20110301

रील लाइफ पर हमेशा नजर आता रहा है खिलाड़ियों और उनके पिता का द्वंद्व


हिंदी सिनेमा जगत में अब तक जितनी भी फिल्में खेल को आधार मान कर बनाई जाती रही हैं या बन रही हैं, इन सभी फिल्मों में एक बात समान है वह है हर खिलाड़ी के किरदार निभानेवाले अभिनेता अभिनेत्री को अपने परिवार व पिता का विरोध झेलना पड़ा है.

हर तरफ वर्ल्ड कप का माहौल है. टीम इंडिया पूरे जोश में है. लेकिन दबाव बेहद है कि वे मैच जीत पायेंगे या नहीं. चूंकि पूरे देश ने वर्ल्ड कप पर निगाहें लगा रखी है उन्हें वर्ल्ड कप जरूर चाहिए. हम खेल के प्रशंसक कई बार यह भूल जाते हैं कि कितनी परेशानियों के बाद कोई खिलाड़ी उस काबिल बनता है कि वह वर्ल्ड कप खेल पाता है. दरअसल, सच यह है कि हमारे देश में खेल का करियर एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे हमेशा विकल्प के रूप में देखा गया है न कि मुख्य करियर के रूप में. बॉलीवुड में कई बार इस विषय पर फिल्में भी बनायी गयी है. अगर आप गौर करें तो अब तक जितनी भी फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं. खेल पर आधारित. सभी फिल्मों में खिलाड़ी अभिनेता या अभिनेत्री के परिवारवाले उन्हें खेलते नहीं बल्कि आइएस, कोई बिजनेस या फिर लड़की हो तो उनकी शादी कर देना चाहते हैं. उन्हें हमेशा यही महसूस होता है कि खेल(स्पोट्र्स) किसी का भी करियर नहीं हो सकता. वह सिर्फ शौक मात्र है. हो सकता है कि ऐसी कई वास्तविक कहानी हमारे कई खिलाड़ियों की जिंदगी से जुड़ी हो. अगर हिंदी सिनेमा में अब तक की खेल पर आधारित फिल्मों पर गौर करें तो हर फिल्म में शुरुआती दौर में खिलाड़ी के पिता का उसके खेले जाने का विरोध ही नजर आता है. फिर चाहे हाल ही में रिलीज हुई फिल्म पटियाला हाउस हो, या फिर बेंड इट लाइक बेकहम हो. आखिर इसकी वजह क्या हो सकती है. वजह है कि अनिश्चिता, करियर में हार जाने का डर या फिर अगर वे खुद हार गये हैं तो कभी भी अपने बेटे या बच्चों को उस फील्ड पर हारते नहीं देखना चाहते. कभी जिस मैदान से उन्हें बेहद प्यार था. वे अचानक खत्म हो जाता है. इस डर की वजह यह भी हो सकती है कि हमारे देश में खेल को किसी जंग से कम नहीं आका जाता. जब हम किसी टीम के खिलाफ खेल रहे होते हैं तो हम दरअसल, खेल नहीं जंग कर रहे होते हैं. हमारे देश में लोगों की सोच कुछ ऐसी ही है. अगर हार गये तो फिर वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहते. उन पर सिर्फ और सिर्फ छींटाकशी की बारिश होती है और कुछ नहीं. इसका जीता जागता स्वरूप हमने चक दे इंडिया में देखा है. जिसमें खिलाड़ी कबीर खान के हार जाने के बाद उन्हें यह जिल्लत सहनी पड़ती है कि वे जान बूझ कर हार गया. फिर उसी जिद्द में उसे अपने आप को बेगुनाह साबित करने के लिए फिर से खुद को तैयार करना पड़ता है और फिर जीतने पे के बाद ही उसकी बेगुनाही साबित होती है. अन्यथा वह गद्दार घोषित हो जाता है. हमारे देश में आज तक खेल को खेल की दृष्टि नहीं देखा गया. शायद यही वजह है कि खिलाड़ियों पर हमेशा दबाव बना रहता है. हालांकि फिल्मों के माध्यम से खेल के कई प्रारूपों को प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है और साथ ही अपने परिवार से जूझते खिलाड़ियों की मनसा का भी सही चित्रण किया गया है. दरअसल, खेल एक ऐसा खेल है जिसमें वाकई आखिरी वक्त पर कुछ भी हो सकता है. सबकुछ लाइव है. शायद यही वजह है कि फिल्मकारों को बार-बार इस पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करता है.

बेंड इट लाइक बेकहम

गुरविंदर चड़्ड़ा की बेहतरीन फिल्म बेंड इट लाइक बेकहम की नायिका बेकहम की फैन है और वह बेहतरीन फुटबॉल खेलती है. अपने परिवार से छुप छुप कर वह खेलती है. लेकिन उसके परिवार. पंजाबी परिवार बिल्कुल उसे खेलने की इजाजत नहीं देता. वह चाहता है कि वह शादी कर ले. चूंकि खेल कोई क्षेत्र नहीं है. अनुपम खेर ने फिल्म में एक विरोधी पिता की शानदार भूमिका निभाई है.

पटियाला हाउस

हाल ही में रिलीज हुई फिल्म पटियाला हाउस में गट्टू इंग्लैंड के लिए नहीं खेलेगा. बाबूजी ने यह फरमान सुना दिया और गट्टू ने खेलना भी छोड़ दिया. कई वर्षों तक इस फरमान की वजह से गट्टू खेल से दूर रहा. लेकिन अंततः अपने पिता के विरोध के बावजूद वह खेला और जीत भी हासिल की. पूरी फिल्म में पिता और बेटे के खेल को लेकर द्वंद्व नजर आता रहा.

इकबाल

एक गूंगे व बहरे खिलाड़ी के रूप में श्रेयस तलपड़े ने शानदार अभिनय किया था. वह गूंगा था. बहरा था. लेकिन अच्छा क्रिकेट खेलता था. लेकिन इसके बावजूद उसके साथ उसके कोच ने नाइंसाफी की. फिर इकबाल ने दोबारा सिखना शुरू किया. इस बार कोच के रूप में नसीरुद्दीन शाह मिले और वह खेलता गया. इस फिल्म में लगातार इकबाल प्रैक्टिस करता. अपने पिता से छुप छुप कर. बाद में पिता उसके क्रिकेट स्नेह को समझते हैं और फिर उसका हौंसला बढ़ाते हैं.

विक्टरी

फिल्म विक्टरी में भी हरमन बावेजा के पिता नहीं चाहते थे कि वह खेल के क्षेत्र में जाये. फिर बाद में वह अनुमति दे देते हैं.

1 comment:

  1. ये डर है और अनिच्शिता है जो हमें दिखाई देती है फिल्मो में ....आज भी हम यही चाहते हैं...एक अदद सरकारी नौकरी का ख्वाब ... पिता और माता सबकी सोच वहीँ लटकी है...गलत भी नहीं है ये सपच आखिर करें क्या वो...एक हर पूरी जिन्दगी जब बदल दे तो ..जाहिर है लोह इसके लिए अपने लड़कों को हतोत्साहित करते ही हैं ... लेकिन कुछ मामलों में .. माता पिता आगे भी आते हैं उनकी कहानी पता नहीं कब परदे पे आएगी...

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