20120330

निदर्ेशकों की मिट्टी बिहार-झारखंड

निदर्ेशकों की मिट्टी बिहार-झारखंड
गीताजंलि सिन्हा की फिल्म ये खुला आसमां कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में सराही जा चुकी है. शिवाजी चंद्रभूषण की फिल्म द अनटोल्ड स्टोरी इस वर्ष होनेवाले कान फिल्मोत्सव के लाएटाइलर के 15 प्रोजेक्ट में चयन किया गया है. (पूरे विश्व से केवल 15 कहानियों का ही चयन होता है इस श्रेणी में).चंद्रभूषण की यह फिल्म पहली ऐसी फिल्म होगी जो इंडो-फ्रेंच प्रोजेक्ट होगी. जल्द ही विकास मिश्र झारखंड पर आधारित विषय पर चौरंगा नामक फिल्म बनाने जा रहे हैं. उनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म डांस ऑफ गणेशा भी अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में सराही जा चुकी है. आमिर, नो कन किल्ड जेसिका की कामयाबी के बाद अब निदर्ेशक राजकुमार गुप्ता फिल्म घनचक्कर बनाने की तैयारी में जुट चुके हैं. इम्तियाज अली इंडस्ट्री के भी रॉकस्टार बन चुके हैं. ये सभी निदर्ेशक अलग अलग तरह की सोच रखते हैं. अलग विधाओं में फिल्में बना रहे हैं. लेकिन फिर भी इन्हें एक बात है जो जोड़ती है. वह है इनकी जड़ें. दरअसल, यह सभी निदर्ेशक बिहार-झारखंड से संबंध रखते हैं. गीतांजलि पटना से हैं. चंद्रभूषण हजारीबाग से हैं. विकास मिश्र भी और राजकुमार गुप्ता भी. इम्तियाज जमशेदपुर से हैं. प्रकाश झा बिहार की जमीं से शुरुआती निदर्ेशकों में से एक हैंये सभी अपने अपने क्षेत्रों में अलग तरीके से अपनी पहचान स्थापित कर रहे हैं और साथ ही अपने राज्यों की पहचान भी. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म जो डूबा सो पार के निदर्ेशक प्रवीण कुमार व गांधी टू हिटलर के निदर्ेशक राकेश रंजन भी बिहार से ही संबंध रखते हैं. निदर्ेशकों की इस लंबी सूचि देख कर इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार-झारखंड की मिट्टी निदर्ेशकों की फौज तैयार कर रही है. भले ही वर्तमान में सिनेमा की दुनिया में बिहार या झारखंड से अभिनेता व अभिनेत्रियां कम आ रहे हों. लेकिन निदर्ेशकों की संख्या लगातार बढ़ रही है. और यह सभी निदर्ेशक अलग तरह की सोच के साथ अपनी फिल्में बना रहे हैं. कोई भी व्यक्ति निदर्ेशक सिर्फ और सिर्फ तभी बन सकता है, जब उसके पास अपनी स्वतंत्र सोच हो और वह उसे दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की हिम्मत रखता है. बिहार व झारखंड के लोगों व उनकी मिट्टी की यही खूबी है. वे देश दुनिया, राजनीति, समाज से सरोकार रखते हैं. यही वजह है कि बौध्दिक स्तर पर उनकी सोच स्तरीय होती है और इसी वजह से वह फिल्में बना पाने में कामयाब होते हैं. साथ ही उनमें अपनी सोच को प्रस्तुत करने का अपना एक नजरिया होता है. जो उनकी निदर्ेशन को और पुख्ता व अलग बनाती है. दरअसल, ये नाम व इनके काम उन तमाम लोगों के लिए करारा जवाब है, जो हमेशा बिहार व झारखंड के लोगों को बेवकूफों की जमात मानते हैं. जबकि आप देखें तो मुख्य धारा की फिल्मों में जहां इम्तियाज, राजकुमार गुप्ता जैसे लोगों ने खुद को स्थापित कर लिया है. वही समांतर सिनेमा व लीक से हट कर फिल्में बनाने की श्रेणी में गीतांजलि, चंद्रभूषण व विकास मिश्र जैसे निदर्ेशकों का भी नाम शामिल है. इससे साफ जाहिर होता है कि बिहार झारखंड के लोगों के पास अपनी मौलिक सोच है, जिसका सही इस्तेमाल कर वह खुद को लगातार साबित कर रहे हैं.



20120329

अभिनेत्री-अभिनेत्री आमने-सामने

मधुर भंडारकर की राजनीति पर आधारित फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन ने काम करने के लिए हामी भर दी है. खबर है कि इस फिल्म की कहानी दो महिला राजनीतज्ञों पर होगी. और दो महत्वपूर्ण महिला किरदार होंगी अभिनेत्री विद्या बालन और प्रियंका चोपड़ा. वाकई, अगर मधुर इन दोनों अभिनेत्रियों को अपने इस प्रोजेक्ट के लिए राजी कर लेते हैं तो यह बेहतरीन फिल्म होगी.वर्तमान में फिलहाल यही दो अभिनेत्रियां हैं, जो विभिन्न किरदारों को निभा रही हैं और वाकई अपने अभिनय क्षमता का प्रमाण दे रही हैं. ऐसे में अगर मधुर भंडारकर इन दोनों ही अभिनेत्री को आमने सामने लाते हैं तो यह फिल्म दिलचस्प होगी. गौर करें, तो प्रियंका चोपड़ा ही वह पहली अभिनेत्री हैं, जिन्होंने फिल्म फैशन से कई बंदिशें तोड़ीं व महिला प्रधान फिल्मों की दोबारा वापसी हुई. हालांकि विद्या बालन की फिल्में द डर्टी पिक्चर और कहानी की सफलता के बाद वे शीर्ष पर हैं. लेकिन प्रियंका चोपड़ा की क्षमता को भी कमतर नहीं आंका जा सकता. उन्होंने सात खून माफ, कमीने, जैसी फिल्मों में खुद को साबित किया है. ऐसे में अगर मधुर अपनी सोच से इन दो अभिनेत्रियों को बिल्कुल अलग अवतार व अलग तेवर के सामने प्रस्तुत करते हैं तो यह उनके लिए चुनौती होगी. लेकिन उतना ही रोमांच करनेवाला भी अनुभव होगा. दरअसल, हिंदी फिल्मों में जब भी ऐसे संयोग बने हैं, जब दो भावपूर्ण व सशक्त अभिनेत्री को किसी फिल्म में आमने सामने प्रस्तुत किया गया है. वह फिल्म दिलचस्प बनी है. लोगों ने उन्हें पसंद किया है. फिर वह बिमल रॉय का देवदास हो या फिर संजय लीला भंसाली का आधुनिक देवदास. सुचित्रा सेन, बैजयंतीमाला, ऐश्वर्य-माधुरी दीक्षित जैसी अभिनेत्रियों ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है. महेश भट्ट की फिल्म अर्थ में जितना ध्यान शबाना आजिमी खींचती हैं उतना ही स्मिता पाटिल भी.फिल्म फायर में नंदिता दास व शबाना आजिमी ने बेहतरीन अभिनय किया है. राजकुमार गुप्ता की फिल्म नो वन किल्ड जेसिका में भी उन्होंने रानी मुखर्जी व विद्या बालन दो बेहतरीन अभिनेत्रियों को एक ही फ्रेम में लाया. और फिल्म में जितनी चर्चा रानी के किरदार की हुई. उतनी ही कामयाबी विद्या के सबरीना किरदार को भी मिली. निश्चित तौर पर ऐसी फिल्में करते वक्त अभिनेत्रियां इस लिहाज से भी अधिक मेहनत करती होंगी कि उन्हें अपने सामने खड़ी अभिनेत्री से श्रेष्ठ करना है. ऐसे माहौल में चुनौती की गुंजाईश अधिक होती है. जाहिर है वे मेहनत करेंगी और संभव कोशिश करेंगी कि वह खुद को प्रूव कर सकें. ऐसे में उनका श्रेष्ठ अभिनय निखर कर सामने आता है और वह साफतौर पर परदे पर भी नजर आता है. लेकिन वर्तमान दौर में ऐसी कहानियां गढ़नेवाले कम ही निदर्ेशक हैं जो दो अभिनेत्रियों को केंद्र में रख कर फिल्में बना सकें. हालांकि इन दिनों आपको एक ही फिल्म में कई अभिनेत्रियां नजर आ जायेंगी. हाउसफुल 2 में चार अभिनेत्रियां हैं. लेकिन इन मल्टीस्टारर फिल्मों में अभिनेत्रियां केवल पाउडर थोपी हुई गुड़िया नजर आती हैं, या फिर मस्ती करती दिखाई देती हैं. लेकिन इन फिल्मों में महिला अभिनेत्रियों की अभिनत क्षमता निखर कर सामने नहीं आ पाती.

सुवरीन के किरदार में स्पार्क है' : स्मृति कालरा

कभी दिल्ली की लोकप्रिय आरजे रह चुकी हैं. वह ऐक्टंग नहीं करना चाहती थीं लेकिन जब इस क्षेत्र में आयीं तो उन्हें ऐक्टिंग से प्यार हो गया.
स्मृति, लीड किरदार निभाने के बाद किसी भी कलाकार की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह दूसरे शो में भी कुछ वैसी ही लोकप्रियता बरकरार रखने में कामयाब हो. आपकी इस बारे में क्या राय है ?
दरअसल, मैं वास्तविक जिंदगी में बहुत मस्ती करने वाली और टेंशन फ्री रहने वाली लड़की हूं. इसलिए लोकप्रियता बरकरार रखने की जिम्मेदारी जैसे शब्द का इस्तेमाल मेरे लिए थोड़ा भारी भरकम होगा. लेकिन यह कोशिश जरूरी होगी कि जिस तरह मैं दर्शकों के सामने नये अवतार में हूं, वे मुझे सिम्मी से बिल्कुल विपरीत इस किरदार में भी पसंद करें.
करोलबाग के बाद आप बिल्कुल गायब हो गयीं. लंबा ब्रेक लिया आपने ? कोई खास वजह ?
नहीं, कोई खास वजह नहीं थी. इस दौरान भी मेरे पास कई ऑफ़र आये. लेकिन मैंने तय कर रखा था कि मैं सिम्मी की तरह ही फ़िर से कोई किरदार नहीं निभाऊंगी. मैंने ब्रेक लिया, क्योंकि मुझे आराम चाहिए था. साथ ही मैंने शो के दौरान, जो वजन बढ़ा लिया था, उसे कम करना था. इस ब्रेक के दौरान पहले तो मैंने खूब सैर की दोस्तों और परिवार के साथ. फ़िर मैंने अपना वजन घटाना शुरू किया.
सुवरीन के लिए हां कहने की कोई खास वजह ?
इस शो की स्क्रिप्ट बेहद इंस्पायरिंग, यूथ ओरियेंटेड थी. ऊर्जा से भरपूर. मुझे अपने किरदार में एक स्पार्क नजर आया. मुझे लगा कि दर्शकों को यह पसंद आयेगा. इसलिए, मैंने हां कह दिया.
किस तरह तैयारी की ?
कोई खास तैयारी नहीं की, हां अपने कॉलेज के दोस्तों की बातें याद की. किस तरह वे बातें करते थे. उनके अंदाज क्या होते थे.
स्मृति आपका नया अवतार टॉक ऑफ़ द टाउन है. आपने बिल्कुल चौंका दिया है. कैसे किया ये आपने ?
जी हां, बिल्कुल मैंने लगभग 12-15 किलो बढ़ा लिया था. वजन बढ़ाना तो आसान होता है, जो कि मैंने शो के लिए बढ़ाया था. लेकिन कम करते वक्त बहुत परेशानी हुई. मैंने सही तरीके से वर्कआउट किया. बैलेंस्ड डायट लिया.
आप खुद दिल्ली से संबंध रखती हैं. करोलबाग का भी सेटअप वहीं था. लेकिन अब आप मुंबई आ चुकी हैं इस शो के लिए. कैसा अनुभव है ये ?
अच्छा लग रहा है, नये लोग मिल रहे हैं. यहां की सबसे अच्छी बात है कि आसानी से ऑटो मिल जाते हैं. कहीं भी आने जाने में परेशानी नहीं होती. लेकिन खाने के मामले में साडी दिल्ली की बात अलग है. वहां का खाना मिस करती हूं.
मां से किस तरह की हिदायतें मिली हैं नये शहर के लिए ?
मां जानती हैं कि मैं अपना ख्याल अच्छे से रखती हूं. बस उन्होंने इतना ही कहा है कि कोई बुरी आदत मत लगाना. स्मोकिंग वगैरह की.( हंसते हुए )
करोलबाग में आपके साथ काम कर रहे सभी कलाकार फ़िलवक्त किसी न किसी शो में व्यस्त हैं. उन सभी से संपर्क में हैं ? सुरविन गुग्गल के बारे में सबकी क्या प्रतिक्रिया है.
जी हां बिल्कुल सभी के टच में हूं. सुवरीन गुग्गल का पहला ऐपसोड देखने के बाद सभी ने मुझे मेसेज किया था. बधाइयां दी थी. मैंने सरगुन का शो फ़ुलवा देखा. मुझे अच्छा लगा. शरगुन अच्छी अदाकारा हैं. नील भी अच्छे दोस्त हैं और उन्होंने अच्छा काम किया है गुलाल में.
इनके अलावा भल्ला जी यानी करोलबाग के भल्ला जी से भी बातें होती रहती हैं. अल्का अमीन जी ने भी मुझे मेसेज किया कि तुम अच्छी अदाकारा हो. अल्का जी काफ़ी सीनियर एक्ट्रेस हैं तो उनकी सराहना अच्छी लगती है.
सुवरीन और सिम्मी के किरदार में कुछ समानताएं ?
हां, बस इतनी कि दोनों ही किरदारों में सहनशीलता बहुत है और वास्तविक जिंदगी में मुझमें भी सहनशीलता बहुत अधिक है.
छोटा परदा धीरे धीरे बोल्ड होता जा रहा है. आपकी इस बारे में क्या राय है, क्या इसे अपनी सीमाएं तोड़नी चाहिए. क्या आपने अपनी कुछ सीमाएं तय की हैं.
आपकी प्रोफ़ेशनल जिंदगी में आपका परिवार कितना सम्मिलित रहता है ?
यह सच है कि छोटे परदे के पहले दर्शक परिवार के ही लोग हैं. इसलिए, हमें इन बातों का ख्याल रखना होगा कि हम किस वर्ग के लिए वह शो बना रहे हैं. दूसरी बात है प्रस्तुतिकरण की. आप कुछ भी दिखाएं वह ऐसे प्रेजेंटेशन के साथ दिखाएं कि बुरा नजर न आये. तो, इसमें बुराई नहीं है.
फ़िलहाल कोई मापदंड तय नहीं किया है मैंने. जहां तक बात है मेरे परिवार की, मेरी प्रोफ़ेशनल जिंदगी से जुड़ने की, तो उनका बस यही कहना होता है कि तुम्हें जिस काम से संतुष्टि मिले, वही काम करो.

हीरे की चमक के पीछे का सच ब्लड मनी



विकीपीडिया पर जब आप इस अभिनेता का नाम सर्च करेंगे, तो इनके बारे में आपको जानकारी मिलेगी कि इनका जन्म वर्ष 1983 है और ये वर्ष 1987 से ही फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐक्टिव हैं. यानी महज पांच साल की उम्र से ही फ़िल्मों में काम कर रहे हैं. जी हां, यहां बात हो रही है कुणाल खेमु की, जिन्होंने बतौर बाल कलाकर अभिनय की शुरुआत की और भट्ट कैंप के साथ कई बेहतरीन फ़िल्में की हैं.
अब फ़िल्म ब्लड मनी से एक बार फ़िर कुणाल खेमु की भट्ट कैंप में वापसी हो रही है. पेश है अनुप्रिया अनंत की कुणाल से हुई बातचीत के मुख्य अंश..
कुणाल ने भट्ट कैंप के साथ कई फ़िल्मों में काम किया है, क्योंकि उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही अभिनय की शुरुआत कर दी थी. इंडस्ट्री में उन्हें 25 साल हो चुके हैं. लंबे अरसे के बाद वह ब्लड मनी फ़िल्म में मुख्य किरदार की भूमिका में दिखेंगे. कुणाल का मानना है कि डायमंड माफ़िया पूरी दुनिया में हैं और यह फ़िल्म उनकी हकीकत दिखायेगी. साथ ही यह फ़िल्म ये भी दर्शायेगी कि जो हीरा चमकता है, वह वाकई खरा ही हो, ये जरूरी नहीं.
लंबे अरसे के बाद आप मुख्य किरदार में नजर आ रहे हैं. इसकी कोई खास वजह कि आप पिछले कुछ सालों में केवल मल्टी स्टारर फ़िल्मों में नजर आये ?
नहीं, कोई खास वजह नहीं रही. हां, क्योंकि मैं काफ़ी अरसे से ऐक्टंग कर रहा हूं. कलयुग जैसी फ़िल्म करने के बाद मुझे ऐसी स्क्रिप्ट का इंतजार था, जो मुझे मुख्य किरदार के रूप में एक बार फ़िर सिल्वर स्क्रीन पर वापस लेकर आये. फ़िल्म ब्लड मनी की स्क्रिप्ट कुछ ऐसी ही है. मैंने इस बीच जिस भी तरह के किरदार किये, उनमें मैं अपने आपको पूरी तरह साबित नहीं कर पाया. ऐसे में यह जरूरी था कि मैं किसी दमदार स्टोरी से वापसी करूं.
भट्ट कैंप में आपकी वापसी हो रही है ?
पता नहीं, लोग इसे मेरी वापसी क्यों मान रहे हैं. मैं कभी इस परिवार से अलग ही नहीं हुआ था. भट्ट कैंप के साथ मैंने हमेशा अच्छी फ़िल्में की हैं. भट्ट कैंप ने ही तो मुझे कलयुग और जख्म जैसी फ़िल्मों में अहम किरदार दिये हैं. मुझे याद है कलयुग के बाद भट्ट साहब ने खुद कहा था कि कुणाल तुम अच्छे एक्टर हो और हमेशा अच्छा काम करते रहो.
आपकी तुलना इमरान हाशमी से हो रही है ?
हां, क्योंकि इमरान को भी भट्ट कैंप ने निखारा है और अब मैं भट्ट कैंप की कई फ़िल्मों में काम कर रहा हूं. लेकिन मैं दोबारा इस बात को दोहराना चाहूंगा कि मैं भट्ट कैंप से अलग नहीं हुआ था. ( हंसते हुए ) इमरान तो मेरे बाद आये हैं इंडस्ट्री में.
ब्लड मनी के बारे में बताएं ?
इस फ़िल्म में मैंने मुंबई के मिडिल क्लास लड़के का किरदार निभाया है, जो सपने देखता है. अपने प्यार को पाने के लिए अपने सपने पूरा करना चाहता है. इसलिए वह केप टाउन जाता है और हाइ प्रोफ़ाइल डायमंड की कंपनी में नौकरी करता है. उसे लगता है कि उसकी ईमानदारी से वह कामयाब हो जायेगा. लेकिन वह डायमंड माफ़िया के चंगुल में फ़ंस जाता है. यहीं से शुरुआत होती है उसके असली संघर्ष की.
तो, ब्लड मनी डायमंड माफ़िया पर आधारित कहानी है. लेकिन, फ़िल्म के पोस्टर्स तो कुछ और ही कहानी बयां करते हैं? क्या आपको लगता है कि फ़िल्मों की पब्लिसिटी के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाना जायज है ?
जी हां, यह फ़िल्म डायमंड माफ़िया से जुड़े कई राज खोलेगी. रही बात पोस्टर और पब्लिसिटी की तो मैं बस यही कहूंगा कि जिस दृश्य की आप बात कर रही हैं, वह फ़िल्म का अहम हिस्सा है. आप अगर माफ़िया पर आधारित वास्तविक चीजें दिखाना चाहते हैं, तो वहां भजन तो नहीं दिखा सकते.
क्या ऐसी फ़िल्में बनाने में रिस्क की गुंजाइश बढ़ जाती है?
हां, बिल्कुल. मैं इस फ़िल्म के निर्माता व निर्देशक को हैट्स ऑफ़ करता हूं. हमें भी परेशानी हुई. हम बेल्जियम में शूट करना चाहते थे, जहां डायमंड माफ़ियाओं का गैंग है, लेकिन कुछ परेशानियों के चलते हम वहां शूटिंग नहीं कर पाये.
को-स्टार अमृता पुरी के साथ कैसी केमेस्ट्री है ?
शानदार. नये लोगों के साथ काम करने में सबसे ज्यादा मजा इसलिए आता है, क्योंकि वे बेहद ऊर्जा के साथ काम करते हैं, और अमृता तो थियेटर से हैं.
आपने फ़िल्म जख्म में अजय के बचपन की भूमिका निभाई थी फ़िर गोलमाल में साथ काम किया. कैसा रहा अनुभव ?
अजय बेहतरीन कलाकार हैं. उनके साथ हमेशा कुछ न कुछ सीखने का मौका मिलता है. खास बात यह है कि वह अपने जूनियर्स के साथ दोस्तों की तरह बर्ताव करते हैं.
ब्लड मनी को लेकर बॉक्स ऑफ़िस का कितना दबाव है. चूंकि आप इसमें लीड किरदार में हैं ?
मुझ पर कोई दबाव नहीं है. मुझे विश्वास है कि मैंने अच्छा काम किया है और दर्शक मुझे नोटिस करेंगे.

20120327

हिंदी फिल्मों में रवि किशन


एजेंट विनोद के शुरुआती कुछ दृश्यों में ही एक रॉ एजेंट राजन नजर आता है. कुछेक दृश्यों के बाद ही फिल्म में उनका किरदार खत्म हो जाता है. लेकिन फिर भी फिल्म के बारे में सोचते हुए बार बार राजन का किरदार याद आता है. क्योंकि भले ही वह किरदार छोटा था. लेकिन प्रभावशाली था. कुछ इसी तरह फिल्म 4084 में चार पारंगत कलाकार अतुल कुलकर्णी, नसीरुद्दीन शाह व केके मेनन के साथ जब यही कलाकार नजर आते हैं. तो वह कभी भी यह एहसास नहीं होने देते कि वह हिंदी सिनेमा का नहीं, बल्कि भोजपुरी फिल्मों का सुपरस्टार है. वह उतने ही सशक्त व प्रभावशाली किरदार में नजर आते हैं. यहां बात हो रही है रवि किशन की. रवि किशन भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार हैं. लेकिन उनकी वास्तविक अभिनय क्षमता का प्रमाण मिलता है हिंदी फिल्मों में. यहां रवि किशन की तारीफ करने का बिल्कुल इरादा नहीं. लेकिन यह गौरतलब है, रवि किशन हिंदी फिल्मों में लगातार बेहतर अभिनय कर रहे हैं. वे विभिन्न किरदारों में नजर आ रहे हैं. 4084 में नसीर साहब के साथ उनके अधिकतर दृश्य फिल्माये गये हैं, जिनमें वह बिल्कुल नर्वस नजर नहीं आते. फिल्म तनु वेड्स मनु में भी वह अपने एक मुक्के से ही अपने किरदार को स्थापित कर जाते हैं. मणिरत्नम की फिल्म रावण में भी मुख्य किरदारों से अधिक सशक्त किरदार उनका ही नजर आता है. आप गौर करें तो श्याम बेनेगल जैसे निदर्ेशक ने हाल की दोनों ही फिल्मों में उन्हें अच्छा किरदार दिया.वेलकम टू सज्जनपुर के बाद वेलडन अब्बा में भी उन्हें दोहराया. और जब कोई निदर्ेशक किसी कलाकार को दोहराता है तो इसलिए क्योंकि उन्हें उन कलाकारों की क्षमता का एहसास हो जाता है. इससे साफ जाहिर होता है कि रवि किशन में वह क्षमता है कि वह हिंदी फिल्मों में अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं और इन दिनों कई फिल्मों में उन्हें मौके मिल रहे हैं. हम उन्हें केवल फीलर के रूप में नहीं देखते. वे अपनी भाव भंगिमा व आंखों के अंदाज से ही बहुत कुछ बयां कर जाते हैं जो दर्शकों को आकर्षित करता है. लेकिन उसी रवि किशन को जब हम भोजपुरी फिल्मों में देखते हैं तो वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ते. वे उनमें टाइपकास्ट नजर आते हैं. उनमें विभिन्नता नजर नहीं आती. इसकी वजह यह है कि उन्हें शायद भोजपुरी सिनेमा में न तो वैसे किरदार मिलते हैं और न ही वैसे निदर्ेशक जो उनके दमदार अभिनय को निचोड़ कर निकाल सकें.भले ही रवि हिंदी फिल्मों में मुख्य किरदार में न हों. लेकिन उनकी 50 भोजपुरी मुख्य अभिनय वाली फिल्मों पर हिंदी फिल्मों में निभाये गये उनके विभिन्न किरदार अधिक प्रभावशाली हैं. दरअसल, भोजपुरी सिनेमा की यह विडंबना है कि वह कलाकारों की प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा. अबतक भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों ने उनकी ऊर्जा व उनकी क्षमता का सही इस्तेमाल नहीं किया है.भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों को यह सोचना होगा कि उनके पास एक बेहतरीन कलाकार है. भोजपुरी जिस प्रदेश की भाषा है उसका इतिहास विस्तृत है और रवि को ध्यान में रखते हुए वहां कई बायोपिक फिल्में बनाई जा सकती हैं.अगर ऐसे प्रयोग हो तो भोजपुरी सिनेमा का स्तर भी उठेगा.

हिंदी फिल्मों में रवि किशन एजेंट विनोद के शुरुआती कुछ दृश्यों में ही एक रॉ एजेंट राजन नजर आता है. कुछेक दृश्यों के बाद ही फिल्म में उनका किरदार खत्म हो जाता है. लेकिन फिर भी फिल्म के बारे में सोचते हुए बार बार राजन का किरदार याद आता है. क्योंकि भले ही वह किरदार छोटा था. लेकिन प्रभावशाली था. कुछ इसी तरह फिल्म 4084 में चार पारंगत कलाकार अतुल कुलकर्णी, नसीरुद्दीन शाह व केके मेनन के साथ जब यही कलाकार नजर आते हैं. तो वह कभी भी यह एहसास नहीं होने देते कि वह हिंदी सिनेमा का नहीं, बल्कि भोजपुरी फिल्मों का सुपरस्टार है. वह उतने ही सशक्त व प्रभावशाली किरदार में नजर आते हैं. यहां बात हो रही है रवि किशन की. रवि किशन भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार हैं. लेकिन उनकी वास्तविक अभिनय क्षमता का प्रमाण मिलता है हिंदी फिल्मों में. यहां रवि किशन की तारीफ करने का बिल्कुल इरादा नहीं. लेकिन यह गौरतलब है, रवि किशन हिंदी फिल्मों में लगातार बेहतर अभिनय कर रहे हैं. वे विभिन्न किरदारों में नजर आ रहे हैं. 4084 में नसीर साहब के साथ उनके अधिकतर दृश्य फिल्माये गये हैं, जिनमें वह बिल्कुल नर्वस नजर नहीं आते. फिल्म तनु वेड्स मनु में भी वह अपने एक मुक्के से ही अपने किरदार को स्थापित कर जाते हैं. मणिरत्नम की फिल्म रावण में भी मुख्य किरदारों से अधिक सशक्त किरदार उनका ही नजर आता है. आप गौर करें तो श्याम बेनेगल जैसे निदर्ेशक ने हाल की दोनों ही फिल्मों में उन्हें अच्छा किरदार दिया.वेलकम टू सज्जनपुर के बाद वेलडन अब्बा में भी उन्हें दोहराया. और जब कोई निदर्ेशक किसी कलाकार को दोहराता है तो इसलिए क्योंकि उन्हें उन कलाकारों की क्षमता का एहसास हो जाता है. इससे साफ जाहिर होता है कि रवि किशन में वह क्षमता है कि वह हिंदी फिल्मों में अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं और इन दिनों कई फिल्मों में उन्हें मौके मिल रहे हैं. हम उन्हें केवल फीलर के रूप में नहीं देखते. वे अपनी भाव भंगिमा व आंखों के अंदाज से ही बहुत कुछ बयां कर जाते हैं जो दर्शकों को आकर्षित करता है. लेकिन उसी रवि किशन को जब हम भोजपुरी फिल्मों में देखते हैं तो वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ते. वे उनमें टाइपकास्ट नजर आते हैं. उनमें विभिन्नता नजर नहीं आती. इसकी वजह यह है कि उन्हें शायद भोजपुरी सिनेमा में न तो वैसे किरदार मिलते हैं और न ही वैसे निदर्ेशक जो उनके दमदार अभिनय को निचोड़ कर निकाल सकें.भले ही रवि हिंदी फिल्मों में मुख्य किरदार में न हों. लेकिन उनकी 50 भोजपुरी मुख्य अभिनय वाली फिल्मों पर हिंदी फिल्मों में निभाये गये उनके विभिन्न किरदार अधिक प्रभावशाली हैं. दरअसल, भोजपुरी सिनेमा की यह विडंबना है कि वह कलाकारों की प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा. अबतक भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों ने उनकी ऊर्जा व उनकी क्षमता का सही इस्तेमाल नहीं किया है.भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों को यह सोचना होगा कि उनके पास एक बेहतरीन कलाकार है. भोजपुरी जिस प्रदेश की भाषा है उसका इतिहास विस्तृत है और रवि को ध्यान में रखते हुए वहां कई बायोपिक फिल्में बनाई जा सकती हैं.अगर ऐसे प्रयोग हो तो भोजपुरी सिनेमा का स्तर भी उठेगा.


एजेंट विनोद के शुरुआती कुछ दृश्यों में ही एक रॉ एजेंट राजन नजर आता है. कुछेक दृश्यों के बाद ही फिल्म में उनका किरदार खत्म हो जाता है. लेकिन फिर भी फिल्म के बारे में सोचते हुए बार बार राजन का किरदार याद आता है. क्योंकि भले ही वह किरदार छोटा था. लेकिन प्रभावशाली था. कुछ इसी तरह फिल्म 4084 में चार पारंगत कलाकार अतुल कुलकर्णी, नसीरुद्दीन शाह व केके मेनन के साथ जब यही कलाकार नजर आते हैं. तो वह कभी भी यह एहसास नहीं होने देते कि वह हिंदी सिनेमा का नहीं, बल्कि भोजपुरी फिल्मों का सुपरस्टार है. वह उतने ही सशक्त व प्रभावशाली किरदार में नजर आते हैं. यहां बात हो रही है रवि किशन की. रवि किशन भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार हैं. लेकिन उनकी वास्तविक अभिनय क्षमता का प्रमाण मिलता है हिंदी फिल्मों में. यहां रवि किशन की तारीफ करने का बिल्कुल इरादा नहीं. लेकिन यह गौरतलब है, रवि किशन हिंदी फिल्मों में लगातार बेहतर अभिनय कर रहे हैं. वे विभिन्न किरदारों में नजर आ रहे हैं. 4084 में नसीर साहब के साथ उनके अधिकतर दृश्य फिल्माये गये हैं, जिनमें वह बिल्कुल नर्वस नजर नहीं आते. फिल्म तनु वेड्स मनु में भी वह अपने एक मुक्के से ही अपने किरदार को स्थापित कर जाते हैं. मणिरत्नम की फिल्म रावण में भी मुख्य किरदारों से अधिक सशक्त किरदार उनका ही नजर आता है. आप गौर करें तो श्याम बेनेगल जैसे निदर्ेशक ने हाल की दोनों ही फिल्मों में उन्हें अच्छा किरदार दिया.वेलकम टू सज्जनपुर के बाद वेलडन अब्बा में भी उन्हें दोहराया. और जब कोई निदर्ेशक किसी कलाकार को दोहराता है तो इसलिए क्योंकि उन्हें उन कलाकारों की क्षमता का एहसास हो जाता है. इससे साफ जाहिर होता है कि रवि किशन में वह क्षमता है कि वह हिंदी फिल्मों में अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं और इन दिनों कई फिल्मों में उन्हें मौके मिल रहे हैं. हम उन्हें केवल फीलर के रूप में नहीं देखते. वे अपनी भाव भंगिमा व आंखों के अंदाज से ही बहुत कुछ बयां कर जाते हैं जो दर्शकों को आकर्षित करता है. लेकिन उसी रवि किशन को जब हम भोजपुरी फिल्मों में देखते हैं तो वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ते. वे उनमें टाइपकास्ट नजर आते हैं. उनमें विभिन्नता नजर नहीं आती. इसकी वजह यह है कि उन्हें शायद भोजपुरी सिनेमा में न तो वैसे किरदार मिलते हैं और न ही वैसे निदर्ेशक जो उनके दमदार अभिनय को निचोड़ कर निकाल सकें.भले ही रवि हिंदी फिल्मों में मुख्य किरदार में न हों. लेकिन उनकी 50 भोजपुरी मुख्य अभिनय वाली फिल्मों पर हिंदी फिल्मों में निभाये गये उनके विभिन्न किरदार अधिक प्रभावशाली हैं. दरअसल, भोजपुरी सिनेमा की यह विडंबना है कि वह कलाकारों की प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा. अबतक भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों ने उनकी ऊर्जा व उनकी क्षमता का सही इस्तेमाल नहीं किया है.भोजपुरी फिल्मों के निदर्ेशकों को यह सोचना होगा कि उनके पास एक बेहतरीन कलाकार है. भोजपुरी जिस प्रदेश की भाषा है उसका इतिहास विस्तृत है और रवि को ध्यान में रखते हुए वहां कई बायोपिक फिल्में बनाई जा सकती हैं.अगर ऐसे प्रयोग हो तो भोजपुरी सिनेमा का स्तर भी उठेगा.

कटिंगदचाय.कॉम की चुस्की

दादा साहेब फाल्के ही हिंदी सिनेमा के जनक हैं. लेकिन यह अफसोसजनक बात है कि हममे से कई लोग जो सिनेमा के क्षेत्र से संबंध रखते हैं. अब तक हमने राजा हरिशचंद्र, यानी भारत की पहली फिल्म भी नहीं देखी. इसकी वजह यह है कि अब भी भारत में हिंदी फिल्मों के संरक्षण को लेकर बहुत सजगता नहीं है. इस पर हमने पहले भी कई बार चर्चा की है. लेकिन हिंदी फिल्मों के कुछ फैन ऐसे भी हैं, जो अपनी दीवानगी की हद तक जाकर भी उन फिल्मों को सहेजने का काम कर रहे हैं. जी हां, गाजियाबाद के ब्लॉगर सौम्यादीप चौधरी फिल्मों के ऐसे ही प्रशंसकों में से एक हैं, जो अपनी वेबसाइट कटिंगदचाय.डॉम के माध्यम से उन हिंदी फिल्मों को सहेजने का काम कर रहे हैं, जिनका नाम भी शायद हमने न सुना होगा. शायद सौम्यादीप ने वेबसाइट का नाम भी इसी ख्याल से रखा है कि चाय पुरानी चीज होते हुए भी हमेशा ताजगी का एहसास कराती है. लोग इसकी चुस्की आज भी लेना पसंद करते हैं. कुछ इसी तरह पुरानी फिल्में भी पुरानी होकर नयी ही हैं. हिंदी सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होने पर इससे बेहतरीन तोहफा और क्या होगा कि अब यूटयूब पर सौम्यादीप की मदद पर हम सभी राजा हरिशचंद्र देख पायेंगे. जल्द ही इस वेबसाइट पर यह पूरी फिल्म अपलोड की जायेगी. 1944 में रिलीज हुई अशोक कुमार अभिनीत फिल्म किस्मत के प्रिंट शायद ही कहीं संरक्षित हों. लेकिन सौम्यादीप ने इसे भी ढूंढ निकाला है. आप खुद जब इसके साइट पर जायेंगे तो आप देखेंगे कि 1979 में किसी ब्रांड के लिए मॉडलिंग कर चुकीं रेखा की पुरानी तसवीर भी यहां उपलब्ध है. राजेश खन्ना जिस दौर में शूटिंग व शर्टिंग जैसे ब्रांड के लिए विज्ञापन किया करते थे. उस दौर की तसवीरें भी इस वेबसाइट पर मौजूद हैं. सौम्यादीप ने यूएस में स्थित दरअसल, यह सौम्यादीप की दीवानगी ही है. चूंकि कोई व्यक्ति जब दीवाना होता है, तभी वह इतना बेहतरीन काम कर सकता है.सौम्यादीप भी युवा हैं और एक युवा होने के नाते वे यह जिम्मेदारी समझते हैं कि आनेवाली पीढ़ी के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि हिंदी सिनेमा का इतिहास कितना विस्तृत और सुसंस्कृत था. वाकई, ऐसे दौर में जहां हिंदी फिल्मों को पॉपकॉर्न व कोक के साथ महज तीन घंटों के मनोरंजन का जरिया मानते हैं युवा. ऐसे में अगर सौम्यादीप जैसे युवा इस तरह अपनी सिनेमा की संस्कृति को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं तो यह काबिलेतारीफ है. साथ ही ऐसी कोशिशों से होगा यह कि हिंदी दर्शकों के लिए जहां फिल्में केवल मनोरंजन का जरिया हैं. वे फिल्म देखने की संस्कृति को भी समझ पायेंगे. खुद अमोल गुप्ते मानते हैं कि भारत में सिनेमा को कभी विषय के रूप में नहीं लिया गया. अगर सिनेमा भी पाठयक्रम का हिस्सा होती तो लोग इसे गंभीरता से लेते. हिंदी फिल्मों को गंभीरता से न लेने की यह भी वजह है कि वर्तमान में जैसी फिल्में बन रही हैं. कम ही फिल्में गंभीर होती हैं. और पुरानी क्लासिक फिल्में नयी पीढ़ी ने देखी ही नहीं है. सो, वे सिनेमा को समझ नहीं पाते. ऐसे में सौम्यादीप जैसे युवाओं की सख्त जरूरत है, जो जिम्मेदारी समझ कर हिंदी सिनेमा की धरोहर को सहेजने की कोशिश करें.

20120326

सीक्वल अभी बाकी है मेरे दोस्त



फिल्म ओम शांति ओम का यह संवाद बेहद लोकप्रिय है...कि यह तो बस ट्रेलर था. पूरी पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त. लेकिन वर्तमान में अगर फिल्मों के बदलते ट्रेंड की बात की जाये तो यह संवाद अब यूं सटीक बैठता है कि यह तो बस पहली फिल्म थी. इसके सीक्वल बनने तो बाकी है मेरे दोस्त. चूंकि कई हिंदी फिल्मों में इन दिनों कोई सटीक अंत नहीं होता. बल्कि उनमें उसके अगले सीक्वल बनने के संदेश दिये जाते हैं. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म एजेंट विनोद में किसी अंत तक पहुंचने के बाद जब तक दर्शक यह महसूस करें कि फिल्म खत्म हो चुकी है. अचानक उनमें सीक्वल के संकेत दे दिये जाते हैं. अंत के कुछ दृश्यों के माध्यम से. मतलब फिल्म के निदर्ेशक व निर्माता सीक्वल की गुंजाइश इसलिए रखते हैं कि अगर उनकी पहली कोशिश कामयाब हुई है तो वह इसी ब्रांड नेम के साथ आगे भी कारोबार कर सकते हैं. केवल एजेंट विनोद ही नहीं, हाल की कई फिल्मों में सीक्वल के संकेत मिलते हैं. फिल्म रा.वन के अंत में जीवन का बेटा प्रतीक कुछ प्रयोगात्मक चीजें बनाने की कोशिश करता है और दर्शकों को यह संकेत मिल जाता है कि रा.वन अगले सीक्वल की तैयारी में है. ठीक इसी तरह फिल्म डॉन2 में भी शाहरुख अंतिम दृश्यों में जता जाते हैं कि अभी डॉन कई और भी सीक्वल में नजर आयेगा. अमिताभ बच्चन की फिल्म बुङ्ढा होगा तेरा बाप में भी इसके संकेत मिले हैं. साहेब बीवी गैंगस्टर के सीक्वल बनने शुरू हो चुके हैं. डबल धमाल में भी लगातार ऐसे ही दृश्य दिखाये जाते रहे हैं. दरअसल, हिंदी फिल्मों में इन दिनों यह एक तरह से सबसे सुरक्षित तरीका हो चुका है कि हिट फिल्मों के सीक्वल बनाये जायें . चूंकि दर्शक जिन फिल्मों से जुड़ जाते हैं. उन फिल्मों के नाम ब्रांड बन जाते हैं और जब इनके सीक्वल बनाये जाते हैं तो निर्माताओं को वह नाम दोबारा लोगों के जेहन में बिठाने में मशक्कत नहीं करनी पड़ती. अगर पहले दिखाई गयी फिल्म दिलचस्प होगी तो वह दिलचस्पी सीक्वल में भी बरकरार रहती है. यही वजह है कि इन दिनों अधिकतर फिल्मों में ऐसी गुंजाईश छोड़ी जा रही है. जबकि पुरानी फिल्मों में गौर करें तो कभी ऐसे अंत नहीं हुआ करते थे. फिल्मों का अपना खास अंत होता था. या तो बुरा या अच्छा. लेकिन अब इनमें लगातार बदलाव होते जा रहे हैं. गौर करें तो यह ट्रेंड गोलमाल सीरिज की फिल्मों से तेजी बदला है. चूंकि गोलमाल हिट रहीं.रोहित शेट्टी ने अब तक गोलमाल के तीन सीक्वल बना लिये हैं और उन्होंने शुरुआती गोलमाल से ही संकेत देना शुरू कर दिया था कि इसके सीक्वल बनेंगे. हालांकि रामगोपाल वर्मा की फिल्म अज्ञात में संकेत दिये गये थे कि अगली कड़ी बन सकती है. अनुराग कश्यप की फिल्म उड़ान पहली ऐसी सीक्वल फिल्म होगी, जो दस सालों के बाद बनेगी. इसमें भी अनुराग एक प्रयोग कर रहे हैं. वे उड़ान के किरदारों को वास्तविक रूप से युवा होने के बाद ही इस फिल्म को आगे बढ़ायेंगे. निस्संदेह ऐसे प्रयोगों से साबित होता है कि सीक्वल में भी प्रयोग किये जा सकते हैं.बहरहाल, वर्तमान दौर को देखते हुए इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है, कि यह आनेवाले सालों में और लोकप्रिय होता जायेगा

20120322

फिल्मी सेट की अजीमोशान

दबंग की कामयाबी के बाद अब दबंग 2 बनने की तैयारी शुरू हो चुकी है. इस बार सलमान खान दबंग की कहानी कानपुर की पृष्ठभूमि पर गढ़ रहे हैं. लेकिन शूटिंग कानपुर में नहीं, बल्कि मुंबई में हो रही है. हिंदी सिनेमा जगत में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब किसी स्टूडियो को पूरी तरह किसी निर्माता ने बुक किया हो. जाहिर है, इस बार सलमान फिर से कुछ अनोखा करेंगे. हिंदी सिनेमा जगत में जितनी फिल्में बनती रही हैं, उतनी ही उसके सेट डिजाइनिंग को लेकर कीर्तिमान भी स्थापित होते रहे हैं. चूंकि फिल्मों में जितनी अहम कहानी है, उतनी ही अहमियत फिल्मों के सेट डिजाइन भी रखते हैं.


मुगलएआजम की शूटिंग के लिए जब के आसिफ को वास्तविक शीश महल में शूटिंग करने की इजाजत नहीं मिली तो उन्होंने अपने दम पर शीश महल का हूबहू सेट डिजाइन करवाया. और जब प्यार किया तो डरना क्या की शूटिंग पूरी की. उस दौर में सिर्फ इस गाने की शूटिंग में करोड़ों रुपये खर्च हुए थे. लेकिन फिर भी के आसिफ ने समझौता नहीं किया और शायद यही वजह है कि आज भी लोगों के जेहन में मुगलएआजम के वे भव्य सेट जिंदा हैं. दरअसल, किसी भी फिल्म की खूबसूरती उसके माहौल से ही बनती है. और माहौल संबंधित सेट से ही. और शायद यही वजह है कि हिंदी सिनेमा में ऐसे कई सृजनशील निदर्ेशक हैं, जिन्होंने अपनी फिल्मों में कहानी के साथ साथ सेट की भव्यता को भी कायम रखा और सेट डिजाइनिंग के माध्यम से भी फिल्मों को जीवंत, खूबसूरत बनाया.
ृसाफ जाहिर है कि फिल्मों को खूबसूरती प्रदान करने में सेट डिजाइनिंग की भी अहम भूमिकाएं हैं. तभी तो सेट डिजाइनिंग के आधार पर हिंदी सिनेमा ने कई रिकॉर्ड तोड़ डाले.
मुगलएआजम ः हिंदी सिनेमा का पहला भव्य सेट
हिंदी सिनेमा की पहली सबसे महंगी फिल्म साबित हुई थी मुगलएआजम. फिल्म में दिल्ली से कॉस्टयूम तैयार करवाये गये थे. सूरत से एंब्रॉडर, हैदराबाद से ज्वेलरी, कोल्हापुर से क्राउन, राजस्थान से हथियार और जूते आगरा से मंगवाये गये थे. इस फिल्म के लिए उस दौर में 2000 ऊंट, 4000 हजार घोड़, 8000 तोप मंगवाये गये थे. खास बात यह रही थी कि सिर्फ एक गाने की शूटिंग के लिए के आसिफ ने पूरा शीश महल तैयार करवा दिया था.उन्होंने इसे बनवाने के लिए बेल्जियम के विशेष शीशे मंगवाये थे और फिरोजाबाद से लोगों को बुलवाया था, ताकि शीश महल का सेट तैयार हो सके. उस दौर का यह पहला भव्य सेट था. जिसे, मुंबई के ही एक स्टूडियो में तैयार किया गया था. फिल्म में भगवान कृष्ण की जो मूर्ति इस्तेमाल की गयी है. वह सोने की थी.फिल्म में मधुबाला ने जो भी जेवर पहने हैं, सभी असली हैं. इससे साफ जाहिर होता है कि के आसिफ किस हद तक जुनूनी थी और उन्होंने मुगलएआजम जैसी भव्य फिल्म बनाने का जिम्मा उठाया. उस दौर में भव्य सेट निर्माण की वजह से ही फिल्म का बजट 1.5 करोड़( वर्तमान में लगभग 40 करोड़) जा पहुंचा था.
शोले ः जब कर्नाटक में बना रामगढ़
हिंदी सिनेमा की ऐतिहासिक फिल्म शोले का सेट भी कर्नाटक के बंग्लुरु इलाके में तैयार किया गया था. रामगढ़. खास बात यह रही कि इस फिल्म की शूटिंग के लिए रमेश सिप्पी बंगलौर से रामगढ़ तक पहुंचने के लिए सड़क का भी निर्माण करा दिया था. भव्य सेट के निर्माण की वजह से ही यह फिल्म भी महंगी फिल्मों में से एक रही. इस फिल्म की शूटिंग के बाद रामगढ़ इलाके के एक शहर का नाम ही सिप्पीनगर रख दिया गया.

दबंग 2ः पहली बार पूरे स्टूडियो की बुकिंग
हिंदी सिनेमा में यह पहली बार है, जब किसी एक फिल्म के लिए किसी निर्माता ने पूरा का पूरा स्टूडियो बुक कर लिया है, क्योंकि प्रायः ऐसा होता है कि एक स्टूडियो के अलग अलग हिस्सों में एक ही समय में कई फिल्मों की शूटिंग चलती है. चूंकि पूरे स्टूडियो की बुकिंग महंगा सौदा है. लेकिन दबंग 2 की शूटिंग के लिए सलमान खान व टीम ने मुंबई के जोगेश्वरी स्थित कमाल अमरोही के स्टूडियो उर्फ कमालिस्तान स्टूडियो की पूरी बुकिंग कर ली है. इस स्टूडियो के 12 हिस्से तब तक किसी फिल्म को नहीं दिये जायेंगे. जब तक दबंग के पहले शेडयूल की शू्टिंग पूरी खत्म नहीं हो जाती. खबर है कि इस बार कमालिस्तान स्टूडियो इस बार दबंग 2 के लिए कानपुर शहर में तब्दील होने जा रहा है. सेट पर लगळग 80 सेक्योरिटी तैनात रहेंगे. लगभग 15 दिनों की बुकिंग की गयी है. इससे पहले खलनायक व कोयला जैसी फिल्मों में ही स्टूडियो के अधिकतर हिस्सों की बुकिंग होती थी. साफ जाहिर है कि सलमान इस बार भी सेट के बहाने भी दबंग 2 में कमाल दिखायेंगे.
लगान ः और बस गया था पूरा गांव
निदर्ेशक आशुतोष गोवारिकर की फिल्म लगान हिंदी सिनेमा की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक रही है. इस फिल्म में न सिर्फ कई कलाकार थे. बल्कि फिल्म का सेट भी भव्य तरीके से तैयार किया गया था. भुज से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कनुरिया इलाके में फिल्म की शूटिंग हुई थी. चूंकि फिल्म पीरियड फिल्म थी. इसलिए निदर्ेशक आशुतोष के लिए यह बेहद मुश्किल काम था कि वह उस स्थान को पूरी तरह पीरियड फिल्म के काबिल बना दें, उन्होंने मेहनत की. वहां लगभग 56 घर और गुबंद बनवाये गये. पहाड़ पर एक मंदिर बनवाया गया. लगभग चार महीने में सेट तैयार हुए. फिल्म ने ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की.
जोधा अकबर ः लौटी बादशाहत
निदर्ेशक आशुतोष गोवारिकर ने लगान के बाद फिल्म पीरियड फिल्म जोधा अकबर का निर्माण किया था. इस फिल्म में सेट को अहमियत दी गयी थी. आशुतोष ने विशेष रूप से दिल्ली, अलीगढ़, लखनऊ, आगरा व जयपुर से लोगों को बुलवाया. अजीमोशान शहशांह गीत में लगभग 1000 हजार लोगों को पारंपरिक कॉस्टयूम में प्रस्तुत किया. मुंबई के करजत में फिल्म का भव्य लोकेशन तैयार किया गया था. फिल्म के भव्य सेट की वजह से ही फिल्म लगभग 40 करोड़ रुपये की बजट में बनी थी.
संजय लीला भंसाली ः आर्ट को समझनेवाला निदर्ेशक
हिंदी सिनेमा में संजय लीला भंसाली भी उन निदर्ेशकों में से एक रहे हैं, जो आर्ट को समझते हैं. यही वजह है कि उनकी फिल्मों में हमेशा कलात्मक चीजें नजर आती रही हैं. उन्होेंेंने अपनी हर फिल्म में सेट को खूबसूरती से दर्शाया है. फिर चाहे वह सांवरिया हो, ब्लैक हो या फिर गुजारिश या फिर देवदास उनकी हर फिल्म में अलग ही दुनिया नजर आती है. गुजारिश में जहां उन्होंने गोवा के एक घर को खूबसूरती से घर में तब्दील कर दिया. वही सांवरिया की शूटिंग में उन्होंने मुंबई के एक स्टूडियो को पूरी तरह सपनों की दुनिया में तब्दील कर दिया.देवदास में भी उन्होंने भव्य सेट का निर्माण किया था.
मोहल्ला अस्सी ः फिल्म सिटी में बसा काशी का अस्सी
डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी में वाराणसी के अस्सी मोहल्ले को हूबहू तैयार किया गया था मुंबई के फिल्म सिटी में. इसके लिए डॉ चंद्रप्रकाश ने स्वयं वाराणसी जाकर खरीदारी की थी. और उन तमाम चीजों को मुंबई के फिल्म सिटी में स्थापित करने की कोशिश की, जिसे देख कर एकबारगी लोग धोखा खा जायें कि वे कहीं वाकई वाराणसी के अस्सी मोहल्ले में तो नहीं आ पहुंचे. टी स्टॉल से लेकर घर सबकुछ अस्सी मोहल्ले के होने का ही एहसास करा रहे थे.
क्यों गढ़े जाने लगे सेट.
कोटेशन ः श्याम बेनेगल, भारत में बिल्डिंग सेट बनाने का प्रचलन पुराने भारतीय थियेटर से आया. उस दौर में जब भारत में फिल्में शूट होती थी. लेकिन यहां तकनीक उतनी विकसित नहीं थी. और ऐसे में आउटडोर शूटिंग करना बेहद कठिन होता था. तो, उस दौर में स्टूडियो में ही सेट तैयार किये जाते थे. निश्चित तौर पर निदर्ेशक व सेट डिजाइनर की कलात्मक सोच से फिल्मों के सेट निखर कर सामने आते थे.
बॉक्स 3 ः हिंदी सिनेमा के शिरमौर आर्ट निदर्ेशक नितिन देसाई
हिंदी सिनेमा में अब तक लगभग जितने भी भव्य सेट नजर आते रहे हैं. उन्हें गढ़ने में आर्ट निदर्ेशक नितिन चंद्रकांत देसाई की महत्वपूर्ण भूमिकाएं रही हैं. अब तक लगान, देवदास, जोधा अकबर, हम दिल दे चुके सनम जैसी सभी भव्य सेट वाली फिल्मों का निर्माण इन्होंने ही किया है.

काजल दादा बनी निर्मात्री

हम पांच की काजल दादा व बालिका वधू की भैरवी अब कलर्स के धारावाहिक छल से निर्माता की कुर्सी संभालने जा रही हैं.
काजल दादा के रूप में दर्शकों ने भैरवी को बेहद पसंद किया था. लोगों के जेहन में उस वक्त यह बात थी कि अब भैरवी को केवल ऐसी ही भूमिकाएं मिलेंगी. लेकिन भैरवी ने सबकी जुबान अपने अभिनय से बंद कर दी. वे लगातार अलग अलग किरदारों में नजर आती रहीं. अब वह 24 फ्रेम्स से निर्माता की कुर्सी संभालने जा रही हैं.

भैरवी, बतौर एक्ट्रेस आपने अपना अस्तित्व हासिल कर लिया है और पहचान भी. और अब आप निर्मात्री बन चुकी हैं. तो आपको कैसा अनुभव हो रहा है?
बहुत ही नर्वस हूं मैं,क्योंकि एक्ट्रैस के रूप में आपको केवल अपने काम पर ध्यान देना होता है. आपके सामने सिर्फ आपकी स्क्रिप्ट होती है और सिर्फ उस पर ही ध्यान देना पड़ता है. लेकिन अगर बात प्रोडक्शन की की जाये तो यह बहुत मुश्किल हो जाता है. पहली बार मैंने यह कदम उठाया है और डर लग रहा है. चूंकि अभी मुझे प्रोडक्शन का कॉस्ट, सबकुछ की जिम्मेदारी संभालनी पड़ रही है.
आप एक्ट्रेस के रूप में लोकप्रिय हैं. तो, फिर प्रोडक्शन में आने की कोई खास वजह. या फिर शुरू से ही सोच रखा था.
जी. मेरे दिमाग में हमेशा से यह बात थी कि मुझे अपना भी कुछ इंडिपेंडेंट करना है. चूंकि इसी इंडस्ट्री से वाकिफ हूं. सो, यही आ गयी.
शुरुआत थ्रीलर से क्यों
क्योंकि अभी टीवी पर थ्रीलर शोज कम आ रहे हैं और मैं चाहती थी कुछ अलग ही करूं. इसमें मेरा साथ मेरी पूरी टीम और खासतौर से नंदिता मेहरा ने मेरा बहुत साथ दिया. वे मेरी अच्छी दोस्त हैं और इस प्रोडक्शन में वे मेरे साथ हैं. सो, मुझे विश्वास मिला.
कलर्स चैनल चुनने की खास वजह? छल के बारे में कुछ बताएं? इन्हीं किरदारों को क्यों चुना?
कलर्स चैनल का चुनाव इसलिए किया, क्योंकि यह बेहतरीन चैनल है. मैं पिछले कई सालों से बालिका की वजह से इससे जुड़ी रही हूं. और मैं जानती हूं कि यह विश्वसनीय चैनल है. वही दूसरी तरफ खास वजह यह भी थी कि इस चैनल पर अभी कोई थ्रील शो नहीं था. सो, हमने सोच समझ कर इसकी शुरुआत की. जहां तक बात है छल शो की तो यह नेहा की जिंदगी की कहानी है और आपको इस शो में लगातार टि्वस्ट नजर आयेंगे. किरदारों को चुनते वक्त हमने इस बात का ख्याल रखा है कि चेहरे नये भी नजर आयें. हुनर जो नेहा का किरदार निभा रही हैं. वे मेरे साथ ससुराल गेंदा फूल में काम कर चुकी हैं तो मुझे पता था कि वह किस तरह का अभिनय कर सकती हैं. बाकी चेहरे नये हैं.
किसी थ्रीलर शो में दर्शकों का उत्साह बनाये रखना मुश्किल काम है. चुनौती है आपके लिए?
बिल्कुल है. लेकिन हम लगातार पूरी टीम के साथ इस पर काम कर रहे हैं और निश्चित तौर पर आप जरूर देख कर कहेंगे कि यह तो अब्बास मस्तान जैसा है.
आप अब्बास मस्तान से काफी प्रभावित हैं शायद?


हां, मैं खुशनसीब हूं कि इस शो की लांचिंग पर वे दोनों आये और हमें शुभकामनाएं दी. मुझे उनकी फिल्में देखना पसंद है. और इसलिए हमने टीवी पर कुछ वैसी ही कहानी कहने की कोशिश की है.
अभिनय को बाय बाय कहने का इरादा है या...
बिल्कुल नहीं. अभिनय भी करती रहूंगी. लेकिन अपने प्रोडक्शन हाउस को स्थापित करने में अभी ज्यादा ध्यान दूंगी.

नायकों की भीड़ में एक नायिका

विद्या बालन


सुजोय घोष की फिल्म कहानी में मां दुर्गा की शक्ति व उनके रूप का प्रयोग भले ही उपमा के रूप में किया गया हो. लेकिन वास्तविकता भी यही है कि विद्या बालन वर्तमान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे शक्तिशाली व सजग अभिनेत्री हैं. जिस तरह मां दुर्गा के नौ अलग अलग रूप हैं और सभी रूपों की अपनी विशेषताएं हैं, कुछ इसी तरह विद्या बालन भी अभिनय के कई रूपों में हर बार प्रस्तुत हो रही हैं और लोगों को चौंका रही हैं. एक के बाद एक उनकी लगातार फिल्में देखें तो आप हर बार चौंकते हैं. आप उनके किरदारों को देख कर अनुमान नहीं लगा सकते कि आखिर विद्या का वास्तविक रूप क्या है. चूंकि वर्तमान में वह एकमात्र अभिनेत्री हैं जो लगातार अलग अलग तरह की भूमिकाएं निभा रही हैं. गौर करें तो नारी शक्ति के जितने रूप हमने अब तक धरती पर देखे हैं, उन सभी रूपों में विद्या नजर आती हैं. फिल्म परिणीता में वह एक संवेदनशील बेटी होने के साथ साथ एक परिणीता का धर्म निभाती है. फिल्म लगे रहे मुन्नाभाई में वह बेटी का फर्ज निभाती है. साथ ही बुजुर्गों की सेवा करती है. गुरु में अपनी छोटी सी ही भूमिका में वह अपाहिज लड़की की पीड़ा को दर्शा जाती है. इश्किया में वह धूर्त है. चालाक है और वह आज के जमाने की लड़की को दर्शा जाती है.फिल्म पा में वह एक मां के रूप में अपने रिश्ते को साकार करती हैं. तो फिल्म नो वन किल्ड जेसिका में बहन की भूमिका अदा कर अपनी बहन की मौत का न्याय हासिल करती हैं. फिल्म द डर्टी पिक्चर में वह एक साथ कई भूमिकाएं निभा जाती हैं. कभी चुलबुली बाला की तरह, कभी लड़कों की नाक में दम करनेवाली शरारती लड़की, तो कभी ताउम्र प्यार की आस में जीनेवाली एक आयटम डांसर की जिंदगी को परदे पर सजीव चित्रित कर देती हैं. लोग जब तक विद्या के सिल्क किरदार को ही अपने जेहन में जिंदा रखते हैं कि वह फिर से एक ऐसी पत्नी व गर्भवती मां और फिर एक शक्तिशाली महिला के रूप में कहानी की विद्या बागची के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत होते हैं कि लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं. हिंदी सिनेमा जगत के लिए यह सबसे बेहतरीन दौर है. किसी दौर में जहां नूतन, मीना कुमारी, मधुबाला, रेखा, स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्रियों को ध्यान में रखते हुए महिला प्रधान फिल्में गढ़ी जाती थीं. आज के दौर में विद्या को ध्यान में रखते हुए महिला के किसी भी रूप को प्रस्तुत किया जा सकता है. और सबसे अहम बात यह है कि विद्या अब व्यवसायिक रूप से भी सफल हो चुकी हैं. द डर्टी पिक्चर के बाद सुजोय घोष की कहानी की हीरो भी विद्या ही है. दरअसल, विद्या उन अभिनेत्रियों में से एक हैं, जो अपने अभिनय जीवन को सजीव रूप से जी रही हैं. कभी मीना कुमारी, हेमा मालिनी, मधुबाला सरीकी अभिनेत्रियां बॉक्स ऑफिस सफलता की गारंटी मानी जाती थी. अब विद्या बालन वह गारंटी बन चुकी हैं. नो वन किल्ड जेसिका, द डर्टी पिक्चर्स और कहानी की बॉक्स ऑफिस सफलता से उन्होंने साबित कर दिया है कि वे अपने सशक्त अभिनय से भी बिना किसी हीरो के सहारे फिल्म को सफल बना सकती है. गौर करें तो नो वन किल्ड जेसिका, द डर्टी पिक्चर और कहानी में हीरो वही हैं और सभी अभिनेता उन सह कलाकार के रूप में नजर आये हैं. यह विद्या के अभिनय की ताकत ही है, जो निदर्ेशक मिलन लूथरिया, राजकुमार गुप्ता, आर बाल्कि मानते हैं कि अगर विद्या ने द डर्टी पिक्चर के लिए मना कर दिया होता, नो वन किल्ड की शबरीना बनने के लिए हां नहीं कहा होता और पा में अमिताभ बच्चन की मां बनने का किरदार न स्वीकारा होता तो यह फिल्में कभी नहीं बनतीं. निश्चित तौर पर इन सभी निदर्ेशकों ने विद्या की इन फिल्मों से पहले रिलीज हुई फिल्मों में विद्या की प्रतिभा देख कर ही अनुमान लगा लिया होगा कि विद्या क्या करिश्मा कर सकती हैं. हमेशा साड़ी मेटेरियल कहलानेवाली विद्या को सिल्क के रूप में प्रस्तुत करनेवाले मिलन ने कभी तो नोटिस किया होगा कि विद्या ही सिल्क के किरदार के लिए परफेक्ट होगी. पा अमिताभ बच्चन की फिल्म थी.लेकिन फिल्म में ऑरो की मां के किरदार में विद्या. आर बाल्की की सोच के साथ विद्या के लिए भी यह साहसी भरा कदम था. चूंकि वह युवा अभिनेत्री होने के बावजूद ऐसा किरदार निभा रही थीं. लेकिन उन्होंने यह रिस्क लिया. चूंकि वह विद्या हैं, जो आंखों में चश्मा चढ़ाई हुई शबरीना के किरदार में सबको चौंकाना जानती हैं. हिंदी फिल्मों के वैसे निदर्ेशक जो यह शिकायत करते फिरते थे कि उनके पास महिला प्रधान कहानियां है हैं लेकिन अभिनेत्री नहीं. वह विद्या को ध्यान में रखते हुए अब कहानी लिख सकते हैं. चूंकि विद्या अब अपने कंधों पर फिल्म की सफलता की गारंटी ले सकती हैं.प्रायः हम सुनते हैं कि इस कलाकार इस फिल्म के लिए विशेष तैयारी की है. वह लगातार दो सालों तक किसी अन्य फिल्म में काम नहीं कर रहे या कर रही हैं. लेकिन विद्या बालन वह हैं जिनकी तीन महीने के अंतराल पर फिल्में आ रही हैं. लेकिन हर फिल्म में वह अलग हैं. चुनौतीपूर्ण किरदार में नजर आती हैं वो. नो वन किल्ड जेसिका की रिलीज के दौरान जब उनसे बातचीत हुई थी तो उन्होंने सुजोय घोष की फिल्म कहानी की चर्चा की थी और शेयर किया था कि एक गर्भवती महिला का किरदार निभाना उनके लिए कितना कठिन है. उस वक्त उन्होंने फिल्म डर्टी पिक्चर की चर्चा नहीं की थी. लेकिन डर्टी पिक्चर पहले रिलीज हुई. साफ जाहिर है कि विद्या दोनों फिल्मों की शूटिंग साथ साथ कर रही थीं. तो, अनुमान लगाएं ग्लैमरस, सेक्सी सिल्क से बिल्कुल विपरीत साधारण से लिबाज में कहानी की विद्या बागची का किरदार निभाना कितना कठिन रहा होगा. लेकिन फिर भी कहानी की विद्या कहीं से सिल्क के किरदार से कमजोर नहीं लगीं. फिल्म कहानी में ही उनके किरदार के कई पहलू सामने आये. बिना किसी मेकअप, बिना किसी ग्लैमरस कॉस्टयूम ेके उन्होंने अपने अभिनय को जो निखार दिया. वह बमुश्किल वर्तमान दौर में किसी भी अभिनेत्री में नजर आता है. विद्या चेहरे के एक्सप्रेशन से खेलना जानती हैं. वे जानती हैं कि शरीर की भाषा के साथ साथ आंखों से और चेहरे के भाव से कैसे बातों को दर्शाया जा सकता है. द डर्टी पिक्चर की सफलता के बाद कई लोगों ने विद्या को चैलेंज किया कि चूंकि फिल्म में अंग प्रदर्शन अधिक हुआ, इसलिए फिल्म को सफलता मिली. वे कहानी को सफल बना कर दिखाएं. कहानी की रिलीज हुई और फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर भी सफलता मिली. भले ही विद्या को फिल्म द डर्टी पिक्चर के लिए इस वर्ष का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हो. लेकिन सच्चाई यही है कि परिणीता से लेकर कहानी तक उन्होंने अपनी हर भूमिका सो साक्षात प्रस्तुत किया है. वह किसी भी किरदार में बनावटी नहीं लगतीं. बहुत जल्द वह फिल्म घनचक्कर में लोगों को हंसाती हुई नजर आयेंगी. और निश्चिततौर पर वह अपने हास्य किरदार में भी एक अलग छवि प्रस्तुत कर जायेंगी. दरअसल, विद्या बालन किसी मां की तरह ही अपने हर बच्चे का लालन पोषण पूरी तन्मयता के साथ करती हैं. पूरी ईमानदारी के साथ करती हैं. यही वजह है कि वह एक साथ कई रूपों में आपके सामने हैं. लेकिन सभी में परफेक्ट हैं. किसी व्यक्ति के लिए साल में एक फिल्म में परफेक्शन दिखाना आसान है. लेकिन साल में तीन फिल्में हों और तीनों में मजबूत किरदार निभाना एक चुनौतीपूर्ण काम है. जिसे बेहद सहजता से जीती हैं विद्या. अपार सफलता, प्रशंसा प्राप्त करने के बाद भी विद्या आज भी बहुत सहज हैं. घमंड उन्हें छू कर भी नहीं गुजरती. वह एकमात्र अभिनेत्री हैं, जो अपने चाहनेवाले सभी लोगों के एसएमएस का भी जवाब देती हैं. मीडिया के साथ हमेशा उनका दोस्ताना व्यवहार है. वह किसी इंटरव्यू में हैं और उन्हें भूख लगी है तो वह दिखावा किये बगैर मीडिया के साथ ही खाने लगती हैं. कोई अगर इंटरव्यू के दौरान ही उनकी कानों के झूमकों की तारीफ कर दें तो थैंक्स कहने के साथ साथ वह विस्तार में बताती हैं कि उन्होंने यह कहां से खरीदा वगैरह वगैरह...इससे साफ जाहिर होता है कि विद्या सातवें आसमान होते हुए भी हवा में बातें नहीं करतीं. खुद विद्या मानती हैं कि उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है उसमें उनके दर्शकों का सबसे अधिक सहयोग है. मीडिया का सहयोग है. इसलिए वे हमेशा अपने रिश्तों को परिपक्व करती रहेंगी.
इस वर्ष के लगभग छोटे बड़े सभी अवार्ड समारोह में वह शामिल हुईं. फिल्मों के प्रमोशन में भी वह लगातार शामिल हुईं. अपार सफलता हासिल करने के बाद जब कई समीक्षक व उनके शुभ चिंतक बननेवाले महानुभाव उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि अगर वह लगातार यूं ही दिखती रहेंगी, इजली अबैल्वेल रहेंगी तो उनका मान घट जायेगा. लोग उन्हें महत्व नहीं देंगे. क्योंकि अब वह सुपरस्टार हैं. लेकिन इन बातों से विद्या को कोई फर्क नहीं पड़ता. वे फिल्म में जितनी शिद्दत से काम करती हैं. उसके प्रमोशन में भी वह उतनी ही सक्रिय हैं. वे फुले हुए पेट के साथ पूरे भारत में कहानी का प्रमोशन करती हैं. सड़क पर उतरती हैं. लोगों के बीच जाती हैं. एक दिन में 43 इंटरव्यूज देती हैं. लेकिन इसके बावजूद आम लोगों से उयका रिश्ता और परिपक्व होता जा रहा है. विद्या को न सिर्फ युवा लड़कियां, बल्कि घरेलू महिलाएं, कामकाजी महिलाएं, बड़े बुजुर्ग सभी का आदर्श मिल रहा है. इसकी वजह यह है कि विद्या की छवि सभी लोगों के घर में एक सुशील लड़की की तरह है. वह सिल्क बन कर बेशर्म नहीं हुई है. इश्किया की धुर्त महिला होने के बावजूद उसे उन महिलाओं की प्रशंसा मिलती है. जो अपने पति द्वारा सताई गयी हैं. कहानी में गर्भवती महिला का किरदार निभाने से उन्हें गर्भवती महिलाओं की हमदर्दी मिलती है. दरअसल, आम लोगों की नजर में विद्या बालन एक मात्र सितारा हैं, जिन्हें अगर वह छूना चाहें तो छू पायेंगे, क्योंकि विद्या वह सितारा हैं जो जमीन पर भी बखूबी चमकती हैं और आकाश में भी हमेशा झिलमिलाती रहेंगी.

भईयाजी बना पंजाब दा पुतर



सनी देओल अरसे बाद फिल्म भईयाजी सुपरहिट में एक नये अवतार में नजर आयेंगे. वे इस फिल्म में उत्तर प्रदेश के निवासी के अंदाज में नजर आयेंगे. उनके इस नये अवतार का फर्स्ट लुक जारी किया गया है. जिसे लेकर हर तरफ चर्चा हो रही है. इसकी खास वजह यह है कि जिस लुक में वह नजर आ रहे हैं. इससे पहले सनी देओल को इस अवतार में कभी नहीं देखा गया था. दरअसल, सनी देओल ने हिंदी फिल्मों में अब तक या तो किसी पंजाबी की भूमिका निभाई है या फिर किसी एक्शन हीरो की. राइट या रांग जैसी ही कुछ फिल्मों में नकारात्मक भूमिका निभाई है. लेकिन इससे पहले तक सनी का भैयाजी अंदाज हम में से किसी ने नहीं देखा. यही वजह है कि सनी का यह नया अवतार उन पर फब रहा है. निदर्ेशक नीरज पाठक की सराहना करनी होगी कि उन्होंने सनी को लेकर इस अवतार की परिकल्पना की. जो कि इससे पहले किसी निदर्ेशक ने नहीं की थी. हिंदी फिल्मों की यही विडंबना रही है कि यहां कोई भी कलाकार अगर विभिन्न किरदार निभाता न रहे तो वह टाइपकास्ट हो जाता है और उसके बाद उनके पास केवल एक से ही किरदारों के ऑफर आने लगते हैं. जबकि किसी भी कलाकार को खुद को किसी खास तरह की भूमिका तक ही सीमित नहीं करना चाहिए. वरना, एक समय के बाद वह खुद एकरसता का शिकार होता है और दर्शकों को भी ऊब होने लगती है. यही वजह रही कि सनी पिछले कई सालों से मुख्यधारा से अलग थलग से हो गये थे. चूंकि वे लगातार पंजाबी पुतर जैसी भूमिकाएं ही कर रहे थे. यह सच है कि चूंकि सनी पंजाब के हैं तो वे पंजाबी किरदारों में विश्वसनीय लगते हैं. लेकिन दर्शक सनी के एक ही रूप को देख कर बोर हो चुके थे. सनी का यह बेहतरीन निर्णय है कि वे अब जाकर ही सही लेकिन ऐसे किरदार निभा रहे हैं, जैसा उन्होंने पहले कभी नहीं निभाया था. उस लिहाज से उनकी भईयाजी सुपरहिट के साथ साथ डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी में भी वह बनारस के पांडे जी की भूमिका में हैं. डॉ द्विवेदी के अनुसार सनी बेहतरीन कलाकार हैं और वे पांडे जी की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभा सकते थे. इसलिए उन्होंने सनी को ध्यान में रख कर पूरी कहानी की परिकल्पना शुरू की. यह फिल्म भी बन कर तैयार है और जल्द ही रिलीज होगी. सनी द्वारा इन दोनों फिल्मों के चुनाव से एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि सनी भी अब विभिन्न किरदारों को निभाने के लिए व्याकुल हैं. भईयाजी सुपरहिट में उनके लुक को देख कर इस बात का साफ अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी तरफ से भी उस लुक के लिए कितनी मेहनत की होगी. वाकई, एक पंजाबी को भईयाजी ( मुंबईवाले यूपी बिहारवालों को भइयाजी कह कर ही संबोधित करते हैं)के अंदाज में बातचीत करते देखना दिलचस्प होगा. संभव हो कि सलमान के दबंग में भईयाजी स्माइल के बाद सनी का यह भईया अंदाज भी वाकई सुपरहिट हो.दरअसल, हिंदी फिल्मों में यह प्रयोग होते रहें.कलाकारों को हमेशा वैसे किरदार निभाने चाहिए. जिसमें हर बार वह अलग दिखाई दें.सो, ऐसी कहानियां लिखी जाती रहनी चाहिए.

मुंबईया हिंदी की डिक्शनरी बॉलीवुड

फिल्म ब्लड मनी में कनाडा प्रांत से ताल्लुख रखनेवाली मिया यूयेदा भी अहम भूमिका निभा रही हैं. मिया ने भारत में कई विज्ञापनों में काम किया है. किंगफिशर की कैलेंडर गर्ल भी रही हैं. खतरों के खिलाड़ी में भी वे प्रतिभागी के रूप में नजर आ चुकी हैं. और अब वह फिल्म ब्लड मनी से फिर से चर्चा में है. हाल ही में ब्लड मनी के स्टार कास्ट से विशेष फिल्मस के दफ्तर में ही बातचीत करने का मौका मिला. औपचारिक बातचीत खत्म होने के बाद मिया ने यूं ही कुछ बातें भी शेयर की. वह हिंदी में बातचीत करने की कोशिश कर रही थीं. हिंदी बोलने को लेकर कितनी सहज हैं. इस पर चर्चा होते ही वह विस्तार में बताने लगती हैं कि उन्हें हिंदी भाषा अच्छी लग रही है और चूंकि उन्हें हिंदी फिल्मों में काम करना है. इसलिए वह हिंदी की टयूशन ले रही हैं. वे बताती हैं कि खतरों के खिलाड़ी के दौरान चूंकि अक्षय कुमार अधिकतर हिंदी में ही बोलते थे. उस वक्त से ही उन्होंने हिंदी भाषा पर ध्यान देना शुरू कर दिया था. श्रीलंकाई अभिनेत्री जैकलीन फर्नांडीस ने भी बातचीत के दौरान बताया है कि वह हिंदी सीख रही हैं और उन्होंने अपने मोबाइल पर हिंदी डिक्शनरी डाउनलोड किया है, जिससे उन्हें हर दिन हिंदी के नये नये शब्द सीखने का मौका मिल रहा है. जैकलीन इस बात से बेहद खुश हैं कि उन्होंने फुदकना, कूदना, रोना, हंसना, पुकारना जैसे शब्द सीख लिये हैं. कुछ इसी तरह नरगिस फाकरी ने भी बताया था कि उन्होेंने रॉकस्टार के लिए मेहनत की और हिंदी सीखी. इससे साफ जाहिर होता है कि अब बॉलीवुड में एंट्री ले चुकीं विदेशी मूल की अभिनेत्रियां हिंदी की अहमियत समझ रही हैं. कट्रीना कैफ भी पहले की तूलना में अब पत्रकारों से हिंदी में बात करती हैं. और उनके करीबी बताते हैं कि वे अब भी हिंदी सीखने के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं. और ये सभी विदेशी मूल की अभिनेत्रियां इस बात से खुश हैं कि वे नयी भाषा सीख रही हैं. वे हिंदी सीखने पर गौरान्वित महसूस करती हैं. लेकिन इसके ठीक विपरीत कई ऐसे कलाकार हैं जो हिंदी बोलना अपनी तौहीन समझते हैं. प्रश्न भले ही हिंदी में हो वह जवाब अंग्रेजी में ही देते हैं. इसकी वजह यह है कि खुद उनकी हिंदी भी अच्छी नहीं रहती. चूंकि उन पर मुंबईयां हिंदी हावी रहती है. वे शुरू से मेट्रो में रहते हैं. जहां हिंदी से लोगों का वास्ता ही नहीं. एक बार विनोद दुआ ने ही एक टीवी शो के दौरान कहा था कि मुंबई में भले ही आप प्रश्न हिंदी में पूछें, जवाब आपको अंग्रेजी में ही मिलेंगे.दरअसल, हिंदी सिनेमा में तो खुद ऐसे लोग हैं, जिनकी हिंदी की डिक्शनरी में न तो अधिक शब्द हैं और न ही हिंदी बोलने के तौर तरीके. अमिताभ बच्चन, आशुतोष राणा, मनोज बाजपेयी, डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसे शख्सियतों को छोड़ दें तो गिने चुने नाम ही हमें अच्छी हिंदी में बातचीत करते नजर आयेंगे. दरअसल, विदेशी मूल की अभिनेत्रियों के साथ साथ यहां के भी कई कलाकारों को इसकी सीख लेनी चाहिए. क्योंकि अमिताभ बच्चन ने ही कहा है कि भाषा से ही भाव बनता है. और हिंदी भाषा की फिल्म में भावपूर्ण अभिनय के लिए अच्छी हिंदी सीखना भी अनिवार्य पहलू है. सो, जरूरी है कि कम से कम कलाकार मुंबईया हिंदी से बाहर आयें.


20120319

हिंदी फिल्मों की आयरन लेडी का हश्र



हाल में ही ब्रिटिश महिला प्रधानमंत्री मारगरेट थैचर की जिंदगी पर आधारित फिल्म द आयरन लेडी प्रदर्शित हुई. फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई मरील स्टि्रप ने. मरीयल फिलवक्त 63 उम्र की हैं. उन्होंने 22 साल की उम्र से फिल्मों में काम करना शुरू किया था. और वह 63 की उम्र में भी सक्रिय हैंं. फिल्म द आयरन लेडी देखने के बाद दर्शक अनुमान लगा सकते हैं कि मारगरेट की वास्तविक जिंदगी क्या रही होगी. मरीयल स्ट्रीप के रूप में मारगरेट दर्शकों के सामने आती हैं. उन्होंने 63 उम्र में भी बेहतरीन अदाकारी की है. वाकई निदर्ेशिका फिलालीडा लॉयड तारीफ की हकदार हैं. बतौर महिला निदर्ेशक होकर उन्होंने ऐसे विषय का चुनाव किया और उसे बखूबी परदे पर उतारा भी. ब्रिटिश व अमेरिकन फिल्मों में अब भी ऐसी बायोपिक फिल्में बनाई जा रही हैं. और मुख्य किरदारों में अब भी कई उम्रदराज कलाकारों को मौके दिये जा रहे हैं. खासतौर से महिलाओं पर केंद्रित फिल्में बन रही हैं और उम्रदराज महिला अभिनेत्रियों को केंद्रीय भूमिका निभाने के मौके भी मिल रहे हैं. फ्रेंच-इंग्लिश के को प्रोडक्शन में लू बेसन द्वारा बनाई गयी फिल्म द लेडी में 50 वर्षीय योह ने क्रांतिकारी महिला आंग सांग सुई से प्रभावित किरदार निभाया है. सुजन सारानडन, डेमी मूरे, मेघ रियान जैसी अनगिनत बेहतरीन अभिनेत्रियां हैं, जो आज भी 50 बसंत पार करने के बावजूद केंद्रीय भूमिका निभा रही हैं. अमेरिकी अभिनेत्री शिरले मैकलेन उन अभिनेत्रियों में से एक हैं जिनकी उम्र 77 है. और अब भी यह सक्रिय हैं. लेकिन क्या भारत में हम ऐसी परिकल्पना कर सकते हैं? क्या हिंदी सिनेमा जगत में कोई आयरन लेडी मौजूद हैं, जो 50 वर्ष पार करने के बाद भी केंद्रीय भूमिका निभाएं और फिर सम्मान भी हासिल करें.चूंकि हिंदी सिनेमा की अभिनेत्रियों को 30 के बाद ही रिटायर मान लिया जाता है. गौर करें, तो पुराने दौर की बेहतरीन अभिनेत्रियां इन दिनों फिल्मों में मां या दादी के किरदार में नजर आती हैं. शबाना आजिमी एकमात्र अभिनेत्री हैं जिन्होंने बाद के दौर में भी गॉडमदर में केंद्रीय भूमिका निभाई और जल्द ही वह एक भ्रष्ट महिला राजनेता की भूमिका निभानेवाली है. वरना, शेष किसी भी अभिनेत्री को यह अवसर नहीं मिल पाया. बैंडिट क्वीन में शानदार अभिनय करने के बाद सीमा विस्वास को भी इन दिनों फिल्मों में मां के किरदार में ही दिखती हैं. बैंडिट क्वीन के बाद अब तक उन्हें कोई सशक्त भूमिकाएं नहीं मिली हैं. जबकि हिंदी में भी कई बायोपिक फिल्में बनाई जा सकती हैं. बशतर्े निदर्ेशक हिंदी फिल्मों की नायिकाओं को उस छवि में ढालने की कोशिश करें. किसी दौर में फिल्म आंधी को इंदिरा गांधी की कहानी माना गया था. लेकिन फिर सरकारी प्रतिबंधों के कारण इसे खुले रूप में स्वीकार नहीं किया गया. यह हिंदी सिनेमा की विडंबना है कि वे आयरन लेडी जैसे विषयों पर खुल कर फिल्में बनाने की हिम्मत नहीं रखते. जबकि हिंदी फिल्मों में अब भी बेहतरीन अभिनेत्रियां हैं, जिन्हें ऐसी फिल्मों की भूमिकाओं में दर्शा जा सकता है. बशर्ते निदर्ेशक व लेखक ऐसी कहानियां कहने की हिम्मत जुगाड़ें और हिंदी सिनेमा की आयरन लेडी का लौहा भी विश्व के सामने मनवायें.

20120316

दादा का ऑलराउंडर रनबीर



अनुराग कश्यप की फिल्म बांबे वेल्वेट में आमिर खान मुख्य किरदार निभानेवाले थे. लेकिन रॉकस्टार में रनबीर कपूर के अभिनय को देखने के बाद उन्होंने फिल्म में रनबीर कपूर को अपनी इस फिल्म में कास्ट कर सबको चौंका दिया है. दरअसल, चौंकाया अनुराग कश्यप ने नहीं, बल्कि रनबीर कपूर ने भी है. चूंकि रॉकस्टार के बाद वह अनुराग बसु की फिल्म बर्फी में काम कर रहे हैं. रॉकस्टार में जहां एक तरफ वह चोट खाये हुए गायक की भूमिका में हैं. वही बर्फी में वह गूंगे-बहरे की भूमिका निभा रहे हैं. अब वह अनुराग कश्यप की फिल्म में एक अलग ही अवतार में नजर आयेंगे. गौर करें तो रनबीर बहुत सोच समझ कर भूमिकाएं निभा रहे हैं. रनबीर कपूर खानदान से हैं और उनके पास बड़े प्रोडक्शन हाउस की फिल्में कतार में हैं. रनबीर चाहें तो बेहद आसानी से रॉम कॉम जैसी फिल्में बना कर आसानी से लगातार परदे पर नजर आ सकते हैं. लेकिन वे बेहद सजग होकर काम कर रहे हैं. वे किसी जल्दबाजी में नहीं हैं. उन्होंने शुरुआत भले ही बड़े प्रोडक्शन हाउस के साथ की हो. यशराज की फिल्में रॉकेट सिंह, बचना ऐ हसीनो और संजय लीला की सांवरिया से. लेकिन वर्तमान में वे उन निदर्ेशकों के साथ पूरी शिद्दत से काम कर रहे हैं. जिन पर उन्हें विश्वास है कि वे उनसे अलग तरह का अभिनय करवायेंगे. खुद रनबीर ने स्वीकारा है कि बांबे वेल्वेट अनुराग की फिल्म है. और मैं उनके साथ काम करने का मौका गवाना नहीं चाहता था. चूंकि रनबीर भी अब इस बात से वाकिफ हो चुके हैं कि इंडस्ट्री में अनुराग बसु, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज सरीखे निदर्ेशक उनके अभिनय क्षमता को निखारने में सफल होंगे. यही वजह है कि वे इन सभी निदर्ेशकों के साथ काम कर रहे हैं. जबकि यह सभी निदर्ेशक किसी खानदान से संबंध नहीं रखते. इन सभी ने अपनी मेहनत और लीक से हट कर फिल्में बनाने के कारण अपनी जगह बनाई है. इनके लिए रनबीर कपूर जैसे सुपरस्टार के साथ काम करना सफलता की गारंटी होगी. लेकिन कपूर खानदान से ताल्लुक रखने के बावजूद रनबीर में वह गुरुर नहीं है. फिल्मफेयर अवार्ड हासिल करने के बाद उन्होंने इम्तियाज अली को पूरा सम्मान देते हुए कहा कि सर, मेरे दिल में आपकी कितनी इज्जत है, यह मैं आपको बता नहीं सकता. दरअसल, रनबीर आज के जमाने के कलाकार हैं और वे इस बात से वाकिफ हैं कि सपाट स्क्रिप्ट वाली फिल्मों में वे अपना हुनर नहीं दर्शा सकते और यही वक्त है, जब वह पूरी ऊर्जा के साथ अभिनय दिखा सकते हैं. ऐसे में वे जौहरी के रूप में ऐसे ही निदर्ेशकों के साथ जुड़ते जा रहे हैं. राजकुमार हिरानी की आगामी फिल्म के लिए भी हां कहने की यही वजह रही होगी. चूंकि बचपन से ही वे इस इंडस्ट्री की बारीकियों से ताल्लुक रखते हैं. उन्होंने अपने दादा राज कपूर को पढ़ा है, उनका काम देखा है. बतौर निदर्ेशक उन्होंने किस तरह कलाकारों को निखारा है. सो, अभिनेता होने के साथ साथ निदर्ेशन का दृष्टिकोण भी उनके सामने स्पष्ट रहा होगा. शायद दादा राज को यह एहसास रहा होगा कि उनका यह पोता ऑलराउंडर बनेगा. तभी तो उनउवे बतपन से ही रनबीर को रॉनबो बुलाते थे.

20120315

साहेब, बीवी और माफिया



गुजरात के रॉबिनहुड कहे जानेवाले माफिया सरमन मुंजा जडेजा की वास्तविक जिंदगी पर जल्द ही अष्टविनायक व सोहम शाह प्रोडक्शन के बैनर तले फिल्म का निर्माण होने जा रहा है. इस फिल्म में मुख्य किरदार में संजय दत्त नजर आयेंगे. इस फिल्म के लिए संजय दत्त पूरी टीम के साथ पिछले 15 सालों से रिसर्च कर रहे हैं. फिल्म मई और जून से फ्लोर पर जा रही है. हिंदी सिनेमा में इससे पहले भी माफियों पर आधारित कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है. साथ ही गैंगस्टर पर आधारित विषय पर भी कहानियां गढ़ी जाती रही हैं. खुद संजय दत्त ने ऐसे विषयों पर आधारित जंग, वास्तव व प्लान जैसी फिल्मों में काम किया है. उनके अलावा कंपनी, वन्स अपन अ टाइम इन मुंबई, शूट आउट एड लोखंडवाला व कई ऐसी फिल्में बन चुकी हैं. जल्द ही जॉन अब्राह्म शूटआउट एट वडाला में मान्या सवर्े की भूमिका के किरदार में नजर आयेंगे. लेकिन माफिया शरमन मुंजा जडेजा पर आधारित फिल्म पर सबकी निगाह रहेगी. चूंकि सरमन मुंजा जडेजा की पत्नी संतोखबेन पर वर्ष 1999 में फिल्म गॉडमदर का निर्माण हो चुका है. इस फिल्म में शबाना आजिमी ने संतोखबेन पर आधारित किरदार रांभी की भूमिका निभाई थी. फिल्म में संतोखबेन के जीवन के संघर्ष की कहानी बयां की गयी थी कि किस तरह रांभी ने अपने पति का साथ दिया. भ्रष्ट राजनीतिक सिस्टम व गरीबी के कारण उन्हें माफिया के रास्ते का चुनाव करना पड़ा. और कैसे अपने पति की मृत्यु के बाद न सिर्फ उन्होंने अपने पति की मौत का बदला लिया, बल्कि अपने पति की विरासत को संभाला. गॉडमदर के रूप में विनय शुक्ला ने एक बेहतरीन फिल्म बनाई. और अब संतोखबेन के ही पति पर फिल्म बनने जा रही है. हिंदी सिनेमा में शायद यह पहली बार होगा, जब किसी पति पत्नी की जिंदगी पर आधारित अलग अलग दो फिल्में बन रही होंगी. और उसमें भी पत्नी की जिंदगी पर पहले फिल्मांकन किया गया होगा और पति की जिंदगी में बाद में. वाकई, अनुमान लगाएं कि इन दोनों पति पत्नी की जिंदगी कितनी रोचक और दिलचस्प रही होगी कि माफिया की जिंदगी जीने के बावजूद निदर्ेशक उन पर फिल्म का निर्माण करने जा रहे हैं. दरअसल, हिंदी सिनेमा में ऐसे विषय हमेशा रोचक रहे हैं और दर्शकों को पसंद आये हैं. माफियाओं की वास्तविक कहानी पर आधारित जो भी फिल्में बनी हैं. इन सभी कहानियों में माफिया की जिंदगी के संघर्ष की बखान किया गया है. जिनमें उनकी मजबूरी, हालात व गरीबी को दर्शाया जाता रहा है. यही वजह है कि हाजी मस्तान, संतोखबेन व कई ऐसे माफियाओं के जीवन से आम लोगों के साथ साथ आम दर्शकों की हमदर्दी जुट जाती है. और वे उन्हें गॉडमदर, रॉबिनहुड, फरिश्ता का नाम दे देते हैं. दरअसल, सच्चाई भी यही है कि आज भी ऐसे कई माफिया हैं, जो केवल काला धन कमाने या ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए व्यवसाय नहीं करते. बल्कि आम लोगों की मदद भी करते हैं. वे क्रूरर नहीं होते. दयालु होते हैं. विनय शुक्ला की फिल्म गॉडमदर इस लिहाज से मिसाल के तौर पर पहले से ही सामने है.संभव हो कि सरमन की जिंदगी पर आधारित फिल्म भी उस कसौटी पर खरी उतरे.

20120314

मटरू और बिजली का रोमांच



विशाल भारद्वाज की नयी फिल्म है मटरू की बिजली का मंडोला. फिल्म का शीर्षक आम फिल्मों के शीर्षक से बिल्कुल अलग है.इस फिल्म की चर्चा जोरों से हो रही है. न सिर्फ इसके शीर्षक की वजह से बल्कि इस फिल्म में उन्होंने लीड किरदारों के साथ साथ अपने दो पसंदीदा कलाकारों को भी आमने सामने ला खड़ा किया है. शबाना आजमी और पकंज कपूर. दोनों ही अपनी अपनी विधाओं के माहिर कलाकार हैं. कई सालों पहले दोनों ने साथ में फिल्म एक डॉक्टर की मौत और मंडी में काम किया था. एक बार फिर दोनों साथ हैं. शबाना से विशाल के संबंध फिल्म मकड़ी के दौरान से हैं और पंकज कपूर उस वक्त से विशाल के साथ जुड़े रहे हैं, जब विशाल ने फिल्मों में शुरुआती की थी. फिल्म ब्लू अंब्रैला व मकबूल दोनों ही फिल्मों में पंकज ने विशाल का पूरा सहयोग किया था. भले ही विशाल की इस फिल्म में मुख्य कलाकार आज के स्टार्स हों. लेकिन फिल्म का दिलचस्प पहलू शबाना आजमी व पंकज कपूर जैसे दक्ष कलाकारों को एक साथ फिर से एक मंच पर अभिनय करते देखना होगा. विशाल वाकई बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने संबंधों का उचित इस्तेमाल किया है. चूंकि यह दोनों ही मंझे कलाकार हैं. दोनों ने अपना अपना मुकाम हासिल कर लिया है. जिस दौर में मंडी और एक डॉक्टर की मौत जैसी फिल्में बनी थी.वे अलग दौर था. अब वर्तमान में ऐसे कलाकारों के साथ फिल्मों की परिकल्पना करना और फिर उन्हें ऐसे प्रोजेक्ट के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम रहा होगा. दरअसल, वर्तमान दौर में ऐसे ही कलाकारों को जेहन में रख कर फिल्मों की परिकल्पना की जा सकती है. हां, ऐसी पटकथा लिखना व सोचना मुश्किल जरूर है. ऐसी फिल्में बनें तो इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हिंदी फिल्मों के वे वरिष्ठ कलाकार जो इन दिनों न चाह कर भी वैसी फिल्मों में नजर आते हैं, जिन किरदारों में वह फिट नहीं बैठते. हिंदी सिनेमा जगत में ऐसे कई कलाकार हैं. ओम पुरी, परेश रावल, अनुपम खेर, शबाना आजिमी, पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, दीप्ति नवल, सुप्रिया पाठक व कई ऐसे वरिष्ठ कलाकार हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर स्क्रिप्ट लिखी जा सकती. आज भी इनका अभिनय किसी बिजली की चमक से कम नहीं. निश्चित तौर पर ये कलाकार भी इस बात से वाकिफ हैं कि इन्हें अब लीड किरदारों में नहीं दर्शाया जा सकता. लेकिन विशाल की तरह ही ऐसी स्कि्रप्ट लिखी जा सकती है. जिनमें इन कलाकारों की प्रतिभा का सही इस्तेमाल हो. ताकि फिर से हिंदी सिनेमा में भावनात्मक, महत्वपूर्ण, विषयपरक फिल्में बन सकें. जैसा किसी दौर में हुआ करता है. जिस तरह विशाल ने पंकज कपूर को केंद्र में रख कर ब्लू अंब्रैला बनायी व शबाना को मकड़ी में केंद्रीय भूमिकाएं दीं. ऐसी और भी फिल्में बननी चाहिए. यह सभी कलाकार अभी सक्रिय हैं इसलिए यह बेहतरीन मौका है कि इनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल कर कुछ क्लासिक फिल्में बना ली जायें, ताकि इस दौर में भी व्यवसायिक सिनेमा से अलग कुछ कंट्रीब्यूटिंग फिल्में बन जायें. तो, क्या इन्हें ध्यान में रख कर कुछ ऐसी फिल्मों की परिकल्पना नहीं की जा सकती?

शॉर्ट फिल्मों का शामियाना

भारत में अब तक जो सम्मान फीचर फिल्मों को प्राप्त है. शॉर्ट फिल्मों को नहीं. इसकी वजह यह है कि अब तक शॉर्ट फिल्में बाजार का हिस्सा नहीं बन पायी हैं. जबकि भारत में आज भी लगभग 500 से अधिक शॉर्ट फिल्में बनती हैं. लगभग सभी फिल्म इंस्टीटयूट के छात्रों द्वारा बेहतरीन शॉर्ट फिल्में बनाई जाती हैं. कई ऐसी फिल्में भी बनती हैं, जिनके विषय बेहद अलग होते हैं. अनोखे होते हैं और कई ऐसे अनछुए पहलुओं पर भी केंद्रित होते हैं. जिन पर हमारा ध्यान कभी नहीं जाता. लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि आज भी भारत में ऐसी फिल्में रिलीज नहीं होतीं और इन्हें कोई दर्शक नहीं मिल पाते. कई दर्शकों को तो यह पता भी नहीं होता कि शॉर्ट फिल्में होती कैसी हैं. वे इसे डॉक्यूमेंट्री का ही रूप समझते हैं. जबकि ऐसी कई शॉर्ट फिल्में होती हैं, जो हिंदी फीचर फिल्मों से अच्छी होती हैं. और छोटे अंतराल की होने की वजह से रोचक भी होती है. कुछ ऐसी ही शॉर्ट फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश में यूटयूब पर एक नये चैनल की शुरुआत की गयी है. शामियाना यूटयूब चैनल द्वारा माइशामियाना चैनल. जहां ंहिंदी फिल्मों की तरह ही शॉर्ट फिल्मों के ट्रेलर अपलोड किये गये हैं. दर्शक इन सभी ट्रेलर को देख सकते हैं और उसके बाद खुद निर्णय ले सकते हैं कि वे कौन सी फिल्में देखें. बॉलीवुड में ट्रेलर या फर्स्ट लुक का प्रचलन वर्षों से चला आ रहा है. फिल्मों के ट्रेलर को रोचक और आकर्षक बनाने के लिए हर संभव प्रयास किये जाते रहे हैं. चूंकि ट्रेलर से ही प्रभावित होकर दर्शक फिल्में देखने आते हैं. उस लिहाज से शामियाना चैनल की शुरुआत करना एक सराहनीय प्रयास है. शामियाना क्लब भारत के कई हिस्सों में है. मुंबई, दिल्ली, बंग्लुरु, चेन्नई, अहमदाबाद, गोवा, गुजरात और यहां तक कि यह नागालैंड में भी मौजूद है. इसकी शुरुआत सायरस दस्तुर ने की थी. और उस वक्त से वे लगातार शॉर्ट फिल्मों को एकत्रित करने की कोशिश में जुटे रहते हैं. शुरुआती दौर में उन्होंने इस चैनल पर फिल्में अपलोड करना शुरू किया था. बाद में उन्होंने महसूस किया कि उन्हें फिल्मों का ट्रेलर भी अपलोड करना चाहिए. दरअसल, यह सच है कि वर्तमान में वही फिल्में दर्शकों को लुभा पाती हैं, जिनके ट्रेलर उन्हें आकर्षक और रोचक लगें. क्योंकि ट्रेलर से ही इस बात का अनुमान लगाया जाता है कि फिल्म की कहानी कैसी होगी. हालांकि अब भी हिंदी में ऐसी कई फिल्में बनती रही हैं, जिनके ट्रेलर तो बहुत अच्छे होते हैं. लेकिन फिल्म देखने के बाद यह एहसास होता है कि फिल्म खोखली है. ऐसे में शॉर्ट फिल्मों के ट्रेलर का यह क्लब एक बेहतरीन माध्यम हो सकता है. लोगों को जागरूक करने के लिए कि शॉर्ट फिल्में भी बनती हैं और अच्छे विषयों पर बनती हैं और लोगों को ऐसी फिल्में भी देकनी चाहिए. खास बात यह है कि इस चैनल पर पूरे विश्व की बेहतरीन फिल्मों के ट्रेलर अपलोड किये जाते हैं. और कुछ ऐसी शॉर्ट फिल्में भी, जिन्हें किसी थियेटर में या डीवीडी में देख पाना संभव नहीं होता. जहां बॉलीवुड फिल्मों को इतनी पब्लिसिटी मिलती है. वैसे में इस तरह के प्रयासों को भी सराहा जाना चाहिए. ताकि सिनेमा में हम लीक से हट कर चीजें देख सकें

20120312

पाउडर थोपी हुई गुड़िया..

आज महिला दिवस है और जल्द ही हिंदी सिनेमा जगत अपने 100 वर्ष में प्रवेश करेगा. इन 100 सालों में हिंदी सिनेमा में महिलाओं के कई रूप बदले. वर्तमान में हिंदी सिनेमा में अभिनेत्रियां कम बार्बी डॉल की संख्या ही अधिक है. वह इस लिहाज से कि आज भी अभिनेत्रियां अपने लुक पर अधिक ध्यान देती हैं.
वे पुराने दौर की नायिकाओं की तरह दिखना, संवरना चाहती हैं, लेकिन उनके द्वारा निभाये गये सशक्त किरदारों को निभाने की हिम्मत नहीं रखतीं. अगर उनसे पूछा जाये कि उनका रोल मॉडल कौन सा किरदार है तो वर्तमान की ज्यादातर अभिनेत्रियां हमेशा हॉलीवुड की फ़िल्मों की नायिकाओं के ही किरदारों की बात करेंगी. विद्या बालन सरीकी कम ही अभिनेत्री हैं जो कहती हैं कि वे रेखा या नरगिस की तरह किरदार निभाना चाहती हैं.
दरअसल, बॉलीवुड की यह सच्चाई है कि आज भी अभिनेत्रियां फ़िल्मों में किरदार को कम, अपने कॉस्टयूम, मेकअप, पुरुष लीड पर ही ध्यान देती हैं. क्योंकि इससे उनकी हॉलीवुड वाली छवि धूमिल होती है. वर्तमान में कंगना रानाउत ने फ़िल्म शूटआउट एट वडाला के लिए अपने लुक पर विशेष ध्यान दिया है. उनकी कोशिश है कि वह फ़िल्म में स्मिता पाटिल की तरह नजर आयें. इस फ़िल्म में वह स्लेन गैंगस्टर मान्या सर्वे की गर्लफ्रेंड का किरदार निभा रही हैं. इस फ़िल्म के लिए उनकी पूरी कोशिश है कि वे रेखा की तरह अपना लुक रखें. इसलिए वे लगातार रेखा से टिप्स भी ले रही हैं.
इससे पहले भी कंगना की यही कोशिश रही है कि वह माधुरी दीक्षित की तरह नजर आयें.अभिनेत्री सोनम कपूर की भी हार्दिक इच्छा है कि वे लुक में वहीदा रहमान की तरह नजर आये. कुछ दिनों पहले अफ़वाह थी कि कैटरीना कैफ़ भी कागज के फ़ूल की वहीदा बनेंगी. चित्रांगदा सिंह की तूलना स्मिता पाटिल से की जाती है. विद्या बालन रेखा की तरह ही हमेशा साड़ी पहनना पसंद करती हैं. चूंकि वे भी जानती हैं कि उस दौर की अभिनेत्रियां कभी मेकअप से नहीं बल्कि अपनी सादगी में भी खूबसूरत नजर आती हैं.
उनका वास्तविक सौंदर्य उनका अभिनय था. नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी, नूतन, वहीदा रहमान उन सक्रिय अभिनेत्रियों में से एक रही हैं. जिन्हें उनकी सादगी भरी खूबसूरती व सशक्त अभिनय के लिए जाना जाता रहा है. उस दौर की अभिनेत्रियां अपने मेकअप व कॉस्टयूम को लेकर बहुत सजग नहीं रहती थीं, लेकिन आज के दौर में ऐसी कोई भी अभिनेत्री नहीं हैं, जो हिम्मत रखती हो कि वह बिना मेकअप के कैमरे पर पलभर के लिए नजर आये.
24 घंटे उनका वैनिटी वैन व मेकअप मैन उनके साथ होता है. वे एक कॉस्टयूम कभी दोहराती नहीं. हालांकि विद्या बालन ने द डर्टी पिक्चर्स व कहानी जैसी फ़िल्मों से साबित किया है कि वह वास्तविक अभिनेत्री बन चुकी हैं. लेकिन शेष पूरी अभिनेत्री समूह का क्या? बेहतर हो कि अभिनेत्रियां फ़िल्मों को फ़ैन्सी ड्रेस कांप्टीशन समझना छोड़ सशक्त भूमिकाएं निभाएं. बेहद जरूरी है कि बॉलीवुड अभिनेत्रियां पाउडर थोपी गुड़िया बनने की बजाय किरदार को अहमियत दें.

प्रकृति की गोद में फिल्मोत्सव

कला किसी सीमा तक सीमित नहीं रहती. और फिल्में कला हैं. कला बगैर जुनून के नहीं बनती. और फिल्में बनाना जुनून का ही दूसरा नाम है. फिल्में बनाने के साथ साथ उसे सही दर्शकों तक पहुंचाना भी एक अहम जिम्मेदारी बन जाती है.इन दिनों भारत के कई भागों में कुछ ऐसा ही हो रहा है. जहां एक तरफ बॉलीवुड व देश विदेश में होनेवाले फिल्मोत्सव का आयोजन होता रहा है. वही उत्तराखंड के कुछ गांवों में इन दिनों फिल्मों को लेकर एक अलग ही तरह के आयोजन का माहौल है. उत्तराखंड राज्य के ही कथागोडम से लगभग 70 किलोमीटर दूर इन दिनों सोनपानी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया जा रहा है. इस फिल्मोत्सव की खास बात यह है कि इसका आयोजन स्थल ऐसे स्थान पर किया गया है , जहां चारों तरफ आपको एपिरीकोट व सेव के पेड़ नजर आयेंगे. प्राकृतिक अंदाज में फिल्मोत्सव आयोजन का यह अलग ही अनुभव है. वाकई, प्रकृति की गोद में यह फिल्मोत्सव कितना आनंदायी अनुभव प्रदान करेगा. जानकर आश्चर्य होगा कि इस फिल्मोत्सव के आयोजक दिल्ली निवासी हैं. आशीश अरोड़ा. उनके जेहन में इस फिल्मोत्सव की बात उस वक्त आयी. जब आज से 9 साल पहले उन्होंने तय किया था कि वे अपने पूरे परिवार के सात पहाड़ी इलाके में बस जायेंगे. उन्होंने दिल्ली से रवानगी भरी. और अपने 12 सिंगल रूम के कॉटेज को थियेटर में बदल डाला. साथ ही ऑरगेनिट वेजिटेबल गाडर्ेन की शुरुआत कर दी.उन्होंने उन लोगों को दोस्त बनाया. जो इस तरह की सोच रखते थे. लेकिन पहाड़ी इलाके में अब भी फिल्मों का माहौल नहीं बन पाया था. इसलिए अरोड़ा ने तय किया कि वह पहाड़ी इलाके में ही थियेटर व फिल्मों के एक गुप्र की शुरुआत करेंगे. पिछले साल उन्होंने हिमालयन विलेज म्यूजिक फेस्टिवल से शुरुआत की. और फिर उन्हें जब गुरपाल सिंह से मिलने का मौका मिला तो उन्होंने इस सोनपरी नामक फिल्मोत्सव का आयोजन करना शुरू किया. दरअसल, यह सच है कि प्रकृति की गोद से अधिक आनंद व सुख कहीं नहीं मिल सकता. फिल्में मनोरंजन का ही माध्यम है. और अगर ऐसे में प्रकृति के साथ इस मनोरंजन का साथ मिले, तो मनोरंजन का इससे बेहतरीन फ्यूजन और क्या हो सकता है. इस तरह के फिल्मोत्सव की परिकल्पना ही अपने आप अलग उत्साह व ऊर्जा जगाती है. साथ ही यहां उस तरह की फिल्मों का चुनाव किया गया है. जो अच्छी होने के बावजूद रिलीज नहीं हो पाती. इस फिल्मोत्सव के माहौल को देख कर आप तंबू सिनेमा कल्चर की परिकल्पना कर सकते हैं कि पहले किस तरह गांव में लोग इक्ट्ठे होकर चौपाल लगा कर तंबू गाड़ कर फिल्में देखा करते थे. अब भी बॉलीवुड के कई कलाकार हैं, जो चकाचौंध की जिंदगी से तंग आकर प्रकृति की गोद में कुछ दिनों के लिए समय बिताते हैं. लगभग हर सेलिब्रिटिज के फार्म हाउस हिल स्टेशन पर ही स्थित है. इसकी वजह यह है कि इन स्थानों पर भले ही चकाचौंध जिंदगी न हो, लेकिन सूकून जरूर है और इसी खोज में तमाम लोग ऐसे स्थानों पर आते हैं. ऐसे में सोनपरी जैसी फिल्मोत्सव का आयोजन सराहनीय प्रयास हैं. देखें, तो मनोरंजन का यह बेहतरीन संगम है.

20120307

होली में अवधिया अमिताभ के रंग



होली नजदीक है. किसी दौर में लगभग हर फिल्म में होली के सीक्वेंसेज रखे जाते थे. लेकिन इन दिनों फिल्मों से होली के गीत गायब ही होते जा रहे थे. ऐसे में अमिताभ बच्चन के मेकअप मैन दीपक सावंत ने अपनी भोजपुरी फिल्म गंगादेवी में अमिताभ बच्चन व जया बच्चन को फागुन गीत पर पांव थिरकाने के लिए राजी कर ही लिया है. सिनेप्रेमियों के लिए दीपक सावंत की तरफ से यह एक नायाब तोहफा है. चूंकि हिंदी सिनेमा के दर्शक अपने महानायक को हमेशा ही इस रंग में देखना चाहते हैं. चूंकि अमिताभ जब भी होली के गीतों में नजर आये हैं. वे वास्तविक नजर आये हैं.दरअसल, अमिताभ बच्चन से होली के गीतों का खास जुड़ाव रहा है. आप गौर करें तो अब तक हिंदी सिनेमा में सबसे अधिक होली के गीतों में अभिनेता के रूप में अमिताभ बच्चन की उपस्थिति है. सीधे तौर पर फिल्म सिलसिला के गीत रंग बरसे...में, शोले के गीत होली के दिन दिल मिल जाते हैं...होली खेले रघुवीरा अवध में और अब भोजपुरी फिल्म के गीत मन की पतंग में वे प्रमुखता से अवध अंदाज में फागुन गीत गाते नजर आये. वही फिल्म मोहब्बते में होली सीक्वेंस गीत में वह नजर आते हैं. और फिल्म वक्त के गीत डू मी अ फेवर लेट्स प्ले होली...में भी वह गीत से पहले अक्षय को होली की शुभकामनाएं देते नजर आते हैं.उनकी बहू ऐश्वर्य भी होली के गीत पर एक्शन प्ले में थिरक चुकी हैं.इससे साफ जाहिर है कि अमिताभ को फागुन के रस बेहद पसंद हैं. और वे अपनी फिल्मों के माध्यम से ही सही अवध के फागुन रस का पूरा आनंद उठाते हैं. अमिताभ स्वयं इलाहाबाद से संबंध रखते हैं, जहां की आम बोल चाल की भाषा अवधि है. इन स्थानों पर होली धूमधाम व पूरी मस्ती के साथ मनाई जाती है. शायद यही वजह है कि मूल रूप से इलाहाबाद के होने की वजह से अमिताभ जब जब होली के गीत गाते नजर आते हैं. वे मंत्रमुग्ध हो जाते हैं और लीन होकर वे होली खेलते हैं. उनका यह रूप वास्तविक नजर आता है, क्योंकि मूल रूप से वे उसी मिट्टी के हैं और आज भी वे अपनी मिट्टी से जुड़े हैं. आम दिनों में भी आप उन्हें अगर हिंदी बोलते सुनें तो आप महसूस करेंगे कि उनकी भाषा में अवधिया अंदाज है. और यही वजह है कि होली गीतों में अमिताभ का असल अवधिया अंदाज नजर आता है. निश्चित तौर पर अमिताभ किसी दौर में अपने पिता हरिवंश राय बच्चन के साथ बचपन के दिनों में फागुन के गीत सुनते थे. इस वजह से वे वहां की संस्कृति से अच्छी तरह वाकिफ हैं. फिल्मों में आने के बाद व सुपरसितारा हैसियत प्राप्त करने के बाद वे ऐसी मदमस्त होली शायद ही वास्तविक जिंदगी में खेल पायें.सो, उन्हें जब भी मौका मिलता है, वे अपने अवधिया अंदाज में होली खेलते नजर आते हैं. भले ही वह फिल्मी होली हो.और शायद इसलिए जब भी निदर्ेशकों को मौका मिलता है, वे अमिताभ की फिल्मों में होली के गीत फिल्माते हैं. एक सशक्त गंभीर सा दिखनेवाला अमिताभ होली के गीतों में फागुन रस बरसानेवाला अवध का बाके बिहारी नजर आता है. निदर्ेशकों के लिए होली के गीतों के माध्यम से ही अमिताभ के दिल में छुपे बच्चे को दर्शाने का यह बेहतरीन तरीका होता है.

20120305

हिंदी सिनेमा के इतिहास की कद्र



हिंदी सिनेमा अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. ऐसे में यह बिल्कुल सही समय है, जब हिंदी सिनेमा के उन महान शख्सियतों को याद करें, जिन्होंने हिंदी सिनेमा जगत का विस्तार किया. लेकिन यह अफसोस की बात है कि ऐसे कई शख्स जिन्होंने हिंदी सिनेमा को खास पहचान दिलायी. हिंदी सिनेमा प्रेमी या हिंदी सिनेमा से ताल्लुक रखनेवाले कई लोग उन्हें जानते भी नहीं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भविष्य तभी समृध्द होता है. जब हम इतिहास को भी साथ लेकर चलें. लेकिन हिंदी सिनेमा में इस बात को खास तवज्जो नहीं दी जाती है. बॉलीवुड इन दिनों विकास की गति पर है. बॉक्स ऑफिस पर फिल्में कमाल कर रही हैं. और ओवरसीज माकर्ेट में भी इसे सम्मान मिल रहा है. यह अच्छी बात है कि हम आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन इसके साथ ही साथ हमें अपने इतिहास और उन लोगों को भूलना नहीं चाहिए, जिन्होंने दरअसल, शुरुआती दौर में इस जगत में बीज बोये. फिर इन्हें सींचा. लेकिन यह अफसोसजनक है कि वर्तमान के सक्रिय कलाकार या निदर्ेशक हिंदी सिनेमा की इन शख्सियतों के नाम भी नहीं जानते. देविका रानी, जद्दनबाई, दुर्गा खोटे, सेभ दादा, हिमांशु राय,आदर्ेशर ईरानी जैसे कई नाम हैं, जिनसे वर्तमान के कलाकार अनजान हैं. इन लोगों के बारे में पूछने पर उनके चेहरे पर अलग से भाव नजर आने लगते हैं. आश्चर्य तो तब हुआ जब कई कलाकार निरंजन पाल की किताब की लांचिंग में मौजूद थे. लेकिन उन्हें निरंजन पाल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. वे सभी आपस में बात कर रहे थे कि हू इज एक्चुअली निरंजन पाल. इज ही राइटर और समथिंग...इससे साफ जाहिर होता है कि हम अपने ही इतिहास से कितने वाकिफ हैं. हाल ही में नेशनल फिल्म आरकाइव ऑफ इंडिया द्वारा निरंजन पाल ः द फोरगोटेन लिजेंड नामक किताब का विमोचन किया गया. इस किताब को ललित मोहन जोशी व कुसुम पी जोशी ने तैयार किया है. इस मौके पर साउथ एशियन फिल्म फाउंडेशन लंदन द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई गयी है. मौके पर निदर्ेशक श्याम बेनगल भी मौजूद थे, जिन्होंने कहा कि निरंजन पाल एक महत्वपूर्ण शख्सियत थे. जिन पर किताब लिखी जानी चाहिए थी. दरअसल, निरंजन पाल उन शुरुआती लोगों में थे, जिन्होंने स्क्रीनराइटर, िनदर्ेशक के रूप में हिंदी सिनेमा के साइलेंट दौर में व टॉकी सिनेमा के दौर में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी फिल्म द लाइट ऑफ एशिया उस दौर की शुरुआती फिल्मों में से एक है, जिसमें पूरे एशिया की सही तसवीर दर्शायी गयी. हिमांशु राय के साथ उन्होंने हिंदी सिनेमा में कदम रखा और फिर हिंदी सिनेमा को कई ऊंचाईयों पर ले गये. निरंजन पाल उस दौर के शुरुआती निदर्ेशकों में थे जिन्होंने अछुत कन्या, जीवन नैया व जवानी की हवा जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में दी थी. जिनमें अछुत कन्या को हिंदी सिनेमा का बेंचमार्क माना गया. उन्होंने शुरुआती दौर में अपनी मेहनत से फिल्मों के लिए फंडिंग एकत्रित करना शुरू किया था. ऐसे में निरंजन पाल पर लिखी गयी किताब एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. यह जरूरी है कि हम इतिहास को समृध्द बनायें और इन दस्तावेजों को सहेज कर रखें.

20120304

जिज्ञासा से उत्पन्न रचना है उपनिषद


चाणक्य जैसे महत्वपूर्ण धारावाहिक का सफलतम निर्माण करने के बाद जल्द ही दूरदर्शन पर उपनिषद गंगा नामक धारावाहिक के साथ फिर से डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी दर्शकों से रूबरू होंगे.

कई वर्ष पूर्व रविवार का दिन दूरदर्शन के नाम होता था. वजह थी दूरदर्शन पर इस दिन कई नैतिक मूल्यों पर आधारित धारावाहिकों का प्रसारण होता था. वह दौर था रामानंद सागर का दौर, जिन्होंने कई बेहतरीन धारावाहिकों का निर्माण किया. इसके साथ ही कभी बीआर चोपड़ा के महाभारत ने इतिहास रचा था. महाभारत, श्री कृष्ण, विष्णुपुराण व कई ऐसे महत्वपूर्ण धारावाहिकों का प्रसारण होता रहा और दर्शकों को महत्वपूर्ण ग्रंथ, कथाओं को जानने का मौका मिला. इसी क्रम में चाणक्य भी महत्वपूर्ण धारावाहिक के रूप में दर्शकों के सामने आया था. इस धारावाहिक ने चाणक्य की नीति का विस्तार से वर्णन किया था. नतीजन सफलतम धारावाहिकों में आज भी चाणक्य गुंजमान है. इसका निर्माण करनेवाले थे डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी. एक बार फिर वे दूरदर्शन के साथ ही दूसरी पारी की शुरुआत कर रहे हैं. धारावाहिक उपनिषद गंगा के साथ. इस बीच उन्होंने पिंजर जैसी फिल्मों का निदर्ेशन किया, और अब उपनिषद के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण अध्याय को पलटने की कोशिश में जुट गये हैं. आज के दौर में क्या प्रासंगिक है उपनिषद गंगा. क्यों है ऐसे धारावाहिकों की जरूरत. बता रहे हैं निदर्ेशक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी
उपनिषद का अर्थ
उपनिषद का अर्थ है कि आओ मेरे पास बैठो. चूंकि उपनिषद के अनुसार जब भी कोई दो व्यक्ति जिज्ञासा से बात करते हैं तो वहां से ही किसी न किसी प्रकार की रचना शुरू हो जाती है. तो आप मान लें कि उसी वक्त रचना का प्रारंभ होता है और उपनिषद सार्थक होता है.
भारतीय चिंतन के प्रवाह की झलक
उपनिषद गंगा को मैं धारावाहिक नहीं मानता. यह एक तरह है भारत की सभ्यता और इसके दर्शनों को दर्शाता एक आईना होगा. इसमें भारतीय चिंतन प्रवाह की झलक होगी. चूंकि मैं मानता हूं कि भारत सिर्फ विचार नहीं है. यह विज्ञान भी है और जीवन कला का ही दूसरा नाम भी. मैं मानता हूं कि उपनिषद गंगा भारत की ऐसी धरोहर है, जिसमें जीवन दर्शन का रहस्य है और इससे जानना बेहद जरूरी है.
ॠषि नहीं वह भी वैज्ञानिक हैं
मैं मानता हूं कि ॠषि भी एक वैज्ञानिक की तरह हैं. वे भी पूरे विश्व पर विमर्श करते हैं. वे भी ऐसी ही कल्पना की खोज में हैं, जिसमें वे अपनी एकात्मता को सिध्द कर सकें. ऐसी कई चीजे हैं जो प्राचीन भारतीय साहित्य है. वह धीरे धीरे विलुप्त होने के कगार पर हैं. ऐसे में बहुत जरूरी है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी इन महत्वपूर्ण चीजों को देखें और उन्हें समझने की कोशिश करे. एक प्रकार से यह चेतना है.
चिन्मय मिशन ने किया सहयोग
उपनिषद के गूढ़ तत्वों को कहानियों में ढालना था. और यह भी जरूरी बात थी कि इसे इस तरह कहानियों का रूप दिया जाये, ताकि इन्हें समझने में भी आसानी हो और यह मनोरंजक भी बन सके. इसी दौरान चिन्मय मिशन ने हाथ आगे बढ़ाया. तय हुआ कि उपनिषद की बातों को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाये. तो यह रोचक होंगी. जल्द ही हमें कहानियां भी ढूंढ़ ली. और हमने इस बात का भी ख्याल रखा कि जो भी कहानियां प्रस्तुत की जायें उनमें अवधारणाओं के साथ साथ चिंतन भी हो. उपनिषद गंगा इसी खोज का परिणाम है. हमारी कोशिश है कि हम इसमें वैदिकता के साथ साथ ऐतिहासिक व पौराणिक चीजों को भी शामिल करें.
उपनिषद के साथ गंगा
मैं मानता हूं कि गंगा हमेशा इस बात की साक्षी रही हैं कि किस तरह ज्ञान का निरंतर विकास होता रहा है. सो, मैं मानता हूं कि उपनिषद गंगा के साथ मिल कर सार्थक है.

इस धारावाहिक में मुख्य किरदार निभा रहे हैं अभिनेता अभिमन्यु सिंह. शो का प्रसारण 11 मार्च से दूरदर्शन पर होगा.

जेहन में जिंदा रहेंगे पान सिंह तोमर




फ़िल्म : पान सिंह तोमर
कलाकार : इरफ़ान खान, माही गिल, विपिन शर्मा एवं राजेंद्र गुप्ता
निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया
संगीत : अभिषेक रे
रेटिंग : 4.5 स्टार
यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में बनने के बाद रिलीज के लिए कई वर्षो तक इंतजार करती हैं. जबकि ऐसी कहानियों की हिंदी सिनेमा जगत को सख्त जरूरत है. फ़िल्म के निर्देशक तिग्मांशु धुलिया विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने ऐसे अनछुए विषय को चुन कर उस पर शोध परक फ़िल्म बनाने की हिम्मत की.
यह हर लिहाज से हिंदी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है. न सिर्फ़ विषय के लिहाज से बल्कि, कलाकारों के चयन, लोकेशन का चयन, निर्देशन, लेखन, सभी लिहाज से सिनेमा की हर विधा में कसौटी पर उतरती है यह फ़िल्म.
फ़िल्म की कहानी एक आम व्यक्ति से फ़ौजी बने, फ़िर खिलाड़ी बने और फ़िर हालात से मजबूर होकर बागी बने पान सिंह तोमर की कहानी है. यह फ़िल्म एक साथ कई संदेश देती है. एक आम व्यक्ति कभी शौक से बागी नहीं बनता या हथियार नहीं उठाता. हालात से मजबूर होकर ही उसे कदम उठाना पड़ता है.
साथ ही उन तमाम खिलाड़ियों को यह फ़िल्म श्रद्धांजलि देती है, जो सम्मान व सुविधाओं के हकदार होते हुए भी उनसे वंचित रह जाते हैं. इस फ़िल्म की खास बात यह भी है कि निर्देशन के दृष्टिकोण से तिग्मांशु ने इस पर पूरा शोध किया है. उन्होंने स्टीपलचेज खेल की बारीकियों को खूबसूरती से बैकग्राउंड स्कोर के साथ परदे पर उतारा है. साथ ही इरफ़ान ने भी किरदार को पूरी तरह जीवंत कर दिया है. इरफ़ान ने पान सिंह के किरदार को निभाया नहीं, बल्कि उसे जिया है.
फ़िल्म में वे पान सिंह ही नजर आते हैं. उन्होंने एक खिलाड़ी, अपने परिवार से प्यार करनेवाला ग्रामीण व्यक्ति, फ़ौजी और फ़िर बागी एक साथ कई भूमिकाएं निभायी हैं और सभी प्रभावशाली हैं. उनकी संवाद अदायगी, चेहरे के भाव सबकुछ कह जाते हैं. इस फ़िल्म से उन्होंने साबित कर दिया है कि हिंदी फ़िल्मों में उन्हें ध्यान में रख कर ऐसे विषयों पर कहानी बनायी जा सकती है. ऐसी फ़िल्मों में किसी अभिनेता की मेहनत परदे पर नजर आती है.
पान सिंह तोमर एक गंभीर विषय होते हुए भी फ़िल्म ऊबाउ नहीं लगती. इसमें मनोरंजन के भी भरपूर तत्व मौजूद हैं. अन्य किरदारों में राजेंद्र गुप्ता, विपिन शर्मा, माही गिल के साथ सभी सह कलाकारों ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. संवाद लिखने में एक बार फ़िर तिग्मांशु व संजय चौहान की टीम सफ़ल रही है. फ़िल्म हर दर्शक के लिए है. फ़िल्म देखने के बाद यह फ़िल्म आप पर इस कदर प्रभाव छोड़ेगी, कि आपके जेहन में हमेशा पान सिंह तोमर जिंदा रहेंगे

बॉक्स ऑफ़िस पर वोटिंग




प्राय: हिंदी सिनेमा के निर्देशकों से शिकायत की जाती है कि वे अच्छी फ़िल्में नहीं बनाते. अच्छे विषयों की खोज नहीं होती. विषयपरक फ़िल्में नहीं बनती. हिंदी फ़िल्मों को भी हॉलीवुड की फ़िल्मों की तरह गंभीर होना होगा. उसे नाच गाने से ऊपर उठना होगा और न जाने ऐसी और कौन कौन सी तोहमत लगायी जाती है, लेकिन जब अच्छी फ़िल्में बनती हैं तो उन्हें दर्शक नहीं मिलते.
लोगों तक अच्छी फ़िल्मों की जानकारी तक ही नहीं पहुंच पाती और फ़िर विषयपरक अच्छी फ़िल्मों को, प्रयोगात्मक फ़िल्मों को बॉक्स ऑफ़िस पर सफ़लता हासिल नहीं होती. निराश होकर निर्देशक फ़िर अच्छी फ़िल्में न बनाने के लिए बाध्य हो जाता है. अब दौर आ चुका है कि सिनेमा को कला के रूप में देखा जाये.
फ़िर चाहे वह मल्टीप्लेक्स के दर्शक हों या फ़िर सिंगल थियेटर के या फ़िर किसी भी छोटे शहर के. अब इस बात पर सोचने विचारने का समय आ चुका है कि दर्शक जिस तरह अपने जीवनशैली से जुड़ी हर बात का चुनाव सोच समझ कर करते हैं. उसी तरह वे फ़िल्मों का भी चुनाव करें.
यह बेहद जरूरी है कि वे प्रोमोशन के बहकावें में न जायें. यहां पान सिंह तोमर फ़िल्म के प्रमोशन का इरादा नहीं, लेकिन एक अच्छे दर्शक होने के नाते हर भारतीय दर्शक को यह फ़िल्म जरूर देखी जानी चाहिए थी. यह अफ़सोस की बात है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स व कई माध्यमों के बावजूद फ़ेसबुक पर अब भी लोग पूछते हैं यह पान सिंह तोमर कौन है? यही वजह है कि पान सिंह तोमर, चिल्लर पार्टी, स्टैनली का डब्बा, बबलगम, साडा अड्डा जैसी कई फ़िल्में आती हैं और चली जाती हैं.
दर्शकों के गलत चुनाव की वजह से इन्हें असफ़ल मान लिया जाता है. हकीकत यही है कि अच्छी फ़िल्में बनाना एक खर्चीला व्यवसाय है. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि ऐसी फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर भी कमाल दिखा पायें. वरना, दोबारा इन निर्देशकों को अच्छी फ़िल्में बनाने के लिए हिम्मत जुटाने में भी तकलीफ़ होगी. साथ ही बजट जुगाड़ने में भी. ऐसे में बेहद जरूरी है कि ऐसी फ़िल्मों का प्रमोशन न भी हो तो दर्शक खुद फ़िल्में देखने जायें.
जिस तरह वह वोट करते वक्त आप बार बार सोचते हैं कि सही उम्मीदवार ही जीतें. उसी तरह फ़िल्मों का चुनाव भी इसी आधार पर करें, ताकि अच्छी फ़िल्में बनें. बार-बार सोचें. खुद निर्णय लें. गुगल पर जायें, खुद सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से जानने की कोशिश करें कि जिस फ़िल्म के लिए वह पैसे खर्च कर रहे हैं, वह वाकई सही है या नहीं. इसका यह कतई अर्थ नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही देखी जाये.
बल्कि इसका सीधा संदर्भ इससे है कि मसालेदार व मनोरंजक फ़िल्मों के साथ साथ छोटी-स्तरीय फ़िल्मों को भी बढ़ावा मिले.अच्छी फ़िल्मों को अच्छी और बुरी फ़िल्मों को बुरी कहने का प्रचलन शुरू हो. दर्शकों को ही फ़िल्में देखने व चुनने के विषय को गंभीरता से लेना होगा, ताकि दर्शकों का सही वोट सही फ़िल्म को सफ़ल बना सके.अच्छे बुरे का फ़र्क करना ही होगा

20120302

बिहढ़ में बागी होते हैं, डकैत नहीं




तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म पान सिंह तोमर आज रिलीज हो रही है. फ़िल्म की कहानी एक ऐसे व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसने किसान के घर जन्म लिया. फ़िर फ़ौज में नौकरी की. देश के लिए सात सालों तक चैंपियन का खिताब जीता. कई रिकॉर्ड तोड़े. फ़िर अचानक वह गांव लौटता है, तो उसकी जिंदगी बदल जाती है और वह डाकू बन जाता है.
या यूं कहें बागी बन जाता है. आखिर क्यों? ऐसे कौन से हालात होंगे उस व्यक्ति के सामने जिसने उसे बागी बनने पर मजबूर किया होगा. निश्चित तौर पर फ़िल्म इन पहलुओं पर प्रकाश डालेगी. फ़िल्म का एक अहम संवाद है, जिसमें अभिनेता इरफ़ान खान (पान सिंह तोमर की भूमिका निभा रहे हैं) अपने समूह के एक व्यक्ति के यह पूछने पर कि वह डकैत कैसे बने..जवाब देते हैं कि बिहढ़ में बागी होते हैं. डकैत होते हैं पार्लियामेंट में.
फ़िल्म के यह संवाद दरअसल, उन तमाम बागियों के बोल हैं, जो हालात से मजबूर होकर ही डकैती का रास्ता इख्तियार करते हैं. वे डकैत नहीं, बल्कि बागी होते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ़ बगावत कर रहे होते हैं. वे मानते हैं कि सिस्टम डाकू है, जो आम लोगों के सामने ही उन्हें लूट रहा है. इसलिए डाकू वे हैं. बागियों का मकसद तो कभी डाकू बन कर किसी खजाने की लूट करना नहीं, बल्कि सिस्टम को यह जताना होता है कि वे किस हद तक जा सकते हैं.
हिंदी सिनेमा में अब तक डाकुओं की जिंदगी पर कई कहानियां बयां की गयी है. लेकिन अगर हम इस बिंदू पर गौर करते हुए उन फ़िल्मों को देखें तो बैंडिट क्वीन, लाल सलाम जैसी कुछेक ही फ़िल्म है जो डकैत की जिंदगी को नहीं बल्कि बागियों की जिंदगी को चरितार्थ करती है. इन फ़िल्मों में उन तमाम परिस्थितियों को दर्शाया गया है, जिनकी वजह से आम व्यक्ति यह रास्ता इख्तियार करता है. उम्मीदन इस लिहाज से पान सिंह तोमर की कहानी हिंदी सिनेमा की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में से एक होगी.
चूंकि फ़िल्म के निर्देशक तिग्मांशु की पूरी कोशिश रही है कि वे बागियों की जिंदगी को सही रूप से परदे पर चरितार्थ कर सकें. बैंडिट क्वीन जैसी संवेदनशील फ़िल्म निर्माण के दौरान व पान सिंह पर रिसर्च कार्य के दौरान ही तिग्मांशु इस बात से अवगत हो गये थे कि चंबल के बागी घोड़े पर नहीं चलते. वे पैदल चल कर अपनी मंजिल तय करते हैं. तिग्मांशु ने इन बारीकियों का पूरा ध्यान रखा है. शायद यही वजह है कि इरफ़ान चाहते हैं कि वे इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग चंबल के बागियों के समूह के साथ भी करें. चूंकि हिंदी सिनेमा ने जिस तरह एक डाकू की छवि लोगों के जेहन में बिठायी है.
वह या तो गब्बर सिंह की है, जो सिर्फ़ लोगों पर जुल्म ढाता है या फ़िर उस डाकू की छवि जो गांव को लूट कर ऐश मनाता है. उसकी लंबी मूंछ होती हैं और वे प्राय: काले रंग के कपड़े पहनते हैं और उनका मन भी उनके कपड़े के काले रंग की तरह खूंखार होता है. दरअसल, अपने ऐशो आराम, उल्लास व लार्जर दैन लाइफ़ जिंदगी जीनेवाले ये डाकू फ़िल्मी डाकू होते हैं. वास्तविक जिंदगी में झांकें तो मुफ़लिसी की जिंदगी में गुजर बसर कर रहे इन बागियों की असल जिंदगी व उनके दर्द का एहसास होगा.