20110207

लोकसंगीत की धुन में रहेंगे, दुनिया से क्या लेना है..





.हिंदी सिनेमा जगत ने बॉलीवुड का रूप धारण कर लिया. संगीत में रैप, रीमिक्स व न जाने कितने भेष बदल लिये. लेकिन आज भी कुछ ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा की चकाचौंध, ग्लैमर व पैसों के लिए अपनी लोकसंस्कृति को दावं पर नहीं लगाया. शीला व मुन्नी जैसे गीतों की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद आज भी इनकी गायिकी के दीवाने हजारों करोड़ों हैं. खास बात यह है कि इन सभी शख्सियतों से अलग समय, अलग माहौल व शहर में मुलाकात हुई. लेकिन लोकसंस्कृति के प्रति इनका सम्मान व इसकी परंपरा को बरकरार रखने की ललक एक-सी दिखी. वे फक्र से कहती हैं कि लोकसंगीत की धुन में चले हैं दुनिया से क्या लेना है.उन्हें अपनी लोकसंस्कृति पर गर्व है. कुछ ऐसी ही लोकगायिकाओं व लोक संस्कृति में उनके योगदान पर प्रकाश डाल रही हैं अनुप्रिया अनंत.

किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं हबीब तनवीर

जिस तरह इन लोकगायिकाओं ने अपने अपने क्षेत्रों की लोक संस्कृति व सभ्यता की परंपराओं को बरकरार रखा. वह उल्लेखनीय है. साथ ही गौर करनेवाली बात यह है कि कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हबीब तनवीर ने इन सभी के रूप में इस संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. शारदा सिन्हा बताती हैं कि देहरादून में कार्यक्रम के बाद उन्हें हबीबजी का आशीर्वाद मिला था. फिर उन्हें हबीब तनवीर ने भोपाल आने का निमंत्रण दिया था. हिंदी दिवस के आयोजन पर फिर मुलाकात हुई थी. हबीबजी ने बेहद खुश होकर तारीफ की थी मेरी गायिकी की. तीजनबाई को पहला बड़ा ब्रेक दिलवानेवाले भी हबीब तनवीर जी थे. और नगिन तनवीर को पूरी विरासत ही अपने वालिद हबीब तनवीर से प्राप्त हुई.

पान से रहा है खास लगाव

शारदा सिन्हा, तीजनबाई व नगिन तनवीर तीनों ही लोकगायिकाओं को पान से खास लगाव रहा है. शारदाजी बताती हैं कि उन्हें यह आदत उनके पति की वजह से लगी थी. तो तीजनबाई बांग्ला पान की शौकीन हैं. नगिन जी खाने के बाद व गाते वक्त मुंह में मीठा पान रखना पसंद करती हैं.

धरोहर में आप कभी बदलाव नहीं कर सकते ः नगिन तनवीर

संक्षिप्त परिचय ः नगिन तनवीर. मशहूर लोक गायिका व थियेटर आर्टिस्ट. मशहूर नाटयकार हबीब तनवीर की सुपुत्री नगिन तनवीर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद नया भोपाल स्थित नया थियेटर की सारी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं. पिछले कई सालों से लगातार पूरे विश्व में नया थियेटर द्वारा बेहतरीन नाटकों का मंचन किया जा रहा है. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म पीपली लाइव का मुख्य किरदार नत्था भी इसी थियेटर से जुड़े हैं. खुद नगिनजी ने पहली बार किसी हिंदी फिल्म के लिए स्वर दिया. फिल्म पीपली का गीत मशहूर गीत एकर का भरोसा नगिन की वास्तविक आवाज व लोक संगीत वाद्य यंत्रों के साथ रिकॉर्ड किया गया. नगिन छतीसगढ़ व मध्य प्रदेश की लोकसंस्कृति की विशेष जानकार हैं.

पीपली लाइव के म्यूजिक लांच में रघुवीर यादव के गीत महंगाई डायन के बाद माहौल बिल्कुल शांत हो गया. माथे पर बड़े आकार की लाल बिंदी. मुंह में पान. पाड़वाली हल्की सूती साड़ी व काले घनोंबालों का जुड़ा किये नगिन का प्रवेश होता है. माहौल तैयार होता है. और लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं. एकर का भरोसा चोला माटी के राम सुनने के बाद पूरा हॉल तालियों की गूंज से खिल उठता है. बड़े तहजीब से वह दर्शकों का धन्यवाद कहती हैं और फिर हमारी बातचीत शुरू होती है. बिल्कुल ठहर ठहर कर हर शब्दों की महत्ता को समझ कर बात कर रही थीं नगिनजी. अपने बचपन अपने वालिद व लोकसंगीत के बारे में उन्होंने बिना किसी झिझक बातें बतायीं.

पीपली में गांव जो था

यह पूछने पर कि पहली बार वह किसी हिंदी सिनेमा में अपना स्वर दे रही हैं. इसकी खास वजह. नगिनजी का जवाब था. हां पीपली की कहानी गांव की कहानी है. जिस गांव में शूटिंग हुई है. उसे मैं जानती हूं. हमारे नया थियेटर के कलाकार इसमें अभिनय कर रहे हैं और कहानी के मुताबिक मेरा गीत उपयुक्त था. कहीं कोई अश्लीलता नहीं थी तो मैंने स्वीकार कर लिया. हालांकि यह गीत फिल्म के लिए विशेष रूप से तैयार नहीं किया गया था. बल्कि इसे मेरे गुरु ने लिखा था. उसे बस मैंने शब्द दिये हैं.

नया थियेटर की संस्कृति वैसे ही रहेगी

आपने कभी धरोहर को बदलते देखा है. नहीं न. तो फिर नया थियेटर की संस्कृति कैसे बदलेगी. यह भारत की लोक सभ्यता का धरोहर ही तो है. पूरे विश्व में यह इसलिए जाना जाता है. हमारे वालिद ने जो परंपरा बरकरार रखी मैं उसे विरुध्द कैसे जा सकती हूं.

पिता ही पहले गुरु थे

मैं बेहद खुशनसीब हूं कि मेरा बचपन व परिवेश एक ऐसी संस्कृति में हुआ जहां मां को भी कविता लिखने का शौक था और पिता भी लिटरेचर से जुड़े थे. दोनों ही कलाकार थे. दोनों के मिलाप से मेरा जन्म हुआ तो निश्चित तौर पर वह गुण आ गये. शुरू से ही उन्होंने मुझे संगीत की तरफ रुचि लेने को कहा. वह जब भी विदेश जाते मेरे लिए वहां के संगीत से जुड़े रिकॉर्ड लेकर आते थे. वापस आने पर मैं उसे सुनती. ऐसा नहीं था कि पिताजी को विश्व संगीत से कोई परहेज था या ऐतराज था. आज भी आप उनकी लाइब्रेरी में जैज के कई रिकॉर्ड देख सकते हैं. उन्हें शुरू से कई चीजें देखने -सुनने से लगाव रहा. सो मेरा भी झुकाव हुआ. उन्होंने कभी भेद नहीं किया कि यह बेटी है तो मुझे आजादी न दें. मुझे पूरी आजादी मिली.

नया थियेटर व पिता के साथ रहते-रहते मैंने लोक संस्कृति की बारीकियों को सीखा और बस अब उसे ही बरकरार रखना चाहती हूं.

फिल्मों में लोक संगीत की वापसी

आप खुद देखिए. कैसे लोग एक गांव की बैठी टोली के बीच बने गीत महंगाई डायन को क्या मजे लेकर सुन रहे थे. अब देखिए कैसे डिंचचाक, लाउड म्यूजिक के बीच एकर का भरोसा जैसे शांत गीत भी लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेते हैं तो गीत व संगीत को सुनने व महसूस करने की चीज है. फिर फिल्मों में वापसी की जहां तक बात है वह तो होनी ही थी. आफ्टरऑल एंड ऑफ द डे आपके दर्शक ही सबकुछ है. लोकसंगीत में वह मायावी आकर्षण है जो कहीं और नहीं मिल सकता. इसलिए मैं भी हमेशा इससे जुड़ी रहूंगी.

मालिनी अवस्थी

लोक संगीत कभी ऊबाऊ या पुराना हो ही नहीं सकता ः मालिनी अवस्थी

संक्षिप्त परिचय ः मालिनी अवस्थी. भोजपुरी व अवधी गीतों की गायिका. लखनऊ में रहने के बावजूद शहरी चकाचौंध से दूर मालिनी अवस्थी ने हमेशा गांव पर आधारित गीत-संगीत को अहमियत दी. वे आज भी अधिक आमदनी के लिए फुहड़ता पर आधारित गाने नहीं गा सकतीं. अब तक कई धार्मिक लोकगीतों के अलावा वह महुआ के कई शो में जज की भूमिका भी निभा चुकी हैं. साथ ही जूनून कुछ कर दिखाने का में भी उन्होंने अपनी लोक-संस्कृति की परंपरा बिखेरी थी. अब तक उन्होंने भोजपुरी के उन्हीं गीतों को स्वर दिये हैं. जिसमें अश्लील शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया है. शायद यही वजह है कि अब तक उनके गीतों के फेहरिस्त में बॉलीवुड के गीत शामिल न हों. चूंकि समझौता करने को वह कतई तैयार नहीं. वह आकाशवाणी की ए ग्रेड गजल गायिका भी हैं. उनका साफ तौर पर कहना है कि लोकसंगीत कभी ऊबाऊ नहीं हो सकते. आज भी फिल्म में एक लोकगीत कई गानों पर हावी हो सकता है.

गीत ः मन की आशा, कांच ही बंसे के बगिया, ढम ढम ढ़ोल है बच रहा, जय हो छट्ठी मइया, झूले झूले नीम बार. पटना के घतवा शोबे..जैसे अनगिनत गानों में स्वर. अब तक भारत समेत विदेशों में भी परफॉरमेंस.

मालिनी अवस्थी से मेरी पहली मुलाकात कुछ महीनों पहले मुंबई में एक शो के दौरान हुई थी. सीधे पल्ले की साड़ी, माथे पर बिंदी व चेहरे पर मुस्कान और होंठों पर लोकगीत के बोल के साथ वह पूरी शिद्दत से माइक पर लोगों के बीच लोकसंस्कृति की महत्ता समझा रही थीं. प्रेस वार्ता के बाद उनसे कुछ सवाल पूछने का मौका मिला. लखनऊ की तहजीब के साथ-साथ बातचीत में हम शब्द का प्रयोग उन्हें वाकई अलग पहचान दे रहा था. लोकसंगीत व लोक संस्कृति की अगुवाई करनेवालीं इस शख्सियत ने जो दिलचस्प व सटीक जवाब दिये, उससे यह विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा था कि वह एक ग्लैमरस शहर में खड़े होकर भी गांव की मिट्टी व माटी की खुशबू की बात कर रही थीं. आगे की बातचीत मालिनी अवस्थी के शब्दों में...

गांव में ही रची-बसी है जिंदगी

आज भी मौका मिल जाता है गांव की ओर निकल जाती हूं. वहां गांव की महिलाओं से मिल कर गानें सीख लेती हूं. नयी धुनें व गीत मिल जाये तो तुरंत अपनी डायरी में लिख लेती हूं. लोकगीतों से भी भला कभी कोई बोर हो सकता है. मैं नहीं मानती. मैं तो मानती हूं कि आज भी अगर आप गांव चले जायें और अगर आपको वहां के किसानों के साथ वक्त बिताने का मौका मिले तो आपको कई लोकगीत खुद ब खुद बनते-बुनते नजर आने लगेंगे.

शहरी परिवेश के बावजूद लोक संगीत ने स्वीकार कर लिया

मेरा पूरी बचपन शहरी परिवेश में बीता है. लेकिन इसके बावजूद शुरू से मुझे लोक संगीत के गीत व बोल याद हो जाते थे. मीठे लगते थे मुझे. मेरी तो असली पहचान यही है. यही मानती हूं मैं. इसने एक आकार लिया. संगीत किसी के दिल पर हावी नहीं हो सकता. उसे खुद मन ही स्वीकारता है. मेरे मन को लोक संगीत ने ही स्वीकारा. बस उसकी इज्जत किये आ रही हूं.

परेशानियां हमें भी हुई

यह सच है कि जिस दौर में हमारा संगीत की तरफ झुकाव हुआ. उस वक्त महिलाओं के लिए संगीत सिखना इतना आसान नहीं था. कई पाबंदियां थी. इसे सही दृष्टि से नहीं देखते थे लोग. हमें भी परेशानियां हुई थीं.लेकिन क्या करें हमारा मोह छुटा ही नहीं इससे.

फिल्मों में लोकसंगीत की वापसी

सच कहूं तो लोकसंगीत कभी फिल्मों से गया ही नहीं था. यह कहें कि संख्या कम हो गयी थी. लेकिन उसकी मिट्टी की खुशबू फिर से लौटी है नये तेवर के साथ. ससुराल गेंदा फूल सुन लीजिए. सभी थिरकने लग जाते हैं बैठे बैठे. हालांकि मैं मानती हूं कि कई निदर्ेशकों ने अब भी गांवों को दूर नहीं किया है सिनेमा से. श्याम बेनगल उनमें से एक हैं.

खुशी है कि चलो कुछ तो दिया है लोकपरंपरा को ः शारदा सिन्हा

संक्षिप्त परिचय ः भोजपुरी लोक संगीत को विश्वफलक पर पहचान दिलाने का मुख्य श्रेय शारदा सिन्हा को जाता है. शारदाजी ने जिस तरह वह भोजपुरी लोक संगीत में सक्रिय रही हैं. उतनी ही सक्रिय वह हिंदी सिनेमा जगत में भी पार्श्व गायक के रूप में रही हैं. अत्यधिक दबाव के बावजूद बॉलीवुड का ग्लैमर उनकी सोच नहीं बदल पाया. उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए चुनिंदा लेकिन बेहतरीन व सदाबहार गीत गाये हैं. फिल्म मैंने प्यार किया का गीत कहे तोसे सजना, व हम आपके हैं कौन का गीत बाबूल आज भी श्रोताओं के पसंदीदा गीतों में से एक हैं. जल्द ही रिलीज हो रही भोजपुरी फिल्म देसवा में भी उन्होंने एक गीत में आवाज दी है. पैसे या ग्लैमर के आधार पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. वे भोजपुरी फिल्म की बिगड़ती छवि का पुरजोर विरोध करती हैं और अश्लीलता व फुहड़ता से कोसो दूर रहती हैं. उन्हें पद्मश्री से सम्मानित शारदा बिहार की स्वरकोकिला मानी जाती हैं. इन दिनों वे फेसबुक पर भी अपने प्रशंसकों से सक्रिय रूप से रूबरू होती हैं.

शारदा सिन्हा से बातचीत एक सपने के पूरे होने जैसा था. वह दूरदर्शन के कार्यक्रम में हिस्सा लेने आयी थी. उन्होंने बेहद कम समय में वर्तमान समय की भोजपुरी लोकसंगीत व उस पर फुहड़ता व अश्लीलता पर हावी होने पर बेहतरीन तरीके से प्रकाश डाला.साथ ही अंत में उनका पसंदीदा गीत कहे तोसे सजना गीत भी सुनाया...

भोजपुरी लोकसंगीत का वास्तविक छवि यह नहीं

मैं साफ शब्दों में कहती हूं कि मैं कभी पैसों के लिए कैसे भी गाने नहीं गा सकती. मेरे लिए गाने के बोल व उसकी इमेज महत्व रखती है.मेरे पास आज भी कई ऑफर आते हैं. लेकिन मैं उन्हें स्वीकार नहीं कर सकती. आज तक हिंदी फिल्मों में मैंने जितने भी गीत गाये. वे गीत मुझे अच्छे लगे. बिल्कुल साफ-सुथरे शब्द थे उसमें. तभी स्वीकार किया. मुझे बॉलीवुड से परहेज नहीं.लेकिन अपने अंदाज व तमन्ना स्वरूप ही गीत गा सकती हूं

दुखी हूं भोजपुरी की दुगर्ति देखकर

एक मीठे और अति खूबसूरत भाषा को बर्बाद कर दिया है कुछ लोगों ने मिल कर. जबकि भोजपुरी गीतों में तो मिश्री घुली है. मेरा जन्म भले ीह मैथिली परिवेश में हुआ लेकिन मैं भोजपुरी भाषा के भी उतने ही करीब हूं. आदिवासी जीवन मुझे सबसे ज्यादा पसंद है. सच कहूं तो मैं जीती हूं लोकसंस्कृति सभ्यता को. हम सभी आज भी घर पर अपनी लोकभाषाओं में ही बात करते हैं.

मुझे इसमें कोई संकोच नहीं होता कि..

मुझे किसी भी बड़े शहर में या किसी बड़े पढ़े लिखे नवाबों के सामने अपनी भाषा में बात करना या उसके गीत की प्रस्तुति करने में कोई शर्म नहीं आती. यह हमारा सम्मान है. इससे साथ लेकर चलना है. मेरी पहचान पूरे विश्व में लोकसंस्कृति से बनी. खुशी होती है जब मेरे श्रोता कहते हैं कि देखो शारदाजी की आवाज है. कितने खूबसूरत बोल हैं. आज भी छठ में जब महिलाएं मेरे गीतों पर अर्घ्य देती है तो सुकून होता है. चलो कुछ तो अच्छा किया है. मॉरिशस में तो कई महिलाएं छत पर टेप में मेरे गीत बजा कर अर्घ्य देती हैं. बस यही तो ेमेरी उपलब्धि. आज भी मौका मिलता है तो मैं अच्छे गीत गाने के लिए हमेशा तैयार रहती हूं.

भईया की द्वार छेंकाई था पहला मंच

आपको जान कर आश्चर्य होगा कि मेरे गायन का पहला मंच मेरे भईया की द्वार छेकाई थी . मैंने गीत गाया. लोगों को पसंद आया, फिर तो घर में शादी से लेकर अपनी शादी तक सिलसिला चलता रहा. अपनी विदाई में भी पापा को गीत सुनाया था. मैंने.

तीजनबाई

लोक संस्कृति ने मुझ अनपढ़ को भी काम दिला दिया ः तीजनबाई

संक्षिप्त परिचय ः तीजनबाई. पूरे विश्व में पांडवाणी कला से अपनी पहचान बनानेवाली तीजनबाई ने बेहद कम उम्र में महाभारत को अनोखे अंदाज में गीत द्वारा प्रस्तुत करने की इस कला में पारंगत हो गयी थीं. 13 साल की उम्र में उन्होंने पहली बार एक गांव में परफॉर्म किया. देखते ही देखते वह कई महोत्सव में परफॉर्म करने लगीं. उनको पहला बड़ा बे्रक तब मिला जब मशहूर नाटयकार हबीब तनवीर की नजर उन पर गयी. उन्होंने तीजन को इंदिरा गांधी के सामने परफॉर्म करने का मौका दिलाया. धीरे-धीरे उनकी पहचान बनीं. और यह लोकगायिका पांडवाणी गायिका के रूप में लोकप्रिय हो गयीं. छोटे शहरों से लेकर गांव व पूरे विश्व में तीजन ने पांडवाणी परंपरा की लोकप्रियता बढ़ाई है. वर्ष 1988 में उन्होंने पद्दमश्री ग्रहण किया.साथ ही पद्म भूषण के साथ साथ उन्हें संगीत अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है.फिलवक्त वह भिलाई में रहती हैं.

बांग्ला पान की बेहद शौकीन तीजनबाई से मुलाकात करने का सौभाग्य बेहद मुशक्कत के बाद मिला. शहर में पांडवाणी पर प्रस्तुतिकरण देने आयी थीं तीजनबाई. अधिक वक्त नहीं था. सूत्रों ने कहा नहीं वक्त नहीं नहीं मिलेंगी. बाहर से ही कहा कि उनके लिए बांग्ला पत्तों के पान लाई हूं. बस इतना दे दीजिए और कह दें कि इस्पात शहर से आयी थी उनसे मिलने. वह अंदर गये और बाहर बुलावा लेकर आये. कहा जाइए अधिक समय नहीं लीजिए. मेरे लिए तो यह सुनहरा मौका था. फौरन अंदर पहुंची. तीजन अपने शृंगार में व्यस्त थीं. पहला सवाल यही था कैसे पता कि मैं बांग्ला पत्ते के पान पसंद करती हूं. इंप्रेस कर रही थी आप मुझे. फिर हंस दिया और फिर 5 मिनट की बजाय 10 मिनट तक हमारी बातचीत होती रही.

मैं संतुष्ट हूं, जो हूं

मुझे मुंह में पान, हाथों में तानपुरा दे दीजिए. बस मैं कहीं भी पांडवाणी का बखान कर सकती हूं. मैं संतुष्ट हूं. जो हूं. पढ़ी लिखी नहीं मैं. इसलिए अधिक दुनियादारी नहीं समझती. मुझे जो मिला है अपने प्रशंसकों से वही बहुत है. भिलाई के कारखाने में नौकरी भी मिल गयी इन अनपढ़ को. और क्या चाहिए. सिर्फ इस लोकसंस्कृति की बदौलत ही न. मुझे विश्व में पहचान मिली. फिर मैं क्यों न इसकी इज्जत करूं. अधिक चाहिए नहीं. इसलिए कोई भी लालसा हुई नहीं.

जो नया हो रहा है स्वीकार है. बस फुहड़ता न हो

मुझे जो भी कुछ नया हो रहा है. सहज स्वीकार है. बस यही ख्वाहिश है अधिक फुहड़ता न हो जाये. बस.

जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव देखे

अब जिंदगी से डर नहीं लगात. बहुत कम उम्र में जुड़ गयी थी पांडवाणी से. हबीब साहब लेकर आये थे मुझे इस क्षेत्र में.फिर पहचान मिली सम्मान मिला. लेकिन परेशानियों का भी सामना किया. लेकिन वह सब जीवन का हिस्सा है. तो फिर और क्या बताऊं. मुझे जो मिला अपनी मिट्टी से प्यार करने की वजह से मिला. यहां तक कि अनपढ़ होने पर नौकरी भी फिर इसका साथ छोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता.

फिल्मों में गायन

मैं सिर्फ पांडवाणी ही कर सकती हूं. आज तक किसी फिल्म में इसकी जरूरत नहीं होगी. इसलिए मैंने कभी परफॉर्म किया नहीं. और जो ऑफर मिले भी वह मेरे मन मुताबिक थे नहीं इसलिए किया नहीं. बस. वैसे मुझे अच्छी व विषयपरक फिल्में पसंद हैं.

1 comment:

  1. मुझे हैरानी है इतनी महत्वपूर्ण इंटरव्यू पर एक भी कमेंट्स नहीं ...
    क्या लोक गीत और गायक सबके दिलो से उतार गए हैं ....

    ReplyDelete