20120205

प्रयोगात्मक फ़िल्मों का दौर

परसेप्ट पिक्चर्स वैसे युवा निर्देशकों को प्रोत्साहित कर रहा है, जो लीक से हट कर कुछ नया करने का जज्बा रखते हों. इसी क्रम में दो युवा यश दवे और अलिशन पटेल ने सिनेमा की दुनिया में नया प्रयोग किया है. वर्ष 2010 में कुछ दोस्त मिल कर कहीं जंगल में अपने प्रोजेक्ट के लिए फ़िल्म बनाने गये.
फ़िर लौटे ही नहीं. लेकिन उनका कैमरा मिला, जिसमें कुछ फ़ुटेज हैं. वह फ़ुटेज किसी पहेली की तरह हैं. सो, परसेप्ट पिक्चर्स ने तय किया है कि वे इसी फ़ुटेज से एक फ़िल्म बनायेंगे और फ़िल्म का कोई भी शीर्षक नहीं देंगे. फ़िल्म का फ्रंट केवल प्रश्नचिह्न के रूप में दिखाई देगा. वहीं, दूसरी तरफ़ 14 देशों के 25 निर्देशक मिल कर एक ही विषय पर फ़िल्म बना रहे हैं.
बोलती फ़िल्मों के दौर में साइलेंट फ़िल्म द आर्टिस्ट धूम मचा रही है. इससे प्रेरित होकर ही अनुराग कश्यप ने साइलेंट फ़िल्मों की एक प्रतियोगिता करायी, जिसमें फ़िल्मकारों को छोटे अंतराल की साइलेंट फ़िल्में बनानी थी. बजट के अभाव में निर्देशक सुधीश कामथ ने गुड नाइट, गुड मॉर्निग बनायी. इसमें पूरी कहानी दो लोगों के फ़ोन पर हुई बातचीत के आधार पर बनी है.
यह कंसेप्ट भी सिनेमा में नये प्रयोगों का ही सूचक है. युवा फ़िल्मकार महेश पाटील ने भी हाल ही में लघु फ़िल्म ए ब्लाइंड फ़ेथ बनायी है, जिसमें उन्होंने कर्नाटक की कुरीति को दर्शाया है. इन सभी फ़िल्मों पर बातचीत इसलिए, क्योंकि यह इस बात की सूचक हैं कि भले ही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा राज कर रहा हो, उसके समानांतर नित नये प्रयोग हो रहे हैं. नये-नये आइडियाज के साथ फ़िल्में बन रही हैं. फ़िल्मों में तकनीकी रूप से प्रयोग हो रहे हैं.
अब फ़िल्में बनाने के लिए मोबाइल कैमरा भी काफ़ी है. अगर वाकई आपके पास सोच है, तो. शायद यही वजह है कि द ओर्टस्ट जैसी साइलेंट फ़िल्में भी उल्लेखनीय हो जाती हैं. फ्रेंच भाषा में बनी इस फ़िल्म ने दुनिया के कोने-कोने में प्रभाव छोड़ा, क्योंकि फ़िल्म में प्रयोग किये गये हैं. दर्शकों को नयी चीजें देखने को मिलीं. फ़िल्म में दर्शाया गया है कि कैसे मूक फ़िल्मों से बोलती फ़िल्मों का दौर बदला.
किस तरह मूक फ़िल्मों से जुड़े कलाकारों की रोजी-रोटी उनसे छिन गयी और कैसे एक महान कलाकार तकनीक व बदलते दौर की वजह से हार गया. रंगीन रील में दिखायी जानेवाली फ़िल्मी दौर में द ओर्टस्ट ब्लैक एंड व्हाइट रील में बनी. वाकई, ऐसे प्रयोग सराहनीय हैं. यह सच है कि आज भी भारत में शॉर्ट फ़िल्में या ऐसी फ़िल्में व्यापक रूप से दर्शकों तक नहीं पहुंच पाती.
फ़िर भी कई संस्थाएं ऐसी हैं, जो ऐसे फ़िल्मकारों व फ़िल्मों में रुचि ले रही हैं. भारत के कोने-कोने से ऐसे प्रयोगों में भारतीय फ़िल्मकारों की भागीदारी इस बात का प्रमाण है कि भारत में प्रयोगशील प्रतिभाओं की कमी नहीं है

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