20110207

अब नहीं गूंजती यहां लाइट, कैमरा एक्शन की पुकार


खंडहर बन गये हैं मुंबई के स्टूडियो

कभी जहां भव्य सेट, लाइट-कैमरा-एक्शन की गूंज, चकाचौंध, गीत-संगीत व दिग्गज निदर्ेशकों का जमावड़ा लगता है. अब वहां किसी की चूं तक नहीं सुनाई देती. मुंबई के वैसे कई फिल्म स्टूडियो जो कई सालों पहले बंद हो चुके थे. अब उस स्थान को देख कर कल्पना ही नहीं की जा सकती कि वहां कभी बेहतरीन फिल्में बनाने की फैक्टरी हुआ करती थी. मुंबई के खंडहर होते कुछ ऐसे ही फिल्म स्टूडियो पर एक नजर

एक दौर था. जब मुंबई के स्टूडियो ने बेहतरीन फिल्में दीं. मुंबई से बाहर आये लोगों के लिए यहां के फिल्मी स्टूडियो किसी पर्यटक स्थल से कम नहीं होते. आम लोगों को इन स्टूडियो में बेहद दिलचस्पी होती थी. वजह भी साफ थी. इन स्टूडियो में ऐसे-ऐसे लोकेशन व सेट तैयार किये जाते थे, जो बिल्कुल वास्तविक लगते थे. लेकिन जैसे -जैसे हिंदी सिनेमा जगत आउटडोर शूटिंग के लिए भारत के बाहर के देशों की तरफ रुख करने लगा है. ये सारे स्टूडियो विरान हो गये हैं. जहां कभी हर तरफ लाइट, कैमरा एक्शन की आवाज गूंजा करती थी. वहां आज दूर तक सन्नाटा छाया रहता है. चूंकि अधिकतर फिल्मों की शूटिंग इन दिनों बाहर होने लगी है. इसलिए निदर्ेशकों की पहली पसंद अब स्टूडियो न रह कर विदेशों के लोकेशन हो गये हैं. शायद यही वजह है कि इसकी सुव्यवस्था में अब अधिक पैसे खर्च नहीं किये जा रहे हैं. हालत यह है कि इन स्टूडियो में इन दिनों कहीं पुनर्निर्माण का काम चल रहा है तो कहीं तोड़-फोड़ का. हर स्टूडियो अपनी हालत सुधारने में व्यस्त तो है. लेकिन अधिक फर्क नजर नहीं आ रहा.

विरानी सी छायी है

मुंबई में पहले जहां पहले कभी स्टूडियो के रूप में 20 से भी ज्यादा स्टूडियो हुआ करते हैं. अब इनकी संख्या घट कर पांच ही रह गयी है. गौरतलब है कि इनमें फिल्मिस्तान, फिल्माल्य, मेहबूब, नटराज व आरके स्टूडियो मुख्य हैं. हालांकि मुकेश मील में भी इन दिनों कई सीरियल व फिल्मों की शूटिंग हो रही है. लेकिन धीरे-धीरे इसका औचित्य व अस्तित्व भी समाप्त हो चला है. अधिक मुनाफा न देख कर कई स्टूडियो के मालिकों ने इन्हें बंद करने में ही अपनी भलाई सोची.

अपने समय का मॉर्डन स्टूडियो बांबे टॉकीज

हिंमाशु राय की बॉबे टॉकीज की शुरुआत 1934 में की लयी थी. उस वक्त यह वहां का सबसे मॉर्डन स्टूडियो माना जाता था. 25 लाख रुपये की लागत से बने इस स्टूडियो में बेहतर साउंड, एको-प्रूफ स्टेज, ऑटोमैटिक लैबोरेटरी, एडिटिंग रूम, प्रिव्यू थियेटर थे. खास बात यह थी कि उस वक्त भी यहां जर्मनी से आये तकनीशियनों को शामिल किया गया था. गौरतलब है कि बॉबे टॉकीज भारत की पहली पब्लिक लिमिटेड फिल्म कंपनी बनी. पहली बार इस स्टूडियो में फिल्म जवानी की हवा की शूटिंग की गयी थी. यह 1935 की बात है. देविका रानी ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई थी. बांबे टॉकीज को असली पहचान मिली जीवन नैया से . इस फिल्म के मुख्य कलाकार देविका रानी व अशोक कुमार थे. बांबे टॉकीज के बारे में एक और दिलचस्प बात यह है कि अशोक कुमार से इसका गहरा संबंध है. जब अशोक कुमार अभिनेता नहीं थे. तब वे बांबे टॉकीज में लेबोरेटरी अस्टिटेंट के रूप में काम करते थे. शो मैन राजकपूर ने भी कुछ वर्षों के लिए यहां काम किया था. वर्ष 1939 में जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी की चंगुल में फंसा. बांबे टॉकीज पर भी गाज गिरी. वर्ष 1965 में इस टॉकीज के दरवाजे हमेशा के लिए बंद पड़ गये.

अब भी बरकरार है फिल्मिस्तान की बादशाहत

अन्य स्टूडियो की अपेक्षा फिल्मिस्तान अपनी बादशाहत को जिंदा रख पाने में कामयाब है. इस वर्ष जून में इन स्टूडियो को स्थापित हुए (वर्ष 1943 ) 67 वर्ष हो जायेंगे. इसकी स्थापना तोलाराम जालान व शशधर मुखर्जी ने की थी. उस वक्त यह स्टूडियो सिर्फ अपने बैनर तले ही फिल्मों का निर्माण करती थी. लेकिन धीरे-धीरे अब इसे किराये पर दिया जाने लगा है. फिलवक्त इस स्टूडियो में टेलीवुड के लगभग सारे डेली सोप की शूटिंग हो रही है.साथ ही तमिल व भोजपुरी फिल्मों का पसंदीदा लोकेशन भी फिल्म सिटी ही है. इसकी वजह यह है कि यहां लगभग सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं. महुआ पर प्रसारति होनेवाले सीरियल इम्तिहान के निर्माता अशोक शरण का मानना है कि फिल्मिस्तान में शूटिंग करने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि हमें कास्ट व क्रू को कहीं अधिक दूर के लोकेशन पर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती. यहां के लोकेशन वास्तविक लगते हैं. साथ ही अन्य सुविधाएं जैसे कैटरिंग वगैरह की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. गौरतलब है कि यहां पिछले दस वर्षों में कुल 12 स्टूडियो बने. इनमें पुलिस स्टेशन, सेंट्रल जेल, हॉस्पिटल, मंदिर व अन्य कई लोकेशनों पर प्रतिदिन शूटिंग होती रहती है. अशोक कुमार व नसीम निर्मित फिल्म चल चल रे नवजीवन यहां बननेवाली पहली फिल्म थी. इन दिनों मराठी फिल्मों व गुजराती फिल्मों की शूटिंग के लिए यह पसंदीदा लोकेशन माना जाता है. कुछ कुछ होता है, हम आपके हैं कौन, पाकीजा, नागिन जैसी फिल्में भी इन्हीं स्टूडियो की देन है.

एशिया का पहला एक्टिंग स्कूल

फिल्माल्य को आज भी लोग एशिया के पहले एक्टिंग स्कूल के रूप में ही जानते हैं. फिल्मिस्तान का निर्माण करनेवाले शशधर मुखर्जी ने ही इसकी नींव रखी. अमूमन 7800 वर्ग मीटर में फैले इस स्टूडियो में कई बेहतरीन फिल्मों निर्माण हो चुका है. दिल देके देखो, लव इन शिमला, लीडर, आओ प्यार करें, जैसी फिल्में इन्हीं स्टूडियो की देन है. गौरतलब है कि आशा पारिख ने अपनी एक्ंटिग की शुरुआत यही से की थी. फिलवक्त यह स्टूडियो जर्जर स्थिति में है.

जीना यहां मरना यहां

देश को जिस वर्ष आजादी मिली. उस वर्ष पृथ्वी थियेटर अपने अलग शैली के नाटकों के लिए पूरे देश में वाहवाही बटोर रहा था. उस वक्त शोमैन राजकपूर की फिल्में आग व बरसात ने बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर दिखाया. उनकी दिल्ली ख्वाहिश थी कि वे अपने स्टूडियो की शुरुआत करें. काफी सोच विचार व पूंजी जुटाने के बाद राजकपूर ने चैंबूर में आरके स्टूडियो की नींव रखी. चार एकड़ की जमीन में काम शुरू किया गया. चूंकि राजकपूर निदर्ेशक होने के साथ साथ अच्छे निर्माता भी थे. इसलिए वे इस बात से भी अच्छी तरह वाकिफ थे कि उन्हें कितनी लागत में व किस दिशा में काम करना है. स्टूडियो की शानोंशौकत व बादशाहत की बात करें तो आरपे स्टूडियो मने आज बी इसे बरकरार रखा है. हालांकि अब यहां फिल्मों की शूटिंग कम ही होती है. वर्ष 199 में यहां आखिरी बार आ अब लौट चले की शूटिंग की गयी थी. आरके स्टूडियो की होली में भी अब वह बात नहीं रह गयी तो कभी पहले हुआ करता था. राजकपूर ने अपना स्टूडियो शुरू करने का फैसला उस व लिया. जब वे किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, किसी वजह से उनके मालिकों ने शूटिंग रोक कर राजकपूर को स्टूडियो खाली करने की बात कही थी.

नामों निशान नहीं

मुंबई में ऐसे और कई स्टूडियो हैं, जिनका अब नामों निशान नहीं बचा है. इनमें रुपतारा स्टूडियो, नटराज. रंजीत स्टूडियो, श्री साउंड स्टूडियो का तो नामों निशान नहीं बचा है. वीशांताराम का मंदिर कहा जानेवाला स्टूडियो राजकमल कलामंदिर भी अब अस्तित्व में नहीं है.

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