20110207

जब पापा को लाल किले पर झंडा फहराते देखाः मनोज कुमार


भारत कुमार के नाम से प्रसिध्द मनोज कुमार ने हिंदी सिनेमा जगत को देशभक्त अभिनेता के रूप में बेहतरीन फिल्में दी हैं. फिल्म क्रांति, उपकार, पूरब पश्चिम में अपने सशख्त भूमिका निभा कर उन्होंने साबित किया कि वे हमेशा गांव मिट्टी की खुशबू के दर्शकों के दिल्ली में महकते रहेंगे. वे बताते हैं कि जब उन्हें लाहौर छोड़ कर भारत आना पड़ता था. तो उन्हें व उनके परिवार को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा था.

उस वक्त मैं सिर्फ 10 साल का था. 1947 की बात है. दिल्ली के रिफ्यूजी कैेंप में शरण ली थी हमने. छोटी-छोटी चीजों के लिए हमें दूसरों पर आश्रित होना पड़ता था. मेरे दादाजी पाकिस्तान में लड़ाई के वक्त मारे गये थे और पिताजी की कोई खबर नहीं मिल पायी थी उस वक्त.एक दिन मैंने टीवी पर पिताजी को लाल किले के बाहर झंडा फहराते देखा. वे वहां ताली बजा रहे थे. उनके चेहरे पर परिवार को खोने का गम नहीं था. बल्कि देश की आजादी का सुकून नजर आया. उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि देश की आजादी खून के रिश्ते से कहीं बड़ी है. मुझे यह प्रेरणा पिताजी से ही मिलती थी. देश भक्ति पर आधारित फिल्मों में शायद मेरे वही इमोशन निकल कर सामने आ जाते थे. इसलिए मैं उन किरदारों को बखूबी निभा पाती थी. मुझे नहीं लगता कि दो मुल्कों की भावनाएं अलग अलग हो सकती हैं. मैं अब तक दो बार पाकिस्तान जा चुका हूं. जितना यहां के लोग भावनात्मक हैं. उतने ही वहां के लोग भी. सियासत ने आम इंसानों को मारा है. जिस दिन हमें यह बात समझ में आ जायेगी कि हम एक ही मिट्टी के बने हैं. हम एक है. कोई लड़ाई नहीं होगी. फिल्मों में आने का ख्वाब मैंने 1965 में ही देखा था. बस उसी सपने के सहारे मुंबई आ गया. मैंने आजादी की कई किताबें पढ़ी थीं. बस उसी जानकारी का इस्तेमाल मैंने अपने अभिनय में कियाय.

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