20110823

बराबरी का बॉलीवुड



इन दिनों हिंदी सिनेमा जगत में जब भी फिल्म से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा हो रही है. कुछ फिल्में किसी न किसी संदर्भ में उस चर्चा का विषय बन जा रही है. फिर चाहे उस फिल्म की कहानी वजह हो, निदर्ेशन वजह हो या फिल्म के गाने वजह हो. संदर्भ अलग होने के बावजूद इन सभी फिल्मों में कहीं न कहीं एक तार मिलते हैं.. सभी ये फिल्में समीक्षकों और दर्शकों दोनों के ही नजरों में खरी उतरी है. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म 404 फिल्म एक साइकोलॉजिकल थ्रीलर है. फिल्म की कहानी और फिल्म के वीजन ने दर्शकों के साथ साथ समीक्षकों का भी दिल जीता. फिल्म का निदर्ेशन प्रवाल रमण ने किया है. प्रवाल झारखंड के जमशेदपुर शहर के हैं. प्रवाल ने शुरुआती दौर में रामगोपाल वर्मा के साथ कई फिल्मों पर काम किया. जिस वक्त 404 रिलीज हुई. उस दौरान और भी कई थ्रीलर फिल्में रिलीज हुई थीं. लेकिन इसके बावजूद दर्शकों को फिल्म ने बांधे रखा. कुछ इसी तरह वर्ल्ड कप के दौरान बिना किसी बड़े स्टारवाली फिल्म तनु वेड्स मनु रिलीज हुई. ट्रे्ड पंडितों के अनुसार रिलीज से पहले अनुमानतः कहा गया कि दर्शक वर्ल्ड कप के दौरान फिल्म देखने पहुंचेंगे ही नहीं. लेकिन इसके बावजूद कम लागत में बनी यह फिल्म दर्शकों को पसंद आयी. वजह फिल्म की सामान्य लेकिन सुलझी सी कहानी. फिल्म के गीत भी दर्शकों को बेहद पसंद आये. और कई दिनों बाद किसी फिल्म के गीतों को दर्शकों ने एक एलबम की तरह संजो कर अपने कलेक्शन में शामिल किया. फिल्म की कहानी लखनऊ और कानपुर के इर्द-गिर्द घूमने के बावजूद दर्शकों मल्टीप्लेक्स में बैठे दर्शकों को लुभा गयी. इस फिल्म के लेखक हिंमाशु शर्मा लखनऊ के रहनेवाले हैं. फिल्म के गीतकार राज शेखर बिहार के मधेपुरा से हैं. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म शैतान का नाम भी दर्शकों की जुबां पर चढ़ चुका है. फिल्म की कहानी दर्शकों को पसंद आयी है. विशेष कर फिल्म का कैमरावर्क. फिल्म के निर्माता अनुराग कश्यप हैं और वे उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के रहनेवाले हैं. इस वर्ष के शुरुआत में फिल्म नो वन किल्ड जेसिका ने सफलता हासिल की. फिल्म की कहानी जेसिका लाल हत्याकांड पर आधारित थी. और दर्शकों और समीक्षकों दोनों को पसंद आयी. फिल्म के निदर्ेशक राजकुमार गुप्ता झारखंड के हजारीबाग से हैं. फिल्म रेडी के गीत कैरेक्टर ढीला, बैंड बाजा का गीत एंवी, डेली बेली के गीत डीके बोस के गीतकार नीलेश मिश्र और अमिताभ भट्टाचार्य भी लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं. किसी न किसी रूप में यह सारी फिल्मों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है. मुद्दे अलग. विषय अलग. कलाकार भी अलग. तकनीकी रूप से भी किसी की किसी से कोई तुलना नहीं. लेकिन इन सबके बावजूद एक तार है जो सभी में सामान्य है, वह है यह सभी फिल्में और इन फिल्मों से जुड़ी हस्तियां किसी न किसी रूप में छोटे शहरों से हैं. फिर चाहे वह गीतकार के रूप में हो, निर्माता के रूप में हो या फिर निदर्ेशक के रूप में. इससे साफ जाहिर है कि किसी न किसी रूप में छोटे शहर से आये लोगों ने हिंदी सिनेमा जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कर ली है. यह छोटे शहर से आये लोगों की प्रतिभा का ही परिणाम है कि आज बड़े बैनर भी अपनी फिल्मों की कहानियों के लिए इन पर आश्रित हैं. बॉलीवुड के स्थापित शख्सियत अनुराग कश्यप हमेशा इस बात की चर्चा करते हैं कि उन्हें इस बात का दुख है कि वे् अपनी फिल्म पांच को रिलीज नहीं कर पाये. कभी अपनी फिल्मों के लिए निर्माता न तलाश पानेवाले अनुराग इन दिनों खुद निर्माता की कुर्सी पर बैठे हैं और लगातार अलग लीक से हटकर फिल्में दे रहे हैं. अनुराग की यह कामयाबी छोटी कामयाबी नहीं, बल्कि उन तमाम छोटे शहर के लोगों के लिए प्रेरणा भी है. दरअसल, बदलते दौर और सिनेमा के बदले तेवर ने हर किसी के लिए अवसरों के रास्तें खोल दिये हैं. कभी केवल अभिनय में भाग्य आजमानेवाले लोगों और युवाओं ने भी इस तथ्य को जान लिया है कि अगर वह चाहें तो और भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां आप अपनी प्रतिभा दिखा सकते हैं. वे जिम्मेदारियां निभा सकते हैं. और वाकई वे जिम्मेदारियां निभा भी रहे हैं. शायद यही वजह है कि बड़े बैनर के लोगों का विश्वास भी अब ऐसी प्रतिभाओं की पर और गहराता चला गया है. गौर करें तो बॉलीवुड व टेलीवुड की पूरी रीढ कुछ ऐसे ही प्रतिभाशाली लोगों पर हैं. सिर्फ सिनेमा में ही नहीं बल्कि छोटे परदे पर भी छोटे शहर से आकर खुद दूसरों के साथ काम करने के साथ साथ अब खुद निर्माता के रूप में उभर कर सामने आये हैं. आप किसी भी सीरियल या फिल्म के सेट पर जायें, आपको वहां काम कर रहे अधिकतर व्यक्ति मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लोग ही नजर आयेंगे. टेलीविजन पर इन दिनों लव यू जिंदगी, गीता जैसे शोज का निर्माण पटना के शील कुमार कर रहे हैं. बाबा ऐसा वर ढूंढो और लुटेरी दुल्हन जैसे शोज का निर्माण झारखंड के चाइबासा से आये राकेश पासवान कर रहे हैं. साथ निभाना साथिया में डीओपी का काम झारखंड के निशि चंद्रा संभाल रहे हैं. प्रतिज्ञा का निदर्ेशन प्रभात प्रभाकर कर रहे हैं, बिग बॉस जैसे शोज का संपादन चाईबासा के प्रभात सिन्हा ने किया. झलक दिखला जा सीजन चार के प्रोडक्शन मैनेजर के रूप में झारखंड के जमशेदपुर की झिलमिल ने एक बड़ी जिम्मेदारी संभाली. यहां तक कि उनके काम करने के तरीके की तारीफ खुद माधुरी दीक्षित ने भी किया. फिल्म यमला पगला दीवाना में असोसियेट निदर्ेशक की भूमिका रांची के आशिष खतपाल ने निभायी. वे हाल ही में रिलीज हुई फिल्म भींडीबाजार में असोसियेट प्रोडयूसर के रूप में जुड़े हैं. रांची की नंदिता साहु चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म मोहल्ला अस्सी में कॉस्टयूम डिजाइनिंग से जुड़ी हैं. इसी फिल्म के आर्ट निदर्ेशक पंजाब के छोटे से शहर से हैं. फिल्म वांटेड और खेले हम जी जान से जैसी बड़े बैनर की फिल्मों के संपादन दिलीप देव रांची से हैं. सुधीर मिश्रा की फिल्म ये साली जिंदगी व सुधीर की अधिकतर फिल्मों का संपादन कर चुके आर्चित रस्तोगी लखनऊ शहर से हैं. फिल्म ऊंट पंटाग से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आयी अर्पणा जोशी बनारस शहर से हैं. मशहूर गीतकार स्वानंद किरकिरे इंदौर से हैं. जल्द ही रिलीज होनेवाली फिल्म डियर फ्रेंड हिटलर की पटकथा रांची के नलिन सिंह ने लिखी है. महेश भट्ट बोकारो के इमरान जाहिद को लेकर चंदू फिल्म का निर्माण करने जा रहे हैं. फिल्म रा.वन के वीएफएक्स के निर्माण से जुड़े अनुराग उत्सव बिहार के रहनेवाले हैं. यह एक छोटी फेहरिस्त हैं.

दर्शकों की समझ का फलख अब बढ़ चुका है राज शेखर, गीतकार

मैं भारतीय सिनेमा के इस बदलाव को कई चरणों ( फेजेज) में देखता हूं. मैं मानता हूं कि कोई भी बदलाव अचानक से नहीं होते. लेकिन बदलाव जब भी होते हैं. वह नये होते हैं. ऐसा नहीं है कि सिनेमा में बदलाव या नये बदलाव आज ही हो रहे हैं. हर दौर में होते आये हैं. किसी दौर में जब जावेद व सलीम साहब ने शानदार कहानियां लिखी थीं और लोगों ने उन्हें पसंद किया क्योंकि उस दौर में उन्होंने नया रचा था. वह उस दौर के लिए लीक से बिल्कुल हट कर चीजें थी. सच्चाई भी यही है कि सिनेमा को आप किसी फार्मूले में बांध भी नहीं सकते. अगर आप ऐसा करेंगे तो जाहिर है कि आप पीछे रह जायेंगे. ऐसा नहीं है कि आज ही छोटे शहरों से आये लोगों को मौके मिल रहे हैं. पहले भी ऐसे कई लेखक व सिनेमा से जुड़ी रही कई हस्तियां भी छोटे शहरों से ही ताल्लुक रखती थी. उस वक्त अवसर कम थे. लेकिन अब अधिक हैं. लेकिन यह बदलाव भी अचानक से नहीं हुए. वर्ष 1998 के दौर की बात रही होगी जब पहली बार सुजॉय घोष आम विषय से अलग लेकर कुछ आये. झंकार बिट्स बनी और दर्शकों ने इन फिल्मों को बिना किसी स्टार के होते हुए भी पसंद किया. इससे नये कलाकारों, निदर्ेशकों और निर्माताओं की भी हिम्मत बढ़ी. कुछ बड़े नाम जिन्होंने यह सोच लिया था कि वे हर बार राज मल्होत्रा, राहुल, सिमरन की कहानियां परोस कर भी दर्शकों को लुभा पायेंगे. उनका फार्मूला पूरी तरह फेल हुआ. चूंकि धीरे धीरे समय के साथ दर्शक भी समझदार होते गये. उन्हें यह बात समझ में आने लगी कि उन्हें बार बार एक ही तरह की चीजें नहीं चाहिए. राज और सिमरन तो आम जिंदगी में भी उन्हें आने लगे. तब उनकी इच्छा हुई थी कि उन्हें कुछ नया चाहिए. मेरा तो मानना है कि नये लोगों को बैकगेट से एंट्री मिली है. मतलब उन लोगों को अधिक मौके मिलने लगे, जिनके पास उनकी सोच थी और वे कई काम कर सकते हैं. फिर फिर धीरे धीरे निदर्ेशन के क्षेत्र में, लेखन के क्षेत्र में और सिनेमा से जुड़े हर क्षेत्र में छोटे शहर के लोगों ने भी उपस्थिति दर्ज करायी. गौर करें, तो हिंदी सिनेमा जगत ने जब जब खुद को फार्मूले में बांधा है. वह विफल रहा है. वर्ष 2005 तक कई फिल्में नकल फिल्मों के रूप में दर्शकों के सामने आयी. दर्शकों ने उसे भी स्वीकारा. लेकिन एक दौर के बाद उसे भी नकारना शुरू कर दिया. छोटे शहर की कहानियां दर्शकों को इसलिए भी छूने लगी. चूंकि हम भारतीय दर्शक किसी भी मनोरंजन से जुड़ी चीजों में हमेशा अपना नायक ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं. साथ ही हमेशा सेलिब्रेशन की आस रखते हैं तो जब वही कहानियां दर्शकों के सामने आने लगी तो दर्शक इसे पसंद करने लगे. चूंकि एक छोटे शहर में सपने बेहद अहमियत रखते हैं. कुछ वैसे ही सपने जब फिल्मों के नायक भी देखने लगे तो लोगों ने उससे खुद को जोड़ना शुरू किया और उसकी स्वीकृति बढ़ी. फिर एक खास क्रांति का दौर रहा. जब भारत में सैटेलाइट चैनलों की शुरुआत हुई. जैसे जैसे चैनल बढ़े, दर्शकों की समझ भी बढ़ी. अब दर्शक कई तरह की और ढेर सारी फिल्में देखने लगे और समझदार होते गये. अब फिर से लोगों के सामने नयी चुनौती आ खड़ी हुई कि अब क्या बदलाव किये जायें. चूंकि अब गांव तक भी डिश टीवी की पहुंच बढ़ी. धीरे धीरे फिल्मकारों ने इस मानसिकता को समझा और खुद में बदलाव प्रारंभ किये. मैं मानता हूं कि सैटैलाइट चैनलों की वजह से सबसे बड़ी कामयाबी यह मिली कि मुंबई अपने सपने को साकार करने आये कई लोगों को काम मिलने लगा. सीखने का मौका मिलने लगा और उनके सपने साकार होते नजर आने लगे. चूंकि उनका नाम के्रेडिट के रूप में लोगों के सामने आने लगा. इस तरह अपने दोस्तों को सामने सफलता हासिल करते देख साथ में रह रहे व्यक्ति को भी लगा कि वह भी तो अपना सपना पूरा कर सकता है. करियर ऑप्शन देखते हुए वह भी आगे बढ़ा, और सफलता अर्जित की. धीरे धीरे करियर अवसरों के रूप में निदर्ेशन, लेखन, प्रोडक्शन से जुड़े कई कामों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी, क्योंकि यह आय का स्रोत बना.

नीलेश मिश्र, गीतकार

दर्शक वर्ग जो बंट चुका था, फिर से एक हुआ

बॉलीवुड में अब सभी को बराबरी का दर्जा मिल रहा है. इसकी वजह है कि अब अवसर बढ़ रहे हैं. इसकी सबसे खास वजह यह भी है कि बॉलीवुड का अर्थशास्त्रभी पूरी तरह बदल चुका है. पहले कई प्रोडक्शन हाउस चाहते थे और इसी सोच में रहते थे कि वह बड़े स्टार्स को लेकर बड़ी बजट वाली फिल्में बनायेंगे. लेकिन कई बार उन्हें इसमें घाटा भी होता गया. दूसरी बात है कि बड़े सितारों के पास वक्त की बेहद कमी आने लगी. तब प्रोडक्शन हाउस ने फंडा निकाला कि वे कम पैसे में कम लागत वाली स्टारविहीन फिल्में बना कर भी दर्शकों को आकर्षित करेंगे और ऐसा हुआ भी. दर्शकों को नयी कहानियां पसंद आने लगी. अब जब फिल्मों की कहानियों में बदलाव हुए. उनके ट्रेंड में बदलाव हुए तो साथ ही साथ उसकी पूरी परिकल्पना, उसकी सोच में बदलाव आया.निर्माताओं ने इस बात की सुध ली कि एक बड़ा दर्शक वर्ग है जो मल्टीप्लेक्स से बाहर भी फिल्में देखना पसंद करता है. उन्होंने गौर करना शुरू किया कि किस तरह छोटे शहरों की कहानियां भी मल्टीप्लेक्स दर्शकों को भी पसंद आने लगीं. लेकिन इन सारे बदलाव में हम इस बात को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि सलमान खान की रेडी जैसी फिल्मों को भी दोनों ही दर्शक मिले हैं. सिंगल थियेटर और मल्टीप्लेक्स थियेटर. सलमान खान दरअसल उन स्टार्स में से हैं जिन्होंने यह अवधारणा तोड़ी है. वे दोनों ही दर्शकों के चहते रहे हैं. पहले फिल्मों के लोकेशन विदेशों के होते थे और दर्शकों को वह पसंद भी आते थे. लेकिन जब निर्माताओं ने देखा कि तनु वेड्स मनु के किरदारों की बातचीत, उनका शहर, वास्तविक लोकेशन भी जब दर्शकों की पसंद बन सकता है तो फिर दूर शूटिंग करके पैसे क्यों लगाये जायें. सिनेमा व्यवसाय है. और सिनेमा से जुड़े लोगों ने इसकी अर्थव्यवस्था को देखते हुए पूरे इसके प्रारूप में बदलाव किया या यह बदलाव होते चले गये.एक दौर में सिनेमा देखना. अभी कुछ सालों पहले तक एक महंगा सौदा हो गया था. आपको 40 रुपये की टिकट मिल ही नहीं सकती.,ऐसे में मनोरंजन की बजाय सिनेमा आपके बजट को बिगाड़ने का एक रूप बना. जिससे दर्शकों की दूरियां आयीं लेकिन फिल्म से मल्टीप्लेक्स के लोगों ने एक ही तरह की फिल्मों को नकारा और नयी चीजों का स्वागत किया.तो जब जब नयी शुरुआत हुई है. उसका संचालन भी नये लोगों ने ही करना शुरू किया, और लोगों को मौके मिलने लगे. कभी जो दर्शक के लिए वाचिंग एक्सपीरियंस पींचिंग एक्सपीरियंस बन गया था. वह फिर से अपनी कहानी लगनी लगी. और फिर से सिंगल थियेटर के दर्शकों का जमावड़ा बढ़ा और निर्माताओं ने उसकी एहमियत स्वीकारी. यही वजह रही कि अब लोग भी उन्हीं कहानियों को उन्हीं शहरों से ढूंढे जाने लगे. मैं मानता हूं कि फिलहाल बॉलीवुड में नये लोगों के लिए एक बड़ी उपलब्धि यह हो गयी है कि फिलहाल हकीकत यह है कि उन्हें पहचान पूरी तरह नहीं मिल पा रही. वक्त लग रहा है लोगों को परदे के पीछे के लोगों के काम को सराहने में लेकिन अब लोगों को काम मिलना शुरू हो गया. अब लोगों ने फिल्म देखने के दौरान इस बारे में बातचीत करनी शुरू की है कि वे बैक स्टेज के लोगों को भी जानने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी बात जो एक मेरे जेहन में आती है कि फिल्में भावनाओं को बहुत जोड़ती है और यही वजह है कि उत्तर भारत के लोगों को मौके मिल रहे हैं. वे अच्छी कहानियां लिख पा रहे हैं. अच्छे गीतकार वहां से आ रहे हैं. चूंकि कहीं न कहीं वे नोस्टोलेजिक होते हैं. और साथ ही यह भी बात बहुत अहम है कि बॉलीवुड की हिंदी थोड़ी टेढ़ी-मेढ़ी है. इसलिए भी दुरुस्त भाषावाले लोगों की जरूरत हुई और मौके मिलते गये और भविष्य में भी मौके मिल रहे हैं.

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