20120229

एक किरदार, एक जुनून




उस वक्त निदर्ेशक तिग्मांशु शेखर कपूर के साथ चंबल में बैंडिंट क्वीन की शूटिंग कर रहे थे.जब उनकी नजर अखबार या पत्रिका के प्रकाशित एक खबर पर गयी. पान सिंह तोमर के बारे में. जो धावक के रूप में चैंपियन थे. उस खबर में उनके इनकाउंटर की जिक्र थी. तिग्मांशु ने चंबल के लोगों से पान सिंह के बारे में जानने का प्रयास किया. थोड़ी जानकारी मिली. पता चला कि पान सिंह तोमर एक सुबेदार थे. उन्होंने सात सालों तक नेशनल गेम्स में धावक के रूप में पुरस्कार हासिल किया. वे चैंपियन रहे. लेकिन इसके बावजूद आज उनके बारे में कोई रिकॉर्ड्स उपलब्ध नहीं.उन्होंने तय किया कि वे इस विषय पर फिल्म बनायेंगे. पान सिंह तोमर के किरदार के लिए उन्होंने अभिनेता इरफान खान पर भरोसा किया. और इरफान ने उसे पूरी शिद्दत से निभाया.और यह बन गया इरफान की जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण किरदार. अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण किरदार के बारे में इरफान खान ने अनुप्रिया अनंत से बातचीत की.साथ ही फिल्म के निदर्ेशक, लेखक व पान सिंह के जुड़े लोगों से भी बातचीत


इरफान खान पान सिंह तोमर में मुख्य किरदार निभा रहे हैं और इसे वह अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म मानते हैं.
इरफान, आपने इस किरदार को निभाने के लिए कई फिल्में छोड़ीं. क्या यह किरदार की मांग थी? इस किरदार ने आपको क्यों प्रभावित किया.

तिग्मांशु ने मुझे पान सिंह के बारे में बताया. साथ ही एक पत्रिका में मैंने एक स्टोरी पढ़ी थी. वह जेहन में थी. तिग्मांशु से बात करने पर कई बातें स्पष्ट हुईं. हमने महसूस किया कि इस पर फिल्म बननी चाहिए. चूंकि पान सिंह वास्तविक जिंदगी में धावक,सुबेदार, किसान परिवार के व्यक्ति फिर एक बागी बने. तो, इस लिहाज से इस किरदार के लिए मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार होना था. ताकि मैं किरदार के साथ न्याय कर सकूं. मुझे दौड़ने की ट्रेनिंग लेनी पड़ी, चूंकि पान सिंह चैंपियन थे दौड़ में. तो सामान्य ट्रेनिंग से बात नहीं बनती. इसमें कोच सतपाल सिंह ने मेरी बहुत मदद की. फिर मुझे चंबल में लोगों के साथ समय बिताना जरूरी था. ताकि वहां से फ्रेंडली हो सकूं. दूसरी बात पान सिंह एक दिलचस्प किरदार है. एक ऐसा व्यक्ति जो सात सालों तक चैंपियन रहा. फिर बागी बना, लेकिन लोग उनके बारे में जानते ही नहीं. ऐसे में मैंने तय किया कि मैं यह फिल्म जरूर करूंगा.आप जब यह फिल्म देखेंगे तो खुद महसूस करेंगे कि यह कितनी दिल को छू देनेवाली फिल्म है. यह बेहद संवेदनशील फिल्म होगी.अगर मैं यह कहूं कि मैंने इस किरदार को अपना दिल दिया है तो यह गलत न होगा. एक और बात की खुशी है कि इस फिल्म को तिग्मांशु ने जल्दबाजी में नहीं बनाया है. लगभग 1.5 सालों तक रिसर्च किया. और इसलिए मैंने कोई और फिल्म इस दौरान नहीं कि ताकि इस फिल्म में कंटीन्यूटी की परेशानी न हो.
किरदार को निभाने में किस तरह की चुनौतियां सामने थी.
दरअसल, पान सिंह वास्तविक जिंदगी में एक साथ बहुत कुछ थे. मुझे भी उसी तरह खुद की तैयारी करनी पड़नी. उनके बारे में बहुत जानकारी उपलब्ध नहीं. सो, किरदार के साथ न्याय भी करना था.मैं चंबल में रहा. उनके गांववालों से मिला. डाकुओं के व्यवहार को समझने की कोशिश की. हमने गर्मी के वक्त जलती धूप में शूटिंग की. वह भी पैदल चलके. सच यह है कि निदर्ेशक तिग्मांशु बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस कठिन फिल्म को साकार कर दिया.और मैं खुद मानता हूं कि हिंदी सिनेमा में बतौर अभिनेता मेरी तरफ से यह कंट्रीब्यूटिंग फिल्म होगी.
पान सिंह के गांव से व उनके परिवार वालों से आपको उनके बारे में क्या जानकारियां मिली?
वहां के लोगों ने बताया कि वे सुबेदार थे. लेकिन उन्होंने समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया और अपने गांव मोरेना चले आये. वह अपनी जमीन से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर परेशान थे. उन्होंने कई लोगों से मिलने की कोशिश की. मदद मांगी, लेकिन जब मदद नहीं मिली तो वह बागी बन गये. 50 साल की उम्र में उनका इनकाउंटर हो गया था.फिर हम उनके परिवार के कई सदस्य से मिले. उनके व्यक्तित्व को जानने का मौका मिला. साथ ही यह भी महसूस किया हमने कि भारत के ऐसे कई गांव है, जहां आज भी कितनी गरीबी है. लेकिन उनकी सूध लेनेवाला कोई नहीं है. बेरोजगारी ही उन्हें तो यह सब करने पर मजबूर करती है.
आपने बताया कि आप वहां बागियों के समूह के साथ भी रहे. क्या महसूस किया आपने उनके बारे में?
यही कि वह भी इंसान है.जानबूझ कर यह सब नहीं करते. हालात से मजबूर हैं. चूंकि सरकार, प्रशासन उन्हें मदद नहीं देती. वे यह सब करते हैं. मैंने महसूस किया कि वहां तो पेट पालने के लिए व दो वक्त की रोजी रोटी का जुगाड़ करना भी कितना कठिन है. वहां जंगल है. रोजगार के कोई विकल्प नहीं है. ऐसे में इनका जीवन कितना कठिन है. इन लोगों की स्थिति पर भी प्रशासन का ध्यान जाना ही चाहिए.
फिल्म की शूटिंग किन किन स्थानों पर हुई?
चंबल घाटी के अलावा राजस्थान के धोलपुर इलाके, जिमन कॉरबेट नेशनल पार्क व रुड़की व देहरादून में शूटिंग हुई. तोमर रुड़की व देहरादून में पोस्टेड थे.
पान सिंह तोमर पर फिल्म क्यों बननी चाहिए थी.? क्या संदेश देना चाहेंगे.
क्योंकि यह सच्ची घटना है. पान सिंह होनहार थे. जूनूनी थे. वे चैंपियन थे. लेकिन इसके बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. उनके बारे में लोग नहीं जानते. सूध लेनेवाला कोई नहीं. यह कहानी इस बात का सूचक है कि कैसे अभाव व प्रशासन के ध्यान न दे पाने की वजह से चैंपियन डकैत के राह पर चला जाता है. मजबूरीवश. ऐसे में एक फिल्म के जरिये ही सही लोग ऐसे व्यक्तित्व को जान तो पायेंगे.


परदे पर पान सिंह
डाकू घोड़ों पर नहीं चलते ः तिग्मांशु धुलिया, निदर्ेशक-लेखक

बैंडिट क्वीन की शूटिंग के दौरान मुझे डाकुओं की जिंदगी को बहुत करीब से जानने का मौका मिला था.वहां रहते हुए मैं यह जान पाया था कि डकैत की वास्तविक जिंदगी कितनी कठिन होती है. उनकी जिंदगी लार्जर दैन लाइफ नहीं होती, बल्कि बुरी परिस्थितियों व हालात से मजबूर होकर वह बंदूक उठाते हैं. अब तक फिल्मों में दिखाया जाता रहा है कि डकैत घोड़ों पर सवार होते हैं. मैंने यह नहीं दिखाया है, क्योंकि यह सच है कि चंबल की जमीन ऐसी पत्थरीली है कि वहां घोड़े चल ही नहीं सकते. डाकू हमेशा पैदल ही चलते हैं.अर्थात मेरी कोशिश है कि मैं सच दिखाऊं. यह फिल्म लिहाज से भी कठिन थी कि इसमें रिसर्च की बेहद जरूरत थी. और रिसर्च के लिए फंड जुटाना मुश्किल था. लेकिन विकास बहल यूटीवी से फंड करवाया.इरफान का चुनाव इस किरदार के लिए इसलिए किया, क्योंकि वह अनुशासित कलाकार हैं. इस किरदार के लिए उन्हें कई फिल्में छोड़नी पड़ी. और उन्होंने छोड़ा भी. यह सिर्फ इरफान ही कर सकते थे.

डॉक्यूमेंटेशन है पान सिंह तोमर ः संजय चौहान, को राइटर
यह बेहद निराशाजनक बात थी कि भारत में ऐसे खिलाड़ी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, जो चैंपियन रह चुका है. किस परिस्थिति में कोई सुबेदार बंदूक उठाता है और बागी बन जाता है. फिर 80 के दशक में उसका इनकाउंटर हो जाता है. यह बेहद अफसोस की बात है कि हमारे देश में आज भी कई खिलाड़ियों की दुदर्शा होती है. और हमें जानकारी भी नहीं मिलती. इस लिहाज से पान सिंह तोमर जैसी फिल्में बननी चाहिए. साथ ही इस फिल्म में एक आम व्यक्ति के जीवन की कहानी है, जो मजबूरीवश बागी बन जाता है. यह एक तरह से डॉक्यूमेंटेशन है. और ऐसी फिल्में बनती रहनी ही चाहिए. पान सिंह तोमर का किरदार गढ़ने में एक बड़ी चुनौती यह थी कि उनके बारे में कहीं कुछ भी डॉक्यूमेंटेशन नहीं है. गांव के लोगों से बातचीत व पान सिंह के कोच से बातचीत के आधार पर उनका किरदार गढ़ा.वास्तविक कहानी थी. उस लिहाज से इरफान ने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है.

वास्तविक जिंदगी में पान सिंह तोमर
1.आर्मी से उन्हें 52.50 पैसे मिलते थे. जिसमें वे केवल 2.50 पैसे अपने पास रखते. बाकी हमारे पास भेज देते थे.वह कभी किसी भी तरह का नशा नहीं करते थे.- इंदिरा, पत्नी
2.पान सिंह ने अपने गैंग में 28 डाकुओं के समूह को तैयार किया. वे उन्हें बंदूक चलाना, दौड़ना करना सिखाते थे.वह अपने गुप्र के लोगों को इस तरह तैयार करते थे जैसे वे फौजी हों.वे बेहद मजाकिया व्यक्ति थे. उनकी एक खास बात थी कि वे अपने गांव के युवाओं को कभी डकैत बनने के लिए प्रेरित नहीं करते थे. बल्कि वह चाहते थे कि सभी बच्चे पढ़ें और काबिल बनें. - बलवंता, पान सिंह के करीबी.
3.ुपान सिंह से मैं 56 में दिल्ली में मिला था.मुझे याद है. वहां पाकिस्तान के साथ हमारा मैच था. लेकिन नेशनल चैंपियन बना वह 1957 में.इसके बाद वह लगातार चैंपियन बनता रहा -मिल्खा सिंह, महान खिलाड़ी
4. पान सिंह हमेशा बहुत गंभीर, आदर्शवादी रहा. वह अनुशासित व्यक्ति था. वह कभी व्यवहार से विद्रोही नहीं लगता था. पान सिंह दौड़ते वक्त हमेशा लंबे डेग भरता था. वह अपनी हाथों से कई इशारे करता था,जिससे हम जान जाते थे कि वह किसी दिशा में मुड़ेगा.-मिस्टर साहनी, पान सिंह तोमर के कोच

खुली फ़िजाएं, पर लगाने की करें तैयारी


सिनेमा सबसे प्रतिष्ठित सम्मान ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित होने के बाद पाकिस्तानी मूल की महिला फिल्मकार शरमीन ओबेड चिन्नॉय ने पूरे मूल्क के लोगों को धन्यवाद देते हुए कहा कि यह अवार्ड पाकिस्तान की तमाम महिलाओं के नाम है. पाकिस्तान की सभी महिलाएं बदलाव के लिए आगे कदम बढ़ाएं. अपने सपनों को साकार करें. उनके इन्हीं शब्दों पर पूरा हॉल गूंज उठता है. कैमरा जब एक फिरंगी सेलिब्रिटिज की तरफ घूमता है. तो उस वक्त शरमीन के जोश और हिम्मत को देखते हुए उस महिला के मुख से भी वॉव, ग्रेट की आवाज सुनाई देती है. दरअसल, यह कामयाबी केवल शरमीन की नहीं, बल्कि उस मूल्क की तमाम उन महिलाओं के लिए है, जो कई वर्षों से खास बंदिश की वजह से अपने पर नहीं फैला पायीं. यह संदेश व संकेत है कि उन्हें अब फिजाएं मिल रही हैं. जरूरी है कि वह अपने पर फैलाएं और जीएं भी दुनिया को और जीते भी दुनिया को. 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का अवसर नजदीक है. ऐसे अवसर पर किसी देश के लिए इससे अधिक फक्र करने का मौका और क्या होगा. जब उनके देश को पहली बार ऑस्कर दिलाने का जरिया एक महिला बनी हों.यह वाकई पाकिस्तान जैसे देश के लिए गर्व की बात है. धीरे धीरे फिल्मों के माध्यम से ही सही जो बयार पाकिस्तान की छवि को सुधारने में की जा रही है. वह अतुलनीय है. शरमीन ने अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म सेविंग फेस के जरिये उन तमाम महिलाओं के जीवन की आपबीती को दर्शाया है, जो एसिड हमले की शिकार हुईं और उनकी जिंदगी तबाह हो गयी. शरमीन ने डॉ मोहम्मद जावद की मदद से उन महिलाओं की सर्जरी व उनकी वर्तमान परिस्थिति का सजीव चित्रण किया है. उन्होंने हकीकत प्रस्तुत करने की कोशिश की है. इस फिल्म के ट्रेलर को अगर ध्यान से देखें, तो यह पाकिस्तान की दो महत्वपूर्ण सकारात्मक छवि प्रस्तुत करती है.एक तो यह है कि कैसे पाकिस्तानी मूल्क के होनहार लोग भी अपने देश की सेवा के लिए लौट रहे हैं. जैसे स्वयं डॉक्टर जावद लौटे, साथ ही फिल्म की वजह से पाकिस्तान को संसद में एसिड वॉयलेंस के खिलाफ बिल पास करना ही पड़ना.दरअसल, शरमीन ने अपनी फिल्म के जरिये ही उन सभी महिलाओं को न्याय दिलाया है. किसी ऐसे मूल्क में रह कर जहां अधिकतर महिलाएं परदे में रहना ही मुनासिब समझती हैं. ऐसे में इन महिलाओं से एक कदम आगे बढ़ कर फिल्म का निर्माण करना और मुद्दे के रूप में ऐसे ज्वलंत मुद्दे उठाना. किसी जोखिम से कम नहीं था. लेकिन तमाम परेशानियों के बावजूद शरमीन ने वह कर दिखाया और आज पूरे विश्व में पाकिस्तान का सिर ऊंचा किया. दरअसल, अब पूरे विश्व को व खासतौर से वैसे मूल्कों को जहां आज भी महिलाएं लिहाज या डर की वजह से परदे के पीछे ही सिमटी रहती हैं. वैसे देश को ऐसी ही हिम्मती व जुनूनी शरमीन की जरूरत है, ताकि बदलाव आ सके और महिलाएं खुल कर सांस ले सकें. साथ ही विश्व पटल में महिलाओं के साथ देश की छवि भी सुधरे. इस भोर की सुबह बहुत सुहानी है. कोशिश बस यही हो कि यह सूरज ढलने के लबाद सितारा बन कर अंधेरे में भी जगमगाये. ताउम्र.

खुली फ़िजाएं, पर लगाने की करें तैयारी




सिनेमा ke सबसे प्रतिष्ठित सम्मान ऑस्कर अवॉर्ड से सम्मानित होने के बाद पाकिस्तानी मूल की महिला फ़िल्मकार शरमीन ओबेड चिन्नॉय ने पूरे मूल्क के लोगों को धन्यवाद देते हुए कहा कि यह अवॉर्ड पाकिस्तान की तमाम महिलाओं के नाम है. पाकिस्तान की सभी महिलाएं बदलाव के लिए आगे कदम बढ़ायें. अपने सपनों को साकार करें.
उनके इन्हीं शब्दों पर पूरा हॉल गूंज उठता है. दरअसल, यह कामयाबी केवल शरमीन की नहीं, बल्कि उस मूल्क की तमाम वैसी महिलाओं के लिए है, जो कई वर्षो से खास बंदिश की वजह से अपने पर नहीं फ़ैला पायीं. यह संकेत है कि उन्हें अब फ़िजाएं मिल रही हैं. जरूरी है कि वह अपने पर फ़ैलाएं. आठ मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. इस अवसर पर किसी देश के लिए इससे अधिक फ़क्र करने का मौका और क्या होगा, जब उनके देश को पहली बार ऑस्कर दिलाने का जरिया एक महिला बनी हों.
शरमीन ने अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म सेविंग फ़ेस के जरिये उन तमाम महिलाओं के जीवन की आपबीती को दर्शाया है, जो ऐसड हमले की शिकार हुईं और उनकी जिंदगी तबाह हो गयी. शरमीन ने डॉ मोहम्मद जावद की मदद से उन महिलाओं की सर्जरी व उनकी वर्तमान परिस्थिति का सजीव चित्रण किया है. इस फ़िल्म के ट्रेलर को अगर ध्यान से देखें, तो यह पाकिस्तान की दो महत्वपूर्ण सकारात्मक छवि प्रस्तुत करती है.
एक तो यह कि कैसे पाकिस्तानी मूल्क के होनहार लोग अपने देश की सेवा के लिए लौट रहे हैं. साथ ही फ़िल्म की वजह से पाकिस्तान को संसद में ऐसड वॉयलेंस के खिलाफ़ बिल पास करना ही पड़ा. दरअसल, शरमीन ने अपनी फ़िल्म के जरिये ही उन सभी महिलाओं को न्याय दिलाया है. किसी ऐसे मूल्क में रह कर जहां अधिकतर महिलाएं परदे में रहना ही मुनासिब समझती हैं.
यहां फ़िल्म का निर्माण करना और मुद्दे के रूप में ऐसे ज्वलंत मुद्दे उठाना, किसी जोखिम से कम नहीं था. दरअसल, वैसे मूल्कों को जहां आज भी महिलाएं लिहाज या डर की वजह से परदे के पीछे ही सिमटी रहती हैं, को ऐसी हिम्मती व जुनूनी शरमीन की जरूरत है, ताकि बदलाव आ सके और महिलाएं खुल कर सांस ले सकें

20120228

सितारों को भी कीमत चुकानी पड़ती है



पिछले दिनों सैफ अपने परिवार व दोस्तों के साथ मुंबई के बड़े होटल में पार्टी कर रहे थे. वे वहां मस्ती के मूड में थे. लेकिन एक एनआरआइ बिजनेसमैन के साथ वाद विवाद व हाथापाई होने की वजह से उनकी मस्ती पुलिस केस में फंस गयी. इस हाथापाई में सैफ ने बिजनेसमैन पर हाथ उठाया, जिसकी वजह से उस एनआरआइ की नाक में गंभीर चोट आ गयी. मीडिया इस बात को तूल दे रही है कि यह पब्लिसिटी स्टंट है, जिसका इस्तेमाल सैफ अपनी फिल्म एजेंट विनोद के लिए कर रहे हैं. लेकिन इस मामले ने इस हद तक तूल पकड़ ली है कि अब कपूर खानदान के कई लोगों को भी पुलिस गवाही के लिए बुला रही है. मामला कोर्ट में जा चुका है और इससे साफ जाहिर है कि मामले ने गंभीरता का रूप ले लिया है. जबकि सैफ इस मामले में सफाई देते हुए कहा है कि उन्हें पहले उकसाया गया था. तब उन्होंने हाथ उठाया. उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था. किसी सेलिब्रिटिज द्वारा यह पहली बार नहीं हो रहा. इससे पहले भी कई बार सितारों द्वारा हाथापाई व मारपीट की घटना आयी है. इंडस्ट्री में साफ सुथरी इमेज रखनेवाले रितिक रोशन भी उस वक्त खुद पर काबू नहीं रख पाये थे. जब शिरडी दर्शन के दौरान वहां की भीड़ में से किसी ने रितिक के परिवार को चोट पहुंचाने की कोशिश की थी. अभिषेक बच्चन द्वारा किसी मीडियाकर्मी को मामूली से धक्के लग जाने की वजह से अभिषेक पर केस कर दिया गया था. कुछ इसी तरह गोविंदा ने मनी है तो हनी के सेट पर उस वक्त अपना आपा खो दिया था, जब एक अजनबी जान बूझ कर एक्ट्रेस को छेड़ने की कोशिश कर रहे थे. जॉन अब्राह्म ने बिपाशा बसु की सुरक्षा के लिए हाथ उठा दिया था. दरअसल, इस तरह के मुद्दे आने के बाद प्रायः सेलिब्रिटिज पर यह दोष मढ़ दिया जाता है कि यह उनकी फिल्मों की पब्लिसिटी स्टंट का ही एक जरिया है. जबकि कई बार ऐसा नहीं होता.कई बार ऐसे कई आम लोग भी होते हैं जो जबरन पब्लिसिटी पाने के लिए इन सेलिब्रिटिज का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा पहलू यह भी है कि सेलिब्रिटिज भी आम इंसान ही हैं. एक आम व्यक्ति की ही तरह जब वह अपने परिवार या किसी मित्र को किसी तरह की परेशानी में देखते हैं तो वे भी गुस्से में आ जाते हैं. यह लाजिमी भी है. हां, मगर यह बात है कि चूंकि वह सेलिब्रिटिज हैं तो उन्हें अपना आपा नहीं खोना चाहिए. क्योंकि उनकी बातों का तील का ताड़ बनाया जाता है. लेकिन गुस्से में किसी भी व्यक्ति का दिमाग उनके नियंत्रण में नहीं रहता. खुद रितिक ने उस वक्त कहा था कि कोई भी व्यक्ति यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि किसी भी वजह से उनके परिवार को किसी तरह की चोट पहुंचे. अगर ऐसा होता है तो गुस्सा आना लाजिमी है. ठीक उसी तरह कोई को स्टार्स यह पसंद नहीं करेगा कि उसकी को स्टार के साथ छेड़खानी हो. दरअसल, सच्चाई यह है कि वह सेलिब्रिटिज होते हैं इसलिए कई मामूली से झगड़ों को भी तूल दिया जाता है. ताकि वह परेशान होते रहें. सच तो है कि कई बार सेलिब्रिटिज होने की वजह से उन्हें अधिक कीमत चुकानी पड़ती है, अधिक परेशानी का सामना करना पड़ता है. सो, बेहतर हो कि वे फूंक फूंक कर ही कदम रखें.

कल दो चार और एक्सट्रा ले आना



फिल्मों में प्रायः हमारी नजर फिल्म के अभिनेता अभिनेत्री की तरफ जाती है. लेकिन शायद ही हमने कभी गौर किया हो कि किसी गीत को और खूबसूरत बनाने में अभिनेता अभिनेत्री को सपोर्ट कर रहे पीछे खड़े वे तमाम चेहरे भी होते हैं, जिन्हें हम उनके नाम से नहीं, बल्कि एक्सट्रा के नाम से नाम से जानते हैं. वे फिल्मों की खास जरूरत हैं. हर दिन 250-500 रुपये के लिए वे उसवक्त तक काम करते रहते हैं, जब तक पैकअप न हो जाये. जिन बड़े कलाकारों के साथ वे कई बार फिल्मों में काम कर चुके हैं. शायद ही उनमें से किसी सितारे ने कभी इनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की हो. इस रविवार मुझे मौका मिला, कुछ ऐसे ही लोगों से मिलने का. जो कई वर्षों से लगातार एक्स्ट्रा की जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं. मुंबई के धारावी के शास्त्रीनगर में एक ऐसा समूह रहता है, जो फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता है. इन लोगों में महिलाएं भी शामिल हैं. और पुरुष भी. एक महिला सुशीला राजठांडे मिलीं, जो आम दिनो में मूर्तियां बनाती हैं. और काम मिलने पर एक्स्ट्रा का काम करती हैं. वे बताती हैं कि इ अपन लोगन का मजबूरी है. एइच तरीके से एक दिन में रोकड़ा मिल जाता है. कभी 250 कभी 500 रुपये. दूसरा काम करो तो इतना नहीं मिलता. दूसरा वहां खाना भी भरपेट मिल जाता है और घर परिवार के लिए लाने को भी देते वो लोग. सुशीला की जिंदगी एक ही कमरे के अंदर सिमटी है. उसी एक कमरे में बिस्तर है. सुशीला के तीन बच्चे हैं. दो लड़की. एक लड़का. लड़का सबसे छोटा है. सुशीला कहती है कि उनके पति भी यही काम करते है. या तो मूर्ति बनाते हैं या एक्सट्रा के रूप में काम करते हैं. वे उत्साहित होकर बताती है कि नयी अग्निपथ में मांडवा गांव के सीन में थे वह. सामने देवदास की माधुरी-ऐश वाली तसवीर है. वजह पूछने पर...क्या मैडम. आपको नजर नहीं आयी. ये देखिए पीछे अपन भी तो है. उस तसवीर में सुशीला के केवल हाथ नजर आ रहे थे. लेकिन फिर भी वह खुश है. फिर मुझे अपने संदूक से वह वे सारे पोस्टर्स दिखाती है, जिन जिन फिल्मों में वह नजर आयी है. बकौल सुशीला मैडम हम लोगों को हमारा कॉर्डिनेटर बताता है कि कब जाना है? और हम चले जाते हैं. हम लोग भी स्टार लोग से कमती नहीं हैं. हमलोग भी उनकी माफिक बहुत इच फिल्म में काम किया है. कभी डांसर के रूप में. कभी गांववालों के रूप में तो कभी हॉस्पिटल के मरीज के रूप में. सुशीला अपनी फिल्मी दास्तां पूरी दिलचस्पी से सुनाती है और साथ ही कई और महिलाओं से भी मिलवाती है, जो एक्स्ट्रा के रूप में काम करती हैं. लेकिन जैसे जैसे शाम ढलता है. सुशीला के चेहरे पर मायूसी छा जाती है. सुशीला भी अपना दर्द छुपा नहीं पाती. मैडम सच तो यह है कि हम लोग को भी अच्छा नहीं लगता. वहां सेट पर हमलोगों के साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसे तबेले में गाय-बैलों के साथ. लेकिन क्या करें. परिवार के लिए करना पड़ता है. सबसे तकलीफ उस वक्त होती है. जब पैकअप होने के बाद हमारे कॉर्डिनेटर को कहा जात है कि कल आओगे तो दो चार एकस्ट्रा और लेते आना...जैसे हम इंसान नहीं जानवर हों या कुर्सियां टेबल.

20120224

क्योंकि ब्रेक भी जरूरी होता है

orginally published in prabhat khabar

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं. वे अस्पताल में कई दिनों से अपनी चिकित्सा करा रहे हैं. संभव हो और कामना भी है कि यह आलेख प्रकाशित होने तक वे घर वापस लौट आयें.वे कुली की शूटिंग के दौरान घायल हुए और वह दर्द आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही. अमिताभ पिछले कई सालों से लगातार बीमार पड़ रहे हैं. वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं. इससे निस्संदेह इस बात पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जाना चाहिए कि अमिताभ को अब काम करना छोड़ देना चाहिए. नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए. लेकिन यह सच है कि अमिताभ को निरंतर काम से थोड़ा ब्रेक जरूर लेना चाहिए. यह सच है कि वर्तमान में अमिताभ बच्चन की तरह कोई भी बड़ा सितारा व्यस्त नहीं है. न तो उनका कोई हमउम्र और न ही कोई युवा सितारे. अमिताभ न सिर्फ फिल्मों के काम में बहुत व्यस्त रहते हैं. बल्कि व विज्ञापनों के काम. विदेशों की फिल्मों के काम में भी व्यस्त रहते हैं. जब वे केबीसी में व्यस्त थे. उस वक्त उन्होंने अपना पूरा समय इसे समर्पित किया. उसके बाद उन्होंने कहानी फिल्म के लिए रिकॉर्डिंग की, उन्होंने आदेश श्रीवास्तव के कैसेट के लिए रिकॉर्डिंग की. हाल ही में गुजरात गये. यहां तक कि जिस दिन वह अस्पताल में भर्ती होने जा रहे थे. उसके एक दिन पहले उन्होंने अपने मेकअपमैन दीपक सावंत की फिल्म की शूटिंग पूरी की. वे मुंबई में रहते हैं तब भी वे कई समारोह में भाग लेते रहते हैं. अपनी बहू के मां बनने की खुशी में उन्होंने कुछ ही दिन पूरी तरह छुट्टी के रूप में घर में बिताया.निस्संदेह थोड़े काम करके ही थक कर चुर होने जानेवाले युवाओं के लिए वह प्रेरणा के स्रोत हैं. चूंकि इस उम्र में भी वे लगातार काम कर रहे हैं. लेकिन साथ ही यह भी स्वीकारना होगा कि उन्हें काम के साथ आराम के प्रति भी वफादार होना होगा. चूंकि उनका बार बार बीमार पड़ना, यह दर्शा रहा है कि उनके शरीर को थोड़ा आराम चाहिए. गौर करें तो सलमान हाल ही में हुई सर्जरी के बाद सजग हो गये हैं. उन्होंने तय किया है कि अभी वे कुछ दिन आराम करेंगे. रजनीकांत अभी शूटिंग पर वापसी नहीं कर रहे, शाहरुख रा.वन व डॉन2 के बाद कुछ दिनों के लिए आराम कर रहे हैं. व्यस्त होने के बावजूद विद्या कुछ दिनों के लिए ब्रेक लेंगी. आमिर साल में एक ही फिल्म कर ऊर्जा बरकरार रखते हैं. यह बेहद जरूरी है कि कलाकार छोटे अंतराल पर काम से ब्रेक लें. चूंकि शूटिंग बेहद थकानेवाला काम है, जिसमें बहुत ऊर्जा लगती है. मुमकिन हो कि शायद अमिताभ आज भी अपने जीवन के उस बड़े झटके को भूल नहीं पाये हों, जब वे आर्थिक रूप से कमजोर हुए थे. शायद यही वजह है कि वे लगातार काम करते रहते हैं. चूंकि एक बार अगर जीवन में झटके लगते हैं तो या तो इंसान टूट जाता है या अत्यधिक सजग या सहम जाते हैं. शायद यही वजह है कि अमिताभ लगातार काम कर रहे हैं. ताकि उनकी जिंदगी में फिर से वे बुरे दिन न लौटें. यह लाजिमी भी है. लेकिन अमिताभ ने हार कर फिर दोबारा वापसी की है और हार कर जंग जीतनेवाले को बाजीगर कहते हैं. आज वे बॉलीवुड के बाजीगर हैं. इसलिए बेहतर हो वे काम करते रहें. लेकिन साथ ही सेहत के साथ लापरवाह न करें.

पीता हूं कि बस सांस ले सकूं
हाल ही में मुंबई के महबूब स्टूडियो में शाहरुख खान ने बिमल रॉय परिवार व नसरीन मुनी कबीर की उपस्थिति में बिमल रॉय के देवदास की मौलिक संवाद लेखन पर आधारित किताब द डायलॉग ऑफ देवदास लांच किया. ओम बुक इंटरनेशनल व हाइपन फिल्मस द्वारा किताब का प्रकाशन किया गया है.इस मौके पर राजिंद्र सिंह बेदी, इला बेदी. तलत मेहमूद की बेटी सबिना भी वहां मौजूद थी. इस किताब में यही वजह रही कि इस मौके पर शाहरुख खान उपस्थित थे. यह किताब इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है, चूंकि इस किताब में बिमल रॉय के बच्चे रिंकी, यशोधरा, अपराजिता व जॉय ने भी अपनी बात लिखी है. जिससे बिमल रॉय की जिंदगी व उनके फिल्मी लगाव के बारे में लोगों को बेहतरीन जानकारी मिलेगी. दिलीप कुमार बिमल रॉय के देवदास थे. सो, वे इस मौके पर उपस्थित होना चाहते थे. लेकिन सेहत ठीक न होने की वजह से वे उपस्थित नहीं हो पाये. मगर उन्होंने एक पत्र के माध्यम से देवदास से जुड़ी अपनी यादों को लोगों से सांझा किया, जिसे पढ़ कर शाहरुख ने सुनाया. निस्संदेह जब फिल्म के संवाद की चर्चा हो रही थी. तो, फिल्म के कुछ लोकप्रिय संवादों को पढ़ कर शाहरुख ने सुनाया. वे संवाद सुन कर वाकई उन सभी देवदास फिल्मों की यादें तरोताजा हुईं, जो हिंदी में बनी हैं. सिवाय अनुराग कश्यप की देवडी की, चूंकि बाकी देवदास में अनुराग की देवडी प्रयोगात्मक थी. बहरहाल, इस किताब पर बातचीत. निस्संदेह यह एक बेहतरीन किताब है और बेहतरीन पहल है. किताबों के माध्यम से अगर पटकथाओं को संजोया जाये तो कई महत्वपूर्ण फिल्मों की पटकथा को संरक्षित किया जा सकता है. जिस तरह विदु विनोद चोपड़ा अपनी फिल्म 3 इडियट्स की पटकथा पर किताब रिलीज कर चुके हैं. उस लिहाज से नसीरीन मुनी ने एक बेहतरीन तरीका चुना है. आज भी बिमल रॉय के देवदास व देवदास पर बनी फिल्में बहस का हिस्सा है. कुछ मानते हैं कि देवदास बावरां था.उसे इस तरह स्तुति करना जरूरी नहीं. जबकि कई लोग मानते हैं कि देवदास बेहतरीन फिल्म थी और बिमल रॉय की देवदास सर्वश्रेष्ठ थी. खुद दिलीप कुमार इसे जीवन की महत्वपूर्ण फिल्म मानते हैं.दरअसल, सच्चाई यह है कि अब तक कई रीमेक बनते आये हैं. लेकिन देवदास उन फिल्मों में से एक है, जिसके संवाद नहीं बदले. यह फिल्म के संवाद की ताकत है. फिल्म के वे संवाद कि ...एक दिन आयेगा, जब कहेंगे दुनिया ही छोड़ दो व कौन खम्बख्त बर्दाश्त करने के लिए पीता है...सबसे अधिक लोकप्रिय हुए. यहां तक कि वैसी युवा पीढ़ी जिन्होंने अब तक कोई भी देवदास नहीं देखी. वे भी बातों बातों में यह संवाद दोहराते नजर आते हैं. क्योंकि आज भी हारे हुए प्रेमी खुद को देवदास ही कहलाना चाहते हैं. दरअसल, यह उन सभी निदर्ेशकों की खासियत रही कि उन्होंने एक टूटे दिल से निकले संवाद को हमेशा जीवंत रूप दिया. क्योंकि वे संवाद दरअसल, संवाद नहीं एक टूटे दिल के दास्तां है. यह सच है कि जब दिल टूटता है तो सांस लेने भर की मजबूरी बाकी रह जाती है.देवदास हर दौर में जिंदा रहेंगे. क्योंकि दिल तो हर दौर में टूटता है.चूंकि जब भी दिल टूटेगा, एक नया देवदास कहलायेगा.

20120221

स्थानीय फिल्मों की नयी भोर



orginally published in prabhat khabar date : 22feb2012

राजस्थानी भाषा में ही एक फिल्म रिलीज हुई है भोभर. फिल्म के निर्माता व निदर्ेशक गजेंद्र एस श्रोत्रिय हैं. फिल्म की कहानी व गीत रामकुमार सिंह ने लिखा है. फिल्म के कलाकार भी राजस्थान से हैं और कहानी भी किसान रेवत और उसके परिवार के संघर्षों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है. यह फिल्म पिछले हफ्ते बॉलीवुड फिल्म एक दीवाना था के साथ ही रिलीज हुई. लेकिन राजस्थान में बॉक्स ऑफिस पर भोभर का जादू चला. किसी स्थानीय फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर भी कामयाबी मिले तो यह चौंकानेवाली बात है.किसी राजस्थानी फिल्म की यह अब तक की सबसे बड़ी रिलीज है. आलम यह है कि वहां के मल्टीप्लेक्स में जहां इन्हें कुछ शो मिले थे. अच्छे रिस्पांस को देखते हुए सोमवार से आयनॉक्स ने भोभर के एक शो और बढ़ा दिये हैं. साफ जाहिर है कि दर्शक अपनी मिट्टी की कहानी परदे पर देख कर खुश हैं और यहां स्थानीय फिल्मों का स्वागत किया जा रहा है. निस्संदेह भोभर की टीम का मनोबल बढ़ा है.जबकि फिल्म की रिलीज से पहले वे सभी चिंतित थे, चूंकि वे जानते हैं कि वे छोटी मछलियां हैं और बॉलीवुड का बॉक्स ऑफिस सरीकी बड़ी मछलियां हमेशा होनहार मछलियों को भी निगल जाती हैं. लेकिन इस बार अलग हुआ. भोभर बेहद ही सीमित बजट में बनाया गयी. किसी फीचर फिल्म को इतने सीमित बजट में बनाना एक चुनौतीपूर्ण काम है. भोभर की कामयाबी से साफ जाहिर हो रहा है कि राजस्थान के गांव गांव भी अब प्रगति की राह पर हैं.भोभर को भी कई अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में शामिल किया गया. यह सब राजस्थान की प्रगति के परिचायक हैं. जहां तकनीक के साथ सिनेमा का भी विकास हो रहा है. भोभर की टीम के सदस्यों ने बताया कि कैसे उन्हें राजस्थान के डिस्ट्रीब्यूटर्स, मल्टीप्लेक्स के मालिकों से भी मदद मिली. लेकिन इस आधार पर अगर बिहार व झारखंड की बात करें तो निराशा होती है. चूंकि आज भी तरक्की के पथ पर अग्रसर होने के बावजूद स्थानीय सिनेमा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा. बिहार में हुए ग्लोबल समिट में जावेद अख्तर ने कहा कि बिहार की कहानी व यहां के कलाकारों के लेकर फिल्में बनानी चाहिए. यही की भाषा में. ऐसी बातें सिर्फ भाषणों में ही अच्छी लगती है. चूंकि सच यह है कि बिहार की स्थानीय भाषा भोजपुरी में फिल्में तो बन रही हैं. लेकिन उसमें केवल अश्लीलता परोसी जा रही है. फिल्मों का बिहार की स्थानीयता से कोई नाता नहीं. वही अगर कोई निदर्ेशक भोजपुरी में स्तरीय फिल्म बनाये तो वहां उसे सहयोग नहीं मिलता. हाल ही में रिलीज हुई एक भोजपुरी फिल्म के साथ ऐसा ही सलूक किया गया. बिहार की इंडस्ट्री के ही कुछ लोग उसके खिलाफ हो गये. उसकी नेगेटिव पब्लिसिटी की गयी. जबकि फिल्म की कहानी बिहार के कलाकारों व वहां के युवाओं की कहानी के आधार पर बनी स्तरीय फिल्म थी. झारखंड में स्थानीय भाषाओं में कई फिल्में बनती रही हैं.लेकिन न तो उसे अच्छे थियेटर मिले हैं न ही दर्शक. तसवीर साफ है कि मराठी व दक्षिण भाषाओं के बाद अब राजस्थान जैसा प्रगतिशील राज्य भी स्थानीय सिनेमा को बढ़ावा दे रहा है.लेकिन बिहार, झारखंड अभी भी जागरूक नहीं हो रहे.जबकि जागरूक होने की जरूरत है.

20120220

बंदिनी तू, सुजाता भी तू



orginally published in prabhat khabar
21feb2012


वह बिमल रॉय की बंदिनी थी. तो ॅषिकेश दा की अनाड़ी की चुलबुली गुड़िया भी. वह सुजाता की सुजाता थी व दिल्ली की ठग की एमएएडी मैड माने पागल भी.हिंदी सिनेमा ने नूतन के रूप में वह हीरा हासिल किया था, जैसा तराशो वह आकार ले ले. लेकिन उसकी मौलिकता-खूबसूरती उसी तरह बरकरार रहे.
छोटी उम्र से फ़िल्मों में कदम रखनेवाली नूतन ने 1991 में आज के दिन दुनिया को अलविदा कहा था. अंतिम समय तक उन्होंने फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड का सम्मान हासिल किया. दरअसल, नूतन वह अभिनेत्री थीं, जिन्होंने औरत के वास्तविक रूप को सिनेमाई चेहरा प्रदान किया. कभी कर्मा की देशभक्त मां बनीं, तो कभी मैं तूलसी तेरे आंगन की में नेक दिल औरत. कभी अनाड़ी की बदमाश, मस्तमौला लड़की. तो बंदिनी में पति को परमेश्वर माननेवाली कल्याणी.
उनकी फ़िल्में देख कर यह अनुमान लगाना असंभव था कि असल जिंदगी में उनका कौन-सा किरदार उनसे मेल खाता है. नूतन की जिंदगी में यूटर्न तब आया, जब वह मां शोभना के कहने पर विदेश गयीं. और लौटीं. निर्देशकों ने उनमें रुचि लेना शुरू किया. उनकी फ़िल्म सीमा हिट रही. नूतन ने जहां एक तरफ़ औरत की ममता, खूबसूरती, चंचलता का चित्रण अपने किरदारों से किया. वहीं फ़िल्म दिल्ली का ठग में स्विमिंग सूट पहनने से भी गुरेज नहीं किया.
फ़िल्म सुजाता में जाति के आधार पर होनेवाले भेदभाव पर आधारित किरदार को भी बखूबी निभाया है. नूतन की खास बात थी कि वे औरत की तरह शर्माना, खिलखिलाना जानती थीं. लेकिन कभी श्रृंगार को गहना नहीं माना. नूतन की जिंदगी का 1959 सबसे अहम वर्ष रहा. चूंकि इसी वर्ष उनकी फ़िल्म सुजाता सुपरहिट रही.उन्हें फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला. ऋषिकेश दा की फ़िल्म अनाड़ी में वे राज कपूर के साथ आयीं.
फ़िल्म को अपार सफ़लता मिली. वर्ष 1959 में ही उन्होंने अपनी जिंदगी का अहम फ़ैसला भी लिया और कमांडर रजनीश बहल के साथ सगाई की. वर्ष 1986 में वह पहली बार दिलीप कुमार के साथ फ़िल्म कर्मा में नजर आयीं. और यह फ़िल्म भी कामयाब रही. वे गाने की शौकीन रही थीं. बाद के सालों में उन्होंने श्रीलंका में कई कांसर्ट किये और गीत गाये.
डीप फ़ोकस
नूतन ने व्यस्क होने से पहले ही व्यस्क फ़िल्म नगिना में काम किया था. वह यह फ़िल्म देखने थियेटर पहुंची तो चौकीदार ने हंगामा मचा दिया था.
-अनुप्रिया अनंत-

20120219

जल बिन जल परी



Orginally published in prabhat khabar
Date: 20 feb2012
जल बिन. जल परी. फिल्म का यह शीषर्क ही पूरी कहानी बयां कर रहा है.बचपन में हम सुना करते थे कि मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है. हाथो लगाओ डर जायेगी, बाहर निकालो मर जायेगी. चूंकि यह सच है कि मछली जल की ही रानी है और परी है. वह तभी तक जीवित है और रानी है.जब तक उसके पास जल है. वरना जीवन में कुछ नहीं.दरअसल, यह पंक्तियां एक वास्तविक सच भी है और उन लोगों के लिए एक चेतावनी भी, जो हमेशा अपनी जरूरतों व अपने फायदे के लिए कुछ इसी तर्ज को आधार मान कर शायद एक फिल्म की परिकल्पना की गयी है और जल बिन जल परी के रूप में यह जल्द ही लोगों को सामने होगी. बहुचर्चित फिल्म आइ एम कलाम की सफलता के बाद निदर्ेशक नीला मधाब पंडा जल बिन जल परी नामक फिल्म लेकर आ रहे हैं. इस फिल्म की कहानी एक गांव के इर्द-गिर्द घूमती है. हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले में मुख्यतः फिल्माई गयी है कहानी. फिल्म में पानी के अभाव पर मुख्य रूप से प्रकाश डाला गया है.एक लड़की है. जो जलपरी बनने का ख्वाब देखती है. लेकिन उस गांव में पानी का घोर अभाव है. साथ ही फिल्म में पुरुष केंद्रित समाज की भी तसवीर पेश की गयी है. इस फिल्म को दर्शाने का माध्यम भले ही फीचर हो. लेकिन फिल्म वास्तविकता के साथ कही जा रही है. निदर्ेशक ने एक ासथ दो अहम मुद्दों को उठाया है. निश्चित तौर पर यह निदर्ेशक के लिए चुनौतीपूर्ण है, कि वह किस हद तक दोनों विषयों के साथ न्याय कर पाते हैं. लेकिन पहल सराहनीय है. चूंकि पिछले कई समय से ऐसी फीचर फिल्में नहीं बन रहीं, जो इस तरह के मुद्दे को उजागर करे. विशेष कर पानी के किल्लत को लेकर. हालांकि इस विषय पर फिल्म बनाने के लिए कई निदर्ेशक कार्यरत रहे हैं. लेकिन पूरी तरह कामयाब नहीं. कुछ समय पहले तक खबर थी कि शेखर कपूर पानी की किल्लत को केंद्र में रखते हुए फिल्म बना रहे हैं. लेकिन इस फिल्म में सुपरसितारा कलाकारों को लेने की चाहत में अब तक वे इस पर आगे नहीं बढ़ पाये हैं. एक और फिल्म कच्छ की पृष्ठभूमि पर बनने की खबर थी. जल. जिसे गिरीश मल्लिक निदर्ेशित कर रहे थे. लेकिन अब तक इस फिल्म के निर्माण की भी कोई जानकारी नहीं. उस लिहाज से निदर्ेशक नीला ने एक अच्छी सोच. कम बजट व सही दृष्टिकोण के साथ जल बिन जल परी की कहानी रची है. दरअसल, सच भी यही है कि ऐसे विषयों पर अगर फीचर फिल्में बनाने की योजना बनाई जाये, तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो कि ऐसी कहानियों में कलाकारों को नहीं, बल्कि कहानी व मुद्दे पर प्रकाश डाला जाये. मसलन, पानी की किल्लत एक अहम मुद्दा है. और इस पर अब तक भारत में ही कई डॉक्यूमेंट्री का निर्माण हो चुका है. ऐसे में इन विषयों पर अगर फीचर फिल्में बनाई जा रही हैं तो इनमें सुपरसितारों को शामिल करने की बात सोची ही न जाये, ताकि फिल्म का अहम मुद्दा कहानी हो. तभी फिल्म का उद्देश्य व निदर्ेशक की सोच का वास्तविक स्वरूप लोगों के सामने होगा. हिंदी सिनेमा को नीला जैसे निदर्ेशकों की ही जरूरत है, जो अपनी कहानी को महत्व दें,और ऐसे मुद्दों को उजागर करें न कि सुपरस्टार्स को.

स्लम व गलियों में राजकुमार


Orginally published in prabhat khabar.
Date : 19feb2012

फिल्म आइ एम कलाम का छोटू आज पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो चुका है. 63वें कान फिल्म महोत्सव में यह फिल्म दिखाई गयी. साथ ही फिल्म को राष्ट्रीय व फिल्मफेयर पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया. फिल्म की कहानी एक ऐसे गरीब बच्चे की थी, तो भारत के राष्ट्रपित कलाम से मिलना चाहता था और उनकी तरह की बनना चाहता था. दरअसल, छोटू का किरदार निभा रहे हर्ष मायर वास्तविक जिंदगी में भी दिल्ली के एक स्लम इलाके से संबध्द रखते हैं. फिल्म के निदर्ेशक नील पांडा ने हर्ष का चयन उस वक्त किया था, जब उन्होंने हर्ष को किसी इलाके में क्रिकेट खेलते हुए देखा था. उन्हें हर्ष में काबिलियत नजर आयी. और उन्होंने उसे बड़ा ब्रेक दिया. और छोटू के रूप में हर्ष बन गये गलियों के राजकुमार. हर्ष को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है. दरअसल, भारत में आज भी ऐसी कई प्रतिभाएं हैं, जो स्लम व गलियों में मौजूद हैं. लेकिन सही मार्गदर्शन न मिल पाने के कारण उनकी प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं हो पाता. फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के भी अधिकतर बाल कलाकार स्लम से ही चुने गये थे. फिल्म में सलमानइसी तर्ज पर हाल ही चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया के सौजन्य से एक फिल्म बनी है गट्टू. यह फिल्म इस वर्ष बर्लिन इंटरनेशनल चिल्ड्रेन फेस्टिवल में दिखाई गयी.गट्टू की कहानी भी एक ऐसे बच्चे पर आधारित है जो गलियों में रहता है. वह अनपढ़ है. लेकिन फिर भी उसका दिमाग सबसे तेज चलता है. वह पतंग उड़ाने में सबका उस्ताद है. फिल्म की पूरी शूटिंग रुड़की में की गयी है. फिल्म के निदर्ेशक राजन खोसा ने फिल्म की पूरी शूटिंग रुड़की के वास्तविक सती मोहल्ला में की है. गट्टू की कहानी से यह साफ जाहिर होता है कि प्रतिभा किसी पद की मोहताज नहीं होती. वह हैसियत नहीं, हिम्मत देखती है. हिंदी सिनेमा जगत में भी ऐसे कई कलाकार हैं, जिन्होंने गलियों से ही किस्मत चमकायी. जैकी श्राफ कभी चॉल में रहा करते थे. हिंदी सिनेमा के महान अभिनेता व डांसर भगवान दादा भी मुंबई के चॉल में ही रहा करते थे. बाद के दिनों वह इतने लोकप्रिय हुए कि लोगों ने उन्हें गलियों का अमिताभ बच्चन मान लिया. स्लमडॉग मिलेनियर में सलीम का किरदार निभा चुके मोहम्मद इस्माल व रुबीना मल्लिक ने हालांकि फिल्म से लोकप्रियता हासिल की. ऑस्कर तक का सफर तो तय किया. लेकिन इसके बाद इन प्रतिभाओं को कोई बड़ा ब्रेक नहीं मिला. मीरा नायर की फिल्म सलाम बांबे के अधिकतर किरदार भी मुंबई महालक्ष्मी व दादर के गलियों से ही लिये गये थे. लेकिन इस फिल्म के बाद उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आये. जबकि इस फिल्म में उन सभी बच्चों के अभिनय की तारीफ की गयी है. इसकी खास वजह यह है कि हिंदी सिनेमा में बच्चों को केंद्र में रख कर कम ही फिल्में बनाई जाती हैं. ऐसे में जो कुछेक फिल्में बनती हैं, उनमें नामी बच्चे या अरबन बच्चों को ही मौके मिल जाते हैं. वैसे में ये स्लम या गलियों के प्रतिभाशाली बच्चों के लिए विकल्प नहीं रह जाते. जबकि अगर तराशा जाये तो ये बच्चे होनहार साबित होंगे. बशतर्े इन्हें सही मार्गदर्शन मिले. परखनेवाला जोहरी मिले.

20120216

अपने लिये जिये तो क्या जिये



Orginally published in prabhat khabar.
Date : 16feb2012

हाल ही में अरुणा ईरानी को 57वें फिल्मफेयर अवार्ड में लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड से नवाजा गया. वे पिछले 51साल से हिंदी सिनेमा में सक्रिय रही हैं. अवार्ड प्राप्त करने के बाद उनकी आंखों में आंसू थे. उन्होंने उस वक्त स्वीकारा कि फिल्मों का रास्ता उन्होंने अपने शौक की वजह से नहीं, बल्कि घर की मजबूरियों व घर की सबसे बड़ी बेटी होने की वजह से चुना था.हिंदी सिनेमा में अरुणा पहली ऐसी बेटी नहीं, जिन्होंने अपने परिवार की परिस्थिति को समझते छोटी उम्र से ही परिवार की जिम्मेदारियों को उठा लिया. लता मंगेशकर, नरगिस, मधुबाला व मीना कुमारी जैसी शख्सियत अपनी खुशी के लिए बल्कि दूसरों के लिए जीती रहीं. बलराज साहनी ने खुद अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि कैसे उनके बेटे परीकक्षित ने छोटी उम्र से परिवार की जिम्मेदारी उठायी.
वर्ष 1961 में रिलीज हुई फिल्म बादल के गीत के बोल खुदगर्ज दुनिया में ये, इंसान की पहचान है जो परायी आग में जल जाये. वह इंसान ही क्या... अपने लिये जिये तो क्या जिये के बोल वाकई उन लोगों पर बिल्कुल सटीक बैठते हैं, जिन्होंने अपनी खुशियों से बढ़ कर अपने परिवार की खुशियों को अहमियत दी. हिंदी सिनेमा जगत में जहां कई ऐसे खानदान हैं, जिन्होंने अपने बेटे और अपने परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें फिल्मों में आने के लिए प्रेरित किया, तो वही कई ऐसी शख्सियत भी हैं, जिन्होंने परिवार व अपने भाई बहनों के पालन-पोषण का जिम्मा खुद उठाया और फिल्मी दुनिया उनके लिए आय का स्रोत बनी. बेशक आज वे सभी शख्स कामयाब हैं. पहचान स्थापित कर चुके हैं. लेकिन किसी दौर में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया था. उस वक्त उनके पास न तो किसी का सहारा न था. न पैसे. न परेशानियों पर अपना काबू. हां,लेकिन इन सभी के पास कुछ था तो जज्बा और साथ ही एक ललक थी आंखों में अपने परिवार को हर खुशियां देने की. और शायद इम्तियाज अली की फिल्म रॉकस्टार में यह वास्तविकता ही दिखाई गयी है कि जिंदगी में अगर दर्द हो तभी वह कलाकार बन सकता है.
अरुणा ईरानी ः भाई बहनों की जिम्मेदारी संभाली
अरुणा को बचपन से ही फिल्में देखने का शौक अपने पिता फरदून ईरानी से मिली. वे मुंबई में पारसी थियेटर में काम करते थे. अरुणा अपने माता-पिता की पहली संतान थीं. पिता चूंकि थियेटर से जुड़े थे. तो उस वक्त तक परिवार की स्थिति ठीक चली. जब तक थियेटर को सिनेमा ने उखाड़ न फेंका. सिनेमा के आते ही थियेटर का अस्तित्व खोने लगा. अब घर की सारी जिम्मेदारी केवल पिता नहीं उठा सकते थे. और यही से उनकी जिंदगी बदल गयी. परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गयी. अरुणा स्कूल की फीस नहीं भर पायीं तो उन्हें स्कूल से बाहर निकाल दिया गया. उस वक्त ही अरुणा ने समझ लिया कि उन्हें अपनी जिम्मेदारियां निभानी ही होंगी. दिलीप कुमार ने अरुणा को पहला मौका दिया था. अरुणा का परिवार उस वक्त गैंट रोड के चॉल में रहता था. अरुणा ने उसके बाद लगातार फिल्मों में काम किया और अपने भाई बहनों व मौसेरे भाई बहनों को भी पढ़ाया-लिखाया और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया. अरुणा ने शुरुआती दौर में कैरेक्टर आर्टिस्ट के रूप में काम किया. फिर उन्हें कई फिल्मों में मुख्य किरदार निभाने का भी मौका मिला.
लता मंगेशकर : दीदी नहीं घर की पिता बन गयी
लता अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं. जब लता 13 की थीं. तभी पिता की मृत्यु हो गयी. अपने परिवार की सारी जिम्मेदारी लता पर आ गयीं. उन्होंने छोटी उम्र से ही गायिकी शुरू कर दी. मुंबई आने का मौका मिला. फिर फिल्मों में गाना शुरू किया. शुरुआती दौर में सिर्फ भजन गाये. शशिधर मुखर्जी जैसे निदर्ेशकों ने लता को यह कह कर न कह दिया कि उनकी आवाज बहुत पतली है. दिलीप साहब ने कहा कि मराठी है. तो जरूर दाल भात जैसा गायेगी. लता ने इसे चुनौती के रूप में लिया, चूंकि वह जानती थीं कि उन्हें अपने परिवार का सहारा बनना है. धीरे धीरे उन्हें मौके मिले. फिल्म महल ने उनकी जिंदगी बदल दी. आशा खुद बताती हैं कि कैसे लता अपने भाई बहनों के लिए पहले कपड़े खरीदतीं. उन्हें पढ़ाती. घर का राशन भी उनके भरोसे ही आता था. लगा लगातार 13 14 घंटे काम करती रहतीं. कई कांसर्ट करतीं, ताकि घर में पैसे आ सकें. अपने भाई बहनों की जिंदगी संवारने में ही लता यूं व्यस्त रहीं कि उन्होंने कभी शादी नहीं की.
मीना कुमारी ः पिता के लिए कमाने की गुड़िया
मीना उस वक्त महजबीन थीं. अपने पिता अली बख्श की तीसरी संतान थी. खुर्शिद व मधु उनसे बड़ी दो बहने थी. जब मीना का जन्म हुआ था. उस वक्त पिता अली के पास पैसे नहीं थे. सो, उन्होंने मीना को अनाथ आश्रम में डाल दिया. हालांकि वह बाद में उसे ले आये. घर की माली हालत को देखते हुए उन्होंने महजबीन को फिल्मों में ढकेल दिया, क्योंकि महजबीन बेहद खूबसूरत ती. लेकिन महजबीन कभी नहीं चाहती थी कि वह फिल्मों में काम करे. वह पढ़ना चाहती थी. लेकिन लालची पिता ने उस नन्ही जान की एक न सुनी. 7 साल की उम्र से काम करना पड़ा. महजबीं के पैसे से घर चलता. लेकिन महजबीं को फुटी कौड़ी भी न मिलती. पिता के लिए वह अलादीन का चिराग बन गयी. मीना की कमाई ने परिवार को एक कमरे के मकान से बंगले में पहुंचा दिया. मीना को शोहरत मिली. पैसे मिले. इज्जत मिली. लेकिन मरते दम तक वह दूसरों के लिए ही जीती रही. कमाल अमरोही से प्यार किया. व्याह भी रचाया. लेकिन वह भी उन्हें बॉक्स ऑफिस पर पैसे कमानेवाली कठपुतली ही समझते रहे. 40साल तक वह दूसरों के लिए जीती रहीं. लेकिन मौत मिली तो वह अकेली थी.
मधुबाला ः कठपुतली-सी जिंदगी
ेयह मधुबाला की जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी कि उसने एक ऐसे मुसलिम परिवार में जन्म लिया. जहां उसे सिर्फ अपने परिवार का पालन पोषण करनेवाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया गया. वह अपने परिवार में पांचवें नंबर थी. उनकी जिंदगी अपने परिवार के नाम पर उसी दिन निलाम हो गयी. जिस दिन उनके पिता अतुल्ला खान की नौकरी गयी. अतुल्ला अपनी बेटी को मुंबई लेकर आये. उस वक्त मधुबाला केवल 9 साल की थी. यहां पिता ने उन्हें फिल्म की फैक्ट्री में एंट्री दिलवा दी. मधुबाला अभिनय के गुरों के साथ साथ अदभुत रूप से सुंदर थी. इसका फायदा अतुल्ला ने उठाया. मेहनत करती मधु और ऐश करते अतुल्ला. अपनी बेटी पर 24 घंटे कड़ी निगरानी तो ऐसे रखते. जैसे वह पिता नहीं जल्लाद हों. मंजर यह रहा कि मधुबाला जिंदगी भर कठपुतली की तरह जीती रहीं. बचपन से प्यार के अभाव में जीनेवाली मधुबाला ताउम्र प्यार की खोज करती रहीं. लेकिन जल्दी ही उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. अपने हिस्से की जिंदगी जिये बगैर ही.
नरगिस ः मां के सपनों में जीती रहीं
नरगिस कोलकाता की एक तबायफ के घर में जन्मीं. बचपन से ही उन्हें जिल्लत सहने की आदत हो गयी थी. मां जद्दनबाई शुरू से ही चाहती थी कि वह खुद महान गायिका बने, लेकिन वह न बन पायी, सो वह अपने सपने अपनी बेटी नरगिस की आंखों से देखने लगी. उन्होंने नरगिस को छोटी उम्र में ही फिल्मों की दुनिया से रूबरू करा दिया. नरगिस उर्फ फातिमा पढ़ना चाहती थी. लेकिन मां ने उन्हें यह मौका नहीं दिया. 14 साल की उम्र से ही उन्हें नाम व शोहरत दोनों मिला. अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुधारने में नरगिस ने बहुत योगदान दिया. उनकी फिल्मों की कमाई से ही उनके भाई को सहारा मिलता रहा. नाम शोहरत मिलने के बावजूद नरगिस को प्यार करनेवाला हमदम राज कपूर की आंखों में नजर आया. लेकिन कभी दोनों एक न हुए. बाद में सुनील दत्त व नरगिस से व्याह रचाया. और परिवार बसाया. बेहद छोटी उम्र से ही निरंतर काम करनेवाली नरगिस शायद थक चुकीं थी, सो बेहद कम उम्र में ही वह दुनिया छोड़ कर चली गयीं. दूसरों के लिए जीते जीते.
परीकक्षित साहनी ः पिता के बने सहारे
बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि जिस दौर में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत बुरी हो गयी थी. उस वक्त उनके बेटे परीकक्षित साहनी ने पढ़ाई छोड़ कर परिवार की जिम्मेदारी उठायी. वे छोटी उम्र में ही कई फिल्मों में काम करने लगे. ताकि घर में पैसे आये. एक दिन जब बलराज सेट पर गये और उन्होंने देखा कि उनके बेटे के साथ सेट पर लोग किस तरह से पेश आ रहे हैं. कैसे उनका बेटा आंधी, धूल खा रहा है. और उनका कोई ध्यान नहीं रख रहा. उन्हें एहसास हुआ कि उनका बेटा कितनी परेशानियों को झेल रहा है. उन्होंने फौरन परीकक्षित को फिल्मों से दूर किया. और फिर परीकक्षित ने अपनी पढ़ाई पूरी की.

बोलती दुनिया में गूंगे फ़ालके



Orginally published in prabhat khabar.
Date : 16feb2012

जब भी तकनीक आती है तो कहीं हरियाली आती है तो किसी के लिए मुफ़लिसी साथ लाती है.बदलाव होते हैं तो कहीं नयी उम्मीद जगती है तो कहीं आशाएं बिखर कर चूर हो जाती हैं. कोई रुपये की गड्डी पर सवार हो जाता है तो किसी के हाथों से रोजी रोटी छीन जाती है.
कुछ ऐसे ही हालात के गवाह रहे थे हिंदी फ़ीचर फ़िल्मों के पितामाह धूंधीराज गोविंद फ़ालके उर्फ़ दादा साहेब फ़ाल्के, जिन्होंने भारत में सिनेमा का उदय तो किया, लेकिन तकनीक की बदलती दुनिया से कदमताल न कर पाने की वजह से वर्ष 1944 में आज ही के दिन इस सूरज का अस्त हो गया.
हालांकि इस सूरज ने अपनी लालिमा में हिंदी सिनेमा को नयी ऊंचाईयां दी. साइलेंट फ़िल्मों के दौर में उन्होंने राजा हरिशचंद्र, श्री कृष्ण जामा, कालिया मरदान, सेतु बंधन जैसी माइलस्टोन फ़िल्में दीं. लेकिन इसके बाद बोलती दुनिया ने उन्हें गूंगा बना दिया.दादा साहब ने साइलेंट फ़िल्मों के दौर में कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनायी, साथ ही उन्होंने फ़िल्मों में हर विधा के साथ प्रयोग किया. उन्होंने शिक्षा,कॉमिक, टैपिंग, फ़ीचर, हर तक की फ़िल्में बनायीं.
वे लगातार प्रयोग करते रहे. लेकिन फ़िल्मों में जब बोलना शुरू किया, फ़ालके अपनी आवाज खो बैठे. उन्होंने बोलती फ़िल्मों के दौर में केवल एक फ़िल्म बनायी, गंगावतारण, जो कि उनकी पिछली फ़िल्मों से सामान्य रही. फ़िर हार कर उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को अलविदा ही कह दिया. दरअसल, यह सच्चाई है कि जब जब हिंदी सिनेमा ने नयी करवटे बदली. उसने नये लोगों को तो मौका दिया, लेकिन पुराने लोगों से उसके मुंह का निवाला छीन लिया.
आज के दौर में फ़िल्मी पोस्टर्स डिजिटलाइजड हो गये. सो, हाथों से बननेवाले पोस्टर्स के चित्रकारों की जरूरत गौन हो गयी. स्पेशल इफ़ेक्ट्स व विजुएल इफ़ेक्ट्स की दुनिया में क्रांति तो आयी, लेकिन कितने कामगार लोगों की दुनिया सुनी कर गयी. बोलती दुनिया में फ़िल्मों के कदम रखने के बाद दादा साहेब की हालत ठीक उसी तरह हो गयी होगी, जैसे एक पिता की तब हो जाती है, जब बड़े होने पर एक बेटा अपने पिता का साथ छोड़ देता है, जिसे कभी उस पिता ने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया होगा.
इस मर्म को शायद फ्रेंच निर्देशक ने माइकल हजेनाविसियस ने बखूबी समझा होगा. तभी उन्होंने आज तकनीक के साथ सरपट भागती फ़िल्मी दुनिया में भी द ओर्टस्ट नामक फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया. इस फ़िल्म में उन्होंने जीन डुजारडिन के किरदार द्वारा उन तमाम लोगों की पीड़ा दर्शायी, जिन्होंने बोलती फ़िल्मों की दुनिया के आगमन के बाद सबकुछ खो दिया. किस तरह फ़िल्मों ने जब बोलना शुरू किया तो पूंजीपतियों ने भी साइलेंट फ़िल्मों व उसे रचनेवाले लोगों से मुंह मोड़ लिया.
नयी पीढ़ी के लिए द ओर्टस्ट वाकई एक सबक की तरह है, जिसके द्वारा एक कलाकार की पीड़ा बेहतरीन तरीके से दर्शायी गयी है. इसे देखने के बाद शायद दादा साहेब सरीखे महान फ़िल्मकार की परिस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. भले ही आगे चलकर कई फ़िल्माकारों ने हिंदी सिनेमा में खाद डाल कर उसे सींचा. लेकिन इसकी उपज के असली हकदार तो दादा साहेब पाल्के ही हैं.
डीप फ़ोकस
फ़ालके की जीवनी व उनके संघर्ष को आधार मान कर परेश मोकाक्षी ने हरिशचंद्रची फ़ैक्ट्री नामक बेहतरीन फ़िल्म का निर्माण वर्ष 2009 में किया

20120214

परदे पर अकबर का तिलिस्म




orginally published in prabhat khabar
Date : 15feb2012

आज 15 फरवरी को ही वर्ष 2008 में आशुतोष गोवारिकर की फिल्म जोधा अकबर रिलीज हुई थी. फिल्म में मुख्य किरदारों में ॠतिक रोशन व ऐश्वर्य राय थे. हिंदी सिनेमा के परदे पर यह पहली बार था, जब अकबर व जोधा की प्रेम कहानी का सजीव चित्रण किया गया था. इस फिल्म में अकबर को एक शासक के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रेमी युवा के रूप में दर्शाया गया. इससे पहले तक हिंदी सिनेमा के माध्यम से निदर्ेशकों ने अकबर की छवि एक निर्दयी शासक के रूप में प्रस्तुत की थी. हाल ही में जोधा अकबर व मुगलेआजम एक के बाद एक लगातार देखी. दोनों ही फिल्मों में अकबर के व्यक्तित्व को विशेष रूप से चित्रित किया गया है. लेकिन दोनों ही फिल्में देखने के बाद इस बात के निष्कर्ष पर पहुंच पाना कि आखिर अकबर कैसे थे. वह फिल्म जोधा अकबर के अकबर की तरह प्रेम के अनुयायी थे या मुगलएआजम के अकबर की तरह निर्दयी शासक. बहुत मुश्किल था. अगर पहले जोधा अकबर देखी जाये तो अकबर से प्यार हो जाता है. फिर मुगलएआजम के अकबर पर विश्वास करने की इच्छा नहीं होती, वही अगर पहले मुगलेआजम देख ली हो और फिर जोधा अकबर देखें तो अकबर के प्रति नफरत प्यार में बदल जाती है. शायद यही सिनेमा का तिलिस्म है और निदर्ेशकों का जादू, जो वह एक ही किरदारों के अलग अलग व्यक्तित्व का चित्रण भी इस पूर्णता से करते हैं कि आंखों देखी पर भी विश्वास करना मुश्किल हो जाये. फिल्में देखने के बाद मन में यह द्वंद्व निरंतर चलता ही रहता है कि के आसिफ का अकबर वास्तविक अकबर था या जोधा अकबर का अकबर. दरअसल, यह भी कहा जा सकता है कि इससे यह तसवीर भी साफ होती है कि दो निदर्ेशकों की सोच कितनी अलग हो सकती है. साथ ही उनका नजरिया भी. चूंकि आज भी अकबर का नाम जेहन में आते ही लोगों के सामने उस निर्दयी शासक की तसवीर सामने आती है, जिसने एक तबायफ को अपने बेटे सलीम से प्यार करने की जुर्म में दीवार में चुनवा दिया था. ऐसे शासक की परिकल्पना किसी प्यार करने या प्यार को समझनेवाले किरदार में करना बेहद कठिन था. लेकिन आशुतोष ने उसी रेखा को पार कर अकबर के बिल्कुल चौंका देनेवाले प्रारूप को प्रस्तुत किया. वाकई आशुतोष की जोधा अकबर की तुलना मुगलएआजम के अकबर से की जाये तो जेहन में बार बार यह सवाल जरूर उठता है कि अपनी पत्नी जोधा व उनके प्यार के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले अकबर मुगलएआजम के अकबर की तरह कठोर दिल का कैसे हो सकता है, जिसने तबायफ को प्रेम की सजा दी. अकबर महिलाओं की इज्जत करते थे. यही वजह थी कि हिंदू धर्म को माननेवाली पत्नी जोधा के लिए उन्होंने अपने घर में मंदिर की स्थापना करवायी. वे हमेशा जोधा के तलवार अंदाजी के मुरीद रहे. फिर वही इज्जत उन्होंने तबायफ अनारकली को क्यों नहीं दिया. भले ही वह जोधा की तरह महारानी नहीं थी. लेकिन थी तो एक औरत ही न. इससे साफ जाहिर होता है कि सम्मान की भी औकाद होती है और केवल ऊंचे दजर्े के लोग ही इसके हकदार हो सकते हैं

20120213

प्यार को शर्त नहीं, सम्मान चाहिए




Orginally published in prabhat khabar.
Date : 14feb2012

आज प्रेम दिवस है. प्राय: प्रेम का संदर्भ आते ही, सबसे पहले जेहन में सवाल उठता है कि ये प्रेम है क्या? जितने लोग, उतनी प्रेम की परिभाषा. जैसा नजरिया, वैसी है ये प्यार की डगरिया. प्रेम जज्बा भी है. जूनून भी.
अपने प्रियवर या प्रेयसी पर विश्वास भी प्रेम का ही एक नाम है. दरअसल, सच्चाई है कि प्रेम को किसी भी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता. न ही इसका कोई ठोस आकार या प्रकार है. शायद यही वजह है कि सम्मान का आकार लेकर ही प्रेम की गहराई और निखर आती है. वह भी बिना किसी शर्त व बिना किसी उम्मीद के अगर आप किसी रिश्ते को सम्मान देते हैं, तो उससे अटूट प्रेम और कुछ हो ही नहीं सकता.
हिंदी सिनेमा जगत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां कई लोगों ने निसंकोच होकर बिना किसी शर्त के अपने प्रेम का सम्मान किया. इस संदर्भ में सबसे पहला नाम शम्मी कपूर की दूसरी पत्नी नीला देवी गोहिल का आता है.
जिन्होंने यह जानते हुए भी शम्मी से शादी की कि आज भी शम्मी अपनी पहली पत्नी गीता से ही प्यार करते हैं. नीला राजसी ठाठ बाठ छोड़ कर मरते दम तक शम्मी का सहारा बनीं. शम्मी जी ने खुद इस बात को स्वीकारा कि नीला ने कभी अपने बच्चे को जन्म इसलिए नहीं दिया, ताकि वह गीता के बच्चों पर निष्पक्ष प्यार न्योछावर कर पायें. शम्मी के खराब स्वास्थ्य में भी उन्होंने एक प्रेयसी की तरह उनका साथ निभाया.
कुछ इसी तरह सलमान की मां सलमा खान ने अपने पति सलीम खान की दूसरी पत्नी हेलन को अपनी जिंदगी में सहजता से स्वीकारा, जबकि सलमा- सलीम ने प्रेम विवाह किया था. राजकपूर की पत्नी कृष्णा राज कपूर व नरगिस की नजदीकियों के बारे में हमेशा से वाकिफ़ रहीं. लेकिन इस बात से उन्होंने कभी राज से दूरियां नहीं बनायी. सायरा व दिलीप आज भी युवा प्रेमी युगल नजर आते हैं.
सायरा ने उस वक्त भी दिलीप का साथ दिया, जब एक महिला ने दावा किया कि वह दिलीप की पहली पत्नी है. सायरा आज भी दिलीप से बेइतहां प्यार करती हैं और उनका पूरा ख्याल रखती है. यह प्रेम कहानियां दौलत शोहरत की चाहत रखनेवाली प्रेम कहानियां नहीं हैं, बल्कि इस प्रेम की मजबूत नींव सम्मान पर पूरी मजबूती से टिकी है

प्रकाश राज के धोनी



Orginally published in prabhat khabar.
Date : 13feb2012

अभिनेता प्रकाश राज अब निर्देशन के क्षेत्र में कदम रख रहे हैं. फ़िल्म धौनी से. यह फ़िल्म उन्होंने अपनी मातृभाषा तमिल में बनायी है. साथ ही वह इसे तेलुगू में भी डब करेंगे. इस फ़िल्म का निर्माण उनकी प्रोडक्शन कंपनी द्वारा ही किया गया है. फ़िल्म की कहानी एक बेटे व पिता के द्वंद्व की कहानी है.
पिता चाहता है कि उनका बेटा एमबीए करे. लेकिन बेटे को स्पोर्ट्स में दिलचस्पी है और वह भारत के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी की तरह दूसरा धौनी बनना चाहता है. फ़िल्म में बेटे का किरदार पुरी जगन्नाथ के बेटे आकाश निभा रहे हैं. प्रकाश स्वयं फ़िल्म में पिता की भूमिका में हैं. प्रकाश ने यह फ़िल्म अपनी बेटी से प्रेरित होकर बनायी है.
उन्होंने हमेशा यह महसूस किया कि जब भी उनकी बेटी के सामने परीक्षा की घड़ी आती, वह परेशान हो जाती. इससे साफ़ जाहिर होता है कि आज एजुकेशन सिस्टम में ऐसी कई खामियां हैं, जिसकी वजह से बच्चों पर अत्यधिक दबाव बना रहता है.
साथ ही कई अभिभावक ऐसे होते हैं, जो बच्चों की भावनाओं को नहीं समझते. धौनी के बहाने, निर्देशक ने ऐसे ही अहम मुद्दे को खंगालने की कोशिश की है. फ़िल्म के शीर्षक के साथ धौनी का नाम जोड़ने का निर्देशक का मुख्य मकसद यही है कि आज भारत में ऐसे कई बच्चे हैं, जो बड़े हो कर आइएएस, आइपीएस नहीं, बल्कि स्पोर्ट्समैन बनना चाहते हैं. धौनी जैसे खिलाड़ी भी अब लोगों के आदर्श बन चुके हैं. ऐसे में धौनी का नाम दर्शकों को कहानी देखने के लिए प्रेरित करेगा.
सिनेमाई परदे पर ऐसे विषय पर और भी फ़िल्में बनती रही हैं. फ़िल्म इकबाल, तारे जमीं पे ऐसे विषयों पर आधारित फ़िल्में हैं. चूंकि यह सच है कि आज भी भारत में ऐसे कई बच्चे हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में अपना सवरेत्तम न दे पाने की वजह व अपने अभिभावकों की उम्मीदों पर खरा न उतर पाने की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं.
चूंकि वे अपने कैरियर विकल्पों का चयन करने के लिए आजाद नहीं होते. ऐसे में हिंदी सिनेमा में अगर ऐसे विषयों को बार-बार उजागर किया जाता है, तो यह सराहनीय पहल होगी. फ़िल्म फ़ालतू के एक दृश्य में विष्णु नामक किरदार 94 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण हो जाने के बाद भी कहता है कि वह फ़ेल हो गया.
क्योंकि वह अपने पिता की इच्छानुसार 95 प्रतिशत अंक प्राप्त नहीं कर पाया. इसके दूसरे ही दृश्य में विष्णु व उसके पिता की बातचीत है. जिसमें वह कॉफ़ी में दो की बजाय एक चम्मच चीनी डालते हैं और कहते हैं कि अगर दो चम्मच चीनी होती, तो स्वाद ज्यादा बेहतर होता. यह संवाद दरअसल, अभिभावकों द्वारा बच्चों पर डाले गये अत्यधिक दबाव को दर्शाता है. लेकिन इस फ़िल्म ने एक बेहतरीन पहल की, कि फ़िल्म के अंत में किसी किरदार को आत्महत्या करते नहीं, बल्कि अपना रास्ता खुद तय करते दिखाया गया.
कुछ ऐसा ही हाल ही में रिलीज हुई फ़िल्म साडा अड्डा में भी दिखाया गया. फ़िल्म में एक बेहतरीन सीख दी गयी कि अभिभावकों के दबाव में आकर कभी आत्महत्या न करें और अपने चुने गये मार्ग पर चलते रहें. चूंकि आज भी कई प्रतिशत बच्चे इस दबाव से गुजर रहे हैं. ऐसे में हिंदी सिनेमा के निर्देशकों द्वारा इस विषय को गंभीरता से लेना उन बच्चों व अभिभावक दोनों के लिए एक सीख है.
डीप फ़ोकस
बिहार से संबंध रखनेवाले निर्देशक शशि वर्मा भी इसी विषय के इर्द-गिर्द घूमती कहानी पर फ़िल्म बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं.

20120210

ड्रीम गर्ल से सुपरवुमन तक

orginally published in prabhat khabar
date: 10feb2012

कंगना रनौत फिल्म कृष 3 में सुपरवुमन के किरदार के लिए खुद को पूरी तरह तैयार करने में जुट चुकी हैं. उनकी पूरी कोशिश है कि वे इस फिल्म में अभिनेता ॠतिक रोशन के समकक्ष अपनी क्षमता का प्रदर्शन करे.शायद यही वजह है कि उन्होंने फिल्म में स्वयं स्टंट करने की चुनौती स्वीकारी है. उन्होंने इसके लिए प्रशिक्षण लेना भी शुरू कर दिया है. साथ ही कट्रीना कैफ ने भी घोषणा की है कि वह फिल्म एक था टाइगर में स्टंट करती नजर आयेंगी. इस स्टंट के प्रशिक्षण में उन्हें सलमान की पूरी मदद मिल रही है. इधर, हाल ही में बिपाशा बसु ने फिल्म प्लेयर्स के म्यूजिक लांच के दौरान कुछ लाइव स्टंट दिखाये, जिसे देख कर सभी दंग रह गये थे. इन तमाम बातों से एक बात जाहिर हो रही है कि अब नायिकाएं केवल खुद को चिकनी चमेली या बार्बी डॉल की भूमिकाओं में देखना पसंद नहीं कर रहीं. जहां एक तरफ वह द डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों में बोल्ड अंदाज में नजर आ सकती हैं तो वह कृष जैसी फिल्मों में सुपरवुमेन के रूप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकती हैं. वे महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकती हैं तो साथ ही वह खुद शक्तिपूर्ण भूमिकाएं भी निभा सकती हैं. प्रियंका चोपड़ा ने कुछ सालों पहले फिल्म द्रोणा के दौरान कुछ हवा में उड़नेवाले स्टंट सीन किये थे, तो उनका माखौल यह कह कर उड़ाया गया था कि हिंदुस्तानी अभिनेत्रियां केवल ड्रीम गर्ल व परियों की तरह ही आसमान में उड़ती अच्छी लगती हैं. लेकिन कहा जा सकता है कि इस बात का करारा जवाब उन्हें अब यह स्टंट वुमेन दे रही हैं. गौरतलब है कि विदेशी फिल्मों में आज भी नायिका प्रधान एक्शन फिल्मों का निर्माण होता है और वे फिल्में विदेशों के साथ साथ भारत में भी बेहतरीन प्रदर्शन करती हैं. एंजेलिना जॉली की फिल्म द सॉल्ट इसका बेहतरीन उदाहरण है. हेलेन गिबहन, जूलिया डेबीस, बोनी स्टंट अभिनेत्रियों में से एक हैं.इससे साफ जाहिर है कि हमारे भारतीय दर्शकों की यह अवधारणा बदली जा सकती है कि यहां की नायिकाएं सिर्फ आयटम डांस व रुमानी गीत गाने के लिए ही बनी है, बशतर्े कि महिला अभिनेत्रियों को ध्यान में रख कर वैसी कहानी लिखी जाये. वैसे स्टंट सीन की परिकल्पना की जाये. और उन्हें सही प्रशिक्षण मिले तो वे भी कमाल दिखा सकती हैं.चूंकि एक्शन फिल्में दर्शाना पुरुष वर्ग की न तो जागिर है और न ही इस पर उनका मालिकाना हक है. कम ही लोग जानते होंगे कि आज भी हिंदी सिनेमा में ऐसे कई अभिनेता हैं, जिन्हें स्टंट महिलाएं ही सिखाती हैं. सनोबर नामक महिला स्टंट ने ही अजय देवगन, अक्षय कुमार व ऐश्वर्य राय को कई फिल्मों में स्टंट सिखाये हैं. आज से कई सालों पहले वर्ष 1935 में फिल्म हंटरवाली द प्रीसेंस एंड द हंटर... से ही अभिनेत्री नाडिया ने साबित कर दिया था कि महिलाएं भी स्टंट करने में पारंगत होती हैं. हिंदी सिनेमा की पहली स्टंट वुमन का खिताब इन्हें ही हासिल है. इससे साफ जाहिर होता है कि अगर अभिनेत्रियों को सही तरह से प्रशिक्षण दिया जाये तो कई अभिनेत्रियां भी पारंगत हो सकती हैं और वे अपनी ड्रीम गर्ल, व बार्बी डॉल की छवि को तोड़ सकती है और साथ ही एक मुकाम भी हासिल कर सकती हैं.

20120208

शादी के बाद होते होते प्यार हो ही जाता है...



वैलेंटाइन डे नजदीक है. प्रेम के इस दिन को हर प्रेमी अलग अलग रूप में देखते हैं. चूंकि प्रेम के कई रूप होते भी हैं. कभी प्यार ही शादी का रूप लेता है तो कभी शादी के बाद भी एक दूजे का साथ धीरे धीरे प्यार में बदल जाता है. इन दिनों टेलीविजन पर ऐसी कई प्रेम कहानियां दर्शकों को लुभा रही हैं, जिनमें अरेंज मैरेज भी प्यार के फूल खिल रहे हैं.
टेलीविजन में प्रेम के कई रूप दिखाये जाते रहे हैं. खासतौर से लव स्टोरीज दर्शकों को बेहद पसंद आती रही है. लेकिन गौर करें तो ऐसी कई प्रेम कहानियां भी हैं, जो शादी के बाद रंग लाती हैं. मसलन, धीरे धीरे एक साथ रहते रहते लोगों में प्यार पनपता है. चूंकि शादी ही प्यार का दूसरा नाम भी है. ऐसी प्रेम कहानियां परदे पर इसलिए बेहतरीन लगती है, क्योंकि इन प्रेम कहानियों में दो लोगों को एक दूसरे को जानने का मौका मिलता है और उनकी बीच एक अलग तरह की झिझक रहती है, जो परदे पर बेहतरीन लगती है. वास्तविक जिंदगी में भी कई ऐसी प्रेम कहानियां हैं जो अरेंज मैरेज के बावजूद भी सफल हो जाती हैं. अरेंज मैरेज की कहानियों में किसी दौर कुंटुंब व कुमकुम नामक शो को दर्शकों ने बेहद पसंद किया है. इन कहानी की लोकप्रियता की खास वजह यह है कि 100 में से लगभग 80 प्रतिशत कहानियां ऐसी ही होती हैं. ऐसी कहानियां इसलिए भी सफल होती हैं क्योंकि ऐसी कहानियों में एक दूसरे को समझने में ही कई साल लग जाते हैं. साथ ही अपने जीवनसाथी से वैसी आशाएं नहीं रहतीं. जितनी लव अरेंज में होती है.
बड़े अच्छे लगते हैं
बड़े अच्छे लगते हैं की कहानी प्रिया और राम कपूर की है. दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं. लेकिन फिर भी दोनों एक दूसरे का साथ देने की कोशिश करते हैं. और दोनों में धीरे धीरे प्यार होने लगा है. राम कपूर मांसाहारी हैं और प्रिया शाकाहारी. लेकिन इसके बावजूद दोनों एक दूसरे के साथ समय बिताना पसंद करते हैं. अरेंज मैरेज की यह लव स्टोरी इन दिनों टेलीविजन की सबसे प्रिय लव स्टोरी बन गयी है.
दीया और बाती हम
दीया और बाती में सूरज और संध्या बिल्कुल अलग हैं. एक हलवाई है. और संध्या पढ़ी लिखी लड़की. लेकिन संध्या सूरज की मासूमियत और नेक दिल की वजह से उससे प्यार कर बैठी है और अब उसके बिना आगे नहीं बढ़ना चाहती.
साथ निभाना साथिया
साथ निभाना साथिया में गोपी-अहम की शादी घरवालों की मर्जी स े होती है. लेकिन लंबे अरसे तक गोपी-अहम में दूरियां रहती हैं. लेकिन गोपी की अच्छाईयों की वजह से अब अहम गोपी से प्यार करने लगा है.
परिचय
परिचय में कुणाल चोपड़ा व सिध्दि ने मजबूरन वश शादी की. दोनों में शुरुआती दौर में कई विवाद हुए. लेकिन धीरे धीरे अब दोनों में प्यार के फूल खिलने लगे हैं.
ये रिश्ता क्या कहलाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है में अक्षरा व नैतिक की प्रेम कहानी शादी के बाद ही आगे बढ़ती है.
ससुराल गेंदा फूल
सुहाना ईशान से शादी नहीं करना चाहती थी. लेकिन अपने परिवार की वजह से वह शादी कर लेती है. लेकिन लंबे अरसे तक वह ईशान से प्यार नहीं करती. धीरे धीरे सुहाना को एहसास होता है कि वह ईशान से प्यार करने लगी है. दोनों की शादी के बाद की प्रेम कहानी को बेहद खूबसूरती से टेलीविजन पर दर्शाया गया.
इनके अलावा तुम देना साथ मेरा जैसे शोज में भी अरेंज मैरेज के बाद प्यार की कहानी आगे बढ़ रही है.

जंजीर रिलीज के 20 साल बाद देखी थी प्राण साहब ने ःअमिताभ बच्चन







अमित, तुम अगर मेरे घर पर सुबह आओगे, तो तुम्हें भरपेट खाना खिलाऊंगा, दोपहर में आओगे तो थोड़ा कम और शाम में मैं तुम्हें खाने पर नहीं, बल्कि पीने पर बुलाऊंगा. चूंकि प्राण साहब शुरू से अपने सेहत के प्रति सजग रहते थे. सो, वह नाश्ता भरपूर खाते थे, उसके बाद दिन भर की उनकी खुराक बेहद कम थी. शाम के वक्त वह केवल कुछ पेय पध्दार्थ लेना ही पसंद करते थे. अमिताभ को कुछ इसी अंदाज में दावत देते थे प्राण साहब. शायद यही वजह है कि उनके इसी निराले अंदाज अंदाज की वजह से आज भी वह 92 वर्ष में दिल व दिमाग से दुरुस्त हैं. जंजीर में प्राण साहब के सहयोग से ही पहली बार अमिताभ बच्चन को ख्याति मिली. सो, अपने जीवन में अमिताभ उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते हैं. प्राण साहब के 92वें जन्मदिवस पर अमिताभ बच्चन ने प्राण के साथ बिताये कुछ लम्हों को साझा किया.

प्राण साहब अच्छी तसवीरें लेते थे. वे बनना तो चाहते थे फोटोग्राफर. लेकिन किस्मत ने उन्हें बना दिया कलाकार. अमिताभ बच्चन उस वक्त सुपरस्टार नहीं थे. एक फैन की तरह ही वह जब पहली बार प्राण से मिले, तो वह डरे थे कि प्राण जिस तरह खलनायक के रूप में डरावने नजर आते हैं, सच में भी वैसे ही होंगे. लेकिन पहली बार ही मिल कर उन्हें लगा कि खलनायक भी भले आदमी होते हैं क्या
उनसे पहली मुलाकात
वर्ष 1960 में मैं पहली बार प्राण साहब से मिला. उस वक्त मैं मुंबई में स्थाई रूप से नहीं रहता था. मैं मुंबई आया था तो मैंने अपने परिवारवालों से कहा कि मैं आरके स्टूडियो जाना चाहता हूं. वहां प्राण साहब शूटिंग कर रहे थे. प्राण साहब वहां एक कुर्सी पर बैठे थे. मैंने उनसे ऑटोग्राफ मांगा तो उन्होंने विनम्रता से मेरा नाम पूछा और ऑटोग्राफ दिया. ऑटोग्राफ लेने के बाद मैंने खुद से यही प्रश्न पूछा था कि क्या वाकई खलनायक भी अच्छे आदमी हो सकते हैं क्या. कुछ सालों के बाद जब मैंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की.
जंजीर में मिला उनका साथ
मैं प्राण साहब के बेटे सुनील सिकंद से मिला. वह मेरे भाई अजिताभ के करीबी दोस्त थे. उनसे जानकारी मिलती रहती थी प्राण साहब के बारे में. लेकिन मेरा उनका पहला आमना सामना हुआ फिल्म जंजीर के दौरान. उस वक्त उन्होंने अपना रूप बदला था. वह विलेन से सकारात्मक किरदारों में नजर आने लगे थे. मैं नया था. लेकिन प्राण साहब ने मेरी इसमें बहुत मदद की थी. उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह लुक भी अभिनय का अहम हिस्सा होता है. प्राण साहब खुद अपने कॉस्टयूम, मेकअप का खास ख्याल रखते थे. जंजीर में मैंने उनके साथ आज तक जितने भी सीन फिल्माये हैं. मेरे जीवन के वह सबसे कठिन दृश्य थे. एक दृश्य में हमें दीवार पर चढ़ना था. वह एक्शन दृश्य था. मेरे लिए मुश्किल शॉट था. चूंकि मैं थोड़ा डरा सा था. लेकिन प्राण साहब वह पहले व्यक्ति थे. जो उस दीवार पर चढ़ गये थे. यह मैं पूरी ईमानदारी से कह सकता हूं कि मैंने जिंदगी में सेट पर सही वक्त पर पहुंचना उनसे ही सीखा है. न सिर्फ वह सेट पर वक्त पर पहुंचते थे. बल्कि साथ ही साथ वह पूरे मेकअप, कॉस्टयूम व अपने रिहर्सल के साथ वक्त से पहले तैयार हो जाते थे. मैं खुशनसीब हूं कि उनके साथ की गयी हिंदी सिनेमा की यादगार फिल्मों में से एक रही. खासतौर से मेरे लिए मील का पत्थर साबित हुई.
सेट पर प्राण साहब
फिल्मों केसेट पर शूटिंग खत्म हो जाने के बाद भी वह घंटों निदर्ेशक के साथ रहते और आगे की प्रोसंसिंग देखते. मुझे आज भी याद है. यारी है ईमान मेरा गाने की रिकॉर्डिंग में उन्होंने पूरे सेट की साज सज्जा पर, सबके कॉस्टयूम पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया था, और प्रकाश मेहरा की मदद की थी. प्राण साहब की एक खास बात यह भी थी कि वह कभी किसी से भी किसी भी बात पर कोई बहस नहीं करते थे. गुस्सा उनके स्वभाव में था ही नहीं. गंगा की सौगंध की शूटिंग के दौरान मुझे इस बात की जानकारी मिली कि वह कविताएं भी लिखते हैं और साहित्य लिखने में भी उनकी बहुत रुचि है.

हरफनमौला प्राण
वे खेल के भी शौकीन थे. सो, अगर फिल्म के दौरान कोई मैच होता रहता तो वह उसकी जानकारी जरूर लेते रहते थे. वह शिकार के भी शौकीन थे. उनकी एक और खास बात थी कि उन्हें ढेर सारे चुटकुले आते थे. और वह समय समय पर मौके देख कर बेहतरीन चुटकुले सुनाते रहते थे. प्राण साहब की एक और खास बात जो मुझे आकर्षित करती थी, वह यह थी कि वह जिंदगी को जीना जानते थे. वे केवल काम में ही नहीं डूबे रहते थे. जब काम करते थे. तो दूसरा कोई काम नहीं करते थे. लेकिन जब काम नहीं करते थे. तो वह हर शौक को पूरा करते थे. जैसे उन्हें शाम में स्कॉच का बहुत शौक था. उन्हें सिगरेट से ज्यादा सिगार पीना पसंद था. और वह इसे इस अंदाज में पीते थे कि कई फिल्मों में दर्शकों को उनका यह अंदाज बेहद पसंद आया..यह उनका स्टाइल स्टेटमेंट बन चुका था.
ंशरीर का हर अंग एक भाषा की तरह
अपने पूरे अभिनय करियर के दौरान उन्होंने अपनी आंखें, अपने चेहरे के भाव, होंठ घुमा कर संवाद बोलना, हाथों को अलग अंदाज में दिखाना. हर तरह से वे सारी क्रियाएं कीं, जिनसे अभिनय किया जा सकता था. वाकई, इससे कहा जा सकता है कि प्राण साहब दब अभिनय करते थे, तो दरअसल, उनकी आत्मा भी किरदार में तब्दील हो जाती थी. उनकी एक और खास बात यह भी रही कि वे हमेशा स्क्रिप्ट अपने साथ घर लेकर जाते थे. और निदर्ेशक को कभी उनसे शिकायत नहीं रहती थी. लोगों को यह जान कर आश्चर्य होगा, मगर यह सच है कि हमेशा खलनायकों की भूमिका निभानेवाले प्राण साहब केवल उन्हीं संवादों को बोलने में हिचकिचाते थे और निदर्ेशक से बात करते थे. जिन संवादों में वह महसूस करते थे कि वह अश्लील हैं.
हर मजहब में किरदार
प्राण साहब धर्म निरपेक्ष व्यक्ति थे. वे हमेशा सबका ख्याल रखते थे. वे अपने स्पॉट ब्वॉय से भी सलीके से पेश आते थे. उन्हें इस बात से कभी फर्क नहीं पड़ता था कि कौन किस मजहब से हैं. वे सबके साथ समान व्यवहार करते थे. शायद यही वजह रही कि वे उन अभिनेताओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने अभिनय करियर में हर मजहब के किरदार निभाये. फिर चाहे वह मजबूर का माइकल हो, पठान शेर खान का हो, उपकार में एक हिंदू का ही क्यों न हो. हर किरदार को वह बखूबी निभाते थे.
मुझे गलत मत समझना
प्राण साहब जब भी कुछ सिखाते थे. उनका एक अलग अंदाज था. जब भी उन्हें लगता कि मुझे कुछ अलग करना चाहिए तो वह हमेशा कहते, अमित मुझे लगत मत समझना. लेकिन मुझे लगता है. अगर तुम इस अंदाज में करोगे, इस संवाद को ऐसे बोलोगे तो ज्यादा बेहतर होगा. वे अपनी फिल्में नहीं देखते थे. जंजीर के रिलीज होने के 20 साल देखी थी. देखने के बाद उन्होंने मुझे बुलाया और कहा. अमित अच्छा काम किया है तुमने.

सरहद पार, नये सिनेमा की बयार




पाकिस्तानी निर्देशक शोएब मंसूर की दो फ़िल्में खुदा के लिए व बोल ने साबित कर दिया है कि तमाम बंदिशों के बावजूद अगर कोई फ़िल्मकार संवेदनशील हो, तो वह पूरी हिम्मत के साथ बेझिझक और निडर होकर अपनी बात रख सकता है. बोल में उन्होंने एक ऐसी लड़की की कहानी कही, जो उस मुल्क में जन्मी है, जो पुरुषवादी है.
इसके बावजूद वह अपने परिवार की खिलाफ़त करने की हिम्मत दिखाती है. दूसरी तरफ़, फ़िल्म खुदा के लिए में भी मंसूर महिला के मानवाधिकार की अगुवाई कर रहे हैं. पाकिस्तान की जड़ से जुड़ी ये फ़िल्में पूरे विश्व में सराही जा रही हैं. इससे साफ़ जाहिर होता है कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री की जो स्थिति थी, धीरे-धीरे उसमें बदलाव आ रहे हैं. पाकिस्तान में भी अब विषयपरक फ़िल्में बनने लगी हैं.
हालांकि, यह भी सच है कि आज भी वहां ऐसी फ़िल्में सिनेमा हॉल तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही हैं. लेकिन फ़िल्मों का बन जाना और उसका विश्वव्यापी असर होना, सकारात्मक संदेश देता है. यही नहीं, अब पाकिस्तान में मॉडर्न विषयों पर भी फ़िल्में बनने लगी हैं. इसका ताजा उदाहरण हमद खान की स्लैकिस्तान है. फ़िल्म की पूरी शूटिंग इसलामाबाद में हुई है. वर्ष 2010 गोवा इफ्फ़ी फ़िल्मोत्सव के दौरान इस फ़िल्म को देखने का मौका मिला था.
इस फ़िल्म में हमद ने उन सभी मुद्दों को उठाया है, जिससे आज यह देश जूझ रहा है. उन्होंने फ़िल्म के माध्यम से उस पहलू को भी उजागर किया है, जिसकी वजह से आतंकवाद को बढ़ावा मिल रहा है. यही वजह है कि फ़िल्म के प्रदर्शन पर वहां की सरकार ने रोक लगा दी है. लेकिन फ़िल्म विश्व के सभी फ़िल्मोत्सव का हिस्सा बनी और इसे सराहना भी मिली.
इस वर्ष पहली बार ऑस्कर के लिए कोई पाकिस्तानी फ़िल्म मनोनीत हुई है. सेविंग फ़ेस नामक इस फ़िल्म में महिला निर्देशक शरमान अबेद ने क्राइम ऐसड वॉयलेंस के मुद्दे उजागर किये हैं. पाकिस्तान से किसी महिला निर्देशक का उभरना भी देश के लिए बड़ी उपलब्धि है.
दरअसल, सच्चाई यही है कि उन सभी देशों में जहां के लोग आज भी कई रूपों में अपने अधिकारों का हनन होते देख रहे हैं, अब क्रांति के मूड में हैं. निस्संदेह न्यू वेब सिनेमा के माध्यम से एक नयी बयार चली है. अब वे फ़िल्में दर्शकों को लुभाने लगी हैं, जो फ़ूहड़ व चलताऊ विषयों से अलग हैं. चूंकि इन फ़िल्मों के विषय उनकी वास्तविक जिंदगी पर आधारित हैं. वर्ष 1959 से 1969 तक पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री ने सुनहरा दौर देखा. उस दौर में अयूब खान वहां के राष्ट्रपति थे.
इसकी खास वजह यह थी कि उस दौर ने इस इंडस्ट्री को कई उम्दा कलाकार दिये. वे बाद में लीजेंड बने, इसी दौर में पाकिस्तान ने रंगीन फ़िल्मों का दौर देखा. धीरे-धीरे सेंसरशिप के दबाव में कई गंभीर मुद्दों को उजागर करने पर रोक लगा दी गयी. फ़िल्मों में केवल रोमांस व फ़ूहड़ता परोसे जाने लगे. लेकिन अब फ़िर से युवा फ़िल्मकारों ने नयी लौ जलायी है. इसका स्वागत हो.
डीप फ़ोकस
वर्ष 1964 में जहिर रेहान की फ़िल्म संगम पाकिस्तानी की पहली रंगीन फ़िल्म थी

एक ऐसी मां की कहानी




विद्या बालन फिल्म कहानी से एक नये अवतार में अवतरित होने जा रही हैं. फिल्म की कहानी एक ऐसी गर्भवती मां की है, जिसके पति ने उसे छोड़ दिया है लेकिन वह मां नहीं चाहती कि जब उसका बच्च दुनिया में आये और उससे पूछे कि उसका पिता कौन है, तो वह मां अपने बच्चे को जवाब न दे पाये इसलिए वह गर्भावस्था में भी अपने पति की तलाश में निकल चुकी है यह फिल्म सुजोय घोष की है इस मामिक कहानी को सिनेमाइ परदे पर फिल्माने के लिए उन्हें प्रेरणा एक वास्तविक घटना से ही मिली कोलकाता में ही कभी उनकी मुलाकात एक ऐसी ही महिला से हुइ थी, जो अपने पति की तलाश में भटक रही थी सुजोय को उस महिला ने इसलिए प्रेरित किया क्योंकि एक महिला की स्थिति सबसे अधिक संवेदनशील उस वक्त ही होती है, जब वह गर्भवती होती है ऐसे में वह अपना ख्याल रखने की बजाय दर-दर भटक रही है, यह बहुत जह्लबे और हिम्मत की बात होती है सुजोय ने वाकइ इस फिल्म के जरिये एक बेहतरीन कहानी कहने का साहस किया है चूंकि पूरे विश्व में आज भी ऐसी ही कइ कहानियां हैं, जहां कइ महिलाएं पति द्वारा छोड़ दी जाती हैं हाल ही में अनुराग कश्यप की भी एक फिल्म प्रदशित हुइथी दैट गल इन यलो बुट्स जिसमें नायिका अपने पिता की तलाश में भारत आती है फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा में भी फरहान अपने पिता की तलाश में स्पेन जा पहुंचते हैं. दरअसल, सुजोय की यह कहानी उन तमाम औरतों की कहानी होगी, जो खुद इस प्रतिकूल परिस्थिति से गुजर रही हैं हकीकत यही है कि हमारे समाज के ढांचे के अनुसार हर व्यक्ति के लिए उसके जीवन में उसके पिता के अस्तित्व अति महत्वपूण है वरना, ताउम्र वह बच्च नाजायज औलाद की उपाधि से खुद को अलग नहीं कर पाता वह भले ही दुनिया में कितनी भी बड़ी उपाधि हासिल कर ले लोग उसे हीन दृष्टि से ही देखते हैं और बात बे बात कइ बार उसका मखौल भी उड़ाते हैं ऐसे में वह बच्च खुद को अपमानित समझता है.

हिंदी सिनेमा जगत में भी ऐसे कई बच्चे हैं, जो आज भी सेलिब्रिटी की जिंदगी जीने के बावजूद अपने अस्तित्व की ही तलाश कर रहे हैं सुजोय ने एक पुरुष होने के बावजूद एक महिला के इस दद को समझा है और उन्होंने इस मां को लाचार, बेसहारा दशाने के बजाय उन्हें मजबूत निणय लेते हुए दिखाया है इस लिहाज से यह उन तमाम महिलाओं के लिए नयी किरण है सुजोय के लिए निस्संदेह बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को कामयाबी दिलवाना एक चुनौती है लेकिन फिल्मकार के रूप में उन्होंने कहानी की सोच से ही साबित कर दिया है कि वे एक संवेदनशील फिल्मकार हैं भले ही फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफलता न मिले लेकिन उन महिलाओं को जो इस हादसे से गुजर चुकी हैं, उन्हें मनोबल जरूर मिलेगा इसका सजीव उदाहरण उस दिन मुंबइ लोकल में नजर आया, जब एक महिला ने अखबार में इस फिल्म से संबंधित खबर को प़ढते हुए कहा कि उसकी वास्तविक जिंदगी से ही मेल खाती है इस फिल्म की कहानी उसकी नजर में इस बात की संतुष्टि थी कि फिल्म के बहाने उसका दद लोगों के सामने आ पायेगा.

20120206

हर व्यक्ति पहले एक कॉमन मैन है ः अक्षय खन्ना



अक्षय खन्ना काफी दिनों के बाद फिल्म गली गली शोर है से वापसी कर रहे हैं. पेश है उनकी बातचीत के मुख्य अंश
अक्षय खन्ना को दर्शक मुख्यतः फिल्म ताल व रेस के लिए बहुत याद करते हैं.गली गली शोर हैं में वह पहली बार आम आदमी का किरदार निभा रहे हैं.
एक स्टार होने के बावजूद किसी कलाकार के लिए आम आदमी का किरदार निभाना कितना मुश्किल होता है?
मेरे अनुसार हर व्यक्ति आम इंसान ही है. कानून भी. भले वह देश का प्रधानमंत्री हो या रास्ते का भिखारी. देश का हर आदमी इससे प्रभावित होता है कि देश में क्या हो रहा है. वह चाहे बड़ा हो या छोटा.
गली गली शोर की कहंानी के बारे में बताएं?
गली गली शोर है. सिस्टम व कानून की कहानी है. हर व्यक्ति की कहानी है. हर आम इंसान की कहानी है. सिस्टम में हो रहे भ्रष्टाचार की कहानी है. फिल्म में दिखाया गया है कि जब एक आदमी कानून से लड़ता है अपने हक के लिए तो क्या होता है. फिल्म की कहानी हर भारतीय को पसंद आयेगी. हर व्यक्ति तुरंत खुद को फिल्म से कनेक्ट कर लेगा. फिल्म का अंदाज हास्य रखा गया है.
क्या वाकई एक आदमी समाज को जागरूक कर सकता है.
हां, हां, क्यों नहीं. अंग्रेजी में कहावत है कि कभी भी आपको अपने अंदर की शक्ति को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए. लेकिन हमारी कहानी किसी कैरेक्टर की सिस्टम के साथ संघर्ष की कहानी नहीं हैं, बल्कि पूरे समाज की कहानी है. हम यही दिखाने की कोशिश करेंगे कि कैसे कोई आम व्यक्ति चाहे तो सच्ची चीजें दर्शा सकता है.
मनोज कुमार ने मिस्टर भारत की उपाधि हासिल की थी. आप भी फिल्म में भारत बने हुए हैं. क्या अलग होगा.
मनोज कुमार सर से कोई तुलना नहीं है. बस इतना जानता हूं कि यह भारत आम आदमी के बीच का ही एक व्यक्ति है. उसका प्रतिनिधि है.
हमने सुना, अन्ना हजारे ने फिल्म की बेहद तारीफ की है.
सही सुना है आपने. हमने उनके लिए फिल्म की स्क्रीनिंग रखी थी. उन्हें फिल्म बेहद पसंद आयी है.
गली गली शोर में काम करने का संयोग कैसे बना
रुमी मेरे दोस्त हैं. नीतिन मेरे भाई की तरह है. दोनों ने मुझे स्क्रिप्ट सुनायी. और मुझे लगा कि मुझे इस फिल्म में काम करना चाहिए, मुझे नहीं पता फिल्म कैसी चलेगी. लेकिन अच्छी कहानी कहने की कोशिश की गयी है.
फिल्म को जान बूझ कर तो अन्ना हजारे से जोड़ने की कोशिश नहीं की गयी है.
जी नहीं, फिल्म की कहानी भ्रष्टाचार पर है और अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं तो हम चाहते थे कि अन्ना जी इसे देखें. इसमें बुराई क्या है अगर अच्छी फिल्में बनाई जा रही हैं तो.
स्वाधीनता व क्रांति पर आधारित विषयों पर बननेवाली फिल्मों में काम करना पसंद है आपको?
हां, चूंकि मैं खुद को देश का नागरिक मानता हूं. मुझे ऐसी फिल्में करना बहुत पसंद है. मैं मानता हूं कि फिल्मों में मैसेज होना चाहिए. लेक्चर नहीं.
आप अब्बास की प्लेयर्स में नजर नहीं आये.
इस सवाल का जवाब आपको अब्बास मस्तान ही बेहतर दे पायेंगे.

भ्रष्ट सिस्टम के चेहरे पर आम आदमी का तमाचा


फिल्म : गली गली चोर है
कलाकार : अक्षय खन्ना, सतीश कौशिक, मुग्धा गोड्से, अनु कपूर,श्रिया शरण
निदेशक : रूमी जाफरी
संगीत : अनु मलिक
गीत : राहत इंदौरी, स्वानंद किरकिरे
रेटिंग : 3 स्टार
अक्षय खन्ना ने लंबे अंतराल के बाद फिल्म गली गली चोर है से वापसी की है. वे ऐसे अभिनेता हैं जो किरदारों को जीवंत करने में माहिर हैं. इस बात का प्रमाण वह अपनी पिछली फिल्मों में दे चुके हैं. इस फिल्म से उनकी अदाकारी में और निखार आया है. फिल्म गली गली चोर है एक आम आदमी की कहानी है. फिल्म के निदेशक रूमी जाफरी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने बिना भाषणबाजी किये ही फिल्म में भ्रष्टाचार के मुद्दे को खूबसूरती से दर्शाया है .
यह फिल्म दर्शाती है कि कैसे कोइ आम आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाता. आम आदमी निहत्था है, कमजोर है तो सिस्टम उसका गलत फायदा उठा सकता है. सिस्टम में आने वाले हर व्यक्ति, हर विभाग के सच को दशाती है. यह फिल्म इस फिल्म के जरिये रूमी जाफरी आम जनता की बात और उसकी ताकत को आम जनता तक पहुंचाने में कामयाब रहे हैं.
वे भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मसले पर हवा में बात करने से बचते हुए बेहद ही खूबसूरती से अपनी बातों को दशकों तक पहुंचाने में कामयाब साबित हुए हैं. फिल्म में मुख्य किरदार का नाम भारत रखने के पीछे भी निदेशक का उद्देश्य साफ झलकता है.
अक्षय खन्ना व सतीश कौशिक के रूप में निश्चित रूप से निदेशक ने किरदारों को जीवंत करने के लिए एक अच्छा चुनाव किया है. इमानदार व मासूम पिता के रूप सतीश खूब जंच रहे हैं. इस फिल्म का विषय बेहद उम्दा होने के बावजूद निदेशक से सिफ इस बात की शिकायत है कि क्या वीना मलिक के आयटम डांस के बिना फिल्म कमजोर पड़ जाती अगर यह आयटम सांग नहीं होता तो भी यह फिल्म एक अच्छी फिल्म साबित होती .
मुग्धा गोड्से ने क्यों यह फिल्म स्वीकारी, यह तो वही बता सकती हैं, क्योंकि फिल्म में उनके लिए कोइ खास जगह नजर ही नहीं आती. श्रिया शरण ने अपने लिहाज से अच्छा अभिनय किया है फिल्म गली गली चोर है, दरअसल भ्रष्ट सिस्टम के मुंह पर एक आम आदमी का तमाचा है. निदेशक की इमानदार कोशिश है, इसलिए यह फिल्म सराहना के काबिल है हर भारतीय को यह फिल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए

दीवारों पर हथेलियां


गृहस्थ जीवन में व्यस्त होने से पहले रितेश ने एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उठाई है. यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने व्यक्तिगत परिवार के लिए नहीं, बल्कि हिंदी सिनेमा जगत के लिए उठाई है. उन्होंने हिंदी सिनेमा जगत के लीजेंडरी शख्सियत के सम्मान में लीजेंड्स वॉक नामक खास सड़क मार्ग बनाने की योजना बनायी है.
मुंबई के ब्रांदा इलाके में इसका निर्माण किया जायेगा. इस मार्ग पर बॉलीवुड की जानी मानी हस्तियों के हथेलियों के निशान लिये जा रहे हैं और फ़िर इसे इस मार्ग के दीवार पर लगायेंगे. रितेश अभिनेता होने के साथ-साथ एक आर्किटेक्ट भी हैं. यही वजह है कि उन्होंने यह बेहतरीन कंसेप्ट सोची और इस पर वे लगातार काम भी कर रहे हैं.
अब तक उन्होंने आशा पारेख, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेद्र, हेमा मालिनी व हाल ही में उन्होंने दिलीप कुमार व सायरा बानो के हाथों के निशान भी लिये. सिनेमा हस्तियों ने इस अद्वितीय कंसेप्ट के लिए रितेश की बहुत सराहना की है.
रितेश देशमुख बधाई के पात्र हैं, क्योंकि हिंदी सिनेमा जगत इन दिनों वर्तमान में जी रहा है. डिजिटल वर्ल्ड की दुनिया में सारी चीजें डिजिटल रूप से ही तैयार हो रही हैं. और उनका संरक्षण भी डिजिटल रूप से ही हो रहा है. यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि हिंदी सिनेमा जगत अपने 100वें साल में प्रवेश करने जा रहा है.
लेकिन हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा के प्रिंट्स गायब हैं. हिंदी सिनेमा जगत से जुड़ी और भी कई ऐसी चीजें हैं जिनका संरक्षण किया जाना चाहिए था. लेकिन आज वे विलुप्त हो चुकी हैं. चूंकि हिंदी सिनेमा जगत से जुड़े लोग भी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं. जिस तरह भारत में फ़िल्में केवल एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट से चलती हैं.
यहां फ़िल्मों से जुड़े कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों को संग्रहीत करने की कोई प्रक्रिया नहीं है. हालांकि, पिछले साल विदु विनोद चोपड़ा ने भी एक लाइब्रेरी की शुरुआत की है, जिसमें हिंदी सिनेमा के सभी क्लासिक फ़िल्मों की स्क्रिप्ट का संग्रह किया जायेगा. दरअसल, हिंदी फ़िल्म जगत के लिए यह बेहद अनिवार्य है कि वे अपने सिनेमा के इतिहास, उसके वर्तमान को भविष्य में भी जीवित रख सके.
यह तभी संभव हो सकता है, जब हर निर्देशक कलाकार मिल कर चीजों को महत्व देना शुरू करें और उन्हें सहेज कर संजो कर रखे. हम आज तकनीक में, कंसेप्ट में, कहानी हर दृष्टिकोण से विदेश की नकल करने में आतुर हैं और अपनी बेशर्मियत को पार कर चुके हैं तो फ़िर जो चीजें हमें उनसे सीखनी चाहिए. वह हम क्यों नहीं सीखते.
जिस तरह वे अपने कलाकारों के सम्मान में कई म्यूजियम का निर्माण करते हैं. यहां तक कि आज भी वहां के कई म्यूजियम में कलाकारों के परिधान भी सहेज कर रखे गये हैं. तो फ़िर इन बातों पर अब तक हिंदी के लोगों की नजर क्यों नहीं गयी. रितेश ओर्कटेक्ट भी हैं और अभिनेता भी. यानी वे दो कलाओं के कलाकार हैं.
इस लिहाज में वे इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ होंगे कि एक कलाकार कभी मरता नहीं. इस बात का चित्रण वी शांताराम ने फ़िल्म गीत गाया पत्थरों में भी किया है, जिसमें वे परिकल्पना करते हैं कि निर्जीव पत्थर भी गीत गाते हैं.
डीप फ़ोकस
भारत की पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा के प्रिंट वर्ष 2003 में पुणे के आरकाइव में लगी आग की वजह से बर्बाद हो गये

20120205

प्रयोगात्मक फ़िल्मों का दौर

परसेप्ट पिक्चर्स वैसे युवा निर्देशकों को प्रोत्साहित कर रहा है, जो लीक से हट कर कुछ नया करने का जज्बा रखते हों. इसी क्रम में दो युवा यश दवे और अलिशन पटेल ने सिनेमा की दुनिया में नया प्रयोग किया है. वर्ष 2010 में कुछ दोस्त मिल कर कहीं जंगल में अपने प्रोजेक्ट के लिए फ़िल्म बनाने गये.
फ़िर लौटे ही नहीं. लेकिन उनका कैमरा मिला, जिसमें कुछ फ़ुटेज हैं. वह फ़ुटेज किसी पहेली की तरह हैं. सो, परसेप्ट पिक्चर्स ने तय किया है कि वे इसी फ़ुटेज से एक फ़िल्म बनायेंगे और फ़िल्म का कोई भी शीर्षक नहीं देंगे. फ़िल्म का फ्रंट केवल प्रश्नचिह्न के रूप में दिखाई देगा. वहीं, दूसरी तरफ़ 14 देशों के 25 निर्देशक मिल कर एक ही विषय पर फ़िल्म बना रहे हैं.
बोलती फ़िल्मों के दौर में साइलेंट फ़िल्म द आर्टिस्ट धूम मचा रही है. इससे प्रेरित होकर ही अनुराग कश्यप ने साइलेंट फ़िल्मों की एक प्रतियोगिता करायी, जिसमें फ़िल्मकारों को छोटे अंतराल की साइलेंट फ़िल्में बनानी थी. बजट के अभाव में निर्देशक सुधीश कामथ ने गुड नाइट, गुड मॉर्निग बनायी. इसमें पूरी कहानी दो लोगों के फ़ोन पर हुई बातचीत के आधार पर बनी है.
यह कंसेप्ट भी सिनेमा में नये प्रयोगों का ही सूचक है. युवा फ़िल्मकार महेश पाटील ने भी हाल ही में लघु फ़िल्म ए ब्लाइंड फ़ेथ बनायी है, जिसमें उन्होंने कर्नाटक की कुरीति को दर्शाया है. इन सभी फ़िल्मों पर बातचीत इसलिए, क्योंकि यह इस बात की सूचक हैं कि भले ही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा राज कर रहा हो, उसके समानांतर नित नये प्रयोग हो रहे हैं. नये-नये आइडियाज के साथ फ़िल्में बन रही हैं. फ़िल्मों में तकनीकी रूप से प्रयोग हो रहे हैं.
अब फ़िल्में बनाने के लिए मोबाइल कैमरा भी काफ़ी है. अगर वाकई आपके पास सोच है, तो. शायद यही वजह है कि द ओर्टस्ट जैसी साइलेंट फ़िल्में भी उल्लेखनीय हो जाती हैं. फ्रेंच भाषा में बनी इस फ़िल्म ने दुनिया के कोने-कोने में प्रभाव छोड़ा, क्योंकि फ़िल्म में प्रयोग किये गये हैं. दर्शकों को नयी चीजें देखने को मिलीं. फ़िल्म में दर्शाया गया है कि कैसे मूक फ़िल्मों से बोलती फ़िल्मों का दौर बदला.
किस तरह मूक फ़िल्मों से जुड़े कलाकारों की रोजी-रोटी उनसे छिन गयी और कैसे एक महान कलाकार तकनीक व बदलते दौर की वजह से हार गया. रंगीन रील में दिखायी जानेवाली फ़िल्मी दौर में द ओर्टस्ट ब्लैक एंड व्हाइट रील में बनी. वाकई, ऐसे प्रयोग सराहनीय हैं. यह सच है कि आज भी भारत में शॉर्ट फ़िल्में या ऐसी फ़िल्में व्यापक रूप से दर्शकों तक नहीं पहुंच पाती.
फ़िर भी कई संस्थाएं ऐसी हैं, जो ऐसे फ़िल्मकारों व फ़िल्मों में रुचि ले रही हैं. भारत के कोने-कोने से ऐसे प्रयोगों में भारतीय फ़िल्मकारों की भागीदारी इस बात का प्रमाण है कि भारत में प्रयोगशील प्रतिभाओं की कमी नहीं है

20120203

सेभ दादा व सिनेमा का शंखनाद



जब भी हिंदी सिनेमा के इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं तो हमारे सामने दादा साहेब फाल्के की फिल्म राजा हरिशचंद्र का नाम उभर आता है. चूंकि हिंदी सिनेमा के नाम पहला कीर्तिमान इसी फिल्म से स्थापित हुआ था. इस लिहाज से यह फिल्म सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है. लेकिन इसके साथ ही साथ हरिशचंद्र नाम से ही जुड़े एक महत्वपूर्ण शख्स और भी हैं, जिन्हें सिनेमा से संबध्द रखनेवाले हर शख्य को पूरे सम्मान से स्मरण करना चाहिए. दादा साहेब फाल्के ने हिंदी सिनेमा में जो योगदान दिया है. वह अतुल्नीय है. लेकिन इनके साथ ही एक और शख्सियत भी हैं, जिन्होंने भारत में पहली बार सिनेमा का उदय किया. हरिशचंद्र सखावराम भाटवेडकर उर्फ सेभ दादा. विशेष कर सिनेमा में रुचि रखनेवाली नयी पीढ़ी के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि शुरुआती दौर में एक सामान्य से दिखनेवाले सीधे साधे हरिशचंद्र ने किस तरह छोटे छोटे प्रयासों से भारत में पहली बार सिनेमा की परिभाषा गढ़ी. कम ही लोगों को यह जानकारी होगी कि राजा हरिशचंद्र से पहले भी कुछ मिनटों की फिल्मों का निर्माण हुआ था और उसे बनानेवाले थे हरिशचंद्र उर्फ सेभ दादा. दरअसल, सच्चाई यह है कि भारतीय लोगों को शुध्द रूप से भारतीय अंदाज में सबसे पहले सिनेमा से रूबरू करानेवाले शख्स सेभ दादा ही थे. वह मुंबई( तब बांबे) के निवासी थे. पेशे से वह स्टील फोटोग्राफर थे. वर्ष 1896 में जब पहली बार मुंबई में लुमिनियर ब्रद्रर्स ने फिल्म शोज किये थे. उसे साक्षात देखनेवाले लोगों में से एक थे. उस फिल्म से ही प्रभावित होकर उन्होंने लंदन से एक मूवी कैमरा व प्रोजेक्टर मंगवाया. और मुंबई में होनेवाले आयोजनों को रिकॉर्ड करने लगे. वह भारत के पहले फिल्म निर्माता बने. उन्होंने पहली बार दो पहलवानों की लड़ाई के खेल को शूट किया. फिल्म का नाम रखा दो पहलवानों की कुश्ती. साथ ही उन्होंने एक और फिल्म भी बनायी. बंदर को नचाता हुआ मदारी. यह दोनों ही फिल्में वास्तविक घटना पर आधारित थी. यह फिल्में वर्ष 1899 में रिलीज हुई थीं. यानी 1913 से कुछ 14 वर्ष पहले ही भारत में सिनेमा का शंखनाद हो चुका था. इन फिल्मों के बाद उन्होंने लोकल सीन्स, अफतास बेहराम, सर रैंगलर, दिल्ली दरबार जैसी फिल्मों का निर्माण किया था. जो बाद में जाकर सिनेमा को समझने व जानने के लिहाज से महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित हुई.उस दौर में सेभ दादा को यह बात सबसे अजूबी लगी थी, कि जो घटना बीत चुकी है. हम उसे वीडियो के माध्यम से दोबारा देख सकते हैं. सेभ दादा ने एहसास किया कि दस्तावेजों के संरक्षण का यह महत्वपूर्ण तरीका है. सो, उन्होंने लगातार रिकॉर्डिंग शुरू किया. कहा जा सकता है कि भारत में पहली डॉक्यूमेंट्री बनाने का श्रेय भी सेभ दादा को ही जाता है. स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भी कई महत्वपूर्ण घटनाओं को अगर वीडियो के माध्यम से संरक्षित रखा जा सका तो वह सेभ दादा की ही बदौलत. उम्मीद है कि हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर सेभ दादा व उनके योगदान की अनदेखी नहीं की जायेगी. चूंकि वे इस सम्मान के प्रथम हकदार हैं.

20120202

फटा पोस्टर निकला हीरो


किसी दौर में हीरो हीरा लाल के यह संवाद फटा पोस्टर निकला हीरो ...निश्चित तौर पर फिल्म के संवाद लेखक हृदय लानी इसलिए लिख पाये होंगे,चूंकि उन्होंने कभी सिनेमा में हाथों से बने फिल्मी पोस्टर्स की अहमियत का दौर देखा होगा. यह वह दौर था. जब हिंदी सिनेमा ने डिजिटल दुनिया की चौखट पर अपने घुटने नहीं टेके थे. जहां, फिल्म की पब्लिसिटी के लिए पीआर एजेंसियां नहीं, महज पोस्टर्स ही कमाल कर दिखाते थे. यह इस कला की ही ताकत थी कि केवल पोस्टर्स देख कर ही दर्शक टिकट खिड़की पर खींचे चले आते थे. हिंदी सिनेमा अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. लेकिन अफसोस, आज किसी पोस्टर से न तो कोई हीरो निकलता है और न ही कोई हीरोइन. चूंकि पोस्टर्स कला गौन हो चुकी थी. लेकिन राउडी राठौड़ से उम्मीद फिर से जगी है.


फिल्मों का प्रमोशन तब भी होता था. और आज भी होता है. फर्क सिर्फ इतना है कि उस दौर में पीआर एजेंसियां द्वारा आयोजित कार्यक्रमों द्वारा फिल्मों का प्रमोशन नहीं किया जाता था. बल्कि लोगों को फिल्म से अवगत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे फिल्मों के पोस्टर्स. हिंदी सिनेमा क्लासिक फिल्मों की वजह से जितनी समृध्द है. उतनी ही समृद्व वह हाथों से बने फिल्मी पोस्टर्स से भी है. जिस तरह निदर्ेशक फिल्म में अपनी सृजनशीलता दिखाता था. कलाकार फिल्म के पोस्टर्स को सजाने में. किसी दौर में हाथों से पेंटिंग किये गये फिल्मी पोस्टर्स की अहमियत थी, चूंकि वही पोस्टर्स फिल्म का गुणवत्ता व कलाकारों के फेस वैल्यू का सूचक होते थे. यही वजह थी कि निदर्ेशक फिल्म बनाने के साथ साथ फिल्म के पोस्टर्स को तैयार करने में पूरी बारिकियां बरतते थे. चूंकि वही पोस्टर फिल्म का पहला चेहरा होते थे. इन्हें बनानेवाले कई अधिकतर चित्रकार ही होते थे. और ऐसे कई स्ट्रीट कलाकार भी होते थे, जो समूह में काम किया करते थे. रंगों में मुख्य रूप से पानी के रंग का इस्तेमाल होता है. मूलरूप से छोटे पन्ने पर इसे बनाया जाता था. फिर प्रिंट के माध्यम से इसके बड़े आकार निकाले जाते थे. संजय लीला भंसाली की फिल्म राउडी राठौड़ के पोस्टर्स जारी हो चुके हैं. और यह हैंडमेड हैं. इस पोस्टर्स को दर्शकों ने बेहद पसंद किया है. इससे साफ जाहिर होता है कि आज भी हैंडमेड पोस्टर्स की लोकप्रियता डिजिटल पोस्टर्स से कहीं अधिक है. जरूरत है तो बस इसके वजूद को बरकरार रखने की.

जहां आज भी बोलती हैं तसवीरें
मुंबई के दक्षिण इलाके में स्थित है चोर बाजार. चारों तरफ गैजेट्स की दुकानें सजी हैं. दुनिया के हर महंगे मॉडल के उपकरणों का डुप्लीकेट रूप आपको यहां सस्ते दामों पर उपलब्ध है. यही घूमते फिरते अचानक आपकी निगाह आकर ठहर जायेगी हाजी अब्बू के पोस्टर की दुकान पर. और अगर आप पुरानी हिंदी फिल्मों के शौकीन हैं और दर्शक रहे हों तो एकबारगी वे सारी फिल्में आपकी नजरों के सामने से गुजर जायेंगी. चूंकि यह वह स्थान हैं, जहां आज भी हिंदी फिल्मों के सारे हैंडमेड पोस्टर्स उपलब्ध हैं. अबू अब इस दुकान के मालिक हैं. लेकिन कभी यह शौक उनके दादाजी का था. उन्होंने वर्ष 1940 में फिल्मों के पोस्टर्स एकत्रित करना शुरू किया. इसके बाद उनके पिता और अब अबू ही इसके कर्ता धर्ता हैं. उन्हें अब तक सबसे महंगे खरीदार मिले फिल्म कल्याण खाजिना के. एक ग्राहक ने इसे 4 लाख में खरीदा. बकौल अबू ऐेसे कई लोग हैं जो यूके, कनाडा, यूएसए से सिर्फ हिंदी फिल्मों के पोस्टर्स खरीदने आते हैं. साथ ही वे पुराने फिल्मी टिकट, ब्राउसर व पैंपलेट खरीदने में भी रुचि रखते हैं. अबू ने अपने जीवन में पहला पोस्टर 300 रुपये देकर फिल्म डॉन का खरीदा था. वर्तमान में सबसे महंगे पोस्टर देव आनंद की गाइड के हैं. अबू बताते हैं कि कई पोस्टर्स सेल के लिए हैं. लेकिन कुछ पोस्टर्स वे कभी नहीं बेचेंगे. उनमें फिल्म तराना. पुकार, शीश महल महत्वपूर्ण है. साथ ही गुरुदत्त की फिल्मों के पोस्टर्स भी वह कभी बेंचना नहीं चाहेंगे. बकौल अबू हिंदी फिल्मों के कई कलाकारों ने अपनी फिल्मों के पोस्टर्स मुझसे खरीदे हैं. राजेश खन्ना ने फिल्म आराधना के पोस्टर्स खरीदे. देव आनंद ने किनारे किनारे के व धमर्ेंद्र ने सत्यकाम के.
और बन गया सुपरहिट संवाद
पोस्टर की अहमियत को देखते हुए ही फिल्म हीरो हीरा लाल में संवाद लिखे गये थे जो आज भी बेहद लोकप्रिय है. फटा पोस्टर निकला हीरो. लेकिन धीरे धीरे जिस तरह सिनेमा ने डिजिटल दुनिया की तरफ रुख किया. इन हैंडमेड पोस्टरों की अहमियत भी खोती गयी. और आज यह कला लगभग गौन ही हो चुकी है. किसी दौर में फिल्मों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए हाथों से बने यही पोस्टर हाथियों की पीठ पर दोनों तरफ रख कर हाथियों को मोहल्ले मोहल्ले में घुमाया जाता था. साथ ही हर गली में. हर दुकान में. हर ठेले पर पोस्टर सजाये जाते थे. यह पोस्टर कुछ ऐसे बने होते थे, जिनमें फिल्म के अहम कलाकारों की हूबहू तसवीर उसमें नजर आती थी. मुगलेआजम, जुगनू, बरसात, पुकार, देवदास, मदर इंडिया, महल, गाइड, दीवार ऐसी फिल्में हैं, जिनके पोस्टर्स जीवंत नजर आते थे. और दर्शक खुद को उनसे जुड़ा पाते थे. लेकिन अफसोस आज यह कला गौन हो चुकी है.
राउडी राठौड़ से वापसी
पिछले कई वर्षों से किसी भी हिंदी फिल्म के पोस्टर्स में ऐसी कला नजर नहीं आयी. लेकिन जल्द ही रिलीज होनेवाली अक्षय कुमार की फिल्म राउडी राठौड़ में वर्षों बाद यह ट्रेंड लौटता दिखाई दे रहा है. फिल्म के पोस्टर्स हाथों से बनाये गये हैं. संजय लीला भंसाली ने यह कदम उठाया है. उन्होंने चार स्ट्रीट आर्टिस्ट को फिल्म के पोस्टर हाथों से बनाने का मौका दिया. खुद भंसाली मानते हैं कि हम जिस तरह डिजिटल दुनिया जी रहे हैं. पुरानी चीजों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं. बेहद जरूरी है कि हम फिर से अपनी धरोहर को बचायें. इसलिए राउडी राठौड़ में मैंने हैंडमेड पोस्टर्स को बढ़ावा दिया है, क्योंकि मैं मानता हूं कि वे सारी फिल्में जिनके पोस्टर्स हाथों से बनाये गये थे. उन्हें देख कर मुझे ऐसा लगता था. मानो उसके सारे कलाकार हमारे बीच के हैं और वह हमसे बातें करते हैं.
खोता अस्तित्व
हिंदी सिनेमा जगत के लिए यह अफसोस की बात है कि इसी कला का एक अहम हिस्सा आज अपना अस्तित्व खो चुका है. आज हालत यह है कि नेशनल फिल्म आर्काइव पुणे में कुछ ही फिल्मों के पोस्टर मौजूद हैं. इसके अलावा मुंबई के चोर बाजार व दिल्ली के हॉज खास विलेज में ही कुछेक कलाकारों के पास कुछ फिल्मों के पोस्टर्स उपलब्ध हैं.
पोस्टर्स के थीम
शुरुआती दौर में हिंदी पोस्टर्स के थीम फिल्म के विषय पर आधारित होते थे. फिल्मों के पोस्टर्स से फिल्मों में सामाजिक पुट नजर आती थी. फिर धीरे धीरे धार्मिक तत्व नजर आने लगे. 30 दशक के बाद पोस्टर्स में मुख्य केंद्र में फिल्म के मुख्य किरदारों को जगह मिलने लगी. 1970 के दशक में हैंडमेड पोस्टर्स की लोकप्रियता कम होने लगी. फिल्म डिस्को डांसर, कुबानीङ व अरमान जैसी फिल्मों ने डिजिटल रूप धारण कर लिया. अब कलाकारों के चेहरे डिजिटल तसवीरों के रूप में नजर आने लगे.
अभिनेत्रियां होती थीं मुख्य आकर्षण
वर्तमान में जहां बॉक्स ऑफिस की सफलता का पूरा श्रेय अभिनेता को दिया जाता है. उस लिहाज से फिल्म के फर्स्ट लुक पोस्टर में अभिनेता के चेहरे ही मुख्य रूप से नजर आते हैं. 1940 से 1960 का दौर ऐसा रहा था. जब अभिनेत्रियां फिल्मों के पोस्टर्स में केंद्र में नजर आती थीं. मदर इंडिया, महल,आन, मुगलेआजाम ऐसी ही फिल्में थीं. चूंकि उस दौर में अभिनेत्रियां अभिनेताओं को अभिनय में बराबरी का टक्कर देती थीं. यह दौर 60 दशक तक चला. फिर अभिनेताओं ने जगह बनायी. अमिताभ बच्चन की जंजीर, दीवार, शोले व मुकद्दर का सिंकदर के पोस्टर बेहद लोकप्रिय हुए.
कोटेशन ः कपिल देव आर्यन, पोस्टर्स के संग्रहकर्ता
मैंने शुरुआती दौर में केवल रुपये में शोले के पोस्टर्स खरीदे थे. आज उनकी कीमत छह हजार हो गयी है. आपको जान कर शायद आश्चर्य हो लेकिन मदर इंडिया के पोस्टर्स आज भी विदेशों में बेहद लोकप्रिय हैं और आज भी मुझे पत्र आते हैं. साथ ही अमिताभ बच्चन व राज कपूर के पोस्टर्स के आज भी विदेशों में लोग मुंहमांगी कीमत देना चाहते हैं. लेकिन अफसोस भारत में ही इस कला का सम्मान नहीं.
एसएस करन, पोस्टर्स सेलर, हॉज खास विलेज
मैं पिछले 25 सालों से इसी व्यवसाय में हूं. आज भी लोग दीवार, कश्मीर की कली, रफू चक्कर, दो आंखें बारह हाथ के पोस्टर 1500 रुपये की कीमत पर देकर खरीदते हैं.

एक्सट््रा शॉट
एसएम पंडित, डीआर भोंसले, जफर, जी कामले, पंडित राम कुमार शर्मा, दिवाकर करकरे व सी मोहन वे कलाकार हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा के कई माइलस्टोन फिल्मों के पोस्टर्स सजाये .
हिप्पी डॉट इन एक ऐसा वेबसाइट है, जिसके माध्यम से आप खुद अपनी तसवीरें पुराने फिल्मों के पोस्टर पर बनवा सकते हैं. मुंबई के नेहरु प्लैनेटोरियम में इंडियन हिप्पी नामक यह संस्थान फिल्म के प्रशंसकों के लिए यह सुविधा उपलब्ध कराती है.

कहानियों में अग्निपथ

फिल्म अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म अग्निपथ विजय दीनानाथ चौहान के पिता के मौत के बदले व उन पर लगे कलंक को मिटाने की कहानी है. करन जोहर ने इसी फिल्म का रीमेक निर्मित किया है. हिंदी सिनेमा में ऐसी और भी कई फिल्में बनती रही हैं, जिनमें नायक को बदले की भावना में जलते हुए दिखाया जाता रहा है.

मुंबई से थोड़ी दूरी पर स्थित मांडवा गांव में कांचा राज करना चाहता है. लेकिन मास्टर दीनानाथ चौहान उसके राह में रोड़े बनते हैं. कांचा को यह मंजूर नहीं और वह दीनानाथ चौहान पर गलत इल्जाम लगा कर उन्हें मार डालता है. दीनानाथ का बेटा विजय अपने पिता के इस कलंक व उनकी मौत के दर्द को भूल नहीं पाता और अपने जीवन का एक ही मकसद बना लेता है अपने पिता की मौत का बदला. दरअसल, किसी दौर में हिंदी सिनेमा में ऐसी कहानियों ने राज किया है. हिंदी सिनेमा में ऐसी कई फिल्में बनती रही हैं, जिसमें नायक अपने परिवार के किसी सदस्य की मौत का बदला लेने के लिए ताउम्र जिंदा रहता है. ऐसी लगभग सारी फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया है. मनोचिकित्सक डॉ उषा गावेडकर का मानना है कि दरअसल, हर व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई दर्द रहता ही है. ऐसे में जब उन्हें फिल्मों में ऐसी कहानी देखने को मिलती है तो वह खुद को उस फिल्म से कनेक्ट करने लगते हैं. यही वजह है कि बदले की भावना पर आधारित कहानियां दर्शकों को पसंद आती है.
अग्निपथ
यश जोहर की फिल्म अग्निपथ और करन जोहर निर्मित अग्निपथ विजय दीनानाथ चौहान के पिता के मौत के बदले की भावना में जलते हुए नायक की ही कहानी है.
आज का अर्जून
अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म आज का अर्जून में अर्जून अपने सामने अपनी बहन के हुए बलात्कार के बदले की भावना में जलता रहता है और अंततः वह जमींदार को मार डालता है. तब जाकर उसे सुकून मिलता है.
डिस्को डांसर
फिल्म डिस्को डांसर की कहानी भी अपने मां के हुए अपमान का बदला लेने की कहानी है. फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती ने अपनी अदाकारी से साबित कर दिया था कि वे बेहतरीन अभिनेता हैं.फिल्म को भारत के साथ साथ रूस में भी अपार सफलता मिली थी.
बाजीगर
फिल्म बाजीगर में अजय शर्मा अपने पिता विश्वनाथ शर्मा की मौत का बदला लेने के लिए मदन चोपड़ा की बेटियों के साथ प्यार का नाटक रचता है और फिर वह उनकी बेटियों को मार डालता है.इस फिल्म से शाहरुख खान बतौर अभिनेता इंडस्ट्री में स्थापित हुए और दर्शकों ने उन्हें बेहद पसंद किया. शुरुआती दौर में उनकी लोकप्रिय फिल्मों में से एक थी यह फिल्म
जिद्दी
वर्ष 1990 में बनी फिल्म घायल में भी सनी देओल अपने परिवार के लोगों की मौत के बदले की आग में जलते हैं और अंततः अपने दुश्मनों का खात्मा करने के बाद उन्हें चैन मिलता है.
गजनी
आमिर खान अभिनीत फिल्म गजनी में आमिर अपनी प्रेयसी की मौत का बदला लेने के लिए जिंदा रहते हैं और गजनी को मार कर ही उन्हें चैन मिलता है.
विजयपथ
अजय देवगन व तब्बू अभिनीत फिल्म में करन जब तक दिलावर सिंह को मौत के घाट नहीं उतार देता. वह चैन की सांस नहीं ले पाता.
करन-अर्जून
सलमान खान और शाहरुख अभिनीत फिल्म करन -अर्जून में मां के रूप में राखी अपने दोनों बेटों को खो चुकी होती है. लेकिन उसे फिर भी विश्वास है कि उसके बेटे आयेंगे और फिर से ठाकुर को सबक सिखायेंगे और ऐसा होता भी है.
इनके अलावा गंगा जमुना व प्रतिज्ञा ऐसी ही कहानियों पर आधारित फिल्में हैं.
बॉक्स में
हिंदी सिनेमा में नायिकाओं पर आधारित भी ऐसी कई कहानियां कही गयी हैं, जिनमें नायिकाओं के जीवन का मकसद भी बदला ही होता है.ऐसी फिल्मों में खुदगर्ज, सितापुर की सीता, दुश्मन व शेरनी जैसी फिल्में शामिल हैं