20120927

आइ ओपनर है ओएमजी : उमेश शुक्ला


  
अच्छे कर्मों में आस्था होनी चाहिए. मैं भगवान की आस्था के खिलाफ नहीं हूं. लेकिन मुझे इस बात से परेशानी है कि लोग आस्था को गलत तरीके से न लें और इसका गलत इस्तेमाल न करें. ओह माइ गॉड से लोगों तक बस यही संदेश पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं निर्देशक उमेश शुक्ला. यह फिल्म कृष्णा वर्सेज कन्हैया प्ले पर आधारित है. उमेश शुक्ला खुद अनुप्रिया अनंत को बता रहे हैं कि क्या क्या कारण रहे, जिन्होंने उमेश शुक्ला व पूरी टीम को यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया.

 उमेश के मन में बचपन से ही यह सवाल उठते थे कि अगर हम पूजा करते हैं तो भगवान से कोई मदद मांगते हैं तो फिर उन्हें पैसे क्यों चढ़ाते हैं. आखिर यह भी तो एक तरह से भगवान को रिश्वत देने जैसा है. कुछ ऐसे ही सवालों ने उमेश को सोचने पर मजबूर किया और उन्होंने धर्म व पूजा से जुड़ी तमाम चीजें पढ़ीं और समझने की कोशिश की. उन्होंने पूरी जानकारी हासिल की और महसूस किया कि आस्था रखना बुरी चीज नहीं है.पूजा का मतलब लोगों की मदद करना है. असली तीर्थ वही है. इन्हीं खोज से उन्होंने अपने दोस्त भावेश मंडालिया के साथ मिल कर पहले कांजी विरुद्ध कांजी नामक गुजराती प्ले लिखा. फिर इसे हिंदी में कृष्णा वर्सेज कन्हैया में रुपांतरित किया. इस प्ले में परेश रावल ने मुख्य भूमिका निभाई थी. एक बार परेश ने अक्षय कुमार को भी प्ले देखने के लिए बुलाया. अक्षय इस प्ले से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने तय कर लिया कि वे इस पर फिल्म बनायेंगे. इस तरह उमेश को ओह माइ गॉड फिल्म बनाने का मौका मिला.
लोग अंधविश्वास करते थे मुझपे
बकौल उमेश मैं खुद ब्राह्माण परिवार से हूं. और हमारे परिवार में हम दूसरों के घर सत्यनारायण भगवान की पूजा कराने जाते थे. मैं देखता था कि मैं जो जो कहता जा रहा हूं. जो जो मंत्र बोलने के लिए कहता जा रहा हूं. लोग आंख मूंध कर वही सब कहते जा रहे हैं. मुझे बहुत अजीब लगता था. कि लोग कैसे बिना समझे कि वह क्या कर रहे हैं. अंधविश्वास होकर कुछ भी किये जा रहे हैं. दरअसल, हकीकत भी यही है कि हम धर्म के बारे में कम जानकारी रखते हैं और आस्था के नाम पर हम कई अंधविश्वासी चीजें करते हैं. हमारी फिल्म ऐसी ही चीजों से परदा उठायेगी. इस प्ले की खासियत ही रही है कि अब तक मराठी में इसके 100 से भी ज्यादा प्ले हो चुके हैं. मैं इसे आइ ओपनर फिल्म मानता हूं. मैं मानता हूं कि फिल्म देखने के बाद आप किसी तीर्थ के लिए नहीं,बल्कि खुद के आसपास अच्छे कर्म करने की कोशिश करेंगे.
फिल्म की पहुंच अधिक है
मैं मानता हूं कि आज भी भारत में प्ले से अधिक फिल्म की पहुंच है. और इस फिल्म के माध्यम से भी हम अधिक संदेश पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं.
लोगों का नजरिया बदलेगा
मैं मानता हंू कि इस फिल्म की यूएसपी यही होगी कि लोगों का नजरिया इस फिल्म से बदलेगा. लोगों को हम इस फिल्म से भड़काने की कोशिश नहीं कर रहे. न ही हम उन्हें कह रहे हैं कि वह धर्म न माने. हम बस लोगों को यह बताना चाहते हैं कि आपकी इंसानियत ही आपकी आस्था है. किसी मंदिर या गुरुद्वारे जाने से शांति नहीं मिलती. शांति तभी मिलती है.जब आप खुद अच्छे काम करें.
फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित है. जो भगवान से ही शिकायत करने लगता है कि उसने तो उसकी मदद के लिए दक्षिणा दिया था. फिर भगवान ने तो उसकी मदद की नहीं. ऐसे में भगवान को नियमत: को उसके पैसे वापस करना चाहिए. जैसे बाकी की इंश्योरेंस कंपनियां करती हैं. यह फिल्म भगवान से डरने नहीं, बल्कि भगवान को अपना दोस्त समझने पर आधारित है.
अक्षय की मौजूदगी 
मैं मानता हूं कि इससे पहले अक्षय ने कभी ऐसा किरदार नहीं निभाया होगा. सो, हमारी कोशिश है कि उन्हें इस रूप में दर्शाये. अक्षय कुमार और परेश की जोड़ी ने इस फिल्म में हास्य को भी बरकरार रखा है.

सोनाक्षी का गाना
हां, यह सच है कि सोनाक्षी के गाने ने फिल्म की लोकप्रियता बढ़ा दी है. लेकिन यह फिल्म की डिमांड भी थी. फिल्म देखने पर आप इसकी जरूरत को महसूस करेंगे.

किशोरदा की पागलपंती



 फिल्म बर्फी के बाद अब अनुराग बसु और रणबीर कपूर अपनी अगली जोड़ी में मशहूर व लीजेंड गायक किशोर कुमार की जीवनी दिखाने जा रहे हैं. निर्देशक अनुराग बसु हमेशा से ही अपनी बातचीत में कहते रहे हैं कि उन्हें किशोर कुमार की जीवनी बहुत आकर्षित करती है. किशोर कुमार वाकई एक महान गायक और कलाकार थे. जिस दौर में किशोर की फिल्में आयीं. उस वक्त आज की पीढ़ी वाकई उस वर्सेटाइल कलाकार को देखने से वंचित रह गयी थी. ऐसे में अगर अनुराग बसु जैसे निर्देशक उनकी कहानी परदे पर उतारते हैं तो हमें उनके जीवन के कई पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिलेगा. यह जगजाहिर है कि किशोर उन चुनिंदा कलाकारों में से थे जिन्होंने हिंदी फिल्मों में हास्य को नयी परिभाषा दी. किशोर कुमार अभिनय और गायिकी के प्रति समर्पित थे. कई बार तो जब उन्हें लगता कि वे अभिनय करते वक्त गाने पर ध्यान नहीं दे पायेंगे तो वह किसी दूसरे पार्श्व गायक की आवाज लेने में भी नहीं कतराते थे. किशोर कुमार का स्क्रीन अपीयरेंस आज भी अद्वितीय है. आज भी उनकी फिल्में यूटयूब पर सर्वाधिक देखी जाती है. उनकी जिंदगी से कई विवाद नहीं जुड़े हैं. सिवाय इसके कि वह विवादित अभिनेत्री मधुबाला के पति थे. ऐसे में निर्देशक अनुराग के लिए यह चुनौती होगी कि वह किस तरह फिल्म में अलग तरह के पुट डालें.  अनुराग किशोर के पागलपन( जूनून) को दर्शाना चाहते हैं.यह किशोर की तरह ही कोई जूनूनी अभिनेता ही कर सकता था कि एक बार एक कार सीन में किशोर मुंबई से खंडाला तक कार ड6ाइव करते हुए चले गये थे क्योंकि निर्देश्क ने कट बोला ही नहीं था.उन्होंने एकबार इनकम टैक्स के अधिकारी को ही घर में बंद कर दिया था. दरअसल, हकीकत भी यही है कि मनोरंजन की दुनिया में कोई सबसे निर्भिक होता है तो वह कॉमेडियन ही. इस लिहाज से किशोर की फिल्म बेहद दिलचस्प होगी.

दास कैपिटल के कैप्टन का जाना



26 सितंबर को पुणे में एक फिल्म की शूटिंग करने के दौरान ही सिनेमेटोग्राफर व निर्देशक राजन कोठारी की अचानक तबियत खराब हुई और उन्होंने वही दम तोड़ दिया. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शायद ही इस दुखद खबर की जानकारी लोगों को होगी. चूंकि राजन कोठारी परदे के पीछे कमाल दिखानेवाले हुनर में से एक थे. जुबैदा, वेलडन अब्बा,घायल, वेलकम टू सज्जनपुर,गॉडमदर जैसी फिल्मों में अपने कैमरे का हुनर का जादू दिखाया. लेकिन उनकी महत्वपूर्ण भूमिका प्रकाश झा की फिल्म दामुल को राष्टÑीय फलक पर स्थापित करने में जरूर याद की जायेगी. दामुल पूरी तरह बिहार पर आधारित पहली ठेठ हिंदी फिल्म थी. जिसे बिहार के ही निर्देशक प्रकाश झा ने बनाया और बिहार में ही इसकी शूटिंग की गयी. इस फिल्म में जितना योगदान निर्देशक प्रकाश झा का रहा, उतना ही राजन कोठारी का भी रहा. चूंकि निर्देशक की सोच को वास्तविक रूप देने में सिनेमेटेग्राफर की अहम भूमिका होती है. राजन ने फिल्म में बिहार के मोतिहारी के एक छोटे से स्थान छपवा मोड़ का फिल्मांकन इतनी खूबसूरती से दर्शाया था कि सभी दंग रह गये थे. राजन ने अपनी कुशलता से तालाब को झील का रूप दे दिया था. यह उनकी कल्पनाशीलता ही थी जो दामुल में बिहार का एक अलग ही स्वरूप नजर आया था. राजन बिहार से ताल्लुक नहीं रखते. लेकिन उनका जुड़ाव बिहार से, बिहार की कहानियों से बना रहा. जमीन से जुड़ी कहानियां उन्हें हमेशा आकर्षित करती हैं. यही वजह रही थी कि उन्होंने बतौर निर्देशक जब पहली शुरुआत की तो उन्होंने बिहार पर ही आधारित फिल्म दास कैपिटल बनायी. यह फिल्म जल्द ही रिलीज होनेवाली थी. कई फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा भी बन चुकी थी. लेकिन अफसोस वे इस फिल्म की कामयाबी देखने के लिए खुद मौजूद नहीं होंगे. फिल्म के प्रति उनका जूनून हमेशा उल्लेखनीय रहेगा.

पल दो पल से ताउम्र शायर



आज यश चोपड़ा अपना 80 वां जन्मदिन मनाने जा रहे हैं. इस बार उनके प्रिय अभिनेता शाहरुख खान उन्हें जन्मदिन पर खास तोहफा देना चाहते हैं. शाहरुख ने यश चोपड़ा से दो घंटे का वक्त मांगा है. इन दो घंटों में वे यश को अपनी तरफ से जन्मदिन का खास तोहफा देना चाहते हैं. शाहरुख खान भले ही खोज थे हेमा मालिनी के. लेकिन उन्हें मांझा यश चोपड़ा ने ही. फिल्म डर, दिल तो पागल है, वीर जारा औरजल्द ही रिलीज हो रही फिल्म जब तक हैं जां में यश चोपड़ा के निर्देशन में निखरने का मौका मिला तो वही यशराज बैनर तले बनी फिल्में दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे और मोहब्बते से रोमांटिक हीरो के रूप में स्थापित होने का मौका मिलेगा. निस्संदेह यश चोपड़ा को शाहरुख को गुरु-सा सम्मान देना ही चाहिए. चूंकि उनकी फिल्मों ने ही शाहरुख खान की रुमानियत को दर्शकों के सामने इस कदर दर्शाया कि आज भी हिंदी सिनेमा में शाहरुख द्वारा निभाये गया किरदार सबसे रुमानी किरदार माना जाता है. दरअसल,  यश ने हिंदी सिनेमा में एक रुमानियत लायी. उनकी फिल्मों की वजह से ही फिल्मों का शायराना अंदाज कायम रहा. आनंद बख्शी जैसे गीतकार की मदद से यश चोपड़ा ने एक से एक नगमें लिखें. यश चोपड़ा की फिल्मों की खासियत रही कि न केवल फिल्मों के गाने. बल्कि फिल्मों के पेस में भी लयबद्ध नजर आयी. उनकी आगामी फिल्म जब तक हैं जान में भी लंबे अरसे के बाद शाहरुख खान शायराना अंदाज में मोहब्बत बयां करते आयेंगे. पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों से शायरी लुत्फ हो चुकी थी. जब से गुलजार ने लिखना कम किया. लेकिन गुलजार को एक बार फिर से गुलजार करने का मौका भी यश  दे रहे हैं. कभी कभी का गीत मैं पल दो पल का शायर हूं की तर्ज पर यश चोपड़ा पिछले कई सालों से लगातार एक कामयाब शायर निर्देशक की भूमिका निभा रहे हैं

सदाबहार सम्मान के हकदार




आज देव आनंद साहब की पुण्यतिथि है. देव आनंद जब तक जीवित रहे. उन्होंने अपना हर जन्मदिन धूमधाम से मनाया. हर वर्ष वे अपने पसंदीदा होटल में जाते थे और वहीं अपने परिवार और मीडिया के बीच शौक से केक काटते थे. उनके बेटे सुनील आनंद ने पिता की इस परंपरा को बरकरार रखते हुए आज उसी होटल में देव आनंद साहब का जन्मदिन मनाने का फैसला किया है. साथ ही उन्होंने एक फिल्म की भी घोषणा करने का निर्णय लिया है. चूंकि उनके पिता हर साल अपने जन्मदिन पर अपने बैनर की फिल्मों की घोषणा करते थे. सुनील ने पिता के लिए संग्रहालय बनाने का भी निर्णय लिया है. वाकई एक पुत्र द्वारा पिता को दिया गया भेंट अदभुत होगा. चूंकि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री द्वारा अपनी हस्तियों के सम्मान में किसी भी तरह के संस्मरण को संग्रहालय का रूप देने की परंपरा नहीं रही है. अफसोस, एक एक कर हम शख्सियत को खोते जा रहे हैं. और साथ ही उनसे जुड़ी चीजों व यादों को भी. ऐसे में सुनील ने एक अच्छी पहल की है. देव आनंद जैसे सदाबहार अभिनेता हर रोज जन्म नहीं लेते. राजेश खन्ना जैसा स्टाइल, स्टारडम कभी नहीं लौटेगा. लेकिन इसके बावजूद हम अपने कलाकारों को उस सम्मान की नजर से नहीं देखते,और न ही सम्मान देते हैं जो उनके द्वारा प्रयोग की गयी सामग्री, उनकी फिल्मों की स्क्रिप्ट, उनसे जुड़े वीडियो को किसी सुरक्षित जगह पर संग्रह कर सकें. हिंदी सिने जगत में केवल महज आॅटोग्राफ देने वाले अभिनेताओं को पैदा नहीं किया है. एक से एक मिसाल रहे हैं सभी. यह जरूरी है कि जिस तरह हमारे कलाकारों ने सदाबहार रह कर हमारा मनोरंजन किया. उन्हें भी हमारी तरफ से सदाबहार सम्मान ही मिलना चाहिए. एक कलाकार के लिए इससे बेहतरीन तोहफा और क्या होगा कि वह मृत्यु पंरात भी लोगों के जेहन में इस रूप में जिंदा है.

आपकी दुआ से सब ठीक ठाक है



वर्ष 1971 में एक फिल्म आयी थी. मेरे अपने. गीतकार गुलजार द्वारा निर्देशित की गयी पहली फिल्म थी. फिल्म के मुख्य कलाकारों में विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी, पेंटल,दिनेश ठाकुर, असरानी जैसे बेहतरीन कलाकार थे. यह अभिनेता दिनेश ठाकुर की पहली फिल्म थी. दिनेश ठाकुर पिछले कई सालों से लगातार थियेटर में सक्रिय रहे थे. 20 सितंबर को उनका देहांत हो गया. दिनेश ठाकुर को श्रद्धांजलि देते हुए मेरे अपने के एक विशेष गीत का यहां उल्लेख करना बेहद जरूरी है. चूंकि मेरे अपने का यह गीत...हाल चाल ठीक ठाक है. दरअसल, एक व्यंगात्मक गीत है. वर्तमान में जहां यूपीए सरकार द्वारा वॉल मार्ट और एफडीआइ के मुद्दे को लेकर व महंगाई को लेकर पूरे भारत में परेशानी है. ऐसे माहौल  को यह गीत सार्थक करता है. चूंकि इस गीत में किशोर कुमार की आवाज में गुलजार ने उस दौर की व्यवस्था व उस वक्त की आर्थिक स्थिति को दर्शाने की कोशिश की है. गीत के बोल में कुछ युवा गलियों में घूम घूम कर कह रहे हैं कि एमए किया. बीए किया. लेकिन लगता है एवि किया, क्योंकि उनके पास रोजगार नहीं है. इसी गीत में आगे गुलजार ने लिखा है कि बाजारों के भाव ताऊ से बड़े. मकानों के पगड़ी वाले ससुर खड़े...इन पंक्तियों में गुलजार ने महंगाई की मार में अपने मतलब की रोटियां सेंकनेवाले दलालों की मनसा का वर्णन किया है.निस्संदेह उस दौर में महंगाई के मुद्दे पर कई गाने लिखे गये हैं. लेकिन अगर आप गौर करें तो गुलजार द्वारा फिल्माया गया यह गीत आज भी प्रासंगिक है. यह गीत पूरी परिस्थिति का हालएबयां हैं. गुलजार ने वाकई सच्चाई बयां की है,कि भाषण हैं यहां हर रोज़. लेकिन भाषण पर राशन नहीं है. वर्तमान में यूपीए सरकार भी तो कुछ यही कर रही है.

गन, गोली गैंगस्टर के बगैर फिल्म



अनुराग बसु की हाल ही में प्रदर्शित हुई फिल्म बर्फी को बेहतरीन सफलता मिली है. फिल्म को समीक्षकों के साथ साथ आम दर्शकों ने भी पसंद किया है. जाहिर है किसी अच्छी फिल्म के सबसे अहम पहलू यही होते हैं. फिल्म अगर वाकई अच्छी हो तो वे निश्चित तौर पर दर्शकों को प्रभावित करती है. इस साल पान सिंह तोमर, कहानी व विकी डोनर उन चंद अच्छी फिल्मों में से एक है जिसकी लोकप्रियता व सफलता माउथ पब्लिसिटी की वजह से हुई. स्पष्ट है कि फिल्मी प्रमोशन के तमाम हथकंडों के बावजूद फिल्में वही प्रभावित करती हैं. जो अच्छी है. बर्फी ने इस बात की सार्थकता को और मजबूत कर दिया है. हाल ही में अक्षय कुमार की फिल्म जोकर रिलीज हुई और असफल रही. लोगों ने इसका दोष अक्षय कुमार पर मढ़ा. चूंकि अक्षय ने इस फिल्म का प्रमोशन किया ही नहीं था.लेकिन अक्षय ने इस बारे में साफतौर पर कहा कि प्रमोशन का फायदा फिल्मों को केवल पहले दिन मुनाफा दिला सकता है. शेष तो फिल्म अगर अच्छी होगी तभी दर्शक देखेंगे. दरअसल, हकीकत भी यही है कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों को समझ पाना बेहद कठिन है. उन्हें कब किस तरह की फिल्में पसंद आयेंगी और कब उन्हें फिल्में नापसंद आयेंगी. यह आकलन संभव नहीं. लेकिन इसके बावजूद बर्फी की लोकप्रियता व सफलता एक तसवीर तो स्पष्ट करती है कि हिंदी फिल्मों के दर्शक अब भी फिल्मों में सकारात्मक और खुशियां बांटते लम्हों को ढूंढती है. पिछले लंबे दौर के बाद कोई फिल्म बिना द्विअर्थी संवाद, गालियों के प्रयोग या यूं कह लें. गन गोली गैंगस्टर की अनुपस्थिति में आयी है और हिट रही है. स्पष्ट है कि दर्शक अब भी फिल्मों को कलात्मक रूप से देखना पसंद करते हैं. बेहतर हो कि रियलिज्म के साथ साथ आनेवाले समय में निर्देशक फिल्मों में कलात्मक पुट बरकरार रखे.

भगवान नहीं, उनका फैनक्लब है अंधविश्वासी: अक्षय- परेश



‘हेराफेरी’, ‘फिर हेराफेरी’ जैसी कई फिल्मों में धमाल मचा चुकी अक्षय कुमार और परेश रावल की जोड़ी इस बार फिल्म ‘ओह माइ गॉड’ में दर्शकों के सामने आ रही है. यह फिल्म गुजराती प्ले ‘कांजी विरुद्ध कांजी’ से प्रेरित है. अक्षय और परेश इस फिल्म के माध्यम से एक अलग संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं.
दो दोस्तों ने पहली बार किसी फिल्म में निर्माता की भी भूमिका निभायी है. आखिर क्या वजहें थीं, जिनकी वजह से दोनों ऐसी फिल्म लेकर दर्शकों के सामने आ रहे हैं, अनुप्रिया अनंत ने जानने की कोशिश की अक्षय कुमार और परेश रावल से.
रेश, मुझे तुम्हारी यही बात पसंद नहीं है. तुम हमेशा अपने मोबाइल में क्या करते रहते हो. बातें कहीं भी करो, लेकिन ध्यान मोबाइल पर रहता है. अब यहां इंटरव्यू देने आये हो तो वही करो न! अक्षय कुमार ने दोस्ताना हक जमाते हुए परेश की क्लास ली. जवाब में परेश ने कहा मेरा मोबाइल से खेलना तुझे इरिटेट करता है, पर तेरा सुबह के 6 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाना मुझे उससे भी ज्यादा इरिटेट करता है.

सुबह 6 बजे कोई जागता है भला! अक्षय कहते हैं कि रात को उल्लू जागते हैं. दिन काम के लिए होता है. अब तुम तय कर लो तुम क्या हो. अक्षय देर रात काम नहीं करते और सुबह जल्दी जागते हैं. उनकी इस आदत से सभी वाकिफ हैं. परेश ने भी जवाब में कहा, जी जनाब मैं उल्लू, उल्लू का पट्ठा. चल अब इंटरव्यू शुरू करते हैं.
अक्षय कुमार की यह खासियत है कि वे अपने बिंदास और हंसमुख अंदाज से चंद मिनटों में ही सबसे दोस्ताना व्यवहार कायम कर लेते हैं. अक्षय के पास गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर हैं. और आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनके साथ अगर परेश रावल जैसे हास्य के महारथी हों तो माहौल कैसा होगा. यह सच है कि इन दोनों से यह मुलाकात किसी हास्य फिल्म को लेकर नहीं हो रही थी. दरअसल, फिल्म ‘ओह माइ गॉड’ एक गंभीर विषय को लेकर बनी है.

लेकिन दोनों ही कलाकारों ने फिल्म में ही नहीं, माहौल में भी हंसी के फव्वारे फैला दिये. अक्षय इस फिल्म को एक मिशन मान रहे हैं. इसी के चलते अक्षय और परेश ने यह वादा किया है कि फिल्म की रिलीज के बाद वे एक बार फिर इसके बारे में बातचीत करेंगे, यह जानने के लिए कि इसके प्रति लोगों की क्या प्रतिक्रियाएं हैं? उनके मन में किस तरह से सवाल उठ रहे हैं?
इसी के साथ मैंने परेश और अक्षय से बातचीत का सिलसिला शुरू किया.
अक्षय, परेश आप दोनों की जोड़ी बतौर कॉमेडियन हिट रही है. फिर इस फिल्म में आपने एक अलग ही विषय चुना है. कोई खास वजह?
अक्षय : (हंसते हुए) आप लोग चिंता न करें. इस फिल्म में भी हम दोनों नहीं, तो कम से कम परेश आप लोगों को बहुत हंसायेंगे.
परेश : हां, सही कहा अक्षय ने.. दर्शकों को हंसाने की अपने हिस्से की जिम्मेवारी भी मुझे ही दे दी है. वैसे, इस बार हंसी के साथ थोड़ी ज्ञान की बातें भी होंगी.

अक्षय : अब आप लोग भी सोच रहे होंगे कि कहां अक्षय ज्ञान की बातें बघारने चला है, जैसे खुद महाज्ञानी हो! अगर ऐसा है, तो स्पष्ट कर दूं कि मैं ज्ञानी नहीं हूं. लेकिन सच्चाई बताता हूं, मैंने परेश के कहने पर पहली बार कृष्णा वर्सेज कन्हैया प्ले देखा. उसे देखने के बाद मैं रोने लगा और मुझे लगा कि मैं अंधकार में हूं. परेश ने एक गुरु की तरह मुझे प्ले के माध्यम से कई बातें दरसा दीं.

एक्टिंग में आने के बाद से जब भी मैं मंदिर में दर्शन के लिए जाता था, तो अपने फैंस की भीड़ से बचने के लिए काफी इंतजाम करने पड़ जाते थे. पहले मैं हर साल चार्टर्ड प्लेन से वैष्णो देवी दर्शन के लिए जाता था. इसमें इसके अलावा दर्शन के लिए किये गये अन्य इंजतामों को मिला कर लगभग पांच लाख रुपये खर्च हो जाते थे. इस प्ले को देखने के बाद भगवान में आस्था का नजरिया बदल गया.

अब मैं वैष्णो देवी या किसी तीर्थ स्थल के दर्शन करना जरूरी नहीं मानता, बल्कि दर्शन की व्यवस्था में खर्च होने वाले पैसों को अच्छे कामों, जैसे कि जरूरतमंदों की मदद और चैरिटी के लिए खर्च करना ज्यादा बेहतर समझता हूं. मुझे इससे शांति भी मिलती है. मैं स्वीकारता हूं कि एक सच्चे दोस्त की तरह परेश ने मेरा ज्ञान बढ़ाया है. मैंने उसी दिन तय कर लिया था कि मैं इसे फिल्म का रूप जरूर दूंगा.

परेश : अक्षय ने अभी दोस्ती की बात कही है, तो मैं भी कहना चाहूंगा कि अक्षय एक सच्चे दोस्त की तरह ही मेरी बातों का आदर करता है और मेरे उद्देश्य को समझता है. यह एक ऐसा व्यक्ति है जिस पर मैं आंखें बंद करके भरोसा कर सकता हूं. जब उसने कहा कि मैं इस पर फिल्म बनाना चाहता हूं, तो मुझे भी लगा कि ऐसे विषय पर फिल्म बननी ही चाहिए.

अक्षय-परेश यह आपके प्रोडक्शन की पहली फिल्म है. इसलिए शुभारंभ भगवान की फिल्म से ही हो, क्या यह सोच कर आपने इसके लिए यह विषय चुना?
अक्षय : (हंसते हुए), फिल्म शुरू करते वक्त यह बात दिमाग में नहीं थी, लेकिन अब आपने कहा है तो सोचता हूं अच्छा ही हुआ कि यह पहली फिल्म बनी. खुशी इस बात की है कि कुछ ऐसी जानकारी, जिस पर परदा है और जिससे आम लोगों की नियमित जिंदगी बहुत प्रभावित होती है, उस पर हम कुछ प्रकाश डाल पायेंगे.
परेश : मुझे खुशी इस बात की है कि हम दोनों मिल कर लोगों को लुटने से बचा रहे हैं. आप मानें या न मानें, हम सभी अंधकार में हैं और ज्ञान के अभाव में हम लगातार पुण्य की इच्छा में अपने धन को बेफिजूल मंदिरों में दक्षिणा देकर बरबाद कर रहे हैं. करना है, तो अच्छे कर्म करो. स्वत: सारी परेशानी दूर हो जायेगी.
आपको नहीं लगता कि आपकी फिल्म को लेकर धार्मिक विवाद हो सकते हैं?
अक्षय : मैं नहीं मानता. मैं कहां कह रहा हूं कि कोई भी धर्म खराब है और उसे मत मानिए. मैं तो बस यह कह रहा हूं कि आंखों पर जो पट्टी बांधी गयी है और वर्षो से हम अज्ञान होकर भगवान में जो आस्था दरसाते आ रहे हैं, वह गलत है. मैंने नहीं कहा कि भगवान नहीं हैं, लेकिन भगवान आपसे रिश्वत लेकर आपकी मदद करेंगे, यह सोच गलत है.
परेश : मैं पूजा पाठ में न तो कभी विश्वास रखता था, न रखूंगा. मेरा साफ कहना है कि जरूरतमंदों की मदद करोगे, तो खुद-ब-खुद पुण्य कमा लोगे. गंगा में जाकर नहाने से केवल आपके शरीर का मैल धुल सकता है, पाप नहीं. पाप किया है तो प्रायश्चित का तरीका यही है कि अंतर्रात्मा को सुधारने की कोशिश करो. मैं अपने परिवार में किसी पर दबाब नहीं डालता कि वह पूजा करे या न करे.

जिसको जो ठीक लगता है,वही करे. लेकिन मैं झूठी, मनगढ़ंत बातों पर यकीन नहीं करता. यह कैसी पूजा है कि अगरबत्ती दिखा रहे हैं और मुंह से दूसरे के लिए बुराई उगल रहे हैं. ऐसे लोग कभी सुखी नहीं रह पाते. बस हमारी यही कोशिश है कि इस फिल्म के माध्यम से हम ऐसे सवालों से परदा उठायें.
अक्षय : हां, आप जब खुद फिल्म देखेंगी तो तय कर पायेंगी. फिल्म में कांजीलाल का भगवान के साथ किस तरह से सवाल-जवाब हुआ है. इस सवाल-जवाब में ही धीरे-धीरे आपकी अज्ञानता खत्म होती दिखेगी. आप विश्वास करिये इस फिल्म को देखने के बाद आप खुद सिनेमा हॉल से बाहर निकल कर अलग महसूस करेंगी. फिल्म में ऐसे कई संवाद, कई उक्तियों का इस्तेमाल किया गया है. (परेश की ओर इशारा करते हुए) परेश वो बताओ न, वो संवाद जो मुझे बहुत अच्छा लगा था.
परेश : फिल्म में वो संवाद ऐसा है कि एक स्कॉलर ने लिखा है कि मुझे भगवान से कोई परेशानी नहीं, परेशानी तो भगवान के फैन क्लब से है. दरअसल, सच्चाई भी यही है कि भगवान ने कभी किसी को नहीं कहा कि इसे मानो, ऐसा करो, वैसा करो. ये तो भगवान के नाम पर व्यवसाय करने वाले लोगों ने गढ़ दिया है और पूरी दुनिया को मूर्ख बना रहे हैं.
आप दोनों ने गीता, कुरान, बाइबल पढ़ी है?
अक्षय : मैंने गीता पढ़ी है और गीता में लिखी बातों पर काफी विश्वास करता हूं.
परेश : मैंने भी गीता पढ़ी है और गीता पढ़ने के बाद ही मेरा धर्म के अंधविश्वास से परदा उठ गया था.
फिल्म में किसी खास धार्मिक गुरु का जिक्र है?
अक्षय : नहीं.
मिथुन का फिल्म से जुड़ना कैसे हुआ?
अक्षय : यह परेश का ही आइडिया था. फिल्म में गॉड के एक रिप्रेंजेटिव का किरदार था. परेश ने कहा कि मिथुन दा कर सकते हैं, क्योंकि उनके चेहरे पर एक अलग-सा तेज है. वे सीनियर कलाकार हैं और उस किरदार में जस्टिस कर पायेंगे.
अक्षय आखिर आप इस फिल्म में भगवान कृष्ण के ही अवतार में क्यों आ रहे और आप बाइक पर क्यों हैं?
अक्षय : भगवान कृष्ण का अवतार बनने की वजह यह है कि हमेशा से ही भगवान कृष्ण का किरदार बेहद मल्टीडायमेंशनल रहा है. उन्होंने कई भूमिकाएं निभायी थीं. वे अच्छे वक्ता थे. अच्छे राजनीतिज्ञ थे. मुझे लगा कि लोग इससे रिलेट कर पायेंगे और जहां तक बात बाइक से आने की है, तो मैंने यह आइडिया इसलिए रखा है, क्योंकि मैं चाहता था कि लोग भगवान को आम आदमी की तरह ही देखें और आम आदमी तो बाइक ही चलाता है.

दूसरी बात है कि यह फिल्म इसी दौर की कहानी कहेगी, ऐसे में इस बात का ध्यान रखना था कि कुछ भी बनावटी न लगे. हमने रथ-वथ को दिखाने की बजाय बाइक को चुना.
अक्षय आप भगवान का किरदार निभा रहे हैं, तो क्या फिल्म की शूटिंग के दौरान आपने मांसाहारी भोजन वगैरह खाना छोड़ दिया था?
अक्षय : देखिए इन्हीं बातों से परदा उठायेगी यह फिल्म. वैसे, मैंने ट्विंकल के कहने पर गणपति की वजह से 10 दिन शाकाहार भोजन ग्रहण किया था.
परेश : भगवान के भोजनालय को हममें से किसी ने देखा है. हम तो यह मान बैठे हैं कि भगवान मीठा खाना पसंद करते हैं, इसीलिए उन्हें मिठाई का भोग लगाया जाता है. वैसे सोचिए अगर भगवान मीठा खाते होते, इतना मीठा खाने पर अब तक उन्हें डायबीटिज नहीं हो जाती (हंसते हुए).
इस फिल्म से आप दोनों का उद्देश्य?
अक्षय-परेश : बस यही कि लोग भगवान से डरें नहीं, अरे हमने उन्हें महंगा चढ़ावा नहीं चढ़ाया तो क्या वे हमारा बुरा करेंगे. भगवान कभी किसी का बुरा नहीं करते. इस फिल्म को देखने के बाद आप भगवान को दोस्त मानने लगेंगे. भगवान से शिकायत करना भूल कर अपने आप से प्रश्न पूछने लगेंगे कि आपने जब भी कुछ गलत किया है, तो वह आपकी अपनी वजह से हुआ है और उस गलती को भगवान को नहीं, बल्कि आपको खुद ही सुधारना होगा

20120919


मैं हीरोइन हूं : करीना कपूर





बचपन से ही उनका सपना था कि वह हीरोइन बने. अपनी अभिनेत्री मां और बहन को देख-देख कर ही उन्हें अभिनय से प्यार हो गया.  20 साल की उम्र में वह सपना पूरा हुआ फिल्म रिफ्यूजी से. लेकिन बतौर किरदार उन्हें किसी फिल्म में पहली बार हीरोइन का किरदार निभाने का मौका मिला मधुर भंडारकर की फिल्म हीरोइन से. 21 सितंबर को अपने जीवन का 32वां कदम रखने जा रही हैं. इस जन्मदिन पर उन्हें अपने जन्मदिन व फिल्म हीरोइन की रिलीज की दोहरी खुशी मिल रही है. करीना वर्तमान में बॉलीवुड की शीर्ष अभिनेत्रियों में से एक हैं. कपूर खानदान की लाड़ली करीना उर्फ बेबो अपनी फिल्म हीरोइन को लेकर बेहद उत्साहित हैं.

 फिल्मसिटी के स्टूडियो नंबर 13 में करीना कपूर उर्फ बेबो से मिलने का समय निर्धारित हुआ. शाम के पांच बजे. वक्त पर पहुंचने पर जानकारी मिली कि अभी बेबो को 1 डेढ़ घंटे लग जायेंगे. इस जानकारी के साथ ही हमें यह एहसास हो जाता है कि आखिर हम हीरोइन की हीरोइन से मिलने आये हैं. और निर्धारित समय से देर होना सेलिब्रिटिज की रुटीन का ही हिस्सा है. बहरहाल, थोड़े इंतजार के बाद बेबो सेट पर पहुंचती हैं. सबसे पहले वह टीवी के इंटरव्यूज  निपटाती  हैं. टीवी के इंटरव्यूज खत्म होते ही बेबो सबसे पहले हाइ हिल्स सैंडल को हटाती हैं और सिंपल स्लिपर पहन कर हमसे बातचीत शुरू करती हुई कहती हैं कि उन्हें स्लिपर ज्यादा आरामदायक लगते हैं. फिल्म हीरोइन को लेकर बेबो किस तरह उत्साहित हैं इसकी साफ झलक उनके चेहरे की चमक दर्शा रही थी. वे पूरी ताजगी से भरपूर होकर फिल्म के प्रमोशन में हिस्सा ले रही थीं. बेबो खुद कहती हैं कि यह फिल्म मेरे लिए स्पेशल है और यही वजह है कि पहली बार मैं मीडिया के सामने इतनी खुल कर सामने आयी हूं. वरना, मैं कम बातें करती हूं. बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ता है.


हीरोइन काफी बोल्ड फिल्म मानी जा रही है. आपकी नजर में ये किस तरह से बोल्ड है?
जी हां, यह बिल्कुल सच है कि हीरोइन की कहानी काफी बोल्ड है. लेकिन बोल्ड केवल स्कीन शो की वजह से नहीं. जैसा कि हम प्रोमो से ही लगातार दिखाते आ रहे हैं कि मेरा जो किरदार है वो काफी अग्रेसिव है. मू्डी है. इमोशनल है. करीना कपूर की जिंदगी से बिल्कुल अलग किरदार है फिल्म का. फिल्म इस लिहाज से बोल्ड है कि मधुर ने फिल्म इंडस्ट्री के अंदर के पॉलिटिक्स की कहानी सही सही दिखाई है. तो सच कहना बोल्ड स्टेप तो होता ही है. मैंने पहली बार इतना अलग सा परफॉर्म किया है. मेरे गाने में ही आप देख रहे हैं कि हलकट जवानी कितना अलग सा है. इससे पहले मैंने जो भी गाने मैंने छम्मक छल्लो किया है. जब वी मेट के गाने किये हैं. वे सारे के सारे क्लासी गाने हैं. लेकिन हलकट जवानी बोल्ड गाना है और किरदार से मेल खाता हुआ भी. तो इस लिहाज से हां, यह बोल्ड फिल्म है.

मधुर ने अपनी बातचीत में बताया कि जब उन्होंने फिल्म की कहानी की स्क्रिप्ट आपको दी तो आपने स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद उनसे कहा कि उन्होंने लगभग 80 प्रतिशत हकीकत दिखाई है. तो वैसे कौन कौन से पहलू थे कहानी के, जिन्हें पढ़ कर आपको लगा हां, यह तो सच ही दिखा रहे हैं?
मधुर जैसा की सभी जानते हैं. काफी रियलिस्टिक फिल्में बनाते हैं. वह काफी सेंशिबल हैं. लेकिन रियलिज्म को भी एंटरटेनिंग अंदाज में दर्शाते हैं तो जब उन्होंने मुङो स्क्रिप्ट दी और मैंने फिल्म में सारे लेयरड देखे. मतलब वे सारी परतें जो वाकई एक हीरोइन की जिंदगी से मेल खाती है. मधुर ने कहानी में फिल्म इंडस्ट्री की पॉलिटिक्स, यहां होनेवाले मैनिपुलेशन को दिखाया है. सच दिखाया है. यही कहूंगी तो मुङो लगा कि हां फिल्म हकीकत से बिल्कुल करीब है. बाकी 20 प्रतिशत तो फिल्म है तो कुछ ड्रामा के पुट तो होते ही हैं.
हिंदी सिनेमा की हर इंडस्ट्री को संघर्ष से गुजरना पड़ता है. लेकिन आप लकी रही हैं. आपके साथ कपूर खानदान का नाम जुड़ा है. लेकिन इस फिल्म में जिस तरह अभिनेत्री संघर्ष करती हैं. तो एक इंडस्ट्री में किसी अभिनेत्री का संघर्ष किस तरह का होता है.
वास्तविक जिंदगी में भी क्या आप महसूस करती हैं कि वैसे संघर्ष से गुजरना पड़ता है सबको.
मैं एक बात स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगी कि लोगों को ऐसा लग रहा है कि हम इस फिल्म में हीरोइन के स्ट्रगल को दिखायेंगे. स्मॉल टाउन गर्ल की स्टोरी होगी. फैशन जैसी स्टोरी होगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं है इस फिल्म में. हम तो पहले शॉट्स से ही फिल्म में हीरोइन को सुपरस्टार दिखा रहे हैं. हम दिखा रहे हैं कि सुपरस्टार के साथ क्या हो सकता है क्या नहीं. टॉप पर पहुंचने पर और फिर वापस किसी सुपरस्टार के धरातल पर आने के बाद क्या  होता है. इसी के इर्द गिर्द घूमती है पूरी कहानी इस फिल्म की. जहां तक बात संघर्ष की है तो इंडस्ट्री में हर किसी को स्ट्रगल करना पड़ता है. स्ट्रगल का मतलब सिर्फ काम की तलाश नहीं है. खुद की जगह बनानी पड़ती है और खुद का पोजिशन बना कर उसे बरकरार रखना भी एक स्ट्रगल ही है. मैंने भी मेहनत की है और वह स्थान हासिल किया है तो कोई यह नहीं कह सकता कि मैंने स्ट्रगल नहीं किया है. दूसरी बात यह भी है कि एक अभिनेत्री को अधिक स्ट्रगल करना पड़ता है. चूंकि उसे कई बातों से जूझते हुए अपने पोजिशन पर पहुंचना पड़ता है.
करीना और फिल्म हीरोइन की माही अरोड़ा एक दूसरे से कितनी मिलती हैं
करीना कपूर और माही में बहुत अंतर है. करीना बिल्कुल माही की तरह की हीरोइन नहीं है, क्योंकि करीना सोच समझ कर निर्णय लेती हैं. बैलेंस्ड  है. लेकिन माही बहुत अग्रेसिव है और अगर माही ने सोच कर कर कुछ भी किया होता तो जो उनके साथ होता है वह नहीं होता. हालांकि मैं यही कहूंगी कि कई हीरोइनों की जिंदगी मिलती है माही से.
फिल्म के किरदार के लिए कोई खास रेफरेंस लिये ?
नहीं, यह फिल्म किसी एक व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं है. मधुर व लेखक ने फिल्म में हॉलीवुड व बॉलीवुड दोनों जगहों की इंडस्ट्री की हीरोइनों के संदर्भ लिये हैं. और इन्हीं सभी से मिल कर माही अरोड़ा बनी है. और फिर जहां तक मुङो अपने किरदार की तैयारियों के लिए संदर्भ के बारे में सोचना था तो मैं यही कहूंगी कि मैं, मेरी मां बबीता, दीदी करिश्मा सभी इस इंडस्ट्री की हीरोइन हैं तो मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है. उन्होंने बताया है मुङो उस वक्त क्या होता था. अब क्या होता है. सो, मैंने उसी आधार पर तैयारी की. हीरोइन की जिंदगी से जुड़े कई पहलू लोग जानना चाहते हैं कि हीरोइन कैसे रहती हैं. क्यों नखरें दिखाती हैं. सबकुछ का जवाब आपको इस फिल्म में मिलेगा.
तो मां और दीदी की बातों से क्या लगता है हीरोइनों की स्थिति वर्तमान बॉलीवुड में कितनी बदली है.
मुङो लगता है अच्छे बदलाव हुए हैं. लोगों का नजरिया बदला है. अब छूट ज्यादा है. अलग तरह की फिल्में बनने लगी हैं अभिनेत्रियों को लेकर. लेकिन पॉलिटिक्स तो अभी भी है और किस तरह की होती है पॉलिटिक्स ये तो आपको फिल्म में देख कर ही पता चलेगा.
हीरोइन फिल्म पहले आपको, फिर ऐश्वर्य को फिर आपके पास आयी. एक फिल्मी कहानी की तरह रहा यह सब.
हां, बिल्कुल हीरोइन फिल्म फिल्म से पहले ही फिल्म बन गयी थी. दरअसल, मैं मधुर की फैन रही हूं. मधुर मेरे साथ पेज 3 करना चाहते थे. फैशन भी करना चाहते थे. उस वक्त डेट्स के प्रॉब्लम थे. हीरोइन पहले आयी थी तब भी डेट्स के प्रॉब्लम थे. लेकिन जब दोबारा आये तो मैंने हां कह दी. कहानी इतनी अच्छी थी. मेरी किस्मत में ही थी यह फिल्म.
करीना कपूर की लगातार हर नये चेहरे हर नयी अभिनेत्री से तूलना की जाती है. करीना बनाम दूसरी अभिनेत्री. इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है.
ये हीरोइन की जिंदगी का पार्ट है. खुशी मुङो इस बात की है कि मेरी तूलना होती है. अच्छी बुरी. लेकिन मैंने अपना स्थान बना लिया है. इसलिए करीना बनाम दूसरा नाम आता है. मतलब मैं स्थापित हो गयी हूं. मुङो बस लोग एक्टर के रूप में देखें और चाहें. एक्टिंग का शौक है, वही करने आयी हूं. फिर तूलना होना तो लाजिमी ही है.
एक हीरोइन के लिए खूबसूरत होना कितना अहम है. क्या खूबसूरती ही उनकी सफलता का पहला पहलू है?
नहीं. सिर्फ खूबसूरती नहीं. मेरा ख्याल है. अभिनय भी. आपका परसेप्शन भी. लेकिन हां, ये जरूर कहूंगी कि एक अभिनेत्री को खुद में खूबसूरत दिखना पसंद होता है. हर लड़की चाहती है कि वह सुंदर दिखे. मेरी भी कोशिश होती है मैं खूबसूरत दिखूं.फिट रहूं. लोग मेरे काम की तारीफ करें. मैगजीन के कवर पेज पर आना अच्छा लगता है. लेकिन हां मैं मैगजीन के कवर पर आने के लिए कुछ भी नहीं कर सकती आखिर मैं कपूर खानदान की हीरोइन हूं.
और अगर अफवाहों और गॉसिप की बात हो तो. हीरोइन की जिंदगी से गॉसिप की क्या अहमियत है?
हां, यह सच है कि हीरोइन की जिंदगी में गॉसिप रहते ही हैं. हीरोइन क् या हर सेलिब्रिटी की जिंदगी में होता है. लेकिन मैं कपूर खानदान की हूं. मैं रियेक्ट करना हर बात पर सही नहीं समझती. मुङो पता है कि मेरे परिवार का नाम जुड़ा है मेरे साथ. सो मेरे हर कदम पर नजर होगी लोगों को. मैं अफवाहों पर ध्यान नहीं देती. सभी अपना काम कर रहे हैं. मीडिया का भी यह काम का हिस्सा ही है. तो कहें उन्हें जो कहना है.
फिल्म हीरोइन में अगर आपको मौका मिलता तो आप किस अभिनेत्री के साथ स्क्रीन शेयर करना पसंद करतीं.
अपनी बहन करिश्मा के साथ क्योंकि मैं अपनी मां और बहन को ही अपना आदर्श मानती हूं और कभी मौका मिला तो इन्हीं दो हीरोइनों के साथ फिल्में करना चाहूंगी.

जन्मदिन पर विशेष
मैं अपने जन्मदिन पर सभी प्रशंसकों और प्रभात खबर के पाठकों का शुक्रिया अदा करना चाहती हूंं कि सभी ने मुङो इतना प्यार दिया और मैं अपने करियर में इतनी जल्दी सफल हुई. और जन्मदिन के अवसर पर हीरोइन जैसी फिल्म रिलीज हो रही है. मेरे लिए यह फिल्म इसलिए भी खास है. क्योंकि यह फिल्म मेरे जन्मदिन के अवसर पर रिलीज हो रही है. ऐसा लग रहा है मैंने ड्रीम रोल निभा लिया है. यह किरदार अब तक का बेस्ट किरदार है. आप इस फिल्म में जिस करीना को देखेंगे. अब तक आपने नहीं देखा होगा. जब वी मेट से भी खास है यह फिल्म मेरे लिए. इसका किरदार. मैंने फिल्म में 200 प्रतिशत मेहनत की है. छोटे बजट की फिल्म है, अगर दर्शकों को फिल्म पसंद आ जाती है  और 100 करोड़ क्लब में नहीं भी पहुंचती है तो मैं कहूंगी कि मेरा मकसद पूरा हुआ. तो मेरी जन्मदिन का यह अहम तोहफा दर्शक मुङो जरूर देंगे. उम्मीद है. आप इस कपूर बेटी को यूं ही प्यार देते रहें.
आप सबको प्यार
आपकी प्यारी बेबो


बहन करिश्मा की तरफ से  करीना को बधाई
बेबो मेरा पहला बच्चा है. मैं उससे बेहद प्यार करती हूं. मुङो बहुत गुस्सा आता है. जब मुझसे कोई कहता है कि मुङो बेबो से जलन नहीं होती. कोई अपने बच्चे से जलता है भला. मैं तो उसी वक्त मां बन गयी थी. जब बेबो का जन्म हुआ था. मेरी शुभकामना हमेशा उसके साथ है. वह खूब तरक्की करें. लॉट्स ऑफ लव बेबो..

हीरोइन ही हीरो है




मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्म हीरोइन का जम कर प्रचार किया है. फिल्म के प्रमोशन में भी हर जगह केवल अभिनेत्री करीना ही नजर आयीं. जबकि फिल्म में अजरुन रामपाल और रणदीप हुड्डा भी हैं. हिंदी सिनेमा अब भी पुरुष प्रधान ही माना जाता रहा है. लेकिन अब धीरे धीरे यह ट्रेंड भी बदल रहा है. अब फिल्मों में हीरोइन यानी अभिनेत्रियों को ही केंद्र में रख कर न केवल फिल्में बनाई जा रही हैं. बल्कि उन्हें फिल्म में पूरा महत्व भी दिया जा रहा है. निर्देशक मानने लगे हैं कि हीरोइन भी अब सफलता की गारंटी हैं. 

करीना कपूर अपनी फिल्म हीरोइन को लेकर आत्मविश्वास के साथ कहती हैं कि उन्हें इस फिल्म में जितना स्कोप मिला है. अब तक किसी भी फिल्म में नहीं मिला है. इसलिए वह खुश हैं कि वह इस फिल्म का हिस्सा बन पायी हैं. रानी मुखर्जी फिल्म अय्या में एक अलग ही तेवर में नजर आ रही हैं. स्पष्ट है कि बॉलीवुड में अब लगातार महिलाओं को ध्यान में रख कर फिल्में बनाई जा रही हैं. ऐसा नहीं है कि पहले अभिनेत्रियों को ध्यान में रख कर फिल्में नहीं बनाई जाती थीं. लेकिन उन फिल्मों के विषय ज्यादातर गंभीर होते थे. किसी सामाजिक विषयों को लेकर अधिक फिल्में बनाई जाती थीं. लेकिन अब वह दौर बिल्कुल बदल रहा है.अब अभिनेत्रियों को ध्यान में रख कर न केवल अलग विषय चुने जा रहे हैं, बल्कि बेङिाझक निर्देशक बिंदास, मस्तीवाले, मसाला फिल्में भी सोच रहे हैं. इससे एक तसवीर जो पूरी तरह साफ हो रही है. वह यह कि हिंदी सिनेमा में अब अभिनेत्रियों के लिए काम करने के स्कोप बढ़े हैं. नये दौर के निर्देशक भी अब केवल आनेवाली या नये दौर की अभिनेत्रियों को लेकर ही नहीं बल्कि स्थापित या अभिनय से ब्रेक ली गयी अभिनेत्रियों को भी ध्यान में रख कर फिल्में बना रहे हैं. वहीदा रहमान ने कुछ दिनों पहले ही इस बात का जिक्र किया था कि उनके जमाने में जब वे एक ब्रेक के बाद फिल्मों में दोबारा वापसी करती थीं उस वक्त उन्हें वापसी के बाद लीड किरदार या महिला प्रधान फिल्मों में काम करने का मौका नहीं मिलता था. मजबूरनवश उन्हें भाभी या दादी जैसे किरदार निभाने पड़ते थे. लेकिन आज निर्देशकों ने अपनी सोच से उन अभिनेत्रियों को जिनका  एक अलग रूप दर्शकों ने नहीं देखा है. उन्हें अपनी फिल्मों की पोस्टर गर्ल मसलन लीड किरदार देकर हीरोइन को हीरो बना दिया है. वे अभिनेत्रियों को मजाकिया अंदाज से लेकर सीरियस सभी किरदारों में दर्शा रहे हैं. खुशी इस बात की है कि यह बदलती बयार बॉक्स ऑफिस की चिंता नहीं कर रही, बल्कि बेहतरीन काम पर ध्यान दे रही हैं. और नतीजा यह होता है  कि ऐसी फिल्मों में अभिनेत्रियां भी अपना 100 प्रतिशत देने की कोशिश में जुट जाती हैं. विशेष कर डर्टी पिर की रिकॉर्ड तोड़ सफलता के बाद इस ट्रेंड में और इजाफा हुआ है. विद्या बालन ने इस ट्रेंड को मजबूती प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई है. दरअसल, एक और हकीकत यह भी है कि हर कलाकार की इच्छा होती है कि वह अधिक से अधिक परदे पर नजर आये. लेकिन हिंदी फिल्मों में प्राय: अभिनेत्रियों को डांस गाने या बार्बी गुड़िया के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है. इस बात का मर्म उन्हें भी कहीं न कहीं रहता ही है. इसलिए अब जब उन अभिनेत्रियों को नये मौके और बेहतर मौके मिल रहे हैं. वे इनका जम कर इस्तेमाल कर रही हैं.
कोटेशन : रानी मुखर्जी
र यह बेहद जरूरी है कि महिलाएं पायरेटेड फिल्में न देख कर टिकट खरीद कर थियेटर में फिल्में देखें. चूंकि इससे ही महिला प्रधान फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा और ज्यादा से ज्यादा महिलाओं की फिल्में बनेंगी. सो, यह जरूरी है कि महिलाएं फिल्में देखने की संस्कृति का विकास करें. वह जागरूक होंगी. तो उनके लिए भी फिल्में बनेंगी ही.

करीना कपूर- हीरोइन
मधुर भंडारकर की फिल्म हीरोइन में पूरा आकर्षण करीना कपूर ही हैं. फिल्म में रणदीप हुड्डा और अजरुन  रामपाल भी हैं. लेकिन फिल्म की पूरी कहानी करीना कपूर के ही इर्द-गिर्द घूमती है. यही वजह है कि करीना इसे अपने करियर की सबसे स्पेशल फिल्म मानती हैं. चूंकि इस फिल्म में उन्हें सबसे अधिक स्पेस शेयर करने का मौका मिला है. उनकी उपस्थिति सबसे अधिक है. पूरी कहानी ही एक हीरोइन की जिंदगी पर आधारित है. फिल्म के प्रमोशन में भी करीना ने इसलिए बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है. क्योंकि फिल्म में उनकी हर अदा. उनके हर गुण का इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी है.
फराह खान- शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी
इस फिल्म में बेला सहगल ने फराह खान से बेहतरीन अभिनय कराया है. फराह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि उन्हें ध्यान में रखते हुए किसी फिल्म की परिकल्पना की जा सकती है. लेकिन बेला ने फिल्म में फराह को अभिनय करने का पूरा स्पेस दिया. यह दर्शाता है कि बेला की सोच में फराह खान अभिनेत्री के रूप में किस तरह स्थापित थी. निस्संदेह फिल्म में बोमन ईरानी भी थे. लेकिन फराह के स्क्रीन अपीयरेंस की वजह से यह फराह की फिल्म अधिक नजर आयी.
श्रीदेवी- इंग्लिश-विग्ंिलश
श्रीदेवी मानती हैं कि इंग्लिश-विग्ंिलश उनके जीवन की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक हैं. हालांकि श्रीदेवी ने अपने करियर में कई ऐसी बेहतरीन फिल्में की हैं, जिनमें उनके किरदार को महत्व दिया गया है. चालबाज उनमें महत्वपूर्ण है. लेकिन आज भी जब वह वापसी कर रही हैं तो उसी अंदाज में. फिल्म इंग्लिश विग्ंिलश में भी पूरी फिल्म उन पर ही आधारित है. फिल्म की निर्देशिका गौरी शिंदे ने इस दौर में जब स्टार्स और लोकप्रिय सितारों को लेकर कहानी लिखने की होड़ है. उनमें उन्होंने श्रीदेवी को चुना है. और फिल्म के प्रोमोज में भी श्रीदेवी का वही चुलबुलापन नजर आ रहा है.  श्रीदेवी आज भी फ्रेश नजर आ रही हैं और उम्मीदन फिल्म को कामयाबी मिलेगी ही.
अय्या- रानी मुखर्जी
अनुराग कश्यप की अय्या में रानी को एक अलग तरह की मराठन लड़की के किरदार में  दर्शाया गया है. नो वन किल्ड जेसिका के बाद फिर से रानी अभिनेत्री प्रधान फिल्म में आ रही हैं और इस फिल्म में वे बिल्कुल बिंदास अंदाज में नजर आ रही हैं. फिल्म के निर्देशक सचिन ने रानी की उन सारी खूबियों व स्वभाव को दर्शाने की कोशिश की है. जो अब तक अन्य फिल्मों में नहीं दिखी है. तिग्मांशु की भी एक फिल्म में रानी मुख्य भूमिका में हैं
प्रीति जिंटा -इश्क इन पेरिस
फिल्म इश्क इन पेरिस में प्रीति जिंटा फोटोग्राफर की भूमिका निभा रही हैं. जिनके लिए करियर ही सबकुछ है. प्रीति आज की मॉर्डन लड़की का किरदार निभा रही हैं. यह फिल्म भी प्रीति के इर्द-गिर्द ही घूमती है.
गुलाब गैंग- माधुरी दीक्षित
फिल्म गुलाब गैंग में अनुभव सिन्हा पूरी कहानी माधुरी दीक्षित को ध्यान में रख कर फिल्मा रहे हैं.
इनके अलावा फिल्म कॉकटेल में दीपिका पादुकोण और डायना पेंटी को फिल्म में सैफ अली खान से अधिक परदे पर उपस्थिति दर्ज करने का मौका मिला. फिल्म बर्फी में रणबीर कपूर के साथ साथ प्रियंका चोपड़ा और इलियाना डिक्रूज को भी बराबरी से अभिनय करने का मौका मिला है.

20120918

बैनर नहीं कहानी चाहिए



कहानी नहीं. बैनर दिखाइए. किसी दौर में बॉलीवुड के अभिनेता-अभिनेत्री  कहानी को नहीं. बैनर को महत्व देते थे. लेकिन आज वह दौर बदल गया है. अब कलाकार फिल्म की कहानी देखना चाहते हैं,बैनर नहीं. क्योंकि वे जान चुके हैं कि अब कहानियों से ही फिल्में चलती हैं. यही वजह है कि अब कलाकार खुले तौर पर इसकी घोषणा करते हैं कि वे नये निर्देशक और नयी कहानियों के साथ काम करने को तैयार हैं. रणबीर कपूर ने फिल्म बर्फी के दौरान अपनी बातचीत में कहा कि वे पूरे देश से किसी भी निर्देशक के साथ काम करने को तैयार हैं. खुद अमिताभ बच्चन ने अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर देखने के बाद फिल्म की तारीफ की. उन्होंने सांकेतिक तौर पर ही ईशारा कर दिया है कि वे अनुराग के साथ फिल्में करना चाहते हैं. रानी मुखर्जी ने भी अपनी बातचीत में कहा है कि वह नये निर्देशकों के साथ काम करना चाहती हैं. रानी को जब फिल्म अय्या की थीम के बारे में सचिन ने बताया था तो वो भी सोच में डूब गयी थी कि आखिर एक लड़की को एक लड़के से प्यार हो जाता है. सिर्फ उसकी गंध से.इसपर फिल्म कैसे बन सकती है. लेकिन थीम का अलग होना ही रानी को खास लगा और उन्होंने हां कह दिया.करीना कपूर ने भी कहा है कि वे चाहती हैं कि अब वह फिल्मों में प्रयोग करे.दरअसल, यह बॉलीवुड का बदलता हुआ ट्रेंड है. अब अभिनेता या अभिनेत्री वैसे किरदार नहीं निभाना चाहते. जो केवल शो पीस की तरह हो. वे मुख्य किरदारों में ढलना चाहते हैं और बेहतरीन भूमिकाओं वाली फिल्में करना चाहते हैं.एक दौर था जब अधिकतर बड़े सितारें उन निर्देशकों व बैनरों के साथ फिल्में बनाते थे. दरअसल, लगातार नये प्रयोगों और अलग विषयों पर बनीं फिल्में विकी डोनर, पान सिंह तोमर, बर्फी जैसी फिल्मों की सफलता ही कलाकारों की इस पसंद का मुख्य कारण बना है.

अंगरेजीदां हिंदी हैं हम



हाल ही में केबीसी के 6वें सीजन की लांचिंग के दौरान एक हिंदी समाचार चैनल की रिपोर्टर को केबीसी खेलने का मौका मिला. अमिताभ बच्चन के साथ. अमिताभ उनसे बिल्कुल अपने इलाहाबादी अंदाज में हिंदी में बातचीत  कर रहे थे. लेकिन वह महिला रिपोर्टर बार बार अंगरेजी में जवाब दे रही थीं. अमिताभ ने कटाक्ष में कहा भी कि लगता है कि मैं किसी विदेशी भाषा में बात कर रहा हूं और आप समझ नहीं पा रही हैं. लेकिन इसके बावजूद उस महिला ने अंगरेजी में ही बातचीत जारी रखी. अमिताभ ने फिर कटाक्ष करते हुए कहा कि आप हिंदी चैनल से ही है न. अमिताभ की यह बात दरअसल, दर्शाती है कि आज हिंदी भाषा की प्रासंगिकता कितनी रह गयी है. लेखक कमलेश पांडे से हाल ही में बातचीत हो रही थी. उन्होंने साफ शब्दों में यह बात कही कि हम आज भी गुलाम हैं, क्योंकि अंगरेजों ने अंगरेजी तो हमारे नस, नस में घोल दी है. दरअसल, हकीकत भी यही है कि आज हम हिंदी दिवस के अवसर पर भले ही वैचारिक बातें करें. चिंता जताएं. लेकिन यह हकीकत है कि आज हिंदी कम से कम कॉरपोरेट वर्ल्ड में व प्रोफेशनलिज्म की भाषा तो नहीं ही है. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब बाहर से आये लोग हिंदी को महत्व देते दिखते हैं. यहां की संस्कृति से प्यार कर बैठते हैं. स्टार प्लस पर प्रसारित होनेवाले धारावाहिक दीया और बाती हम में सिंगापुर से आये लड़के ने हिंदी में बोलना सीखा है. यह सिर्फ धारावाहिक तक ही सीमित नहीं है. कट्रीना कैफ, जो मूलत: हिंदुस्तानी नहीं. वे इन दिनों देवनागिरी में ही स्क्रिप्ट पढ़ती हैं और अपनी मेहनत से उन्होंने हिंदी सीखी है. इलियाना डिक्रूज दक्षिण से हैं. लेकिन उन्होंने मेहनत कर फिल्म  बर्फी के लिए हिंदी सीखी. स्पष्ट है कि हिंदी की जरूरत है. उसकी उपयोगिता है. लेकिन प्रासंगिकता नहीं है. चूंकि जरूरत होते हुए भी हम इसे अनदेखा कर रहे हैं.

मनगढ़ंत खबरों की मनोहर कहानियां



 प्रीति जिंटा मीडिया पर किताब लिख रही हैं. इस किताब में वे उन फेक स्टोरीज के बारे में चर्चा करेंगी, जो उनके व उनके फिल्मी साथियों के बारे में लिखे गये हैं. प्रीति की यह किताब दरअसल, उनकी भड़ास होगी. संभव हो कि उनके फिल्मी दोस्तों के दिलों पर थोड़ी मरहम लगेगी. चूंकि सुपरसितारा हैसियत रखनेवाले कलाकार भी अफवाहों से तंग आ चुके हैं. हाल में सलमान अपनी एक फिल्म के प्रमोशन के लिए एक न्यूज चैनल के ऑफिस में थे. वहां सलमान ने वहां काम कर रहे रिपोर्टरों से प्रश्न दागा था कि वे बेबूनियाद कहानियां कैसे दिखा सकते हैं.इससे पहले भी एक वरिष्ठ पत्रकार से यह बात कही थी कि आप किसी के बारे में बिना उससे बात को पुख्ता किये कैसे कहानियां प्रकाशित कर देते हैं. हाल ही में कट्रीना ने भी इस बात की पुष्टि की है कि रोजाना छपनेवाली खबरों में केवल 3 से 4 ही बातें सच होती हैं. बाकी सभी अफवाह होती हैं. अमिताभ बच्चन जैसे कलाकारों ने तो सोशल मीडिया के माध्यमों से अपने बारे में छपी गलत खबरों का खंडन शुरू कर दिया है. ऐश्वर्य राय के बारे में ही एक बार यह खबर आयी थी कि वह मां नहीं बन सकती. इस बात से पूरे बच्चन परिवार ने एक साल तक उस अखबार से बातचीत पर प्रतिबंध लगा दिया था. दरअसल, हकीकत यही है कि जब तक हिंदी फिल्मों का बाजार रहेगा. अफवाहें उड़ती रहेंगी.चूंकि इन दिनों कई अखबार, वेबसाइट इन्हीं चटपटी खबरों पर टिके हैं. फिल्मी कलाकारों की यह शिकायत आज से नहीं है. लेकिन फिर भी मीडिया को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. किसी दौर में राजेश खन्ना व संजीव कुमार में मीडिया की वजह से दूरी आयी. मीडिया ने अफवाह उड़ाई थी कि संजीव और अंजू के बीच प्रेम प्रसंग है. जबकि दोनों भाई-बहन का रिश्ता रखते थे. ऐसे और भी कई रिश्ते हैं जो बिगड़ते रहे हैं.

फैन की फिल्म




Aरामगोपाल वर्मा कॉलेज के दिनों से अभिनेत्री श्रीदेवी के दीवाने थे. उन्होंने श्रीदेवी की दीवानगी में ही फिल्मों में काम शुरू किया. श्रीदेवी को एक फैन की तरह प्यार करनेवाले राम गोपाल वर्मा ने अपनी इस दीवानगी पर मस्त नामक फिल्म का निर्माण भी किया. जिसमें उन्होंने दर्शाया कि वे किस तरह श्रीदेवी से प्यार करने लगे थे. कुछ इसी तरह पुरी जगन्नाथ ने अमिताभ बच्चन के साथ बुड्ढा होगा तेरा बाप का निर्माण किया. पुरी भी अमिताभ के बड़े फैन रहे हैं और वह अपनी इस फिल्म से अमिताभ को दोबारा से जवां जिंदगी जीते दिखाना चाहते थे. उनकी यह फिल्म कामयाब भी रही. दर्शकों ने अमिताभ को इस रूप में पसंद भी किया. इन दिनों गौरी शिंदे भी इंग्लिश विंगलिश लेकर आ रही हैं और वह भी श्रीदेवी की फैन रही हैं. सो, उनका पूरा ध्यान श्रीदेवी के हर पहलू को फिल्म में उभारने का है. किसी दौर में मकबूल फिदा हुसैन ने भी फैन के रूप में ही माधुरी दीक्षित के साथ फिल्म गजगामिनी का निर्माण किया था. दरअसल, हिंदी सिनेमा में फिल्मकारों में भी कई फैन फिल्मकार रहे हैं, जो अपनी शैली में दर्शकों को अपने प्रिय अभिनेता अभिनेत्री के  लिए फिल्म दिखाते रहे हैं. हालांकि ऐसे ज्यादातर प्रयास असफल रहे हैं. शायद इसकी वजह यह हो सकती है कि फिल्मकार जब फैन के रूप में फिल्म बनाते हैं तो वे अपने प्रिय अभिनेता अभिनेत्री को फिल्माने के दौरान फिल्मों का ग्रामर या अन्य पहलू छोड़ कर एक फैन की तरह सिर्फ उन अभिनेताओं के सकारात्मक पहलू ही दर्शा पाते हैं. कई बार यह अतिश्योक्ति भी हो जाती है. हालांकि इन फिल्मों की खासियत यह रही है कि इन फिल्मों में कलाकार के कई अनछुए पहलु भी दर्शाये जाते हैं जो बेहद रोचक होते हैं. ऐसी फिल्मों की खासियत यह भी रहती है कि इन फिल्मों में कलाकार खुद स्वतंत्र व ईमानदार होकर काम करते हैं.

नये शोमैन राजू


हिंदी सिने जगत में निर्देशकों का भी अपना जमाना रहा है. दरअसल, निर्देशकों ने ही अपनी सोच से हर दशक में अपनी अमिट छाप छोड़ी है. किसी दौर में सत्यजीत रे,  राजकपूर, गुरुदत्त, ऋषिकेश मुखर्जी, बाद के दौर में सुभाष घई जैसे निर्देशकों को सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों की श्रेणी में रखा जाने लगा. इन दिनों राजकुमार हिरानी न केवल निर्देशकों के समूह में सबसे प्रिय निर्देशकों में से एक हैं. बल्कि हर नये व स्थापित कलाकार चाहते हैं कि वे राजू हिरानी के साथ काम करें. फिल्म 3 इडियट्स जब रिलीज हुई थी. उसी वक्त मुंबई से मेरी फिल्म पत्रकारिता शुरू हुई. इन चंद वर्षो में अब तक मैं जिन बेहतरीन निर्देशकों से मिली हूं सबने राजू हिरानी की फिल्मों और उनकी शैली की तारीफ ही की है. हाल ही में शेखर कपूर ने कहा कि वे मिस्टर इंडिया के सीक्वल के लिए राजू हिरानी को ही बेस्ट निर्देशक मानते हैं. अनुराग बसु आज भी केवल राजू हिरानी की फिल्मों के लिए फस्र्ट डे फस्र्ट शो देखने जाते हैं. महेश भट्ट राजू हिरानी को शोमैन मानते हैं. हर नये अभिनेता अभिनेत्री चाहते हैं कि राजू के साथ वह काम करें. चूंकि वे जानते हैं कि राजू अपनी कहानी के साथ न्याय करते हैं और सफलता की गारंटी उनके साथ है. मैंने फेसबुक पर भी यूं ही लोगों से पूछा था कि वे किस निर्देशक की फिल्म देखना चाहेंगे, जो उन्हें संदेश भी देती हो, और मनोरंजन भी. सबने राजू हिरानी की फिल्मों का नाम लिया था. किसी निर्देशक के लिए यह कामयाबी है. राजू ने अब तक मुन्नाभाई सीरिज समेत 5-6 फिल्में बनाई है. लेकिन वे सभी के चहेते हैं. संजय दत्त को लोकप्रिय बनानेवाले यही राजू हैं. विधु चोपड़ा वाकई जाैहरी हैं, जिन्होंने इस जाैहर को पहचान लिया और उन्हें निखरने का मौका दिया. राजू आनेवाले समय में शोमैन की उपाधि हासिल कर लेंगे. फिलवक्त सभी को उनकी फिल्म पीके का इंतजार है.

20120917

तनाव की थाली में मुस्कुराहट की कटोरी " बर्फी "







(बल्ला मेरा. गेंद मेरी, पिंच और स्टंप भी मेरे हैं.मैं यहां कभी आउट नहीं हो सकता.- साभार : दुर्गेश सिंह )

रिलीज से दो दिनों पहले अनुराग बसु की फिल्म बर्फी देखने के बाद मैंने सबसे पहले अपनी मां को फोन किया. प्राय: मेरी मां जिन्हें फिल्मों में मुझसे भी ज्यादा रुचि है.  बुधवार, गुरुवार को एक बार जरूर पूछ लेती हैं. शाम होते होते. कौन सी फिल्म देखी आज़. फिल्म के नाम और कैसी है फिल्म. मेरे जवाब के साथ कि अच्छी या बुरी. फिल्म की चर्चा वही खत्म हो जाती है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. चर्चा थोड़ी आगे बढ़ी. वह भी थोड़े अलग अंदाज में. मां डायबिटिक हैं. लेकिन मीठा उन्हें बेहद पसंद है. (अफसोस, उन्हें मजबूरन मिठाईयों से दूरी बनानी पड़ी है. )लेकिन उस दिन जब मां ने पूछा कौन सी फिल्म देखी..आज़. मैंने बताया बर्फी. अच्छा रणबीर वाला न..हां अच्छा दिख रहा है. फिल्म कैसी है.? इस फिल्म की चर्चा दो मिनट में खत्म नहीं हुई. मैंने मां से कहा मां बस समझ लो ये बर्फी इतनी मीठी है.. कि हर डायबिटिक व्यक्ति को इस मिठाई का भरपूर आनंद लेना चाहिए. तुम भी जम के लुत्फ उठा सकती हो. बेपरवाह होकर. भरपेट़

 शुक्रिया अनुराग बसु. आपकी बर्फी ऐसे वक़्त पे आयी है. जब माँ आँख की परेशानी से जूझ रही है और ऐसे में बर्फी जैसी फिल्म उनका मनोबल बढ़ाने में मददगार साबित होगी. 

शुक्रिया अनुराग़, इस बर्फी की प्लेट के लिए.जो चांदी की बरक के बगैर भी उतनी ही स्वादिष्ट और चमकीली है. उतनी ही शुद्ध है. आपकी इस बर्फी का स्वाद मीठी होने के बावजूद हर डायबिटिक व्यक्ति चखनी ही चाहिए. निस्संदेह वे अपनी सारी परेशानियां व तनाव को भूल जायेंगे. मेरे लिए यह फिल्म मेरी मां के लिए एक खास तोहफा है. फिल्म की डीवीडी आने का इंतजार है मुङो. ताकि मैं अपनी मां को यह फिल्म  गिफ्ट कर सकूं. क्योंकि मां भी कई बीमारियों से परेशान रहती हैं. कई तरह के तनाव हैं. कई बार वे हंसना भी भूल जाती है. खुश होना भूल जाती है. निश्चित तौर पर फिल्म बर्फी उन्हें थोड़ी देरे के लिए खुशियां जरूर दे जायेगी. दरअसल, अनुराग की यह बर्फी जिंदगी की मिठास से भरा एक ऐसा फैमिली पैकेज है जिसे हर डॉक्टर ko  रिकमंड करना चाहिए. 
यकीनन मैं जानती हूं कि बर्फी न तो डायबिटिज की बीमारी और न ही किसी डायबिटिज पेसेंट पर आधारित फिल्म है. लेकिन यहां इसका जिक्र इसलिए किया क्योंकि बर्फी उस हर मर्ज की दवा है. एक फिल्म के रूप में. उन हर व्यक्ति के लिए. जो बेहद तनाव में हैं. दुखी हैं अपनी कमियों को लेकर. जिनकी जिंदगी से जश्न का नाम मिट चुका है. जो खुश होना भूल गये हैं. 
निस्संदेह, जिंदगी में प्रैक्टिकल अप्रोच रखनेवाले लोगों को फिल्म खास न लगे. लेकिन रिश्तों को अहमियत देनेवाले, भावनाओं को समझने वालों को यह फिल्म बेहतरीन लगेगी. 

हिंदी सिनेमा की चॉकलेटी ( ग्लैमर, एकशन, आयटम सांग) प्लेट पर दरअसल
बर्फी ने एक अरसे के बाद वापसी की है. सादगी,खूबसूरत सी दुनिया में प्यार करनेवाले तीन बेपरवाह. लेकिन अपने रिश्तों के लिए फिक्रमंद लोगों की इस दुनिया में कदम रखते ही आप एक अलग दुनिया में आ जाते हैं. यह दुनिया आपको तड़क भड़क दे न दे. लेकिन एक सुकून भरी दुनिया में ले चलती है. एक ऐसी दुनिया, जहां निर्देशक आपसे आग्रह कर रहा है कि आइए, अपने जीवन के केवल 2 घंटे 45 मिनट मुङो दे दीजिए. भूल जाइए. सब कुछ. जी लीजिए सुकून के कुछ पल. 

पिक्चर  शुरू ..
मेरे दोस्त दुर्गेश सिंह ने अपने फेसबुक स्टेटस में एक पंक्ति में निर्देशक अनुराग के उद्देश्य की  सटीक व्याख्या  की है. दुर्गेश अनुराग को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं कि बर्फी मेरे बचपन का क्रिकेट है. बल्ला मेरा. गेंद मेरी, पिंच और स्टंप भी मेरे हैं.मैं यहां कभी आउट नहीं हो सकता. वाकई, दुर्गेश आपने सटीक कहा है. जिस तरह अनुराग ने फिल्म को ठीक उसी तरह संवारा है. जैसे बचपन में लड़के खुद अपना पिच, बल्ला तैयार करते थे और हम लड़कियां अपनी गुड्डे गुड्डियों का श्रृंगार करती थीं. फिर उनका व्याह रचाती थीं. एक प्रोसेस की तरह. स्टेप बाय स्टेप.बिना चूक़.पूरे धैर्य के साथ. ठीक उसी तरह एक परिपक्व हलवाई की तरह अनुराग ने खुशबू से ही लोगों को यह अहसास करा दिया कि बर्फी का स्वाद कैसा है. लंबे अरसे में शायद ही इतनी बेहतरीन और अलग शुरुआत मैंने किसी फिल्म में देखी है. अनुराग ने एक हलवाई की तरह ही फिल्म में बराबर मात्र में मेवा, काजू,किशमिश और सबसे अहम स्वाद का ख्याल रखा. दरअसल, बर्फी देखने के लिए भी अनुराग एक माहौल तैयार करवाते हैं. आप थियेटर में आते हैं. स्क्रीन पर कुछ विज्ञापन आते हैं. और अचानक पिक्चर शुरू होती है. लेकिन दरअसल, यहां पिर शुरू नहीं होती. ट्रेलर शुरू होता है. फिल्म का. किसी हिंदी फिल्म में ऐसा प्रयोग मैंने पहली बार देखा. बेहद दिलचस्प. एक गीत के माध्यम से स्वानंद किरकिरे की आवाज में अनुराग अपनी बात आप तक पहुंचाते हैं. कि पिर शुरू हो रही है.अपने आजू बाजू का ख्याल रखना..मोबाइल को ऑफ रखना..व कई निर्देश दिये जाते हैं. लेकिन प्यार से मुस्कुराके. गीत के साथ ही थियेटर में बैठे ऑडियंस ठहाकों की आवाज आती है. यह निर्देशक की सृजनशीलता का कमाल है कि वह शुरुआत के 2 मिनट में ही वह अपने उद्देश्य में कामयाब हो जाते हैं. चूंकि उन 2 मिनटों में ही निर्देशक ने दर्शकों को इंगेज कर लिया है. ऑडियंस की तालियों की गूंज इस बात का सबूत थी. आगे की पंक्तियों में अनुराग बताते हैं क़ि..आज का प्यार कैसा द ो मिनट नूडल्स जैसा..फेसबुक पे शुरू  हुआ. कोर्ट में जाके गया मर..शब्दों में दो मिनट में बननेवाले नूडल्स  के बहाने दरअसल, अनुराग ने फटाफट पनपते , फिर  जुड़ते फिर टूटते बिखरते मैगी प्रेम की सच्चाई को बयां किया है. 

इस बर्फी के काजू,किशमिश
अनुराग ने अपनी इस बर्फी की रेसेपी में जम कर मेवा डाला है.काजू, किशमिश, इलायची डाला है. लेकिन अनुराग के ये काजू किशमिश हैं. फिल्म के खूबसूरत दृश्य, उन्हें कलात्मक तरीके से फिल्माने का तरीका, किरदारों के बीच कागज की कस्ती सी प्रेम कहानियां. एक पिता और बेटे के दोस्तीवाले रिश्ते  की कहानी.पंक्षियों की तरह मदमस्त खुले आसमां में घूमते मतवाले बर्फी की कहानी. फिल्म के दृश्य जैसे जैसे आपकी आंखों के सामने गुजरते हैं. हर दृश्य आपको निर्देशक की एक पेंटिंग की तरह लगते हैं. किसी चित्रकला प्रदर्शनी में जिस तरह एक के बाद एक नायाब कला हमें देखने को मिलती है. बर्फी के भी हर दृश्य कलात्मक नजर आते हैं. यह अनुराग की कलात्मक सोच व जिंदगी के प्रति उनकी बारीक व सकारात्मक नजरिये का अनुमान लगाया जा सकता है. इस रिदमिक सफर को और खूबसूरत बना दिया है  स्वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्र, सईद कादरी जैसे गीतकारों के बोल ने और प्रीतम के संगीत ने. इस फिल्म में जितने प्यारे प्यारे और जिंदगी से जुड़े बेमतलब की चीजों में भी जो संवाद भरा है निर्देशक ने. वह सिर्फ वही निर्देशक कर सकता है. जो निजी जिंदगी में भी बेमतलब की दुनिया में मतलब तलाशता हो. अनुराग ने इस फिल्म के जरिये कई बेमतलब की चीजों को जुगाड़ कर प्यार रच दिया है. जिसे किसी कैंडी पैकिंग की या ब्रांड की जरूरत नहीं. रणबीर कपूर ने अपनी बातचीत में कहा है कि वे उन फिल्मकारों की फिल्में करना चाहते हैं जो कुछ कहना चाहते हैं अपनी फिल्मों से. निश्चित तौर पर रणबीर ने निर्देशक की इस मनसा को भांप लिया होगा. तभी उन्होंने बतौर बर्फी अनुराग की सोच को पूरा किया. यह अनुराग के निर्देशन का ही कमाल है कि फिल्म में वे आपकी मुलाकात द रणबीर कपूर या प्रियंका चोपड़ा से होने ही नहीं देते. वह आपको ङिालमिल और बर्फी और श्रूति की दुनिया में ऐसे शामिल कर देते हैं. जैसे 2 घंटे 45 मिनट के लिए आप निर्देशक की सम्मोहन की दुनिया में हैं. सूकून से भरी सम्मोहन की दुनिया. जहां सबकुछ हैप्पी हैप्पी है. लाइफ इन मेट्रो के बाद अनुराग ने इस फिल्म से साबित कर दिया है कि उलङो रिश्तों की उन्हें परख है. समझ है.  उलझे  रिश्तों की कहानियों को सुलझे  निर्देशक के रूप में दर्शाने में वे माहिर हैं. रॉकस्टार के जॉर्डन के बाद अब बर्फी के रूप में रणबीर ने चौंका दिया है. न जाने इस रणबीर की जेब में और कितने सरप्राइज हैं. बस देखते जाइए, वह आनेवाले समय में और कैसे कैसे करामात कर हमें चौंकाते हैं. 

किसने कहा बर्फी गूंगा है 
यहां से निर्देशक हमें सीधे दाजर्लिंग की खूबसूरत वादियों में लिये चलते हैं. जहां हमारी मुलाकात बर्फी से होती है. किसने कहा, बर्फी बोल नहीं सकता. सुन नहीं सकता. जबकि हकीकत यह है कि बर्फी प्यार की भाषा बोलता है. और प्यार की भाषा ही सुनता भी है. उसे हंसना पसंद है. हंसाना पसंद है. वे खुद से इतना प्यार करता है. और अपने जिंदगी में उतना ही मस्त और एट्टीटयूड के साथ रहता है. जितना कोई आम व्यक्ति रहता हो. कोई उसकी कमी का मजाक उड़ाएं तो वह उनसे दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाता है. अपने प्यार का इजहार भी वह बेहद खास अंदाज में करता है. उधर बर्फी सांकेतिक भाषा बोलता है और इधर आप उसकी मासूमियत, उसके चेहरे के भाव देख कर खिलखिलाते हैं. उधर वह प्यार का इजहार करता है और इधर आपको बर्फी से प्यार हो जाता है. बर्फी आपके दिलों में दस्तक देता है और आप कहते हैं हाउ स्वीट..आप बर्फी की उपस्थिति, उसकी हर हरकत को महसूस करते हैं.  तो भला कैसे हम बर्फी को गूंगा घोषित करें.
दोस्ती-प्यार के बीच फंसी श्रूति
 श्रूति के बहाने निर्देशक ने दरअसल, वास्तविक जिंदगी के उन वास्तविक किरदारों का परिचय दिया है. जो अपने पहले प्यार को भूल नहीं पाती. प्यार के पहले अक्षर की तरह यह प्यार पूरा नहीं होता. लेकिन फिर भी ताउम्र कोई भी अपने पहले प्यार को भूल नहीं पाता. फिर जिंदगी में जब भी मौके आते हैं. वे उन मौकों को खोना नहीं चाहती. फिर चाहे उसे प्यार की बजाय दोस्ती का हाथ ही क्यों न बढ़ाना पड़े.

बर्फी- झिलमिल के सितारों का आंगन
बर्फी अपने पहले प्रेम श्रूति के घरवालों के पास निवेदन पत्र लेकर जाता है.जिसमें वह लिखता है कि  झिलमिल  सितारों का आंगन होगा..बर्फी भी आम लोगों की तरह ही अपनी जीवनसाथी के साथ अपनी दुनिया बसाना चाहता था. उसका वह सपना तो पूरा नहीं हो पाता. लेकिन उसके  झिलमिल  सितारों का आंगन बनता है. जब उसे मिलता है  झिलमिल  का साथ. निर्देशक ने निश्चित तौर पर सोच समझ कर किरदार का नाम ङिालमिल रखा होगा. चूंकि बर्फी की जिंदगी में ङिालमिल के आने के बाद वाकई उसकी जिंदगी सितारों से भर जाती है. एक ऐसे सितारों की दुनिया जिसमें दो अधूरी जिंदगी मिल कर एक पूरी जिंदगी बनती है. और बर्फी खुद को पूर्ण समझता है. ङिालमिल उसकी जिंदगी की पहली शख्स बनती है,जो उसकी दोस्ती की अगिA परीक्षा में पास होती है. निर्देशक ने बर्फी द्वारा दोस्तों की परीक्षा लेने का भी बेहद दिलचस्प अंदाज चुना है. तुम कहो, तो मैं जान देने को तैयार हूं. दिल हथेली पर लेकर घूमने का दावा करनेवाले मजनूओं और लैलाओं की परख का यह नायाब तरीका है. दाजर्लिंग से शुरू हुई दोस्ती. सफर में पनपते प्यार और फिर कोलकाता में ङिालमिल सितारों का आंगन बना कर एक अलग दुनिया बसानेवाले ङिालमिल और बर्फी की प्रेम कहानी की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना बेहद कठिन है. आप इस प्यार की खूबसूरती को देख कर ही महसूस कर सकते हैं. इस प्यारे से जोड़े के लिए प्यार की परिभाषा छोटे छोटे पल की खुशियां इकट्ठी करने में है. मुंह से बजाये जानेवाले बाजे, कागज के बने नाव, चिड़ियां उनके प्यार के नजराने हैं. दीवारों पर यूं ही कुछ भी लिखना, ङिालमिल को शादी के वक्त बर्फी द्वारा दिये गया सरप्राइज दर्शाता है कि बर्फी ङिालमिल की खुशियों की गहराई से समझता है. वही दूसरी तरफ बर्फी का श्रूति से लगाव से ईष्र्या करना दर्शाता है कि एक ऑटिज्म से पीड़ित लड़की के दिल में ही एक आम लड़की की तरह ही दिल है जो कि अपने प्रेम को किसी से बंटते देख दुखी होती है. निर्देशक ने इस ईष्र्या को भी खूबसूरती से दर्शाया है. अनुराग ने फिल्म को जवानी के दिनों में कॉमा लगाकर कहानी को बुढ़ापे तक पहुंचा कर एक और यह भी नजरिया प्रस्तुत करने की कोशिश की है कि बुढ़ापे में भी कैसे वे एक दूसरे के पूरक हैं . ताउम्र उनका प्यार जवां रहा. दरअसल, उनकी बेतरतीब दुनिया ही उनकी हसीन दुनिया है. दोनों के प्यार. सलीकेदार प्रेम कहानियां और एक दूसरे की खातिर मर मिटनेवाली प्रेम कहानियों की दुनिया में यह एक बेहद ही खूबसूरत व निश्चछल प्रेम कहानी का उदाहरण है.बर्फी और ङिालमिल का एक दूसरे के लिए प्यार समर्पण देख कर आप इस कदर मोहित हो जायेंगे कि आप खुद चाहेंगे कि आपको जीवन की प्रेम कहानी कुछ ऐसी ही हो.

पिता  की मौत पर म्यूट में आंसू बहाये बर्फी

फिल्म का एक खास पहलू यह भी है कि इस फिल्म में एक बेटे और बाप के रिश्ते की कहानी को भी बखूबी दर्शाया गया है. पिता की मौत से दुखी है बर्फी. लेकिन वह आंसू नहीं बहाता. दरअसल, निर्देशक ने दर्शाया है कि दुखी होने के बावजूद बर्फी कैसे मातम नहीं मनाता. जबकि वह अंदर से रो रहा है. लेकिन बर्फी के आंसू स्क्रीन पर न छलकाते हुए बर्फी के जीवन के एक और मजबूत पहलू को भी दर्शाता है कि तमाम दुख के बावजूद खुश रहना मुश्किल है. लेकिन फिर भी हर परेशानी से जूझना ही जिंदगी का दूसरा नाम है. खुद अनुराग भी अपनी जिंदगी में एक बड़ी बीमारी से लड़ कर आगे बढ़े हैं. और जीवन के प्रति उन्होंने अपने इसी सकारात्मक नजरिये को फिल्म में भी दर्शाया है.

20120913

खामोशी के बीच खिलखिलाहट "बर्फी " : अनुराग बसु



जब आप मौत को बेहद नजदीक से देख लेते हैं तो या तो आपको जिंदगी से बेहद प्यार हो जाता है. या फिर आप उससे नाराज हो जाते हैं. लेकिन निर्देशक अनुराग बसु की जिंदगी को इस बीमारी ने पूरी तरह बदल कर रख दिया. उनकी जिंदगी जीने का नजरिया ही बदल दिया.  उनकी फिल्म बर्फी उसी सोच का परिणाम है. अनुराग खुद मानते हैं कि अब वे जिंदगी को अलग नजरिये व अधिक सकारात्मक नजरिये से देखने लगे. अनुराग इस फिल्म को जिंदगी का जश्न मानते हैं. यही वजह रही कि उन्होंने बर्फी के लिए एक ऐसा विषय चुना, जो उनके दिल के बेहद करीब है. दिल से लिखी इस कहानी में मिला रणबीर कपूर से बेहतरीन अभिनेता का साथ और बन गयी स्वादिष्ट बर्फी. खुशियां बिखेरती  इस बर्फी के स्वाद का अनुराग बसु के साथ जायका लिया अनुप्रिया अनंत ने. 

डोंट वरी, बी बर्फी.. रणबीर कपूर इन दिनों यह पंक्ति बार बार दोहराते नजर आ रहे हैं, इस एक  पंक्ति से ही यह स्पष्ट है कि फिल्म की कहानी खुशियों के इर्द-गिर्द घूमती है. आखिर यह सोच भी एक ऐसे निर्देशक के जेहन से निकली है. जो खुद भी बेहद खुशमिजाज हैं. अनुराग बसु से मुलाकात भी रविवार के दिन हुई थी. शायद यही वजह थी कि अनुराग का बर्फियाना( खुशमिजाज) अंदाज देखने को मिला. वे खुद खुशमिजाज हैं. इसलिए उन्होंने फिल्म बर्फी में बहरे गूंगे किरदारों के होने के बावजूद फिल्म को डार्क नहीं बल्कि खुशमिजाजी प्रदान की है. अनुराग न तो टाल मटोल कर बातें करते हैं और न ही बनावटी. शायद इस स्वभाव की  उनका भिलाई जैसे शहर के मध्यमवर्गीय परिवार से जुड़ाव है. बातचीत अनुराग से.
अनुराग, कैसे पकाई आपने बर्फी की यह रेसिपी. मेरा संदर्भ फिल्म की कहानी से है. कैसे आया जेहन में यह विषय 
इस फिल्म की सोच आयी मेरे जेहन से. मेरे दिल से. मेरी जिंदगी बदली. मेरी बीमारी ने. बीमार पड़ा. तो भावनाओं की कद्र करने लगा. वरना, पहले मैं पैसों के बारे में ज्यादा सोचता था. मतलबी था. केवल पैसे कमाने थे मुङो. और चीजों की परवाह नहीं करता था. परिवार की भी नहीं. लापरवाह था. लेकिन मौत को इतने नजदीक से देखने के बाद नजरिया बदला. मैं जिंदगी के प्रति सकारात्मक हो गया. अब बड़े ख्वाब नहीं देखता. संतुष्ट रहता हूं.और इसी संतुष्टि, भावनाओं, परिवार व प्यार की अहमियत ने मुङो बर्फी बनाने के लिए प्रेरित किया. मैं अपनी बीमारी के बाद कई ऐसे एनजीओ से जुड़ा, जो कई स्तर पर बहरे गूंगे बच्चों के लिए काम करते हैं. मेरे होमटाउन भिलाई में भी मुस्कान नाम एक डिस्ऐबिलिटी स्कूल है.  जब मैं उन एनजीओ के स्कूल में जाता. उन्हें देखता तो मुङो लगता कि इनकी जिंदगी कैसे ईशारों की दुनिया है. लेकिन फिर भी वे खुश हैं. दुनिया के तमाम झंझावातों से दूर. वही से तय किया कि कोई ऐसी फिल्म बनाऊंगा.लेकिन एक बात मेरे जेहन में बिल्कुल स्पष्ट थी कि प्राय: लोग बहरे गूंगे का किरदार देखते हैं तो उसे डार्क फिल्म कहने लगते हैं. लेकिन मैं अपने किरदारों को जिंदगी का मातम नहीं जश्न मनाता दिखाऊंगा.  मुझे किरदारों को बेचारा तो बिल्कुल नहीं दिखाना था. आप देखेंगे कि फिल्म साइलेंट भी नहीं है. फिल्म प्रेम कहानी है. लेकिन अलग सी प्रेम कहानी. आम कहानियों से अलग . ये प्रेम कहानी दिल से कही गयी प्रेम कहानी है. जहां बिना कहे प्रेम हो जाता है.
फिल्म का नाम किसी मिठाई के नाम पर रखना है. क्या कुछ ऐसा सोच रखा था? वैसे बंगाल फिल्मों के लिए लोकप्रिय है या आप बंगाल प्रांत से हैं सो, दिल में बर्फी का नाम सबसे पहले आया?
(हंसते हुए ) नहीं नहीं..मिठाई के नाम पर रखना है. ऐसा कुछ तय नहीं किया था. लेकिन हां, यह जरूर सोच रखा था कि चूंकि फिल्म में सेलिब्रेशन है तो कुछ मीठा सा नाम रखा जाये. तो बर्फी से स्वादिष्ट और मीठा क्या होता. वैसे फिल्म के किरदार का नाम भी मरफी है. मरफी की मां को मरफी की तरह बच्चा चाहिए होता है. लेकिन उसी मां रेडियो से शॉक लगने से मर जाती है. इस वजह से मरफी सही तरीके से बोल नहीं पाता. तो वह अलग तरीके से उच्चारण करता है. तो मरफी लोगों को बर्फी की तरह लगता है. सो, वह बर्फी के नाम से ही प्रसिद्ध हो जाता है.
रणबीर ही बर्फी का किरदार निभा सकते हैं. रणबीर की किन फिल्मों या उनके किन स्वभाव से आपको ईशारा मिला कि अरे, मेरा बर्फी तो यही बन सकता है.
रणबीर की मैंने ज्यादा फिल्में नहीं देखी हैं. लेकिन उनके स्वभाव में. उनके चेहरे में अजब सी चंचलता है. मुङो लगता है कि जब भी पुराने दौर की फिल्मों की बात होगी और उसे नये दौर में किसी अभिनेता द्वारा सही तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है तो वह रणबीर कपूर हैं. रणबीर में शरारत, इमोशन, मासूमियत सबकुछ है. और साथ ही वह समर्पित कलाकार हैं. उनका समर्पण हमने रॉकस्टार में देखा है. और मानना ही होगा. क्योंकि जब आप खुद फिल्म देखेंगे तो महसूस करेंगे कि रॉकस्टार के रणबीर का एटीटयूड और बर्फी की मासूमियत दोनों कितने अलग हैं. लेकिन निभानेवाला कोई एक ही है. रणबीर के साथ इस फिल्म में काम करने का बाद मैंने महसूस किया है कि वे निर्देशकों के हीरो हैं. जिस तरह से ढाल दो. ढल जायेंगे. कई शेड्स हैं उनके अभिनय के. धीरे धीरे वे फिल्मों में दिखाते नजर आयेंगे.अगर रणबीर इस फिल्म को करने के  लिए तैयार नहीं होते. तो मैं यह फिल्म नहीं बना पाता.
रणबीर ने तुरंत हां कह दिया था? 
हां, उन्हें कहानी बेहद पसंद आयी थी. मुङो लगता है कि हर वह अभिनेता जो वर्सेटाइल होगा वह ऐसे किरदार निभाना चाहेगा. मैं मानता हूं कि बर्फी बहुत लेयरड फिल्म  है. आप परत द परत फिल्म को खुलते देखेंगे. जाहिर सी बात है किसी अभिनेता के लिए अपने अभिनय को विभिन्न परतों, अंदाज में दिखाने का यह बेहतरीन मौका है. लेकिन एक बात मैं जरूर कहूंगा कि बर्फी की कहानी बहुत सामान्य सी थी. और एक छोटी फिल्म थी. लेकिन पहले रणबीर जुड़े, फिर प्रियंका जुड़ी तो स्टार से जुड़ने से फिल्म बड़ी हो गयी. 
कहानी के बारे में आप कुछ भी स्पष्ट तौर पर बचाने से क्यों बच रहे हैं?
क्योंकि मैंने कहा न फिल्म की कहानी बहुत सामान्य सी है. अगर अभी से कह दूंगा तो सारा मजा किरकिरा हो जायेगा. मैं फिल्म की अंदरूनी परते नहीं खोलना चाहता.वरना आपको मजा नहीं आयेगा. बस यही कहूंगा कि हंसती खेलती फिल्म है.
आप लगातार इस बात को दोहरा रहे हैं कि फिल्म में हंसी मजाक है तो निश्चित तौर पर शूटिंग के दौरान सेट का भी माहौल काफी खुशनुमा रहा होगा.
हां, बिल्कुल वैसे भी जहां रणबीर कपूर और प्रियंका जैसे लोग रहेंगे. सेट पर मस्ती तो होगी ही. मुङो याद है जिस दिन रणबीर का आखिरी शॉट था और मैं घोषणा की थी कि यह आखिरी शॉट है. अचानक पूरे यूनिट में शांति छा गयी थी. इस फिल्म में रणबीर रणबीर की तरह नहीं प्यारा मासूम सा बर्फी बन गया था. तो पूरी यूनिट का चहेता बन गया था. उसकी हरकतें, शरारतें लोगों को हंसाती थी. यही वजह थी कि जब वाइंड अप के दौरान सभी दुखी हो गये थे. वैसे, मैं यही कोशिश करता हूं कि अपने किसी भी फिल्म पर माहौल खुशनुमा बना कर रखूं. हमारे यहां काम करते वक्त सभी एक तरह के होते हैं. स्टार्स के वैनिटी वैन पर स्टार का नहीं किरदार का नाम होता है. तो आप अनुमान लगा सकती हैं कि सेट पर आते हीं कैसे सभी किरदार से जुड़ जाते होंगे. 
फिल्म में दाजर्लिंग के लोकेशन विशेष रूप से नजर आ रहे हैं .दार्जीलिंग चुनने की खास वजह?
फिल्म की कहानी की डिमांड थी कि फिल्म 70 के दौर की है. और  दार्जीलिंग आज भी आम शहरों की तूलना में अलग है. वहां का माहौल अलग है. मैं मानता हूं कि किसी कहानी के लिए उसके किरदार के साथ लोकेशन का जस्टीफाइ होना भी जरूरी है. दाजर्लिंग में वो स्वीटनेस है. वहां के लोगों में वो स्वीटनेस है. छलकपट नहीं है. यही वजह रही कि मैंने वहां का लोकेशन चुना. एक और बात यह भी रही कि मैंने फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट   दार्जीलिंग  में रह कर लिखी. क्योंकि मैं मानता हूं कि माहौल आपके लेखन में भी मदद करती है. शोर शराबे से दूर मुङो सुकून मिली   दार्जीलिंग  में. दाजर्लिंग से उत्तर बंगाल सफर से सफर होते हुए फिल्म फिर कोलकाता में आती है. निस्संदेह मैं बांग्ला प्रांत से हूं तो  मुझे  कई चीजें. प्लॉट  माहौल, प्रीमाइस तैयार करने में यह सारी चीजें मदद करती हैं. वहां रह कर लिख पाया तो उम्मीद है कि कहानी, किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय कर पाया हूं. म्
रणबीर, प्रियंका के किरदार के लिए तैयारी कैसे हुई? सबके भाव. डांस करने का अंदाज, बातचीत के अंदाज़. किस तरह से ट्रेनिंग या टिप्स दिये. संदर्भ कहां से लिये.
जहां तक संदर्भ की बात है. मैंने मुस्कान एनजीओ में ही एक व्यक्ति से मुलाकात की थी. मैंने देखा कैसे वह एक आदमी सारे बहरे गूंगे बच्चों को एक साथ मैनेज कर ले रहा है. मैंने उनसे बहुत मदद ली. फिल्म के कुछ दृश्यों में तो मैंने भी इनपुट्स दिये हैं. जैसे डांसिंग वाले स्टेप्स. हमने स्पशल टीचर संगीता गाला को भी बुलाया था जिन्होंने रणबीर, प्रियंका को सारी चीजें सिखायीं.

सिनेमा में हिंदीपन की कमी है


orginally published in prabhat khabar all edition on 12sep2012
कमलेश पांडे
रंग दे बसंती, दिल्ली 6, तेजाब, विरुद्ध समेत कई फिल्मों व धारावाहिकों की कहानी लिख चुके हैं.
इ स सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है कि हिंदी देश की मनोरंजन की सर्वप्रमुख भाषा है. इसका कारण जानने के लिए किसी अध्ययन-विेषण की जरूरत नहीं. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे देश में आमतौर पर बोली जानेवाली भाषा हिंदी है. यह जन-जन की भाषा है. हिंदी से लोग आसानी से जुड़ पाते हैं. जनता का मनोरंजन उसीभाषा में हो सकता है, जिसमें वह सहज हो, जिसे आसानी से समझ सके. और हिंदी यह काम बखूबी करती है. 

मनोरंजन की प्रमुख भाषा के रूप में हिंदी का प्रचलन आज से नहीं है. इसका इतिहास काफी पीछे, करीब 100 साल पहले से शुरू होता है. यह भारत की खुशकिस्मती थी कि उसे ऐसे-ऐसे साहित्यकार मिले जिन्होंने अपनी शैली से साहित्य को भी मनोरंजन का माध्यम बनाया. पहली बार 1920 में देवकीनंदन खत्री ने चंद्रकांता संतति जैसी बेहतरीन रचना से एक ब.डे वर्ग को हिंदी की ओर आकर्षित किया. उसकी लोकप्रियता ऐसी थी, कि बहुत बाद में उस पर टेलीविजन सीरियल का निर्माण हुआ और उसे बेहद पसंद भी किया गया. यह दर्शाता है कि हिंदी साहित्य कितना विस्तृत है. समृद्ध है. और उसमें मनोरंजन के कितने तत्व मौजूद हैं. मैं मानता हूं कि गोपालदास गहमरी, देवकीनंदन खत्री जैसे साहित्यकारों ने ही शुरुआती दौर में हिंदी में इतनी बेहतरीन रचना की कि आम लोगों का इससे जुड़ाव हुआ. इसके बाद हिंदी को लोकप्रिय बनाया हमारी फिल्मों और विशेष कर फिल्मों के गानों ने. गीत-संगीत हिंदी फिल्मों में मनोरंजन के खास माध्यम बने. हिंदी सिनेमा के गीतकारों ने शुरुआती दौर से ही काफी बेहतरीन गाने लिखे. ये बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा में थे. इन गानों से लोग खुद को भावनात्मक रूप से जोड़ पाये. फिल्मों के साथ साथ टेलीविजन ने भी हिंदी को मनोरंजन की भाषा बनाया. चूंकि टेलीविजन की पहुंच घर-घर तक थी, इसलिए स्वाभाविक प्रतिक्रिया केस्वरूप आम लोगों की भाषा हिंदी में ही सबसे अधिक कार्यक्रम बनने लगे. धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं के भी टीवी चैनल आये. जो यह बताता है कि लोग अपनी जुबान में ही मनोरंजन पसंद करते हैं.

दरअसल अंगरेजी अगर सरकारी और कारोबारी कामकाज की भाषा है, तो हिंदी लोगों की जज्बात की, सामाजिक कामकाज की भाषा है. हिंदी फिल्मों और उसके गानों की सफलता ने यह साबित किया है कि हमारा देश हिंदी में ही खुशियां और गम बांटना पसंद करता है. फिल्मों के संवादों से कई लोगों ने हिंदी बोलना सीखा है. यह सही है कि हिंदी भाषा के साहित्य को उतने पाठक शायद नहीं मिले, जितने मिलने चाहिए थे, लेकिन जब हिंदी भाषा टेलीविजन की भाषा बनी, तो लोग इसे खूब दर्शक मिले. खास बात यह रही कि हिंदी भाषा को जानने समझने के लिए लोगों को बहुत अधिक साक्षर होने की जरूरत नहीं थी, सो हिंदी भाषा को लोगों ने अपना माना. यह हमारे मनोरंजन की भाषा बन गयी. 

यह सच है कि हम खाते हिंदी की हैं और राग अलापते अंग्रेजी की. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हम हिंदी भाषा जैसी समृद्ध, खूबसूरत, विस्तृत और सभ्य भाषा का मान नहीं करते. इस भाषा की ताकत दुनिया को मालूम है, लेकिन हमें ही इससे अजीब सा परहेज है. हमारे लिए हिंदी सम्मान की भाषा नहीं है. गूगल जैसे सुप्रसिद्ध पोर्टल के लोगों को पता है कि हिंदी की अहमियत क्या है. उसमें अन्य भाषाओं के साथ ही हिंदी में भी बाकायदा काम किया जा सकता है. निस्संदेह अंग्रेजी कुछ ‘पढे-लिखे’ लोगों की भाषा है, लेकिन यहां अंगरेजी पढ.ाई-लिखाई से नहीं लोगों की हैसियत से जुड़ी है. वह एक विशिष्ट अभिजन वर्ग की भाषा है. उसका वर्ग सीमित है. यह वर्ग ही पूरा भारत नहीं है. हालांकि यह एहसास दिलाने की कोशिश कई बार की जाती है. दोष अंगरेजी भाषा में नहीं है. बल्कि भारत में अंगरेजी को लेकर पनपी सोच का है, जो यह मानता है कि जो हिंदी बोलते हैं, वे कहीं न कहीं कमतर हैं. पिछ.डे हुए हैं. हिंदी को लेकर फिल्म और इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की स्थिति इस व्यापक सोच के भीतर ही है. जबकि हिंदी से अलग होकर इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. भारत में सिर्फ फिल्में ही हिंदी में नहीं बन रहीं, बल्कि जिस बाजार से यह इंडस्ट्री चल रही है, वह बाजार सबसे आसानी से हिंदी समझता है. फिर चाहे वह विज्ञापन की बात हो. फिल्मों की या धारावाहिकों की. 

फिल्म इंडस्ट्री को लेकर यह विरोधाभास बार-बार उभरता है कि इसका कच्चा माल और तैयार माल हिंदी है, स्टारडम की, नाम और शोहरत की सीढ.ी हिंदी है, लेकिन हमारे सितारे हिंदी में बात करना शायद ही पसंद करते हैं. वे इंटरव्यू अंगरेजी में देते हैं. सच्चाई तो यह है कि हमारे कई सितारों को हिंदी आती ही नहीं है. यह एक तरह की गुलामी है जो फिल्मी दुनिया में और बहुत ब.डे वर्ग में गहरे तक बसी हुई है. कईस्टार रोमन में स्क्रिप्ट लिखवाते हैं. अमिताभ बच्चन को छोड़ दें तो इंडस्ट्री में बहुत कम कलाकार हैं, जो हिंदी में ही स्क्रिप्ट लेते हों. अंगरेजी पूरी तरह से हिंदी पर हावी है. सवाल सिर्फ हिंदी जानने का नहीं है. हिंदी को जानना अपने देश-समाज को जानना है. हिंदी को जाने बगैर देश को नहीं जाना जा सकता. अगर देश को नहीं जानेंगे तो इस देश की आत्मा को बयां करने वाली फिल्में भी नहीं बना पायेंगे. और जब तक ऐसा नहीं होगा, हिंदी फिल्में दुनिया में अपने लिये नाम नहीं कमा पायेंगी. यह दरअसल उस सोच का ही विस्तार है, जो उपनिवेशी मूल्यों को ही श्रेष्ठ समझता है. इसमें एक साई यह भी जुड़ी है कि आज हिंदी सिनेमा पर हिंदी में पत्रिकाओं का भी अभाव है. अगर हैं भी तो वे अंगरेजी का अनुवाद हैं. यानी यह एक विरोधाभासी स्थिति है कि फिल्में बने हिंदी में लेकिन उसे चलाने वाले अंगरेजी का इस्तेमाल करें.

मैं जब इस इंडस्ट्री में नया-नया आया था, तब दोनों भाषा की समझ रखने के कारण मुझे थोड़ी कम परेशानी का सामना करना पड़ा. लेकिन मैं आज भी हिंदी को अपनी प्राथमिक भाषा मानता हूं. अंगरेजी का चाहे कितना भी गुणगान किया जाये, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि देश के, कम से कम पूरे उत्तर भारत के सारे काम हिंदी में होते हैं. इस उत्तर भारत से ही नहीं, महाराष्ट्र, गुजरात यहां तक कि दक्षिणभारत के ब.डे हिस्से में भी बात जब मनोरंजन की आती है, तो भाषा के तौर पर हिंदी का इस्तेमाल किया जाता है. 

इन दिनों भारत में अंगरेजी फिल्मों के बाजार में भी बड़ा इजाफा हुआ है. खासकर इनकी हिंदी में डब की गयी फिल्में काफी पसंद की जा रही हैं. हालांकि मनोरंजन की कोई सरहद नहीं होती है, लेकिन जो पश्‍चिम का है वही श्रेष्ठ है, यह भावना मूलभूत रूप से सही नहीं कही जा सकती है. विदेशी फिल्म निर्माता भारतीय बाजार की ताकत समझ गये हैं, इसलिए, वे अपनी फिल्में यहां आकर हिंदी में डब करके हमें दिखा रहे हैं और हम शान से देख रहे हैं. यह एक ऐसी चीज है, जिसके प्रति इंडस्ट्री को सजग रहना चाहिए. क्योंकि अंगरेजी फिल्मों की कामयाबी हमारे यहां नकल की प्रवृत्ति को बढ.ावा दे रही है. उनकी नकल में अपनी धरोहर को खो रहे हैं. दरअसल भारतीय फिल्मों में नकल की अकल पुरानी है जो अब और बढ. रही है. भारतीय फिल्मों को भारतीय फिल्मों की तरह बनने कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यहां कई निर्देशकों की कोशिश हॉलीवुड की तरह बनने की तरह होती है. यही वजह है कि हॉलीवुड उन्हें पसंद नहीं करता. 

यह एक बड़ी हकीकत है कि शुरुआत में हिंदी सिनेमा जब भारत की मिट्टी से जुड़ा हुआ था, उसी दौर में भारत में ऐसी फिल्में बनी जिन्हें आज भी भारती क्लासिक्स, विश्‍व क्लासिक्स का दर्जा दिया जा सकता है. लेकिन दशकों तक हमने ऐसी फिल्में गिन-चुन कर ही बनायीं, जिस पर हम सचमुच नाज कर सकते थे. इसके पीछे सिनेमा में छायी अंगरेजियत को ही वजह माना जा सकता है. भारत में जैसा है वैसा शायद ही कहीं और हो. दूसरे देशों की फिल्में अपने खास फ्लेवर के साथ हमारे सामने आती हैं. इस मामले में ईरानी फिल्मों का उदाहरण देखा जा सकता है. नकल में कलात्मकता नहीं होती है. हां इससे कमाई की जा सकती है. दिक्कत यह है कि भारत में हिंदी फिल्में भी ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर बनाने का प्रचलन बढ.ा है. सिनेमा में भारतीयता लंबे अरसे तक गायब रही. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी साहित्य से रिश्ता न के बराबर रहा. अभी भी सिनेमा को चलाने वाले इसकी अहमियत नहीं स्वीकार करते, यही कारण है कि हिंदी फिल्में दुनिया में अपनी पहचान नहीं बना पायी हैं. 

जब तक आप अपनी कहानी अपने अंदाज में नहीं दिखाएंगे सुनाएंगे तब तक कोई आपकी फिल्मों को क्यों देखेगा. अगर किसी को देखना हो, तो वह हॉलीवुड की फिल्में ही क्यों नहीं देखेगा, बजाय कि उसकी नकल देखेगा! भारत में ही देखिए हॉलीवुड की फिल्में भारत की नकल करके तो बन नहीं रहीं. हम उनकी कहानी देखते हैं, बस भाषा हिंदी होती है. उन्होंने अपनी मौलिकता बरकरार रखी है. वे अपनी चीजें ही आकर हमें हमारी भाषा में परोस रहे हैं और हम बेहद दिलचस्पी से उसे देख रहे हैं और उनका मान बढ.ा रहे हैं. उनके बाजार में भी हमारी हिंदी भाषा से ही फायदा हो रहा है. 

हाल में फिल्मों में आयी नयी पीढ.ी ने जरूर कुछ उम्मीद जगायी है, लेकिन इनमें से कई ऐसे हैं, जो ट्रीटमेंट और कहानी दोनों के स्तर पर अंगरेजी से आक्रांत नजर आता है. जो लोग इससे बाहर निकल पायेंगे वे ही हिंदी सिनेमा को आगे ले जा पाएंगे. हिंदी सिनेमा की अंगरेजियत सिर्फ भाषा से जुड़ा हुआ मसला नहीं है. यह हमारी सोच और कलात्मक विकास से जुड़ा हुआ मामला है. सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री चाहे कितनी भी बड़ी हो गयी हो, लेकिन यह पूरी तरह भारतीय नहीं हो पायी है. और भारतीय नहीं हो पाने के कारण ही यह अंतरराष्ट्रीय भी नहीं हो पायी है. अनुप्रिया अनंत से बातचीत पर आधारितइ स सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है कि हिंदी देश की मनोरंजन की सर्वप्रमुख भाषा है. इसका कारण जानने के लिए किसी अध्ययन-विेषण की जरूरत नहीं. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे देश में आमतौर पर बोली जानेवाली भाषा हिंदी है. यह जन-जन की भाषा है. हिंदी से लोग आसानी से जुड़ पाते हैं. जनता का मनोरंजन उसीभाषा में हो सकता है, जिसमें वह सहज हो, जिसे आसानी से समझ सके. और हिंदी यह काम बखूबी करती है. 

मनोरंजन की प्रमुख भाषा के रूप में हिंदी का प्रचलन आज से नहीं है. इसका इतिहास काफी पीछे, करीब 100 साल पहले से शुरू होता है. यह भारत की खुशकिस्मती थी कि उसे ऐसे-ऐसे साहित्यकार मिले जिन्होंने अपनी शैली से साहित्य को भी मनोरंजन का माध्यम बनाया. पहली बार 1920 में देवकीनंदन खत्री ने चंद्रकांता संतति जैसी बेहतरीन रचना से एक ब.डे वर्ग को हिंदी की ओर आकर्षित किया. उसकी लोकप्रियता ऐसी थी, कि बहुत बाद में उस पर टेलीविजन सीरियल का निर्माण हुआ और उसे बेहद पसंद भी किया गया. यह दर्शाता है कि हिंदी साहित्य कितना विस्तृत है. समृद्ध है. और उसमें मनोरंजन के कितने तत्व मौजूद हैं. मैं मानता हूं कि गोपालदास गहमरी, देवकीनंदन खत्री जैसे साहित्यकारों ने ही शुरुआती दौर में हिंदी में इतनी बेहतरीन रचना की कि आम लोगों का इससे जुड़ाव हुआ. इसके बाद हिंदी को लोकप्रिय बनाया हमारी फिल्मों और विशेष कर फिल्मों के गानों ने. गीत-संगीत हिंदी फिल्मों में मनोरंजन के खास माध्यम बने. हिंदी सिनेमा के गीतकारों ने शुरुआती दौर से ही काफी बेहतरीन गाने लिखे. ये बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा में थे. इन गानों से लोग खुद को भावनात्मक रूप से जोड़ पाये. फिल्मों के साथ साथ टेलीविजन ने भी हिंदी को मनोरंजन की भाषा बनाया. चूंकि टेलीविजन की पहुंच घर-घर तक थी, इसलिए स्वाभाविक प्रतिक्रिया केस्वरूप आम लोगों की भाषा हिंदी में ही सबसे अधिक कार्यक्रम बनने लगे. धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं के भी टीवी चैनल आये. जो यह बताता है कि लोग अपनी जुबान में ही मनोरंजन पसंद करते हैं.

दरअसल अंगरेजी अगर सरकारी और कारोबारी कामकाज की भाषा है, तो हिंदी लोगों की जज्बात की, सामाजिक कामकाज की भाषा है. हिंदी फिल्मों और उसके गानों की सफलता ने यह साबित किया है कि हमारा देश हिंदी में ही खुशियां और गम बांटना पसंद करता है. फिल्मों के संवादों से कई लोगों ने हिंदी बोलना सीखा है. यह सही है कि हिंदी भाषा के साहित्य को उतने पाठक शायद नहीं मिले, जितने मिलने चाहिए थे, लेकिन जब हिंदी भाषा टेलीविजन की भाषा बनी, तो लोग इसे खूब दर्शक मिले. खास बात यह रही कि हिंदी भाषा को जानने समझने के लिए लोगों को बहुत अधिक साक्षर होने की जरूरत नहीं थी, सो हिंदी भाषा को लोगों ने अपना माना. यह हमारे मनोरंजन की भाषा बन गयी. 

यह सच है कि हम खाते हिंदी की हैं और राग अलापते अंग्रेजी की. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हम हिंदी भाषा जैसी समृद्ध, खूबसूरत, विस्तृत और सभ्य भाषा का मान नहीं करते. इस भाषा की ताकत दुनिया को मालूम है, लेकिन हमें ही इससे अजीब सा परहेज है. हमारे लिए हिंदी सम्मान की भाषा नहीं है. गूगल जैसे सुप्रसिद्ध पोर्टल के लोगों को पता है कि हिंदी की अहमियत क्या है. उसमें अन्य भाषाओं के साथ ही हिंदी में भी बाकायदा काम किया जा सकता है. निस्संदेह अंग्रेजी कुछ ‘पढे-लिखे’ लोगों की भाषा है, लेकिन यहां अंगरेजी पढ.ाई-लिखाई से नहीं लोगों की हैसियत से जुड़ी है. वह एक विशिष्ट अभिजन वर्ग की भाषा है. उसका वर्ग सीमित है. यह वर्ग ही पूरा भारत नहीं है. हालांकि यह एहसास दिलाने की कोशिश कई बार की जाती है. दोष अंगरेजी भाषा में नहीं है. बल्कि भारत में अंगरेजी को लेकर पनपी सोच का है, जो यह मानता है कि जो हिंदी बोलते हैं, वे कहीं न कहीं कमतर हैं. पिछ.डे हुए हैं. हिंदी को लेकर फिल्म और इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की स्थिति इस व्यापक सोच के भीतर ही है. जबकि हिंदी से अलग होकर इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. भारत में सिर्फ फिल्में ही हिंदी में नहीं बन रहीं, बल्कि जिस बाजार से यह इंडस्ट्री चल रही है, वह बाजार सबसे आसानी से हिंदी समझता है. फिर चाहे वह विज्ञापन की बात हो. फिल्मों की या धारावाहिकों की. 

फिल्म इंडस्ट्री को लेकर यह विरोधाभास बार-बार उभरता है कि इसका कच्चा माल और तैयार माल हिंदी है, स्टारडम की, नाम और शोहरत की सीढ.ी हिंदी है, लेकिन हमारे सितारे हिंदी में बात करना शायद ही पसंद करते हैं. वे इंटरव्यू अंगरेजी में देते हैं. सच्चाई तो यह है कि हमारे कई सितारों को हिंदी आती ही नहीं है. यह एक तरह की गुलामी है जो फिल्मी दुनिया में और बहुत ब.डे वर्ग में गहरे तक बसी हुई है. कईस्टार रोमन में स्क्रिप्ट लिखवाते हैं. अमिताभ बच्चन को छोड़ दें तो इंडस्ट्री में बहुत कम कलाकार हैं, जो हिंदी में ही स्क्रिप्ट लेते हों. अंगरेजी पूरी तरह से हिंदी पर हावी है. सवाल सिर्फ हिंदी जानने का नहीं है. हिंदी को जानना अपने देश-समाज को जानना है. हिंदी को जाने बगैर देश को नहीं जाना जा सकता. अगर देश को नहीं जानेंगे तो इस देश की आत्मा को बयां करने वाली फिल्में भी नहीं बना पायेंगे. और जब तक ऐसा नहीं होगा, हिंदी फिल्में दुनिया में अपने लिये नाम नहीं कमा पायेंगी. यह दरअसल उस सोच का ही विस्तार है, जो उपनिवेशी मूल्यों को ही श्रेष्ठ समझता है. इसमें एक साई यह भी जुड़ी है कि आज हिंदी सिनेमा पर हिंदी में पत्रिकाओं का भी अभाव है. अगर हैं भी तो वे अंगरेजी का अनुवाद हैं. यानी यह एक विरोधाभासी स्थिति है कि फिल्में बने हिंदी में लेकिन उसे चलाने वाले अंगरेजी का इस्तेमाल करें.

मैं जब इस इंडस्ट्री में नया-नया आया था, तब दोनों भाषा की समझ रखने के कारण मुझे थोड़ी कम परेशानी का सामना करना पड़ा. लेकिन मैं आज भी हिंदी को अपनी प्राथमिक भाषा मानता हूं. अंगरेजी का चाहे कितना भी गुणगान किया जाये, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि देश के, कम से कम पूरे उत्तर भारत के सारे काम हिंदी में होते हैं. इस उत्तर भारत से ही नहीं, महाराष्ट्र, गुजरात यहां तक कि दक्षिणभारत के ब.डे हिस्से में भी बात जब मनोरंजन की आती है, तो भाषा के तौर पर हिंदी का इस्तेमाल किया जाता है. 

इन दिनों भारत में अंगरेजी फिल्मों के बाजार में भी बड़ा इजाफा हुआ है. खासकर इनकी हिंदी में डब की गयी फिल्में काफी पसंद की जा रही हैं. हालांकि मनोरंजन की कोई सरहद नहीं होती है, लेकिन जो पश्‍चिम का है वही श्रेष्ठ है, यह भावना मूलभूत रूप से सही नहीं कही जा सकती है. विदेशी फिल्म निर्माता भारतीय बाजार की ताकत समझ गये हैं, इसलिए, वे अपनी फिल्में यहां आकर हिंदी में डब करके हमें दिखा रहे हैं और हम शान से देख रहे हैं. यह एक ऐसी चीज है, जिसके प्रति इंडस्ट्री को सजग रहना चाहिए. क्योंकि अंगरेजी फिल्मों की कामयाबी हमारे यहां नकल की प्रवृत्ति को बढ.ावा दे रही है. उनकी नकल में अपनी धरोहर को खो रहे हैं. दरअसल भारतीय फिल्मों में नकल की अकल पुरानी है जो अब और बढ. रही है. भारतीय फिल्मों को भारतीय फिल्मों की तरह बनने कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यहां कई निर्देशकों की कोशिश हॉलीवुड की तरह बनने की तरह होती है. यही वजह है कि हॉलीवुड उन्हें पसंद नहीं करता. 

यह एक बड़ी हकीकत है कि शुरुआत में हिंदी सिनेमा जब भारत की मिट्टी से जुड़ा हुआ था, उसी दौर में भारत में ऐसी फिल्में बनी जिन्हें आज भी भारती क्लासिक्स, विश्‍व क्लासिक्स का दर्जा दिया जा सकता है. लेकिन दशकों तक हमने ऐसी फिल्में गिन-चुन कर ही बनायीं, जिस पर हम सचमुच नाज कर सकते थे. इसके पीछे सिनेमा में छायी अंगरेजियत को ही वजह माना जा सकता है. भारत में जैसा है वैसा शायद ही कहीं और हो. दूसरे देशों की फिल्में अपने खास फ्लेवर के साथ हमारे सामने आती हैं. इस मामले में ईरानी फिल्मों का उदाहरण देखा जा सकता है. नकल में कलात्मकता नहीं होती है. हां इससे कमाई की जा सकती है. दिक्कत यह है कि भारत में हिंदी फिल्में भी ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर बनाने का प्रचलन बढ.ा है. सिनेमा में भारतीयता लंबे अरसे तक गायब रही. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी साहित्य से रिश्ता न के बराबर रहा. अभी भी सिनेमा को चलाने वाले इसकी अहमियत नहीं स्वीकार करते, यही कारण है कि हिंदी फिल्में दुनिया में अपनी पहचान नहीं बना पायी हैं. 

जब तक आप अपनी कहानी अपने अंदाज में नहीं दिखाएंगे सुनाएंगे तब तक कोई आपकी फिल्मों को क्यों देखेगा. अगर किसी को देखना हो, तो वह हॉलीवुड की फिल्में ही क्यों नहीं देखेगा, बजाय कि उसकी नकल देखेगा! भारत में ही देखिए हॉलीवुड की फिल्में भारत की नकल करके तो बन नहीं रहीं. हम उनकी कहानी देखते हैं, बस भाषा हिंदी होती है. उन्होंने अपनी मौलिकता बरकरार रखी है. वे अपनी चीजें ही आकर हमें हमारी भाषा में परोस रहे हैं और हम बेहद दिलचस्पी से उसे देख रहे हैं और उनका मान बढ.ा रहे हैं. उनके बाजार में भी हमारी हिंदी भाषा से ही फायदा हो रहा है. 

हाल में फिल्मों में आयी नयी पीढ.ी ने जरूर कुछ उम्मीद जगायी है, लेकिन इनमें से कई ऐसे हैं, जो ट्रीटमेंट और कहानी दोनों के स्तर पर अंगरेजी से आक्रांत नजर आता है. जो लोग इससे बाहर निकल पायेंगे वे ही हिंदी सिनेमा को आगे ले जा पाएंगे. हिंदी सिनेमा की अंगरेजियत सिर्फ भाषा से जुड़ा हुआ मसला नहीं है. यह हमारी सोच और कलात्मक विकास से जुड़ा हुआ मामला है. सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री चाहे कितनी भी बड़ी हो गयी हो, लेकिन यह पूरी तरह भारतीय नहीं हो पायी है. और भारतीय नहीं हो पाने के कारण ही यह अंतरराष्ट्रीय भी नहीं हो पायी है. अनुप्रिया अनंत से बातचीत पर आधारित