूं. तो मैं कहूंगी कि अयान ही मेरे गुरु हैं. फिल्में बनती कैसे हैं, मैं नहीं जानती थी. वह सब कुछ मुझे उन्होंने ही सिखाया है.

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या रही है?

मैं कोलकाता में पली-बढ.ी. फिर मैं बाहर गयी थी पढ.ने. फिर अमेरिका में मैंने छोटा-मोटा काम भी किया. मेरे परिवार में सभी को फिल्में देखना बेहद पसंद है और मुझे भी गीत-संगीत वाली फिल्म देखना पसंद है. सो, मैं चाहती हूं कि मैं ऐसी ही फिल्में बनाऊं. 

अयान की एक और फिल्म काफी चर्चा में है. आपकी उस पर क्या प्रतिक्रिया है?

अयान बेहतरीन निर्देशक हैं और उन्हें बहुत अच्छे तरीके से मालूम होता है कि युवा निर्देशकों को क्या चाहिए. सो, मुझे लगता है कि उनकी फिल्म ये जवानी है दीवानी भी दर्शकों को जरूर पसंद आयेगी.

रिया का चुनाव कैसे किया गिप्पी के लिए?

हमने कई बच्चों का ऑडिश्न किया था. फिल्म में पंजाबी तड.का है तो हम दिल्ली गये थे. वहां जब रिया आयी, तो मुझे लगा कि रिया मुझे मेरे बचपन की याद दिलाती है. सो, मैंने उसे ही चुना.

फिल्म की शूटिंग कहां हुई है और कैसा रहा अनुभव?

फिल्म की शूटिंग शिमला में हुई है. जहां तक अनुभव की बात है, यह काफी टफ था. चूंकि मेरे साथ इस फिल्म में जितने लोग हैं सभी नये थे. तो सबको समझाना और साथ ही खुद चीजों को समझना काफी टफ था. लेकिन मजेदार भी था. कोशिशकरूंगी कि आनेवाले सालों में जो भी करूं अब वे सारी गलतियां, जो इसमें की, वैसी न करूं. चाहूंगी कि थोड.ा अनुभव के साथ काम करूं.

करन नये निर्देशकों को काफी मौका दे रहे हैं. और उनके निर्देशकों को लगभग तीन फिल्में तो मिल ही जाती हैं तो क्या आपको भी मिली हैं?

हां, यह सच है कि तीन फिल्मों का कांट्रैक्ट होता है. लेकिन आगे वह प्रोजेक्ट क्या होगा, इसकी

100 साल का सिनेमा : तब और अब



तब साउंड प्रूफ स्टूडियो नहीं था. फिल्म आलम आरा की रिकॉर्डिंग और डबिंग का काम देर रात उस वक्त होता था. जब मुंबई के सारे लोकल बंद हो जाते थे और स्टूडियो स्टेशन से पास ही था. सो, शोर शराबे की वजह से गाने की रिकॉर्डिंग नहीं हो पाती थी. यहां तक कि स्टूडियो में भी सबको एक चू की भी आवाज नहीं निकालने की हिदायत दी जाती थी. उस वक्त गाने ज्यादातर पेड़ पौधों के आसपास फिल्माये जाते थे. ताकि संगीत निर्देशक पेड़ के पीछे छुप कर संगीत दें और गायक गा सकें. उस वक्त गानों की अलग से रिकॉर्डिंग नहीं होती थी. यही वजह थी कि ऐसे कलाकारों का चुनाव होता था. जो अभिनय के साथ साथ गा भी सकें. तब फिल्मों का प्रोमोशन चिल्ला चिल्ला कर करते थे. हाथी , बैलगाड़ी पर फिल्मों के पोस्टर्स रख कर फिल्म का प्रचार किया जाता था. लेकिन आज के दौर में फिल्मों की मेकिंग से अधिक खर्च व ध्यान प्रोमोशन पर देते हैं. तकनीक में हिंदी सिनेमा ने सबको पीछे छोड़ दिया. लेकिन क्रियेटिविटी कहीं न कहीं चूक भी हो रही है. उस दौर में फिल्मों के क्रेडिट लाइन में फिल्म के गायक गायिकाओं का भी नाम जाया करता था. जबकि अब फिल्मों के गीतकार, संगीत निर्देशक का नाम तो क्रेडिट में होता है. मगर गायक गायिकाओं का नाम नहीं होता. इसके लिए कुछ सालों पहले सोनू निगम ने इस पर आपत्ति भी जताई थी. लेकिन सभी निर्देशकों के अपने अपने तर्क हैं. तब जमाना ग्रामोफोन, फिर आॅडियो कैसेट का था. वीसीपी में फिल्में दिखाई जाती थीं. लेकिन अब डिजाटलाइजेशन का दौर है. अब सीडी व डीवीडी उपलब्ध हैं.  तब फिल्मों पर आधारित एक ही  पुरस्कार समारोह होते थे. अब तो हर समूह के अपने अपने अवार्ड हैं.वर्तमान में एक दर्जन से भी अधिक फिल्म अवार्ड हैं. तब फिल्मों में नाडिया जैसी स्टंट अभिनेत्री भी थीं. अब वैसी बेकौफ अभिनेत्रियां नहीं.

भारतीय सिनेमा के 100 साल



 आज 3 मई है और आज ही के दिन वर्ष 1913 में पहली बार भारतीय सिनेमा का शंखनाद हुआ. दादा साहेब फाल्के सिनेमा के पितामाह कहलाये. जिस वक्त दादा साहेब ने यह नींव रखी थी, वे शायद ही इस बात से वाकिफ थे कि उनकी यह पहल 100 साल का इतिहास बनायेगी. यह सच है कि भारतीय सिनेमा अपने आप में इतनी विस्तृत है कि आप इसको किसी सीमा में नहीं बांध सकते. आप इसके तिलिस्म को कभी नहीं समझ सकते. 100 साल के सिनेमा पर कई तरह के आयोजन हो रहे हैं. लेकिन सिर्फ इसे बॉलीवुड के 100 साल कहना उचित नहीं. चूंकि यह भारतीय सिनेमा का शंखनाद है. और भारतीय सिनेमा का मतलब सिर्फ हिंदी सिनेमा नहीं. इसमें कन्नड़, तमिल, तेलुगु, बांग्ला, गुजराती, मराठी और भोजपुरी समेत मणिपुरी व उत्तर पूर्व की कई भाषाओं की फिल्में आती हैं. इन सभी भाषाओं की फिल्मों ने भी खुद को साबित किया है और इन सभी भाषाओं की फिल्मों को भी उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना की हिंदी को मिलता है. अफसोस तो तब होता है जब एक हिंदी सिनेमा में काम करनेवाला व्यक्ति यह कहता है कि वह हिंदी में ठीक से बात नहीं कर सकता. कम से कम भारत की अन्य भाषाओं की फिल्मों के साथ ऐसा तो नहीं होता. ये सभी क्षेत्रीय फिल्में अपनी भाषा का मान करते हैं और एक से बढ़ कर एक फिल्मों का निर्माण भी कर रहे हैं.भारतीय सिनेमा को बड़े परिपेक्ष्य में देखा जाये और सिनेमा की सदी  को श्रद्धांजलि देते वक्त इन सभी भाषाओं में बनी बेहतरीन फिल्मों का भी उल्लेख किया जाये. साथ ही उन लोगों को भी याद किया जाये. जिन्होंने योगदान तो दिया लेकिन कभी दर्शकों के सामने नहीं आये. भारतीय सिनेमा ने एक इतिहास पूरा किया है. लेकिन हकीकत यह है कि सिनेमा को हर दिन अपने आपमें एक इतिहास बनता है. सिलसिला जारी रहेगा.

एक दामाद भी बन सकता है बेटा राकेश पासवान

समाज से जुडे. कुछ अहम मुद्दों पर लगातार धारावाहिकों का निर्माण कर रहे राकेश पासवान का मानना है कि एक घर बनाऊंगा के माध्यम से कई दामाद बेटे बनने की कोशिश करेंगे. क्या है यह शो बता रहे हैं खुद राकेश पासवान..

शो का कांसेप्ट

यह एक ऐसा कांसेप्ट है, जिसे अब से पहले टेलीविजन पर कम ही दिखाया गया है. आप देखते आये हैं कि मैंने अपने हर शो के माध्यम से समाज के वैसे मुद्दों को उठाया है, जो हमारे आपके बीच के होते हैं, पारिवारिक होते हैं. लेकिन हमारी नजर वहां नहीं जाती है. एक घर बनाऊंगा ऐसी ही कहानी है. इस कहानी के माध्यम से हम दर्शकों को यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि कैसे किसी घर में अगर दो बेटियां हैं और उनकी शादी के बाद उनके पेरेंट्स जब अकेले हो जाते हैं तो कैसे एक दामाद उनका बेटा बन सकता है. ऐसे आम मसलों पर हमारा ध्यान नहीं जाता. आज भी हमारे समाज में लड.की के माता-पिता लड.की के ससुराल का पानी भी नहीं पीते. ऐसे में आखिर एक दामाद कैसे बनता है बेटा. यही इसकी कहानी है.

दामाद की अहम भूमिका

लोग कहते जरूर हैं कि शादी दो परिवारों का मिलन है. लेकिन यह हकीकत नहीं है. शादी के बाद दो परिवारों का मिलन नहीं हो पाता. क्योंकि शादी के बाद एक लड.की को अपने परिवार वालों का साथ देने में बहुत दिक्कत होती है. ऐसे में दामाद की अहम भूमिका हो जाती है. वह चाहे तो जिस तरह से अपनी पत्नी के परिवार वालों को रखना चाहे रख सकता है. सो, इस शो में यही दिखाने की कोशिशकी गयी है कि हमारे यहां किसी को भी दामाद बनने की ट्रेनिंग तो नहीं दी जाती, लेकिन फिर भी एक दामाद कैसे सबका साथ देता है. साथ ही यह भी दिखाने की कोशिश है कि लड.की की शादी के बाद उसका अपना परिवार भी उसका ही परिवार रहता है. मेरा ख्याल है और उम्मीद है कि दर्शकों को यह शो बहुत पसंद आयेगा.

इशिता का चुनाव

मुझे यह पता नहीं था कि इशिता दत्ता भी झारखंड के जमशेदपुर से हैं. इशिता का भी ऑडिशन हुआ था और जो शो में पूनम का किरदार है, इशिता इसमें फिट बैठती थीं. पूनम का किरदार एक ऐसी लड.की का किरदार है, जो कॉन्वेंट में तो पली बढ.ी है, लेकिन दिल से ट्रेडिशनल है. साथ ही वह स्कूटी चलाती है. लेकिन अपने पापा को भी बहुत प्यार करती है. वह मॉडर्न है. लेकिन बिगड.ैल नहीं और अपने परिवार का भी अच्छी तरह ध्यान रखती है. इशिता के बारे में जब मैंने बाद में जाना कि वह झारखंड से है तो फिर हमारी बहुत सारी बातें होने लगी. हम दोनों अपने कॉमन इंटरेस्ट को शेयर करने लगे. अब झारखंड से संबंधित कई बातों को हम याद करते हैं. एक घर बनाऊंगा की कहानी लखनऊ और सीतापुर की है. इशिता और राहुल शर्मा मुख्य किरदार निभा रहे हैं. शाम 6.30 से यह हर दिन स्टार प्लस पर प्रसारित होगा.

सरस्वती फालके के दादा फालके



आज दादा साहेब फाल्के का जन्मदिवस है. और आज से ठीक 4 दिनों के बाद यानी 3 मई को भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे हो जायेंगे. दादा साहेब फाल्के ने वर्ष 1913 में फिल्म राजा हरिशचंद्र से भारतीय सिनेमा का शंखनाद किया था. दादा साहेब फाल्के के साथ साथ हिंदी सिनेमा को उनकी पत् नी सरस्वती फाल्के का भी शुक्रगुजार होना चाहिए और वाकई वह भी इस बात की हकदार हैं कि उन्हें भी सम्मानित किया जाये. चूंकि उस दौर में उनकी पत् नी सरस्वती फाल्के ने उनका बहुत सहयोग किया था. उस दौर में जब अन्य महिलाएं सोने के गहनों से लदी रहना पसंद करती थी. उस वक्त सरस्वती ने अपने सारे गहने बेंच कर फाल्के साहब की मदद की थी. साथ ही उन्होंने न केवल फिल्म की मेकिंग में मदद की. बल्कि उन्हें हर तरह से सहयोग किया. फिल्म एक टीम वर्क है. बिनाा टीम के फिल्म बनाना संभव नहीं. यह बात आज भी रोहित शेट्ठी व अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक मानते हैं. उस दौर में भी सरस्वती फालके ने इस फिल्म को टीम बनने में मदद की थी. वह अकेले पूरी टीम का खाना बनाती थी. कॉस्टयूम डिजाइन करती थीं. इसकी विस्तृत जानकारी आपको फिल्म हरिशचंद्राची फैक्ट्री में देखने को मिल जायेगी. सरस्वती ने अपने बच्चों की खुशी को भी दांव पर लगा कर फाल्के साहब की मदद की. लोग उन्हें पागल कहते थे. लेकिन सरस्वती जानती थीं कि फाल्के साहब कुछ तो जादू कर रहे हैं.सरस्वती ने अपने सारे इंश्योरेंस, घर सबकुछ दादा साहेब के सपने को पूरा करने में लगा दिया. वाकई एक कामयाब आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है. लेकिन हम उन महिलाओं को कभी याद नहीं रखते. जबकि वह भी सम्मान पाने की उतनी ही हकदार हैं. भारतीय सिनेमा में जब भी फाल्के का नाम याद किया जायेगा, सरस्वती फाल्के को भी स्मरण किया जाना चाहिए.

शॉट कहानियों का गुच्छा



फिल्म रिव्यू : बांबे टॉकीज
कलाकार : रानी मुखर्जी, नमन, रणदीप हुड्डा, शाकीब, विनीत कुमार
निर्देशक : जोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, करन जौहर
रेटिंग : तीन स्टार
भारतीय सिनेमा को ट्रीब्यूट देने के लिए हिंदी सिनेमा के चार निर्देशकों ने बेहतरीन माध्यम चुना. अपनी फिल्म बांबे टॉकीज के माध्यम से उन्होंने श्रद्धांजलि देने की कोशिश की है. यह अच्छी पहल है. सोच व आइडिया भी बेहद अलग  है.  हिंदी सिनेमा में लंबे अरसे के बाद कुछ ऐसा प्रयास किया है, जिनके माध्यम से शॉट फिल्में निकल कर सामने आयी हैं. हालांकि अनुराग कश्यप कई वर्षों से ऐसे प्रयास कर रहे हैं, लेकिन फिल्मों को बड़े स्तर पर जिस तरह से रिलीज मिलना चाहिए था. वह नहीं मिल पाया था. सो, सबसे पहले इस प्रयास और पहल की बधाई. बधाई की पात्र आशी दुआ भी हैं, चूंकि बांबे टॉकीज की सोच उनकी ही थी. उन्होंने अदभुत तरीका निकाला भारतीय सिनेमा की सदी के जश्न का. बांबे टॉकीज चार अलग अलग कहानियां हैं और चार अलग अलग किरदारों की जिंदगी को बयां करती है. जिनमें अनुराग कश्यप की फिल्म, दिबाकर और जोया की फिल्में कहीं न कहीं फिल्मों को आम जिंदगी से जोड़ती है. लेकिन करन जौहर की फिल्म की कहानी में कहीं भी सिनेमा नहीं सिवाय गीत लग जा गले...करन जौहर ने फिल्म में रिश्तों के उलझन को उलझने की कहानी दर्शायी है. करन की फिल्म हमें मेट्रो शहर तक ही सीमित रखती है. लेकिन दिबाकर, अनुराग जोया की फिल्म हमें मुंबई से बाहर के आम लोग व सिनेमा पर उनके प्रभाव को दर्शाता है. अनुराग ने अपनी फिल्म के माध्यम से एक बेहतरीन कहानी कही है. इलाहबाद से आया विजय मुंबई आता है और उनका बस एक ही लक्ष्य है. वह अमिताभ से इसलिए नहीं मिलना चाहता क्योंकि वह अमिताभ का फैन है, बल्कि इसके पीछे उसका कोई और उद्देश्य है. बांबे टॉकीज की यह सबसे बेहतरीन कहानियों में से एक है. फिल्म के  अंत में विजय के पिता उससे कहते हैं कि अचार के ब्वॉयम में मुरब्बा अच्छा नहीं लगता. यह संवाद ही फिल्म का सार है. अनुराग की अब तक की यह बेस्ट फिल्मों में से एक हैं. अनुराग जो समझाना चाहते हैं. वे इस फिल्म के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब होते हैं. विनीत कुमार ने बेहतरीन इलाहाबादी अंदाज अपनाया है. गैंग्स आॅफ वासेपुर के बाद यह उनकी दूसरी फिल्म है और उन्होंने साबित कर दिया है कि वह वर्सेटाइल एक्टर हैं और आने वाले समय में हिंदी सिनेमा में श्रेष्ठ कलाकारों में से एक होंगे.
दिबाकर बनर्जी ने अपनी कहानी में एक एक्टर की जिंदगी को बखूबी दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है. एक एक्टर नाकाम होता है. क्योंकि उसे एक साथ कई काम करने हैं. अगर आप कुछ बनना चाहते हैं तो फिर एक नाव पर ही पैर रखो. यह कहानी यही सिखाती है. फिल्म में नवाजुद्दीन ने जिस तरह किरदार निभाया है. लोगों को वे अपना मुरीद बना देते हैं. उनके चेहरे के एक्सप्रेशन, उनके हाव भाव कमाल के हैं. नवाजुद्दीन दर्शकों को हंसाने, रुलाने, डराने सबमें कामयाब हो रहे हैं. अब वह दिन दूर नहीं जब जल्द ही नवाजुद्दीन शीर्ष सितारों की श्रेणी में शामिल हो जायेंगे.
जोया अख्तर ने अपनी फिल्म में एक बच्चे को अपनी ख्वाहिश पूरी करते दिखाया गया है और उसे दिखाया गया है कि अगर वह अपनी ड्रीम को पूरा करना चाहता है तो उसे अपनी ड्रीम को ही फॉलो करना चाहिए. यह भी एक बेहतरीन मासूम सी कहानी है. नमन ने बेहतरीन किरदार निभाया है. बाल कलाकारों में वे लगातार फिल्मों में नजर आ रहे हैं और अपना श्रेष्ठ दे रहे हैं.
करन जौहर की फिल्म एक अखबार की एडिटर, उसके पति और आॅफिस में काम कर रहे एक इंटर्न के बीच के रिश्ते की कहानी है. फिल्म में रानी मुखर्जी ने बेहतरीन अभिनय किया है. लेकिन करन की यह कहानी कहीं से भी बांबे टॉकीज का हिस्सा न लग कर अलग कहानी लगती है. चूंकि एकमात्र इसी फिल्म में सिनेमा से कोई जुड़ाव नहीं दिखाया गया.
फिल्म के अंत में 100 साल के सिनेमा पर आधारित एक गीत फिल्माया गया है. जिसमें पुरानी फिल्मों के कुछ क्लीप्स दिखाये गये हैं. गीत में जब तक वे पुरानी फिल्मों के क्लीप्स व गुजरे जमाने के कलाकारों की तसवीर आती है. आप ीगीत को एंजॉय करते हैं. लेकिन बाद में जब एक पंक्ति  में कलाकारों को दिखाया जाता है, तो वह कुछ खास अपीलिंग नहीं लगता. इस पूरे गाने को और सही तरीके से फिल्माया जा सकता था. कई लोग छूट जा रहे हैं और गाने के बोल भी बेहद हल्के लिख दिये गये हैं.
बहरहाल, हिंदी सिनेमा में जहां पूरी तरह से मसाला फिल्मों का दौर है. ऐसे में बांबे टॉकीज आपको राहत देती है. सिनेमा प्रेमियों को कम से कम एक बार तो यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.

धर्मेंद्र मोहब्बत खुदा है. खुदा है मोहब्बत. खुदा की मोहब्बत का ही तो फरमान हूं मैं. प्यार, मोहब्बत आपकी सींचती हैं मुझे इसलिए शायद जवान हूं मैं


 धर्मेंद्र
मोहब्बत खुदा है.
खुदा है मोहब्बत.
खुदा की मोहब्बत का ही तो फरमान हूं मैं.
प्यार, मोहब्बत आपकी सींचती हैं
मुझे इसलिए शायद जवान हूं मैं
भारतीय सिनेमा के 100 साल के पूरे होने के अवसर पर मैं बस यही कहना चाहूंगा कि अभी तो बस 100 ही बसंत देखे हैं अभी 101 बसंत देखना तो बाकी ही है.  सबसे पहले तो सभी साथियों को और भारतीय सिनेमा के हर शख्स और सबसे अहम हमारे दर्शकों का धन्यवाद और उन्हें 100 साल पूरे होने के  उपलक्ष्य में बहुत बहुत बधाई.भारतीय सिनेमा ने ही मुझे सबकुछ दिया है. यह मेरी रोजी रोटी भी बनी और मेरी मां भी. और मैं खुश हूं कि इस मां के लिए मैंने अपनी तरफ से कुछ योगदान करने की कोशिश की.  निस्संदेह इन 100 सालों में दर्शकों ने मुझे बहुत प्यार दिया और शायद आज मैं इस मुकाम पर हूं.  एक बात की खुशी है कि इन 100 सालों में कभी किसी ने हमसे बैर नहीं की और न ही हमने किसी से बैर किया. यह इंडस्ट्री आज भी मेरे लिए परिवार सा ही है और मैं हमेशा उन्हें अपने परिवार की तरह ही मानता हूं. अच्छा लगता है सीनियर प्यार लुटाते हैं और शाहरुख़, सलमान जैसे बच्चे मुझे आदर देते हैं. मैंने सिनेमा जगत को बस इतना ही योगदान दिया कि दर्शकों ने मेरी फिल्में देख कर मुझे गालियां नहीं दी. वे मेरी फिल्में देख कर रोये भी हंसे भी और सबसे अधिक तो वह नाचे. तो मैंने जो मोहब्बते लुटायी. उन्होंने न सिर्फ स्वीकार किया बदले में मुझे भी काफी सम्मान दिया. मेरी पसंदीदा फिल्मों की बात की जाये तो शोले मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. चूंकि इस फिल्म में हमने दर्शकों को हंसाया भी भरपूर और रुलाया भी भरपूर. मुझे लगता है कि शोले हिंदी फिल्मों की उन चुनिंदा फिल्मों में से एक हैं, जिन्होंने दर्शकों की नब्ज को सही तरीके से समझा था. लोगों को भरपूर आनंद भी दिया और भावनात्मक रूप से भी उस फिल्म से दर्शकों को जोड़े रखा. मुझे लगता है कि मैंने जितने किरदार निभाये दरअसल, आम लोगों के बीच के ही किरदार थे. फिल्म प्रतिज्ञा में मैं ट्रक ड्राइवर बन जाता हूं तो कभी इंस्पेक्टर. फिर लोगों को हंसाता हूं. मेरा मानना है कि हम सभी अभिनेता भी तो आपके बीच के ही हैं और आपसे ही तो हम प्रेरणा लेते हैं. हम आपके बीच के ही किरदार चुनते हैं और फिर उसे परदे पर निभाते हैं तो मेरे लिए तो दर्शक ही संजीवनी हैं. एक और खास बात जो आप लोगों से शेयर करना चाहूंगा कि कई बार हम अभिनेताओं की जिंदगी में भी ऐसे पल आते हैं जो हमें इमोशनल कर देते हैं और हम पब्लिक के सामने भी रो पड़ते हैं. तब जब मैं मीडिया में ऐसी बातें सुनता हूं कि अभिनेता दिखावे के लिए रो देते हैं तो ऐसी बातें सुन कर तकलीफ होती है. एक बात की खुशी है कि अब रियलिस्टिक फिल्में भी खूब बन रही हैं. लेकिन दुख इस बात का भी है कि फिल्मों में इमोशन खोते जा रहे हैं. अब इमोशन को फिल्मों में सेकेंडरी चीजें मानने लगे हैं हम यह गलत है. और यही वजह है कि अब मेरे पास जो फिल्में आती हैं. मैं सभी में काम नहीं करना चाहता क्योंकि वैसी कहानियां नहीं होतीं. आज आप ब्रांड तभी हैं जब आप लगातार दिख रहे हैं. वरना आपकी अहमियत कम हो जाती है. इन बातों से तकलीफ होती है. लेकिन 100 साल के मौके पर मैं चाहंूगा कि जश्न का माहौल बना रहे , सो कमियां न गिना कर उपलब्धि पर बात होनी चाहिए तो मैं मानता हूं कि नये कलाकारों को मौके खूब मिल रहे हैं, तकनीकी रूप से हम काफी समृद्ध हो गये हैं. यह हमारी उपलब्धियां हैं. मैं दिलीप कुमार साहब, अमित, देव आनंद साहब, राजेश खन्ना साहब व सभी अभिनेत्रियों को स्रेह और प्यार देना चाहूंगा इस मौके पर.मैं खुशनसीब हूं कि मुझे दर्शकों ने हर रूप में स्वीकार किया. मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि वाकई एक सदी जी ली. कितनी मस्ती किया करते थे. फिल्म चुपके चुपके के सेट पर सभी ने जितनी मस्ती की थी. शायद ही किसी और सेट पर की थी.फिल्म शोले में तो मुझे ठाकुर का किरदार इतना पसंद आ गया था कि मैं खुद उस किरदार को निभाना चाहता था. हिंदी सिनेमा के लिए यह भी खास बात है कि इस साल प्राण साहब को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा जा रहा है. चूंकि प्राण साहब इसे डिजर्व करते हैं. सो, मैं कहना चाहूंगा  िक हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री इसी तरह फलती फुलती रहे और हम सभी को काम मिलता रहे. दर्शकों का प्यार मिलता रहे.

अमिताभ बच्चन ेसमाज में अब सिनेमा को इज्जत की नजर से देखते हैं



मुझे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री पर बहुत गर्व है.इस बात से कि जब से यह शुरू हुई. शुरू के जो साल थे. उसमें फिल्मों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी. जो भी अच्छे घर के बच्चे होते थे. उन्हें फिल्मों में नहीं आने दिया जाता था. लेकिन मुझे खुशी है कि मेरा  परिवार कभी इसके खिलाफ नहीं था. हां, यह जरूर था कि जब मैं भी छोटा था तो मेरे माता पिता भी पहले खुद जाकर उस फिल्म को देख कर आते थे. फिर वह अनुमान लगाते थे कि क्या ये बच्चों को दिखाने लायक फिल्म है या नहीं. तभी फिर वे हमें जाने देते थे. हालांकि आज देखिए आज हम कहां आ चुके हैं. समाज का जो सिनेमा को लेकर नेगेटिव प्वाइंट था अब वह बदला है . हां आज भी कुछ जगह हैं जहां आज भी सिनेमा को गलत दृष्टिकोण से देखा जाता है. हेय दृष्टि से देखा जाता है.  जबकि सिनेमा तो हमारे जीवन का अहम हिस्सा है. और सिनेमा की वजह से ही हम देश दुनिया के लोगों से वाकिफ होते हैं. वर्ल्ड सिनेमा हमें दुनिया की सैर ही नहीं कराती. इतिहास को भी बताती है और मुझे लगता है कि सिनेमा से बेहतरीन कुछ नहीं क्योंकि जो चीजें किताब में होती हैं कई बार बंद रह जाती हैं लेकिन हमारी आंखों ने जो देखा होता है. वह उन्हें याद रखता है तो मुझे तो लगता है कि संस्कृति को जिंदा रखने में फिल्मों का योगदान रहा है.मुझे लगता है कि अब लोगों के बीच जो यह अवधारणा थी कि  जो लोग सिनेमा से जुड़े हैं. वह गलत लोग हैं. अब यह सोच बदल चुकी है.आप चाहे माने या न माने चाहे देश माने या न माने लेकिन हमारी फिल्म इं्डस्ट्री आज समाज का पैरलल कल्चर बन चुकी है और न केवल हमारे देश है. बल्कि विदेश में भी जहां भी हम जाते हैं. फिल्म इंडस्ट्री का नाम होता है और उन्हें अब सम्मान की नजर से देखा जाता है. और इसलिए मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मुझे आज भी दर्शकों का प्यार मिल रहा है. और मैं 100 सालों के इस सफर का अब भी हिस्सा हूं. मैं महसूस करता हूं कि मैं एक छोटा अंश हूं इस हिंदी सिनेमा जगत का. जिस तरह से यह प्रगति कर रही है. इस पर मुझे बहुत गर्व है. 100 वर्ष बीत गये हैं और इन 100 सालों में हमें देश विदेश में लगातार पहचान मिल रही है. अभी कान फिल्मोत्सव में भी हमारी कई फिल्में जा रही हैं. अनुराग कश्यप, जोया, फरहान नये दौर के बच्चे अच्छा काम कर रहे हैं और ये सभी मेहनत से लगे हुए हैं कि हमारी फिल्मों को नाम मिले. इसका मान बढ़े. मैं अभी हाल ही में कई एक जगहों पर जा रहा हूं, अभी हाल ही में मोरक्को गया था.वहां की फिल्म इंडस्ट्री ने हमारे 100 साल पूरे होने पर ज्श्न मनाया. यह दिखाता है कि वे भी हमारी फिल्मों का सम्मान करते हैं. बाहर के भी निर्माता निर्देशकों की भी अवधारणा बदली है. अभी स्पीलबर्ग आये थे. उनका बड़ा गर्व हुआ हमारी फिल्म इंडस्ट्री पर. ऐसा सुनने में आ रहा है कि हर बड़े फिल्मोत्सव में भारतीय सिनेमा की फिल्मों को दिखाया जायेगा. उन्हें स्थान दिया जायेगा. इससे हमें तसल्ली मिलती है कि हमारी मेहनत बेकार नहीं गयी है. तो मैं चाहूंगा कि इन 100 वर्ष में हम सोचें कि हम सभी ने बहुत प्रगति की है. कम से कम समाज में इज्जत बनायी है. पहले जो समाज हमें नीची नजर से देखता था. अब वह हमें सम्मान की नजर से देखने लगा है. अब एक ऐसा स्तर आ गया है कि फिल्मों का डिस्कशन होता है. अच्छे अच्छे घरों के बच्चे फिल्में बनाने आ रहे हैं. बकायदा ट्रेनिंग ले कर आ रहे हैं. पढ़ कर आ रहे हैं तो सम्मान तो हासिल किया है हमने. मुझे बहुत अच्छा लगता है जब नयी पीढ़ी से मिलता हूं. एनर्जी मिलती है. वे काफी एक्टिव हैं. उनके पास उनकी दिशा है. वे मेहनत करते हैं और वे बहुत सुंदर काम कर रहे हैं और अपनी पहली ही फिल्म में आजकल कलाकार और निर्देशक ऐसे ऐसे एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं कि उनका कोई सानी नहीं. हमेनं तो वक्त लग जाया करता था. वे अपना हुनर दिखाते हैं. जो हम नहीं कर पाते थे. तो मैं मानता हूं कि भारतीय सिनेमा ने बहुत कुछ पाया है. और मैं धन्यवाद देना चाहूंगा उन सभी लोगों को जिन्होंने मुझे इस मुकाम तक पहुंचाने में मदद की. देव आनंद साहब, राजेश खन्ना,. धमेभर््ंद्र जी सबको मैं सादर प्रणाम करता हूं. यह सभी मेरे गुरु रहे और मैं हमेशा इनका आभारी रहूंगा. इन सभी का योगदान भी भारतीय सिनेमा कभी नहीं भूलेगी. मैं महमूद साहब को भी धन्यवाद कहना चाहूंगा. हिंदी सिनेमा ने ही मुझे मेरे होने का मतलब दिया. एक बड़ा प्लैटफॉर्म दिया. अगर हिंदी सिनेमा जगत न होता तो शायद कई बेहतरीन ुहनर लोगों के सामने नहीं आ पाता. विदेशों में लोग हमारी फिल्मों के स्टार्स के नाम जानते हैं. भले ही यहां के पॉलिटिक्स से वाकिफ हो कि नहीं. इससे समझ में आता है कि आपने कुछ तो पहचान बनायी है.मुझे लगता है कि हमारी इनडस्ट्री ने कई बार बुरे हालातों में भी काम किया. खुद को बुरे हालातों में भी संभाला और यही हमारा आत्मविश्वास है. मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा आज जहां भी है. हमारे आत्मविश्वास की वजह से है. यहां हर किसी ने अपनी पहचान बनायी है. मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में फिल्म की तकनीक काफी अच्छी हो गयी है. साथ ही साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा चैनल आने की वजह से भी फिल्मों का विस्तार बढ़ा है. अब हर चैनल पर फिल्मों के बारे में सारी जानकारी दी जाती है तो आम लोगों के बीच अब अधिक रीच हो गयी है हमारी. मुझे लगता है कि हिंदी सिनेमा के साथ साथ भारत की अन्य भाषा की फिल्मों को भी दर्शकों तक पहुंचाया जाना चाहिए. ताकि भारतीय सिनेमा पूरी तरह से समृद्ध हो.
 प्रस्तुति : अनुप्रिया अनंत

 अमिताभ बच्चन
ेसमाज में अब सिनेमा को इज्जत की नजर से देखते हैं
मुझे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री पर बहुत गर्व है.इस बात से कि जब से यह शुरू हुई. शुरू के जो साल थे. उसमें फिल्मों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी. जो भी अच्छे घर के बच्चे होते थे. उन्हें फिल्मों में नहीं आने दिया जाता था. लेकिन मुझे खुशी है कि मेरा  परिवार कभी इसके खिलाफ नहीं था. हां, यह जरूर था कि जब मैं भी छोटा था तो मेरे माता पिता भी पहले खुद जाकर उस फिल्म को देख कर आते थे. फिर वह अनुमान लगाते थे कि क्या ये बच्चों को दिखाने लायक फिल्म है या नहीं. तभी फिर वे हमें जाने देते थे. हालांकि आज देखिए आज हम कहां आ चुके हैं. समाज का जो सिनेमा को लेकर नेगेटिव प्वाइंट था अब वह बदला है . हां आज भी कुछ जगह हैं जहां आज भी सिनेमा को गलत दृष्टिकोण से देखा जाता है. हेय दृष्टि से देखा जाता है.  जबकि सिनेमा तो हमारे जीवन का अहम हिस्सा है. और सिनेमा की वजह से ही हम देश दुनिया के लोगों से वाकिफ होते हैं. वर्ल्ड सिनेमा हमें दुनिया की सैर ही नहीं कराती. इतिहास को भी बताती है और मुझे लगता है कि सिनेमा से बेहतरीन कुछ नहीं क्योंकि जो चीजें किताब में होती हैं कई बार बंद रह जाती हैं लेकिन हमारी आंखों ने जो देखा होता है. वह उन्हें याद रखता है तो मुझे तो लगता है कि संस्कृति को जिंदा रखने में फिल्मों का योगदान रहा है.मुझे लगता है कि अब लोगों के बीच जो यह अवधारणा थी कि  जो लोग सिनेमा से जुड़े हैं. वह गलत लोग हैं. अब यह सोच बदल चुकी है.आप चाहे माने या न माने चाहे देश माने या न माने लेकिन हमारी फिल्म इं्डस्ट्री आज समाज का पैरलल कल्चर बन चुकी है और न केवल हमारे देश है. बल्कि विदेश में भी जहां भी हम जाते हैं. फिल्म इंडस्ट्री का नाम होता है और उन्हें अब सम्मान की नजर से देखा जाता है. और इसलिए मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मुझे आज भी दर्शकों का प्यार मिल रहा है. और मैं 100 सालों के इस सफर का अब भी हिस्सा हूं. मैं महसूस करता हूं कि मैं एक छोटा अंश हूं इस हिंदी सिनेमा जगत का. जिस तरह से यह प्रगति कर रही है. इस पर मुझे बहुत गर्व है. 100 वर्ष बीत गये हैं और इन 100 सालों में हमें देश विदेश में लगातार पहचान मिल रही है. अभी कान फिल्मोत्सव में भी हमारी कई फिल्में जा रही हैं. अनुराग कश्यप, जोया, फरहान नये दौर के बच्चे अच्छा काम कर रहे हैं और ये सभी मेहनत से लगे हुए हैं कि हमारी फिल्मों को नाम मिले. इसका मान बढ़े. मैं अभी हाल ही में कई एक जगहों पर जा रहा हूं, अभी हाल ही में मोरक्को गया था.वहां की फिल्म इंडस्ट्री ने हमारे 100 साल पूरे होने पर ज्श्न मनाया. यह दिखाता है कि वे भी हमारी फिल्मों का सम्मान करते हैं. बाहर के भी निर्माता निर्देशकों की भी अवधारणा बदली है. अभी स्पीलबर्ग आये थे. उनका बड़ा गर्व हुआ हमारी फिल्म इंडस्ट्री पर. ऐसा सुनने में आ रहा है कि हर बड़े फिल्मोत्सव में भारतीय सिनेमा की फिल्मों को दिखाया जायेगा. उन्हें स्थान दिया जायेगा. इससे हमें तसल्ली मिलती है कि हमारी मेहनत बेकार नहीं गयी है. तो मैं चाहूंगा कि इन 100 वर्ष में हम सोचें कि हम सभी ने बहुत प्रगति की है. कम से कम समाज में इज्जत बनायी है. पहले जो समाज हमें नीची नजर से देखता था. अब वह हमें सम्मान की नजर से देखने लगा है. अब एक ऐसा स्तर आ गया है कि फिल्मों का डिस्कशन होता है. अच्छे अच्छे घरों के बच्चे फिल्में बनाने आ रहे हैं. बकायदा ट्रेनिंग ले कर आ रहे हैं. पढ़ कर आ रहे हैं तो सम्मान तो हासिल किया है हमने. मुझे बहुत अच्छा लगता है जब नयी पीढ़ी से मिलता हूं. एनर्जी मिलती है. वे काफी एक्टिव हैं. उनके पास उनकी दिशा है. वे मेहनत करते हैं और वे बहुत सुंदर काम कर रहे हैं और अपनी पहली ही फिल्म में आजकल कलाकार और निर्देशक ऐसे ऐसे एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं कि उनका कोई सानी नहीं. हमेनं तो वक्त लग जाया करता था. वे अपना हुनर दिखाते हैं. जो हम नहीं कर पाते थे. तो मैं मानता हूं कि भारतीय सिनेमा ने बहुत कुछ पाया है. और मैं धन्यवाद देना चाहूंगा उन सभी लोगों को जिन्होंने मुझे इस मुकाम तक पहुंचाने में मदद की. देव आनंद साहब, राजेश खन्ना,. धमेभर््ंद्र जी सबको मैं सादर प्रणाम करता हूं. यह सभी मेरे गुरु रहे और मैं हमेशा इनका आभारी रहूंगा. इन सभी का योगदान भी भारतीय सिनेमा कभी नहीं भूलेगी. मैं महमूद साहब को भी धन्यवाद कहना चाहूंगा. हिंदी सिनेमा ने ही मुझे मेरे होने का मतलब दिया. एक बड़ा प्लैटफॉर्म दिया. अगर हिंदी सिनेमा जगत न होता तो शायद कई बेहतरीन ुहनर लोगों के सामने नहीं आ पाता. विदेशों में लोग हमारी फिल्मों के स्टार्स के नाम जानते हैं. भले ही यहां के पॉलिटिक्स से वाकिफ हो कि नहीं. इससे समझ में आता है कि आपने कुछ तो पहचान बनायी है.मुझे लगता है कि हमारी इनडस्ट्री ने कई बार बुरे हालातों में भी काम किया. खुद को बुरे हालातों में भी संभाला और यही हमारा आत्मविश्वास है. मुझे लगता है कि भारतीय सिनेमा आज जहां भी है. हमारे आत्मविश्वास की वजह से है. यहां हर किसी ने अपनी पहचान बनायी है. मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में फिल्म की तकनीक काफी अच्छी हो गयी है. साथ ही साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा चैनल आने की वजह से भी फिल्मों का विस्तार बढ़ा है. अब हर चैनल पर फिल्मों के बारे में सारी जानकारी दी जाती है तो आम लोगों के बीच अब अधिक रीच हो गयी है हमारी. मुझे लगता है कि हिंदी सिनेमा के साथ साथ भारत की अन्य भाषा की फिल्मों को भी दर्शकों तक पहुंचाया जाना चाहिए. ताकि भारतीय सिनेमा पूरी तरह से समृद्ध हो.
 प्रस्तुति : अनुप्रिया अनंत

अनुराग कश्यप फिल्में देख देख कर पैदा किया फिल्मी कीड़ा



वर्ष 1993 में दिल्ली के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से मेरी जर्नी शुरू हुई. उसी फिल्मोत्सव के बाद मुझे लगा कि मुझे फिल्में बनानी हैं. मैंने इस फेस्टिवल में विटोरियो डिसिका जैसे फिल्मकारों की फिल्में देखीं थीं. वही चिल्ड्रेन आर वाचिंग, बाइसाइकिल थीफ और दूसरी फिल्में देखी. वहीं फिल्मों से प्यार हो गया. उसी साल मैच फैक्ट्री गर्ल भी आयी थी. इन फिल्मों ने मुझ पर बहुत प्रभाव डाला और फिर क्या था. मैं पागल हो गया फिल्मों के पीछे. बैग पैक किया और आग गया मुंबई.  मुंबई आने से पहले की जर्नी की बात करूं और अपने बचपन व सिनेमा के जुड़ाव की बात तो मुझे याद है कि मैं फिल्में देखने का शौकीन शुरू से था. पता नहीं क्यों देखता था. लेकिन अच्छा लगता था देखना.उस वक्त पिताजी बहुत नाराज हुए थे. चूंकि मैं तब स्ट्रीट थियेटर करता था तो काफी कंफ्यूज रहता है. पता नहीं था क्या करना है. पिक्चर कैसे बनती है. मेरे पास कोई एक्सपोजर नहीं था सिनेमा का. डिसिका देखा था. उसके बाद यह एक्सपोजर थोड़ा बदला. बचपन में हमारे मोहल्ले में क्लब था. वही हफ्ते में दो बार फिल्में देखते थे. मैं उस वक्त छह साल का था तो हर फिल्म देखने भी नहीं मिलती थी. यूपी के रेणपुर में मेरा बचपन गुजरा. वहां एक ही थियेटर था. चलचित्र नाम था उसका. उवही जाकर मैंने आंधी और कोरा कागज देखी थी. उस वक्त पिताजी को मेरी यह हरकतें अच्छी नहीं लगती थीं. वे कहते कि ये बड़ों का सिनेमा है. इसे क्यों देखते हों. लेकिन मैं देखता था. उन फिल्मों के इमेज आज भी दिमाग में जिंदा है. उसके बाद फिल्में देखने का सिलसिला टूट गया. फिर जब मैं हॉस्टल पहुंचा तो वहां फिल्में देखने लगा. खासतौर से शनिवार को देखा करता था. उस वक्त सबसे अधिक बार दो बदन ही दिखाया जाता था. चूंकि प्रिसिंपल की फेवरिट फिल्म थी. प्रोजेक्ट्र पर देखते थे वह फिल्म. लेकिन बाद में मेरा कई सालों तक फिल्मों से नाता टूट गया. देहरादून में पढ़ने के बाद जब दिल्ली आया तो यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. वहां फिल्में देखने लगीं.यूनिवर्सिटी के आस पास के सिनेमा थिेटरों में जाता था. उसी दौरान फिल्म अनटचबेल देखी तो लगा कि अंगरेजी फिल्में भी देखनी चाहिए और इसी तरह मैंने उस वक्त वर्ल्ड सिनेमा की कई फिल्में देखीं. कई इंटरनेशनल फिल्मोत्सव में शामिल हो जाता था फिल्में देखने के लिए. सिनेमा का एक्सपोजर वहां से मिलने लगा. फिर मुंबई आ गया. मुंबई में तब क नयी जर्नी शुरू हुई. उस वक्त पता नहीं चल रहा था क्या करना है. एक्टिंग कि निर्देशन. ये भी समझ नहीं आता था किसके पास जाऊं. फिर तनाव में आकर मैं नाटक लिखा करता था. नाटक लिख कर मैं गोविंद निहलानी के पास गया तो उन्हें मेरा काम पसंद आया. उसके बाद गोविंद जी के लिए एक नाटक का काम किया. मुझे उस वक्त कोई न तो दिशा मिल रही थी न कुछ. मैं तनाव में आकर कई बार फोन बंद करके रहने लगा. लेकिन इसी बीच मुझे टैक्सी ड्राइवर फिल्म देखने का मौका मिला. उस वक्त इस फिल्म से मैं अलग तरीके से ही जुड़ गया. फिर मैं श्रीराम राधवन, श्रीधर राघवन से मिला. श्री राम राघवन ने अपनी बातचीत में जितनी किताबों का जिक्र किया. वे मैं अपनी कॉपी में लिख लेता था. फिर वे सारी किताबें खरीदता था. एक दिन श्रीधर ने ही बताया कि ये किताबें साांताक्रूज स्टेश्न के पास मिलती हैं. मैंने वही से कई किताबें खरीदी पढ़ी. वहीं जेम्स एम केम को पढ़ने के बाद फिर एक बेचैनी सी आ गयी. धीरे धीरे काम मिला. एक फिल्म की कहानी लिखनी शुरू की. लेकिन निर्देशकों ने कहा कि फिल्म नहीं बनेगी. मैंने पूछा क्यों तो कहा कि स्क्रिप्ट मजेदार नहीं है. मैं दोबारा उसे लेकर बैठा और रातोंरात मैंने दोबारा स्क्रिप्ट लिखी. बाद में वह फिल्म बनी मुझे क6ेडिट भी मिला. धीरे धीरे शिव सुब्ररमणयम, श्रीधर , श्रीराम ने ही आगे बढ़ाया. फिर मनोज बाजपेयी को रामगोपाल ने कहा कि मुझे तुम्हारे साथ फिल्म बनानी है. लेकिन एक नया रायटर दो. मनोज ने मेरा नाम सुझाया. मैं पहले चौंका की रामू की फिल्म लिखने का मौका मिलेगा. फिर मैं मिला. बातें हुईं और सत्या लिखी. उसी वक्त से मैंने और भी बहुत कुछ लिखना शुरू किया और निर्देशन का जज्बा धीरे धीरे पैदा हो गया. मैंने पांच लिखना शुरू की. उस वक्त पांच का नाम मिराज रखा था. स्क्रिप्ट पूरी हुई. मैंने पांच लिखते वक्त फन नामक एक फिल्म देखी थी जिसे देख कर मैं फिर प्रभावित हुआ. पांच की कहानी फन से मिलती जुलती है. और यही मेरी जर्नी की शुरुआत हुई फिल्म मेकिंग की. पांच कभी प्रदर्शित नहीं हुई. लेकिन मैंने फिल्में बनाना नहीं छोड़ा. वह जूनून जो मेरे अंदर आ चुका था. आज भी है.फिल्में देख देख कर मैंने फिल्में बनानी सीखी है. और हमेशा इसे बनाता रहूंगा.

आम लव स्टोरी को खास तरीके से दर्शाना है

अयान, काफी लंबा समय लग गया आपको अपनी दूसरी फिल्म के प्रदर्शन में. कोई खास वजह?

दरअसल, मैं किसी हड.बड.ी में नहीं हूं. आराम से काम करना चाहता हूं. यह कहानी ऐसी थी कि इसे वक्त देना जरूरी था. चूंकि फिल्म युवाओं पर आधारित है और युवा हर दिन बदलते रहते हैं. सो, उनके टेस्ट का ख्याल रखना पड.ता है. दूसरी बात यह भी है कि मेरी कोशिश यह बिल्कुल नहीं है कि मुझे कुछ अलग करना है. बस सिंपल स्टोरी को दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं.

दीपिका और रणबीर के ब्रेकअप के बाद भी वे दोनों इस फिल्म में काम करने के लिए कैसे तैयार हुए? कितना मुश्किल रहा दोनों को मनाना?

दीपिका और रणबीर मेरे अच्छे दोस्त हैं. जब मैंने कहानी लिखी थी. तभी यह तय कर लिया था कि फिल्म में रणबीर को ही लूंगा. चूंकि मैं जानता हूं कि उनके अंदर जो पागलपंती है, वह जबरदस्त है. उस पागलपंती की इस फिल्म में जरूरत है. ‘वेक अप सिड’ के दौरान ही हम दोनों की बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी. हम दोनों के इक्वेशन मिलते हैं और हमारी पसंद भी एक जैसी है. उन्हें जिस तरह की फिल्में पसंद आती हैं, मुझे भी आती हैं. सो उन्हें मनाना बिल्कुल कठिन नहीं था. दीपिका को लेने की खास वजह यह थी कि वह मॉर्डन गर्ल के साथ ट्रेडिशनल किरदार भी अच्छी तरह निप्रभाती हैं. जब मैंने रणबीर और दीपिका से कहा तो मेरे दिमाग में यह बात थी कि शायद वे मना कर देंगे, लेकिन स्क्रिप्ट सुन कर दीपिका को भी लगा कि उन्हें यह फिल्म करनी चाहिए. मुझे खुशी है कि दोनों साथ आये. आप खुद देखें दोनों की जोड.ी कितनी बेहतरीन लग रही है. खुशी इस बात की भी है कि इस फिल्म के माध्यम से ही सही लेकिन दीपिका और रणबीर एक बार फिर अच्छे दोस्त बन गये और यह रिश्ता भी तो बेहद खास होता है. 

रणबीर और दीपिका के किरदार के बारे में बताएं?

इस फिल्म में रणबीर का किरदार एक ऐसे युवा का है जो अपने कैरियर को लेकर नहीं, बल्कि जिंदगी में एडवेंचर को लेकर कांशियस है. वह चाहता है कि वह हर तरह का एक्साइटमेंट हासिल करे. इसलिए वह सारे प्रयास करता है और जिंदगी जीता है. नैना पढ.ी-लिखी अपने क्लास की टॉपर लड.की है, जिसे रणबीर के किरदार से प्यार तो होता है. लेकिन रणबीर चूंकि मस्तमौला है तो वह उसे हां नहीं कहता. इसके बावजूद दोनों मस्ती करते हैं. इस फिल्म में आप रणबीर को वे सारी चीजें करते देखेंगे जो उन्होंने कभी नहीं किया है. मस्ती और पागलपंती की हद तक जाकर आप क्या-क्या एडवेंचर कर सकते हैं, वह सब है इस फिल्म में. मेरी फिल्म में मस्ती का मतलब केवल शराब पीना नहीं, बल्कि हिमाचल की ऊंची पहाड.ी से कूदना है.

‘ये जवानी है दीवानी’ का ख्याल कैसे आया? 

मैं अपने एक दोस्त की शादी में गया था. वहां हम सभी मस्त होकर गोविंदा और करिश्मा कपूर के गानों पर डांस कर रहे थे. उससे पहले मैं कहानी तो लिख रहा था, लेकिन कहानी में वह स्पार्क नहीं था. वहां से मुझे स्पार्क मिला और फिर मैंने तय किया कि ऐसी कोई फिल्म बनाऊंगा.

आप खुद युवा हैं तो क्या इस फिल्म में आपकी जिंदगी के भी कुछ अनुभव हैं?

मैं अपने कॉलेज में बहुत ज्यादा मस्तीखोर नहीं था, लेकिन अपने दोस्तों के साथ काफी मस्ती करता था और हमारी लाइफ में भी वैसे इंसिडेंट्स हुए थे. कुछ वैसे हिस्से लिये हैं, जो आप फिल्म में देखेंगे. 

फिल्म के गाने बिल्कुल अलग हैं. काफी लोकप्रिय भी हो रहे हैं?

हां, मैं फिल्म के गानों को लेकर पहले से काफी सतर्क था. मैं चाहता था कि वे सारे गाने दर्शकों को याद रहें. अमिताभ भट्टाचार्य से करन जाैहर ने ही बात की. उन्होंने तो कमाल के गाने लिखे हैं. मुझे लगता है कि एक युवा की फिल्म में ऐसे गाने होने ही चाहिए थे. दिल्लीवाली गर्लफ्रेंड मेरा पसंदीदा गीत है. फिल्म में होली के गाने को भी लोग काफी पसंद कर रहे हैं. अयान, काफी लंबा समय लग गया आपको अपनी दूसरी फिल्म के प्रदर्शन में. कोई खास वजह?

दरअसल, मैं किसी हड.बड.ी में नहीं हूं. आराम से काम करना चाहता हूं. यह कहानी ऐसी थी कि इसे वक्त देना जरूरी था. चूंकि फिल्म युवाओं पर आधारित है और युवा हर दिन बदलते रहते हैं. सो, उनके टेस्ट का ख्याल रखना पड.ता है. दूसरी बात यह भी है कि मेरी कोशिश यह बिल्कुल नहीं है कि मुझे कुछ अलग करना है. बस सिंपल स्टोरी को दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं.

दीपिका और रणबीर के ब्रेकअप के बाद भी वे दोनों इस फिल्म में काम करने के लिए कैसे तैयार हुए? कितना मुश्किल रहा दोनों को मनाना?

दीपिका और रणबीर मेरे अच्छे दोस्त हैं. जब मैंने कहानी लिखी थी. तभी यह तय कर लिया था कि फिल्म में रणबीर को ही लूंगा. चूंकि मैं जानता हूं कि उनके अंदर जो पागलपंती है, वह जबरदस्त है. उस पागलपंती की इस फिल्म में जरूरत है. ‘वेक अप सिड’ के दौरान ही हम दोनों की बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी. हम दोनों के इक्वेशन मिलते हैं और हमारी पसंद भी एक जैसी है. उन्हें जिस तरह की फिल्में पसंद आती हैं, मुझे भी आती हैं. सो उन्हें मनाना बिल्कुल कठिन नहीं था. दीपिका को लेने की खास वजह यह थी कि वह मॉर्डन गर्ल के साथ ट्रेडिशनल किरदार भी अच्छी तरह निप्रभाती हैं. जब मैंने रणबीर और दीपिका से कहा तो मेरे दिमाग में यह बात थी कि शायद वे मना कर देंगे, लेकिन स्क्रिप्ट सुन कर दीपिका को भी लगा कि उन्हें यह फिल्म करनी चाहिए. मुझे खुशी है कि दोनों साथ आये. आप खुद देखें दोनों की जोड.ी कितनी बेहतरीन लग रही है. खुशी इस बात की भी है कि इस फिल्म के माध्यम से ही सही लेकिन दीपिका और रणबीर एक बार फिर अच्छे दोस्त बन गये और यह रिश्ता भी तो बेहद खास होता है. 

रणबीर और दीपिका के किरदार के बारे में बताएं?

इस फिल्म में रणबीर का किरदार एक ऐसे युवा का है जो अपने कैरियर को लेकर नहीं, बल्कि जिंदगी में एडवेंचर को लेकर कांशियस है. वह चाहता है कि वह हर तरह का एक्साइटमेंट हासिल करे. इसलिए वह सारे प्रयास करता है और जिंदगी जीता है. नैना पढ.ी-लिखी अपने क्लास की टॉपर लड.की है, जिसे रणबीर के किरदार से प्यार तो होता है. लेकिन रणबीर चूंकि मस्तमौला है तो वह उसे हां नहीं कहता. इसके बावजूद दोनों मस्ती करते हैं. इस फिल्म में आप रणबीर को वे सारी चीजें करते देखेंगे जो उन्होंने कभी नहीं किया है. मस्ती और पागलपंती की हद तक जाकर आप क्या-क्या एडवेंचर कर सकते हैं, वह सब है इस फिल्म में. मेरी फिल्म में मस्ती का मतलब केवल शराब पीना नहीं, बल्कि हिमाचल की ऊंची पहाड.ी से कूदना है.

‘ये जवानी है दीवानी’ का ख्याल कैसे आया? 

मैं अपने एक दोस्त की शादी में गया था. वहां हम सभी मस्त होकर गोविंदा और करिश्मा कपूर के गानों पर डांस कर रहे थे. उससे पहले मैं कहानी तो लिख रहा था, लेकिन कहानी में वह स्पार्क नहीं था. वहां से मुझे स्पार्क मिला और फिर मैंने तय किया कि ऐसी कोई फिल्म बनाऊंगा.

आप खुद युवा हैं तो क्या इस फिल्म में आपकी जिंदगी के भी कुछ अनुभव हैं?

मैं अपने कॉलेज में बहुत ज्यादा मस्तीखोर नहीं था, लेकिन अपने दोस्तों के साथ काफी मस्ती करता था और हमारी लाइफ में भी वैसे इंसिडेंट्स हुए थे. कुछ वैसे हिस्से लिये हैं, जो आप फिल्म में देखेंगे. 

फिल्म के गाने बिल्कुल अलग हैं. काफी लोकप्रिय भी हो रहे हैं?

हां, मैं फिल्म के गानों को लेकर पहले से काफी सतर्क था. मैं चाहता था कि वे सारे गाने दर्शकों को याद रहें. अमिताभ भट्टाचार्य से करन जाैहर ने ही बात की. उन्होंने तो कमाल के गाने लिखे हैं. मुझे लगता है कि एक युवा की फिल्म में ऐसे गाने होने ही चाहिए थे. दिल्लीवाली गर्लफ्रेंड मेरा पसंदीदा गीत है. फिल्म में होली के गाने को भी लोग काफी पसंद कर रहे हैं

कुछ तो लोग कहेंगे


ये जवानी है दीवानी दीपिका की पहली फिल्म नहीं है. लेकिन इस फिल्म में उनका उत्साह यह दर्शा रहा है कि यह उनकी पहली फिल्म है. इस फिल्म के प्रोमोज और फिल्म के गानों को गौर से देखें तो दीपिका पादुकोण इन गानों और फिल्म में बिल्कुल अलग नजर आ रही हैं. स्पष्ट है कि इस फिल्म में उन्होंने पूरे दिल से काम किया है. इसकी अहम वजह रणबीर भी हैं,जो उनकी जिंदगी में कभी सबसे खास स्थान रखते थे. यह उनकी और रणबीर की केमेस्ट्री ही है जिसकी वजह से दीपिका बेहद खुश नजर आ रही हैं. दरअसल, हकीकत यही है कि हिंदी फिल्म जगत में फिल्मी सितारों की जिंदगी उनकी वास्तविक जिंदगी की वजह से काफी प्रभावित होती है. फिल्म सिलसिला में जिस कदर रेखा ने अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश की है. और अमिताभ के साथ उनकी केमेस्ट्री अन्यफिल्मों की तूलना में इस फिल्म में अधिक निखर कर इसलिए आ पायी थी चूंकि वास्तविक जिंदगी में अमिताभ रेखा एक दूसरे से काफी क्लोज थे. मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ फिल्में करना अच्छा लगता था. तो नरगिस ने जितना बेहतरीन अभिनय राज कपूर के साथ की जोड़ियों वाली फिल्मों में किया है. अन्य में नहीं. फिल्म श्री 420 के गीत प्यार हुआ इकरार हुआ में छतरी के नीचे जिस तरह राजकपूर और नरगिस का रुमानी दृश्य फिल्माया गया है. वह आज भी सदाबहार नजर आता है. फिल्म सिलसिला के गीत ये कहां आ गये हम...में अमिताभ और रेखा का रोमांस निखर कर आता है. फिल्म हम दिल चुके सनम में सलमान खान और ऐश्वर्य वाकई एक दूसरे के लिए बने हैं हैं. ऐसा नजर आता है. दर्शकों को जितनी दिलचस्पी प्रेमी युगल को परदे पर देखने में होती है. उनकी शादी हो जाने के बाद वे उन जोड़ियों में उतनी दिलचस्पी नहीं लेते. और यही वजह है कि ये फिल्में सफल होती हैं.

कलाकारों का अनप्रोफेशनलिज्म



 हाल ही में विवेक ओबरॉय ने टेलीविजन के सेट पर ऐसा ड्रामा किया कि उन्हें देख कर सभी दंग थे. वे एपिसोड के शूट के लिए अपनी वैनिटी वैन से बाहर ही नहीं निकले. जबकि उन्हें उस दिन शूट करना था. विवेक ने ऐसा पहली बार नहीं किया है. किसी दौर में जब वह उभरते सितारे के साथ ही चमकते सितारे बन गये थे. तब कामयाबी उनके सिर पर चढ़ कर बोलने लगी थी और इसी वजह से उन्होंने नखरे दिखाने शुरू कर दिये थे. विवेक इस नखरे की वजह से पूरे प्रोडक् शन टीम को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. दरअसल, प्रोड्क् शन का काम कोई आसान काम नहीं होता.यह एक खर्चीला माध्यम हैं. जहां बजट का मीटर एक एक सेकेंड के अनुसार चलता है. ऐसे में अगर कोई अभिनेता अनप्रोफेशनल तरीके से व्यवहार करता है तो इससे करोड़ों का नुकसान हो सकता है. फिल्म ओम शांति ओम में इस बात को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है. लेकिन हिंदी फिल्मों  के सेट पर ऐसा होना आम बात हो चुकी है. हिंदी सिनेमा के ऐसे कई स्टार हैं, जो सेट पर इस तरह से परेशानी गढ़ते हैं कि उससे पूरी यूनिट को परेशानी का सामना करना पड़ता है. एक दौर में प्राण साहब जब उपकार फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. उनकी बहन की मौत हुई थी. लेकिन उन्होंने यह बात मनोज कुमार को नहीं बतायी थी. चूंकि उनका मानना था कि मेरी बहन की मौत हुई है लेकिन मैं बाकी के पेट को क्यों मारूं. अगर एक दिन शूटिंग नहीं होगी तो कितना नुकसान होगा. यह वह अच्छी तरह से जानते थे. अमिताभ बच्चन और सुभाष घई में कभी कहा सुनी हो गयी थी और उन्होंने एक फिल्म को डिब्बाबंद कर दिया. दरअसल, हकीकत यही है कि यह कलाकारों पर निर्भर करता है कि वह अपने काम के प्रति कितना प्रतिबद्ध है. वह कितना समर्पित है. वह काम को पूजा की तरह लेता है या नहीं