20110412

ताकि वह उधार के सपने देखने या पूरा करने के लिए मजबूर न हो ः किरण राव



मैंने जब पहली बार आमिर से कहा कि मैं फिल्म बनाना चाहती हूं. तो उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी थी. इसलिए नहीं कि उन्हें लगा कि अरे किरण फिल्म कैसे बना सकती है. इसलिए चूंकि उन्हें लगा कि अभी मैं बच्ची हूं. मुझे और सीखने की जरूरत है. लेकिन जब मैं टिकी रही. लगातार उनसे स्क्रिप्ट पर चर्चा करती रही, तो अंततः वह मान गये. दरअसल, इस बात की यहां चर्चा करने की वजह यही है कि आमिर की तरह ही कई लड़कियों को लोग उनकी शारीरिक बनावट पर आंक लेते हैं. मतलब मैं मिस्टर खान की बातों पर ऐतराज नहीं जता रही. खान का तो यह प्यार था कि उन्हें लगा कि अभी मैं बच्ची हूं और सीखना चाहिए. लेकिन अधिकतर लोगों की अवधारणा यही होती है कि अरे यह बच्ची सी दिखती है, क्या कर पायेगी. यह बात पुरुषों के संदर्भ में लागू नहीं होती. सिर्फ महिलाओं को ही फिर क्यूं टेकेन फॉर ग्रांटेड लिया जाता है. मैं बस अपनी बात रखना चाहती हूं कि महिलाओं को भी सबसे पहले एक मौके की तलाश होती है. उन्हें मौके दें और फिर देखें कि वह क्या कर सकती है. मेरा क्षेत्र सिनेमा है इसलिए मैं सिनेमा की बात करूंगी. बतौर महिला सिनेमा निदर्ेशक मैंने कभी कोई परेशानी नहीं झेली. लेकिन मुझसे हमेशा यह सवाल पूछा जाता है कि लोगों का महिला सिनेमा निदर्ेशकों के प्रति बर्ताव सही नहीं रहता. यह भी हो सकता है कि कहीं न कहीं आमिर खान का स्टारओरा मुझ पर हावी हो. और लोग इस वजह से बात न बिगाड़ते हों. लेकिन यह भी सच है कि आखिरकार जीत आपके टैलेंट की होती है. मैं जिस परिवार से संबध्द रखती हूं, वह स्वतंत्र सोच व विचारोंवाला है. मुझे अच्छी शिक्षा मिली. कभी परिवार में लड़के या लड़की में अंतर नहीं किया गया. लेकिन मैं अपने आधार पर पूरे भारत की महिला की स्थिति नहीं आंक सकती. अखबारों में पढ़ती रहती हूं.यह सच है कि अभी भी महिलाओं को कई गांवों, कई शहरों और खासतौर से आम मध्यम वर्गीय परिवार में भी कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. मैंने अपनी फिल्म में यास्मीन के किरदार के माध्यम से उसे दर्शाने की कोशिश की है. इसलिए वह मेरा पसंदीदा किरदार भी है. जिस तरह फिल्म में वह बड़े महानगर आ जाती है लेकिन उसे अपने पति का सुख नहीं मिलता, वह दुखी रहती है फिर आत्महत्या कर लेती है. यह कहानी कई महिलाओं की हो सकती है. हमें यह भी जरूरी है कि सकारात्मक उपलब्धियों के साथ-साथ हम नकारात्मक पहलुओं पर भी गौर करें. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि अब अवसर का दायरा बढ़ा है. लड़कियां खुल कर अपनी आजादी का इस्तेमाल कर रही हैं. लेकिन उन्हें मेहनती बनना पड़ता है. लोगों की अवधारणा है कि अरे उसे तो काम मिल ही जायेगा. लड़की है. लेकिन मैं अगर अपनी बात करूं तो मैंने भी अपनी पहचान काम व मेहनत के बलबूते बनायी है. मैं 1998 में आयी थी दोबारा मुंबई. उस वक्त सिनेमा का ककहरा भी नहीं जानती थी. मैंने सिखना शुरू किया. कई विज्ञापन में काम किये. फिर सहायक निदर्ेशक बनी. मैंने अपने बलबूते 7 साल मेहनत की. आज लोगों को जरूर यह लगता है कि आमिर हैं तो किरण की फिल्म बनेगी हंी. लेकिन किसी ने कभी उन सात सालों के बारे में तो झांक कर नहीं देखा. सच यही है कि उन सात सालों ने मैंने बहुत कुछ सीखा है. और वही मेरे लिए जिंदगी की ट्रेनिंग भी है. एक लड़की और आत्मनिर्भर लड़की के रूप में मैंने कुछ इसी तरह जिंदगी जीना सीखा. मैं मानती हूं चाहे किसी भी उम्र की महिला हो. किसी भी इलाके की महिला हो. उसे बस थोड़े से सहयोग और प्रोत्साहन चाहिए. फिर वह कमाल कर सकती हैं. आज के दौर में मानती हूं कि एक लड़की के लिए सबसे जरूरी है कि वह आत्मनिर्भर बने और अपने दम पर पैसे भी कमाये. हर लड़की का यह सपना होता है कि वह अपने सपने खुद देखे और उसे पूरा करे. आप उसे मजबूर न करें कि उसको अपनी राह किस तरह तय करनी चाहिए. बात जहां तक सिनेमा में आने की है तब भी महिलाओं के आड़े न आयें कि उसे मॉडलिंग में नहीं जाना चाहिए.चूंकि यह क्षेत्र महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं. उसे सोचने व सच का सामना करने की ताकत तो दें. हम कैसे भूल जाते हैं कि फातिमा बेगम ही वह पहली महिला थी जिन्होंने 1926 के दौर में फिल्म बनायी. वह दौर तो महिलाओं को लेकर और संकीर्ण था. उन्हें उतनी स्वतंत्रता भी नहीं मिलती थी. लेकिन फिर भी फातिमा बेगम ने उस दौर में यह पहल की. उन्होंने महिलाओं को राह दिखायी कि आप भी कैमरे के पीछे कमाल दिखा सकते हैं. फरहा खान, रीमा कागती जैसी महिलाओं ने साबित किया कि कैसे शादी के बाद भी आप अपनी घर की जिम्मेदारियां निभाते हुए कैमरे के पीछे भी काम कर सकती हैं. फरहा घर पर तीन बच्चों को संभालती है. फिर ऑफिस का भी काम संभालती है. घर पर बच्चे उनके बच्चे हैं. ऑफिस में बच्चे उनका काम है. जिसके प्रति भी वह पूरी तरह समर्पित होकर काम करती है. यह संकेत है हमारी महिलाओं के स्वाभिमान व सारी जिम्मेदारियों को साथ निभाते हुए मुकाम हासिल करने की. गौर करें तो महिला निदर्ेशकों में वह खासियत है कि वह तीस मार खां जैसी मसाला फिल्में भी बना सकती हैं और टर्निंग 30 जैसी बोल्ड फिल्में भी. मैं मानती हूं कि हमें सिर्फ प्रोत्साहन चाहिए तो हम भी अपनी पहचान स्थापित कर सकते हैं.


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