20110207

पुस्तक समीक्षा ः धर्मवीर भारती की साहित्य साधना

धर्मवीर भारती की साहित्य साधना

संपादक ः पुष्पा भारती

मूल्य ः 300 रुपये

पृष्ठ ः 748

प्रकाशन ः भारतीय ज्ञानपीठ

हिंदी पाठकों के लिए साहित्य कोई रुचि का विषय नहीं. हिंदी पाठक खरीद कर पत्र-पत्रिका नहीं पढ़ता. वह सस्ती कुरुचिपूर्ण साम्रगी की तलाश में रहता है. हिंदी में पाठक वर्ग है ही नहीं. हिंदी में सक्रिय व स्थिर पाठक वर्ग की संख्या बहुत कम है. हिंदी पाठक वर्ग को लेकर वर्ष 1960 में कुछ ऐसी ही अवधारणाएं थी. हिंदी के पाठकों की गिनती गंभीर श्रेणी में नहीं की जाती थी. इन तमाम अवधारणाओं के बावजूद एक शख्स ने प्रण लिया कि वह इस भ्रम को दूर करेंगे. वह साबित कर देंगे कि हिंदी में न सिर्फ पाठक-वर्ग है, बल्कि वह बड़ी संख्या में है. उनका मानना था कि आप दो कदम आगे बढ़िए तो वह चार कदम आगे बढ़ कर स्वागत करने को तत्पर हैं, हां मगर आपको उन तक पहुंचने की पगडंडियां ढूंढ़ निकालनी होगी. उनका मानना था कि जो लोग हिंदी के पाठक को गिरी निगाह से देखते हैं, सिर्फ वही इस मिथ पर विश्वास जमाये रखना चाहते हैं और इसका निष्ठापूर्वक प्रचार करते हैं. कुछ ऐसी ही थी डॉ धर्मवीर भारती की साहित्य साधना. एक पत्रकार की जिम्मेदारी पूरी करने के साथ-साथ उन्होंने आम लोगों को भी साहित्य से जोड़ने का कदम उठाया. उन्होंने ऐसे साहित्य का सृजन करना प्रारंभ किया, जो स्तरीय होने के साथ-साथ सरल भी हो और सामान्य भी ताकि वे आम लोगों की पहुंच बन चके. इसे एक व्यक्ति की निःस्वार्थ साधना ही कह सकते हैं कि उन्होंने लोगों को यह तर्क समझाने की कोशिश की कि यह तो हिंदी पत्रकारिता व साहित्य का ही काम है कि उस पाठक के मर्म तक पहुंचने के सही रास्ते खोज निकाले. केवल सस्ते या भोंड़े तरीकों से आसान रास्ते खोजना या सिर्फ बौध्दिक असमंजस में पाठक वर्ग से मुंह मोड़ कर बैठ रहना ये दोनों गलत रास्ते हैं. डॉ भारती इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि हमें पाठक तक पहुंचना होगा, उसकी जरूरतों को सहानुभूत से समझ कर अपनी बात उसे समझाना चाहे वह कितना ही श्रमसाध्य हो. हमारी नैतिक जिम्मेदारी हैं. डॉ भारती का तो पूरा जीवन ही एक साधना की तरह हैं, जहां उन्होंने एक शिक्षक, पत्रकार व साहित्यकार सभी भूमिकाओं में समाज को कुछ न कुछ पुख्ता देते रहे. उन्होंने कभी सिर्फ साहित्य या सिर्फ पत्रकारिता पर काम नहीं किया. वे इन दोनों क्षेत्रों में लगातार सृजन करते रहते थे, क्योंकि उनका मानना था कि ये दोनों क्षेत्र दरअसल सृजनशीलता की दो विधाएं हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक है तो कई मायनों में एक दूसरे से बिल्कुल जुदा भी. धर्मवीर भारती की साहित्य साधना का यह दूसरा संस्करण उस मूर्धन्य साहित्यकार के समग्र कृतित्व का गंभीर लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है. उनकी पत्नी पुष्पा भारती व उनके भारतीजी के साथी सहयोगियों के अथक प्रयास से तैयार की गयी यह पुस्तक धर्मवीर भारती के लेखन कर्म को समझने व परखने की दिशा में एक जरूरी व बौध्दिक सहकार है. इसमें वरिष्ठ व युवा हिंदी लेखकों-आलोचकों द्वारा संपूर्ण भारती-साहित्य कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास. निबंध, आलोचना के अर्थपूर्ण व विचारोत्तेजक विश्लेषण के साथ ही भारती जी की अद्वितीय कला दृष्टि व उसके संश्लिष्ट प्रभावों की संप्रेषणीयता का भी सूक्ष्म विवेचन है. निश्चित तौर पर धर्मवीर भारती की साहित्य साधना पूर्वाग्रहों व उलझावों से बचते हुए भारती के यशस्वी कृतित्व व उनके पाठकों के बीच सार्थक संवाद सेतु बनाने का एक जरिया है. प्रत्येक वर्ष किसी न किसी विश्वविद्यालय के छात्र भारतीजी के कार्यों पर शोध करते रहते हैं. उनके लिए यह एक शोधपरक डायरेक्टरी व डिक्शनरी दोनों ही है. पुस्तक के तमाम भागों व खंडों को पढ़ने के बाद यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसके सृजन की योजना के वक्त इसके लेखकों द्वारा इस बात का खास ख्याल रखा गया होगा कि यह संकलन कुछ ऐसा हो कि भारतीजी के बहुआयामी साहित्य की समग्र रूप से विस्तृत जानकारी मिले व ऐसे समीक्षात्मक लेख शामिल किये जायें, जिनसे न केवल पाठकों के प्रश्नों का समाधान मिलें, बल्कि उन्हें अपनी मौलिक सोच का निर्माण करने में भी सहायता मिले. पुस्तक की रचना में केवल भारतीजी की प्रशंसा का बखान नहीं किया गया. इसे निष्पक्ष रचना बनाने के लिए इसमें ऐसे लेखों को भभी शामिल किया गया है, जिनमें भारतीजी के साहित्य के कई पक्ष की कटु आलोचना भी की गयी है. परिशिष्ट खंड में भारतीजी के लिखे गये ऐसे निबंध संकलित हैं, जो उनकी साहित्य साधना को समझने में सहायक हो सकते हैं. पुस्तक में कुल आठ खंड हैं, जिनमें सृजन के आयाम में विद्यानिवास मिश्र, राजेंद्र यादव, विजयबहादुर सिंह, नरेंद्र कोहली, विनय जैसे लेखकों ने धर्मवीर की रचनात्मक तेवर का वर्णन भी कुशलता से किया है. दूसरे खंड में निर्मल वर्मा, रामस्वरूप चतुवर्ेदी धर्मवीर की कहानियों का चित्रण अपने अपने तरीके से करते हैं. खंड तीन में गुनाहों का देवता, साहित्य मंदिर में गुनाहों का देखता,सूरज का सातवां घोड़ा जैसे सुप्रसिध्द उपन्यासों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए इस पर भी विस्तार से चर्चा की है कि किस परिस्थिति में लिखे गये थे ये उपन्यास. पत्रकारिता व धर्मवीर विषय पर भी पुख्ता तर्क दिये गये हैं. धर्मवीर की कालजयी कृति कनुप्रिया के भी विभिन्न पहलुओं व विभिन्न लेखकों की नजर में कनुप्रिया पर भी ठोस परक बातें की गयी हैं. साथ ही पुस्तक के अंतिम पृष्ठों पर धर्मवीर का संक्षिप्त जीवन परिचय व उनकी उन रचनाओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी जिन्हें इस पुस्तक में शामिल नहीं किया जा सका, इन्हें शामिल करने के बाद यह पुस्तक संपूर्ण, ठोस व शोधपरक ग्रंथ साबित होती है.

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