20120208

सरहद पार, नये सिनेमा की बयार




पाकिस्तानी निर्देशक शोएब मंसूर की दो फ़िल्में खुदा के लिए व बोल ने साबित कर दिया है कि तमाम बंदिशों के बावजूद अगर कोई फ़िल्मकार संवेदनशील हो, तो वह पूरी हिम्मत के साथ बेझिझक और निडर होकर अपनी बात रख सकता है. बोल में उन्होंने एक ऐसी लड़की की कहानी कही, जो उस मुल्क में जन्मी है, जो पुरुषवादी है.
इसके बावजूद वह अपने परिवार की खिलाफ़त करने की हिम्मत दिखाती है. दूसरी तरफ़, फ़िल्म खुदा के लिए में भी मंसूर महिला के मानवाधिकार की अगुवाई कर रहे हैं. पाकिस्तान की जड़ से जुड़ी ये फ़िल्में पूरे विश्व में सराही जा रही हैं. इससे साफ़ जाहिर होता है कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री की जो स्थिति थी, धीरे-धीरे उसमें बदलाव आ रहे हैं. पाकिस्तान में भी अब विषयपरक फ़िल्में बनने लगी हैं.
हालांकि, यह भी सच है कि आज भी वहां ऐसी फ़िल्में सिनेमा हॉल तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही हैं. लेकिन फ़िल्मों का बन जाना और उसका विश्वव्यापी असर होना, सकारात्मक संदेश देता है. यही नहीं, अब पाकिस्तान में मॉडर्न विषयों पर भी फ़िल्में बनने लगी हैं. इसका ताजा उदाहरण हमद खान की स्लैकिस्तान है. फ़िल्म की पूरी शूटिंग इसलामाबाद में हुई है. वर्ष 2010 गोवा इफ्फ़ी फ़िल्मोत्सव के दौरान इस फ़िल्म को देखने का मौका मिला था.
इस फ़िल्म में हमद ने उन सभी मुद्दों को उठाया है, जिससे आज यह देश जूझ रहा है. उन्होंने फ़िल्म के माध्यम से उस पहलू को भी उजागर किया है, जिसकी वजह से आतंकवाद को बढ़ावा मिल रहा है. यही वजह है कि फ़िल्म के प्रदर्शन पर वहां की सरकार ने रोक लगा दी है. लेकिन फ़िल्म विश्व के सभी फ़िल्मोत्सव का हिस्सा बनी और इसे सराहना भी मिली.
इस वर्ष पहली बार ऑस्कर के लिए कोई पाकिस्तानी फ़िल्म मनोनीत हुई है. सेविंग फ़ेस नामक इस फ़िल्म में महिला निर्देशक शरमान अबेद ने क्राइम ऐसड वॉयलेंस के मुद्दे उजागर किये हैं. पाकिस्तान से किसी महिला निर्देशक का उभरना भी देश के लिए बड़ी उपलब्धि है.
दरअसल, सच्चाई यही है कि उन सभी देशों में जहां के लोग आज भी कई रूपों में अपने अधिकारों का हनन होते देख रहे हैं, अब क्रांति के मूड में हैं. निस्संदेह न्यू वेब सिनेमा के माध्यम से एक नयी बयार चली है. अब वे फ़िल्में दर्शकों को लुभाने लगी हैं, जो फ़ूहड़ व चलताऊ विषयों से अलग हैं. चूंकि इन फ़िल्मों के विषय उनकी वास्तविक जिंदगी पर आधारित हैं. वर्ष 1959 से 1969 तक पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री ने सुनहरा दौर देखा. उस दौर में अयूब खान वहां के राष्ट्रपति थे.
इसकी खास वजह यह थी कि उस दौर ने इस इंडस्ट्री को कई उम्दा कलाकार दिये. वे बाद में लीजेंड बने, इसी दौर में पाकिस्तान ने रंगीन फ़िल्मों का दौर देखा. धीरे-धीरे सेंसरशिप के दबाव में कई गंभीर मुद्दों को उजागर करने पर रोक लगा दी गयी. फ़िल्मों में केवल रोमांस व फ़ूहड़ता परोसे जाने लगे. लेकिन अब फ़िर से युवा फ़िल्मकारों ने नयी लौ जलायी है. इसका स्वागत हो.
डीप फ़ोकस
वर्ष 1964 में जहिर रेहान की फ़िल्म संगम पाकिस्तानी की पहली रंगीन फ़िल्म थी

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