20110207

मंजिलें क्या हैं, रास्ता क्या है

अगर हौंसला है तो फासला क्या है. जेब मे चंद पैसे थे. पर हौंसला था अपार. कुछ ऐसे ही हौंसले के साथ निकल पड़े मंजिल तलाशने. उन्होंने न फासले की फिक्र की और न ही चुनौतियों की. सबकी मंजिलें अलग थी. पर आगाज एक-सा. इन सभी ने छोटे शहर में रह कर ख्वाब देखा पर उसे हकीकत में बदला बड़े शहर में. बार-बार आंखों में घुसते किरकिरियों ने कई बार अंधेरा कायम किया लेकिन उनका जज्बा ऐसा था कि वे रूके नहीं. वो कहते हैं न कि हर बड़े चीज की शुरुआत छोटे से होती है, कुछ ऐसा ही है इन छोटे शहरों से निकले अनोखे नायकों की संघर्ष से मिली सफलता की कहानी. जोश, जज्बा, से लबरेज इन नायकों की बेहद दिलचस्प व प्रेरक संघर्ष की दास्तां बता रही हैं अनुप्रिया अनंत

बिहारी बाबू लाखों लोगों के दिल की धड़कन

डॉ अनिल कुमार

डीएम(कार्डियोलॉजी),एफआरसीपी(लंदन), एफएसीसी(यूएस), इंटरवेशनल कार्डियोलॉजिस्ट, बांबे हॉस्पिटल, मुंबई

बिहार के पहले हृदय रोग विशेषज्ञ

मुंबई में सफर की शुरुआत ः 225 रुपये प्रतिमाह से.

जन्म स्थल ः मुजफ्फरपुर , बिहार

बिहार का सबसे पसंदीदा भोजन ः नाश्ते में दही चुड़ा खाना पसंद है.

वर्तमान संपत्ति ः 40-50 लाख प्रतिमाह, मुंबई जैसे महानगर के उन्नत स्थान में फ्लैट, करोड़ों की संपत्ति.

उपलब्धि ः वर्ष 2006 में डॉ एपीजे कलाम द्वारा डब्ल्यूसीसीपीसी लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड. यूके कॉमनवेल्थ फेलोशिप(1987), बार्ड स्कॉलरशिप(1991).एशियन पेसिफिर सोसाइटी अवार्ड, रॉयल कॉलेज फिजिशियन फेलोशिप. अमेरिकन कॉलेज ऑफ कार्डियोलॉजी फेलोशिप. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होनेवाले सेमिनार, वर्कशॉप व गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका.

तुम्हारे लिए यहां कोई जगह नहीं है. वापस लौट जाओ. वर्ष 1974 में दरभंगा मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनका सपना भी हर युवा की तरह ही था. बड़े शहर में मुकाम हासिल करना. और अगर पढ़ाई मेडिकल की है तो नौकरी तो पक्की है. कुछ ऐसी ही उम्मीदों के साथ वह मुंबई शहर आये. पर वहां जाने के बाद उनका भ्रम तब टूटा जब उन्हें शुरुआती दौर में कोई नौकरी नहीं मिली. बिना किसी इंटरव्यू या पूछताछ के एक अस्पताल के सुप्रसिध्द विशेषज्ञ ने उनसे कहा कि तुम बिहार से आये हो न वापस लौट जाओ.तुमसे कुछ नहीं होगा. पर वे नहीं लौटे. वे अस्पताल से बाहर आये. सामने बोर्ड पर वहां के सारे नामी डॉक्टरों की सूचि टंगी थी. उन्हें जानकारी मिली कि कुछ इंटरव्यू होने हैं. उन्होंने डॉ निमिश शॉ ( 70-80 के दशक) में प्रमुख हृदय रोग विशेषज्ञ के साथ इंटरशिप करने के लिए आवेदन भर दिया. उल्लेखनीय है कि उस वक्त कार्डियालॉजी का खास क्रेज नहीं था. पर उन्होंने कार्डियो को ही चुना. फिर वे वापस चले गये. उन्हें इंटरव्यू के लिए कॉल आया और उनका चयन भी हो गया. बस यही से मिली उन्हें नयी राह व अपनी मेहनत, लगन व लगातार सीखते रहने के जज्बे ने उन्हें भारत के विख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ की उपाधि दिला दी. आज डॉ अनिल कुमार की गिनती अंतरराष्ट्रीय स्तर के हृदय रोग विशेषज्ञों में होती है. महज 225 रुपये प्रति माह प्राप्त करनेवाले डॉ कुमार के पास फिलवक्त करोड़ों की संपत्ति हैं. अपनी मेहनत व धैर्य के दम पर छोटे शहर से आये इस शख्स ने अदभुत पहचान बनायी. डॉ कुमार बताते हैं कि उनकी तरक्की व विश्व स्तर पर कार्डियालॉजी क्षेत्र दोनों ने एक साथ विकास करना शुरू किया. भारत में इसके विकास के स्तर को देखने के वह चशमदीद गवाह हैं. भारत में पहली बायपास सर्जरी, इसीजी मशीन व इस क्षेत्र से जुड़े विकास को उन्होंने व्यवहारिक रूप से देखा व काम किया.इस क्षेत्र से इनसाइकोपिडिया थे. शायद यही वजह है कि उन्हें बिहार के पहले सफल कार्डियालॉजिस्ट होने का गौरव प्राप्त हुआ. इस मुकाम तक पहुंचने के लिए डॉ कुमार ने इस बड़े शहर में लगातार आठ वर्ष संघर्ष को दिया. छोटे से कमरे में तीन लोगों के साथ रहना, कम वेतन में जीवन निर्वाह. पर उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी.उस वक्त महाराष्ट्र से बाहर आनेवाले छात्रों को यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए मशक्कत करनी पड़ती थी. लेकिन डॉ कुमार की काबिलियत को देखते हुए उन्हें दाखिला भी मिला और नौकरी भी. हां, मगर कुछ सालों के बाद उन्हें बिहारी होने की वजह से नौकरी से जबरन नौकरी से बरखास्त कर दिया गया. क्योंकि उस वक्त के नये नियम के अनुसार महाराष्ट्र के सरकारी अस्पताल में केवल अपने राज्यों के ही लोगों की नियुक्ति होनी थी. इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने अपने हक की लड़ाई की और फिर से उन्हें पूरे सम्मान के साथ वह पद लौटाया गया. इसके बाद वे लगातार अंतरराष्ट्रीय कॉलेज व फेलोशिप के माध्यम से विश्व मेडिकल साइंस से जुड़े रहे, जो सिलसिला अब भी जारी है. विश्व स्तर की पढ़ाई करते करते डॉ कुमार की अपनी बिगड़ी हुई अंगरेजी भाषा को भी दुरुस्त किया. फिलवक्त वे राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई नामचीन संस्थाओं व विभिन्न गतिविधियों से लगातार जुड़े रहते हैं. डॉ कुमार बताते हैं कि उन्हें दुख तब हुआ था जब उन्हें बिहार के सरकारी अस्पताल में नौकरी नहीं मिली, क्योंकि लोग वहां हृदय रोग को लाइलाज समझते थे. कार्डियोलॉजिस्ट के लिए कोई नियुक्ति ही नहीं थी. वे वापस लौट आये. मेडिकल के विकास के क्षेत्र में वह आज भी बिहार को पिछड़ा मानते हैं. पर उन्हें इस बात की बेहद खुशी है कि वे बिहार की मिट्टी के हैं . वे चाहते हैं कि लगातार छोटे शहर से प्रतिभावन लोग आयें और एक मुकाम हासिल करें. क्योंकि छोटे शहर में टैलेंट की कमी नहीं. उनका मानना है कि सरकार अगर चाहे तो कई बदलाव ला सकती है. मुंबई के टाटा मेमोरियल से बेहतरीन हॉस्पिटल बन सकता है बिहार में.

सक्सेस मंत्रा ः जल्दबाजी में कभी निर्णय न लें. अगर मैं खुद पर विश्वास न करता और आज से 35 साल पहले हार कर वापस लौट गया होता तो शायद यह उपलब्धि हासिल नहीं होती.मेहनत के साथ-साथ धैर्य रखना बेहद जरूरी है. बड़े शहर के खौफ व झिझक को दूर करें. आत्मविश्वास रखें. कभी किसी चीज को कमजोरी न बनाएं.

कककक

केपी ठाकुर, बीएससी, एलएलबी, एमबीए

लीचिका इंटरनेशनल प्रोडक्ट्स प्राइवेट लीमिटेड

क्षेत्र ः लीची के फूड प्रोडक्ट्स के उत्पादक.

सफर की शुरुआत ः मुंबई में 10 हजार से

जन्म स्थल ः मुजफ्फरपुर बिहार .

टर्नओवर ः 4.5 करोड़ ,

भारत में लीची प्रोडक्ट्स के पहले उत्पादक होने का गौरव प्राप्त

उपलब्धि ः

भारतीय ट्रेड फेयर में कई वर्ष तक बेस्ट सेलर का अवार्ड.

एपीइडीए द्वारा बेस्ट सेलर अवार्ड.

मिनिस्ट्री ऑफ फूड प्रोसेसिंग द्वारा सांत्वना पुरस्कार.

हैदराबाद ट्रांस वर्ल्ड ट्रेड फेयर सेलेक्शन में गोल्ड मेडेलिस्ट.

यूएस के एफडीए में प्रोडक्ट अप्रूव्ड.

अब तक किसी भी तरह के रसायन का इस्तेमाल नहीं.

कनाडा, सिंगापुर, खाड़ी देश, अमेरिका में भी प्रोडक्ट्स का एक्सपोर्ट

बिहार का पसंदीदा भोजन ः सत्तू का शरबत

एमबीए करने के दौरान एक रुल पढ़ा था. बिजनेस उन चीजों की करें, जिसका रॉ मेटेरियल आपको नजदीक में ही प्राप्त हो जाये और उसका बाजार राष्ट्रीय स्तर पर हो. या फिर वैसे रॉ मेटेरियल जो आपसे काफी दूर हों, पर उसके प्रोडक्ट्स की डिमांड आपके सबसे नजदीकी बाजार में हो. इन दोनों ही आधार में मुनाफा कमाया जा सकता है. मैंने अपने बिजनेस में दोनों रूल्स को लागू किया. लीची को चुना.मुजफ्फरपुर शहर लीची का प्रमुख उत्पादक शहर है. ऐस े में अपने घर की ही चीज को चुना. शुरुआत बिहार से की. वर्ष 1983 की बात है. लीची के पेय पदार्थ बनाने की नायाब तरीका ढूंढा. चूंकि लीची एक मात्र ऐसा फल है, जो बेहद सीमित समय के लिए ही उत्पादित हो पाता है. मात्र15 मई से 15 जून तक. ऐसे में ऐसा कोई तरीका ढूंढ़ना जरूरी था ताकि इसकी गुणवता भी बरकरार रहे और यह खराब भी न हो. इसके लिए रिचर्च एंड डेवलपमेंट अप्रूव्ड मशीन खरीदे. इससे दो सालों तक प्रोडक्ट्स फ्रेश रह सकते हैं. शहर छोटा था. व्यवसाय काम चलाऊ चल रहा था. पर इसे राष्ट्रीय बाजार में लाना जरूरी था. सो , 10 हजार रुपये लेकर मुंबई चला आया. सुना था कि इस शहर में लोग लाइफस्टाइल, जूस जैसी चीजें खूब पीते हैं. सो मैंने भी प्रयास किया. पर, शुरुआती दौर में सफलता नहीं मिली. चूंकि लीची के शरबत का रंग सफेद होता था, और मैं बिहार से था. तो सभी समझते थे कि ताड़ है( झारखंड का स्थानीय मदिरा). वे इसे चखना नहीं चाहते थे. मैंने शुरुआत में बसों में घूम घूम कर लोगों को कंनविंस करने की कोशिश करता. पर लोग इसे बिल्कुल टेस्ट भी नहीं करना चाहते थे. चुनौती बढ़ती जा रही थी. पर मैं निराश होकर नहीं लौटना चाहता था. फिर उस वक्त का एकमात्र डिपार्टमेंटल स्टोर का पता चला. अकबर अली. एफटी खुराकीवाला उसके मालिक थे. मैंने उन्हें बस एक चखने की गुजारिश की. उन्होंने चखा. उन्हें पसंद आया, क्योंकि इससे पहले भारत में लीची के प्रोडक्ट्स उपलब्ध नहीं थे. पहला ऑर्डर मिला. 25 केन का. मांग बढ़ती गयी. लोगों को पसंद आने लगा. क्योंकि अब वह डिपार्टमेंटल स्टोर में ब्रांड के रूप में जाना जाने लगा था. धीरे-धीरे मुंबई के बाकी स्टोर्स में भी उत्पादन शुरू हुआ. फिर विदेशों से डिमांड आने लगी. गुणवता के आधार पर यूएस के एफडीए से अप्रूवल मिली. कुछ इस तरह केपी ठाकुर ने लीची को ब्रांड के रूप में स्थापित कर दिया. जो लोग उनके प्रोडक्ट्स को ताड़(मदिरा) समझने लगे थे, वही लोग इसके प्रोडक्ट्स पसंद करने लगे. उनकी मेहनत रंग लायी. आज इनके प्रोडक्ट्स सिंगापुर, कनाडा, अमेरिका व खाड़ी देशों में भेजे जाते हैं. इंडियन रेलवे व डिफेंस में भी इनके प्रोडक्ट्स भेजे जाते हैं. आज भी प्रोडक्ट्स बिहार में तैयार होते हैं और फिर पैकेजिंग के लिए मुंबई भेजे जाते हैं. शुरुआती दौर में जब इनके पास विज्ञापन देने के पैसे नहीं होते थे. उस वक्त इन्होंने ट्रेड फेयर को जरिया बनाया. वे बाते हैं कि यहां लगभग हर वर्ष 60-80 लोग आते हैं. स्वाद चखने के बाद वे इसे खरीदने के लिए ऊतारू हो जाते हैं. कुछ इसी तरह छोटे -छोटे तरकीब व टिप्स को अपनाकर उन्होंने एक सफल बिजनेस मैन के रूप में अपनी पहचान बना ली है. गुणवता के कारण ही उन्हें एपीइडीए से बेस्ट सेलर का अवार्ड मिला. प्रत्येक वर्ष दिल्ली के ट्रेड फेयर में भी उन्हें कई सम्मान दिये जा चुके हैं. केपी ठाकुर मानते हैं कि अगर इंसान मेहनती हो और जीवन में कुछ करने का जज्बा रखता हो तो पैसे की कमी बाधक नहीं बन सकती, इस बात का बेहतरीन उदाहरण वह खुद हैं. एक सामान्य से परिवार से संबध्द रखने के बावजूद उन्होंने खुद रास्ता चुना और मंजिल हासिल की.

सक्सेस मंत्रा ः अपने शहर से प्यार करें. वहां की चीजों को अनदेखा न करें. हो सकता है कि वही छोटी चीज आपको सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाये. कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता.

डॉ अनतिमा गुप्ता

छोटे शहर की गुड़िया की ऊंची छलांग

डॉ अनतिमा गुप्ता, रिसर्च फेल्लो, यूनेस्को

क्षेत्रः रिसर्च व विज्ञान

जन्म स्थल ः सहारणपुर, उत्तर प्रदेश .

उपलब्धि ः पेरिस लॉरियल यूनेस्को वीमेन साइंस फेलोशिप प्राप्त.( गौरतलब है कि पिछले 12 सालों में इसे प्राप्त करनेवाले केवल दो ही भारतीय रहे हैं.

टीबी की बीमारी पर पेरिस के सबसे बड़े व प्रतिष्ठित रिसर्च संस्थान में शोध कार्य.

यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के बीरबेक के बायोलॉजिकल साइंस में पोस्ट डॉक्ट्रेरल रिसर्च.

लखनऊ से सेंट्रल ड्रग्स रिसर्च. बीएचयु से बायोटेक्नोलॉजी में ग्रेजुएशन.

सफलता की कहानी ः

उत्तर प्रदेश के छोटे शहर सहारणपुर की रहनेवाली डॉ अनतिमा जब हाल ही में पेरिस में हुए लॉरियल-यूनेस्को सेमिनार में भारतीय हरी साड़ी में मंच पर पहुंचीं और जब उन्होंने अपने स्पीच के माध्यम से टीबी जैसी बीमारी पर अपने विचार, रिसर्च, फैक्ट्स परोसने शुरू की तो वहां बैठे सभी विशेषज्ञ दंग रह गये. छोटे से शहर की रहनेवाली अनतिमा फर्राराटेदार अंगरेजी में सबको संबोधित कर रही थी. अनतिमा ने अपनी मेहनत के बलबूते अपने लेक्चरार पिता का वह सपना पूरा कर दिया, जिसका वह ख्वाब देखा करते थे. सराहणपुर में इनके पिता सामान्य परिवार से संबध्द थे. उनके लिए उनकी बेटी की यह उपलब्धि वाकई सिर्फ सपना ही था. उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वह सपना पूरा भी हो सकता है. अनतिमा अपने पिता की परेशानियों को पूरी तरह समझती थी. उसने भी ठान लिया था कि वह अपने पिता से अब आगे की पढ़ाई के पैसे नहीं लेगी. उसने बीएचयू से अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद तय किया कि वह रिसर्च का क्षेत्र चुनेगी व स्कॉलरशिप के माध्यम से उच्च शिक्षा के लिए जायेगी. उन्हें स्कॉलरशिप मिली वह भी यूनेस्को से. उन्होंने टीबी की बीमारी का विषय चुना. इस पर बेहतरीन शोध करने के बाद उन्होंने अपनी थेसीस तैयार की. सभी को अपनी थेसिस यूनेस्को के वार्षिक सेमिनार में सुनाने थे. डॉ अनतिमा ने रिसर्च के दौरान ही एक ऐसी दवा खोज निकाली, जिससे टीबी के मरीज रसिस्ट कर सकते हैं. इसका प्रयोग टीबी के इलाज के टेस्टिंग के लिए किया जा सकता है. और इसकी सबसे खास बात यह है कि यह सस्ते दामों पर उपलब्ध होगी. चूंकि अनतिमा खुद मध्य वर्गीय परिवार से है, वह यह बात समझ सकती है कि लोग अधिक महंगी दवाई खरीदने में कई बार असक्षम हो जाते हैं. अनतिमा बताती हैं कि सहारणपुर जैसी जगहों पर कम लड़कियां ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं. ऐसे में मेरे परिवार ने मेरा पूरा सहयोग दिया. डॉ अनतिमा ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद लंदन के सोनी कॉरपोरेशन में डेवलपमेंट इंजीनियर के पद पर कार्यरत डॉ राजीव से शादी की. डॉ अनतिमा का मानना है कि वे अपने छोटे शहर के लिए कुछ करना चाहती हैं. वे चाहती हैं कि छोटे शहरों से लोग आगे आयें. अवसर की कमी नहीं है. पर शुरुआत तो करनी ही होगी है. अनतिमा ने अपने पति के गांव(भारत) में फिलहाल एक पैथोलॉजी लैब की शुरू की है, जिस पर वह जल्द ही काम करेंगी. उन्होंने भारत में मेडिकल के क्षेत्र में और भी कई सार्थक प्रयास करने की योजनाएं बनाई हैं. अपने पक्के इरादों की कारण ही अनतिमा ने विदेश तक का सफर किया व परदेस में एक लड़की होकर भी ऊंचा मुकाम हासिल किया और अपने छोटे शहर के साथ-साथ देश का भी नाम रौशन किया.

सक्सेस मंत्रा ः यह सोच कर कभी न बैठें कि आप छोटे शहर के हैं. आपको अवसर मिल ही नहीं सकता. जबकि हकीकत यह है कि परफॉरमेंस का जमाना है. टैलेंट है तो आपको मंच भी मिलेगा. काम करने की आजादी भी और संतुष्टि भी. पर सबसे पहले जरूरत है एक शुरुआत की.

कककक

अनजर अहमद, एहमद ब्रदर्स व मिथिला इस्टेट.

क्षेत्रः मैन्यूफैक्चरिंग व इमारत निर्माण

सफर की शुरुआत ः 500 रुपये से

जन्म स्थल ः मालपट्टी गांव, हरिहरपुर, दरभंगा, बिहार .

टर्नओवर ः 100 करोड़, एएफ ब्रांड के रूप में लगेज एसेसरीज मैन्युफैक्चरिंग में भारत के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक.

उपलब्धि ः

बिहार रत्न से सम्मानित

मुंबई के इमारत निर्माण में प्रतिष्ठित नाम. इसके अलावा दिल्ली, चेन्नई, बंग्लुरु, हैदराबाद, कोचिन में भी कई ब्रांच

नये शैक्षणिक संस्थानों की शुरुआत की योजना.जल्द ही स्टील प्लांट की स्थापना.

बिहार का सबसे पसंदीदा भोजन ः मकई से बने दारा व तील के लड्डू.

सफलता की कहानी ः

पिताजी किसान थे. आर्थिक स्थिति कामचलाउ थी. उन दिनों हमारे गांव से कई लोग रोजगार की तलाश में खाड़ी देशों में जाया करते थे. मैंने सोचा मैं भी रोजगार ढ़ूंढ़ू. पर, उस वक्त मैं 10वीं क्लास में ही था. मैंने पढ़ाई छोड़ दी. चला गया. वहां जाकर बिल्कुल जीरो से शुरुआत की. वर्ष 1989 में. सुपरवाइजिंग का काम किया और भी कई काम किये. अनुभव ने बहुत कुछ सीखा दिया. मैंने गौर किया कि यहां जिन्हें तकनीकी जानकारी है, उन्हें अधिक पैसे मिलते थे. मैंने तकनीकी चीजें सीखनी शुरू की. मेहनत और लगन का नतीजा कि मेरा लगातार प्रोमोशन होता गया. अच्छी आमदनी होने लगी. घर पर पैसा भेज दिया करता था. खूब मेहनत की. खूब पैसा कमाया. फिर सोचा वापस चलें. वापस लौट आया. लगभग 40-50 लाख कमा कर. पर गांव में रह कर फिर वही सब नहीं करना चाहता था. सो मुंबई की तरफ रुख किया. पता था कि मुंबई में बहुत विकल्प हैं. साथ में परिवार के अन्य सदस्यों को भी ले आया. फिर से शुरुआत की. कमाये पैसों से बिजनेस शुरू किया. मैन्यूफैक्चरिंग की. छोटे स्तर पर. धीरे धीरे दायरा बढ़ाया. आमदनी हुई. तरक्की भी मिली. बैग मैन्यूफैक्चरिंग के व्यवसाय में एंट्री की. फिर लगेज एसेसरीज के क्षेत्र में मुनाफा व नाम दोनों बना लिया. परिवार व गांव से आये और लोगों को भी मौका दिया. गुणवता के कारण लोग हमारे काम को पसंद करने लगे. दायरा और बढ़ाया. मुंबई में इमारत निर्माण का क्षेत्र उस वक्त विकास की ओर अग्रसर था. इस ओर रुख किया. एहमद ब्रदर्स के नाम से पहली बिल्डिंग निर्माण कंपनी की शुरुआत. और इसकी सफलता के बाद मिथिला इस्टेट डेवलपर्स का गठन. कुछ ऐसी ही सफलता की कहानी गढ़ी छोटे से गांव के रहनेवाले अनजर अहमद ने. खुद पर आत्मविश्वास व बिजनेस की बारीकी ने उन्हें मनुंबई के प्रतिष्ठित इस्टेट कंपनियों की श्रेणी में डाल दिया. शुरुआती दौर में सिर्फ हिंदी भाषी होने के कारण कई परेशानियों का सामना करना पड़ा.बड़े शहर में व्यवसाय की नींव डालना में उन्हें और भी कई परेशानी आयी. लोग पहले भरोसा नहीं करते थे. सोचते थे कि वह धोखा दे सकते हैं. उन्होंने खुद से माकर्ेटिंग भी, नेटवर्किंग भी. संपर्क बनाये. काम दिखाया. लगातार मेहनत करते रहे. दिन-रात में इन्हें कोई फर्क ही नजर नहीं आता था. नतीजन उन्होंने सालभर में 100 करोड़ टर्नओवर का बिजनेस खड़ा कर लिया. वे आज भी अपने गांव से आये लोगों को रोजगार देते रहते हैं भविष्य में वे बिहार में कई संस्थान शुरू करने की बी योजना बना रहे हैं.

सक्सेस मंत्रा ः अधिकतर मैंने देखा है जब भी नये लोग मुंबई आकर कोई व्यवसाय शुरू करते हैं. थोड़े पैसे इकट्ठे होते ही उसे पूरी तरह खर्च कर देते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. शुरुआती दौर में उसे और पूंजी बचा कर निवेश करने के गुण सीखने चाहिए. पहले खुद का आधार मजबूत करें. इसके अलावा मुझे लगता है कि शिक्षा हर क्षेत्र के लिए अनिवार्य है. हिंदी भाषा के साथ-साथ जितनी भाषाएं भी आप सीख सकते हैं, सीखें.

कककक

पापा कहते थे इडियट बेटा न नाम करेगा

राकेश पासवान, स्क्रिप्ट राइटर

क्षेत्रः लेखन, टेलीविजन

जन्म स्थल ः र्चाईबासा, झारखंड .

उपलब्धि ः दूरदर्शन में लंबे समय तक चलनेवाले शो सुरभि के लिए लगातार दो साल लेखन.

हमारी देवरानी, कुलवधू, भाग्यविधाता, श्रध्दा, दुल्हन, एक लड़की अनजानी सी, थोड़ी खुशी थोड़ा कम, जहां पे बसेरा हो, स्वर्ग , छूना है आसमान, संतान जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों के लिए लेखन.

टेलीविजन में धारावाहिक लेखन के लिए निर्माताओं की पहली पसंद.

कई धारावाहिकों के लिए कंसेप्ट व विजुलाइजेशन.

झारखंड का कोई पसंदीदा खाना जो आज भी खाना पसंद है ः खिचड़ी, सत्तू की रोटी चाय के साथ.

सफलता की कहानी

आपने अगर थ्री इडियट्स देखी होगी तो आपको फरहान कुरैशी का किरदार तो याद ही होगा, जिनके पिता उसको इंजीनियर बनाना चाहते थे. पर वह वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर बनाना चाहता था. चाईबासा के रहनेवाले राकेश पासवान, जिनकी गिनती अब टेलीविजन के क्षेत्र में प्रतिष्ठित लेखकों में होती है, उनकी कहानी भी कुछ इससे ही मिलती जुलती है. रियल लाइफ के फरहान कुरैशी मतलब राकेश पासवान अपनी सफलता की कहानी बयां करते हुए बताते हैं कि यूं तो चाईबासा जैसे छोटे शहर में थियेटर को खास प्राथमिकता नहीं दी जाती थी. पर फिर भी मैं करता रहता. यही से मेरे लेखन की भी शुरुआत हुई. मैं खुद प्ले लिखता फिर अभिनय करता. पापा को यह सब पसंद नहीं था. वह हमेशा कहते कि मैं जब भी दोस्तों से बात करता हूं तो वह बताते हैं कि मेरा बेटा इंजीनियर बनना चाहता है वह तैयारी भी कर रहा है. कोई मेडिकल तो कोई पीओ की तैयारी में जुटा है. और एक मेरा बेटा है. वह क्या करता है. नाटक. यह भी कोई करियर है. पर, पापा की यह बातें मुझे थियेटर प्रेम से अलग नहीं कर सकी. मैं झारखंड में युवा रंगमंच से भी जुड़ा रहा. कई रियलिटी शोज हम राज्य स्तर पर ही आयोजित किया करते थे. मॉर्डन गुप्र था हमारे गुप्र का नाम. इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे लगा कि अब मुझे आगे के बारे गंभीरता से सोचना चाहिए. परिवार से वक्त मिला दो साल का. मेरे लिए डेडलाइन बहुत कम दिनों की थी. निकल पड़ा मुंबई के लिए, क्योंकि मैं जो चीजें करना चाहता था मुंबई उसका समंदर था. वर्ष 1997-1998की बात है. 2500 रुपये जेब में रख कर आ गया. किसी को जानता नहीं था. कोई पहचान नहीं. संपर्क नहीं. बिल्कुल जीरो से शुरुआत. थियेटर से शुरुआत की. लेकिन संतुष्टि नहीं मिल पा रही थी. चूंकि प्ले लिखते-लिखते लेखन में मेरी पकड़ होनेलगी थी. सो, एड फिल्मों में जिंगल लिखना शुरू किया. मुंबई में सबसे जरूरी आजीविका ही है. महंगा शहर जो ठहरा. कुछ सालों के बाद फिर दिल से आवाज आयी. नहीं ये भी नहीं करना. फिर फिक्शन की तरफ रुख किया. शुरुआत बेहतरीन हुई. धारावाहिक सुरभि के साथ. लगातार दो सालों तक सुरभि के लिए लिखता रहा. इस दौरान भारत के बेहतरीन स्थानों पर घूमा, रिसर्च किया. सुरभि एक तरह से इंस्टीटयूशन साबित हुई. बहुत कुछ सीखा. फिर धीरे -धीरे धारावाहिक लेखन के क्षेत्र में पहचान बनती गयी. लोगों को काम पसंद आने लगा. यहां अगर एक बार आपका पसंद आने लगा तो लोग आपको आंखों पर बिठा लेते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. क्रियेटिव इंसान कभी संतुष्ट नहीं होता. कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ. पर इस बार मुझसे गलती हो गयी मैंने खुद से एक फिल्म प्रोडयूस करने की सोची. इसमें मैंने पूरी कमाई, जमा राशि सबको लगा दिया. दुर्भाग्यवश फिल्म नहीं बन सकी. कर्ज में डूब गया. वापस झारखंड लौट आया. एक महीने टेंशन में रहा. सोचता रहा. एक दिन अचानक ख्याल आया कि मुंबई जाने से पहले दादाजी ने कहा था कि कुछ भी हो जाये डरना मत. मुझे सारी बातें याद रहीं. यह बात भूल गया था. मैं फिर से मुंबई आ गया. पहली बार जीरो से 10 पर पहुंचा था. फिर वापस माइनस में चला गया था. फिर नयी शुरुआत करनी थी. पर इस बार पूरी हिम्मत से आगे बढ़ा. और टैलेंट को इज्जत हमेशा मिलती ही है. अब कॉम्प्रमाइज नहीं करता था. लोगों को अच्छा काम चाहिए था. काम को सिर्फ पैसों के लिए नहीं बेचा. कहते नाम नहीं मिलेगा. मैं कहता तो स्क्रिप्ट नहीं मिलेगी. फिर निर्माता मुझे पैसे भी देने लगे और नाम भी. इस मुंबई शहर ने मुझे कुछ हद तक तो पहचान दिला ही दी है.

सक्सेस मंत्रा ः मैं अपने दादाजी की कही गयी बातों पर आज भी अमल करता हूं कि डरना मत. चाहे जो भी हो जाये. अगर आपमें टैलेंट है तो वाकई कामयाबी झक मार कर आपका पीछा करेगी. मुझमें टैलेंट था तभी मुझे जिंदगी ने दो बार मौके दिये. जीवन में समझौता न करें. अगर बड़ा मुकाम हासिल करना चाहते हैं तो कड़ी मेहनत व लगन के लिए तैयार रहें. सफलता यूं ही नहीं मिलती. बार-बार गिर कर संभलना भी आना चाहिए आपको.

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