20120302

बिहढ़ में बागी होते हैं, डकैत नहीं




तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म पान सिंह तोमर आज रिलीज हो रही है. फ़िल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसने किसान के घर जन्म लिया. फ़िर फ़ौज में नौकरी की. देश के लिए सात सालों तक चैंपियन का खिताब जीता. कई रिकॉर्ड तोड़े. फ़िर अचानक वह गांव लौटता है, तो उसकी जिंदगी बदल जाती है और वह डाकू बन जाता है.
या यूं कहें बागी बन जाता है. आखिर क्यों? ऐसे कौन से हालात होंगे उस व्यक्ति के सामने जिसने उसे बागी बनने पर मजबूर किया होगा. निश्चित तौर पर फ़िल्म इन पहलुओं पर प्रकाश डालेगी. फ़िल्म का एक अहम संवाद है, जिसमें अभिनेता इरफ़ान खान (पान सिंह तोमर की भूमिका निभा रहे हैं) अपने समूह के एक व्यक्ति के यह पूछने पर कि वह डकैत कैसे बने..जवाब देते हैं कि बिहढ़ में बागी होते हैं. डकैत होते हैं पार्लियामेंट में.
फ़िल्म के यह संवाद दरअसल, उन तमाम बागियों के बोल हैं, जो हालात से मजबूर होकर ही डकैती का रास्ता इख्तियार करते हैं. वे डकैत नहीं, बल्कि बागी होते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ़ बगावत कर रहे होते हैं. वे मानते हैं कि सिस्टम डाकू है, जो आम लोगों के सामने ही उन्हें लूट रहा है. इसलिए डाकू वे हैं. बागियों का मकसद तो कभी डाकू बन कर किसी खजाने की लूट करना नहीं, बल्कि सिस्टम को यह जताना होता है कि वे किस हद तक जा सकते हैं.
हिंदी सिनेमा में अब तक डाकुओं की जिंदगी पर कई कहानियां बयां की गयी है. लेकिन अगर हम इस बिंदू पर गौर करते हुए उन फ़िल्मों को देखें तो बैंडिट क्वीन, लाल सलाम जैसी कुछेक ही फ़िल्म है जो डकैत की जिंदगी को नहीं बल्कि बागियों की जिंदगी को चरितार्थ करती है. इन फ़िल्मों में उन तमाम परिस्थितियों को दर्शाया गया है, जिनकी वजह से आम व्यक्ति यह रास्ता इख्तियार करता है. उम्मीदन इस लिहाज से पान सिंह तोमर की कहानी हिंदी सिनेमा की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में से एक होगी.
चूंकि फ़िल्म के निर्देशक तिग्मांशु की पूरी कोशिश रही है कि वे बागियों की जिंदगी को सही रूप से परदे पर चरितार्थ कर सकें. बैंडिट क्वीन जैसी संवेदनशील फ़िल्म निर्माण के दौरान व पान सिंह पर रिसर्च कार्य के दौरान ही तिग्मांशु इस बात से अवगत हो गये थे कि चंबल के बागी घोड़े पर नहीं चलते. वे पैदल चल कर अपनी मंजिल तय करते हैं. तिग्मांशु ने इन बारीकियों का पूरा ध्यान रखा है. शायद यही वजह है कि इरफ़ान चाहते हैं कि वे इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग चंबल के बागियों के समूह के साथ भी करें. चूंकि हिंदी सिनेमा ने जिस तरह एक डाकू की छवि लोगों के जेहन में बिठायी है.
वह या तो गब्बर सिंह की है, जो सिर्फ़ लोगों पर जुल्म ढाता है या फ़िर उस डाकू की छवि जो गांव को लूट कर ऐश मनाता है. उसकी लंबी मूंछ होती हैं और वे प्राय: काले रंग के कपड़े पहनते हैं और उनका मन भी उनके कपड़े के काले रंग की तरह खूंखार होता है. दरअसल, अपने ऐशो आराम, उल्लास व लार्जर दैन लाइफ़ जिंदगी जीनेवाले ये डाकू फ़िल्मी डाकू होते हैं. वास्तविक जिंदगी में झांकें तो मुफ़लिसी की जिंदगी में गुजर बसर कर रहे इन बागियों की असल जिंदगी व उनके दर्द का एहसास होगा.

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