20110207

सुनी दिल की आवाज और मिल गयी मंजिल. स्वानंद किरकिरे


जब उनका दिल एक 19 साल के कॉलेज के छात्र की तरह सोचता है तो उनकी डिक्शनरी से ऑल इज वेल बोल निकलते हैं व उसी दिल की कलम से जब गिव मी सम सनसाइन के बोल लिखे जाते हैं तो वैसे युवाओं की आवाज लगती है, जो इस बोझिल जिंदगी से कुछ पल सुकून के चाहते हैं. बांवरा मन मेरा देखने चला सपना दोहरे पर खड़े एक विचलित युवा के मन की आवाज लगती है. एक युवा के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने गीतों के माध्यम से पिरोनेवाले शख्स स्वानंद किरकिरे भी कभी इन सभी दौर से गुजर चुके हैं. सामान्य परिवार के संबध्द रखनेवाले स्वानंद ने सफलता के लिए कभी शॉर्ट कट नहीं लिया. वे आज स्थापित हैं. कामयाब हैं, क्योंकि उन्होंने सही दिशा में मेहनत की. सफर संघर्षशील रहा. लेकिन वे उसे संघर्ष नहीं एक अध्याय मानते हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित स्वानंद का सफर व उनकी उपलब्धि निश्चित तौर पर छोटे शहर के युवाओं के लिए प्रेरणादायी है. उनके इस सफर पर एक नजर

स्वानंद किरकिरे

क्षेत्र ः गीतकार, गायक, निदर्ेशक, संगीतकार

बंदे में था दम गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार.

बतौर गीतकार

मौला अजब तेरी करनी मौला-स्ट्राइकर,लागा चुनरी में दाग,खोया खोया चांद

लगे रहो मुन्नाभाई, 3 इडियट्स, परिणीता

संवाद लेखन

जय संतोषी मां, एकलव्य,सेहर,पा,डायलॉग

एकलव्य, चमेली, शिवाजी

गायक

ऑल इज वेल, सेहर, बांवरा मन लेखने चला सपना, रतिया कारी कारी रतिया

निदर्ेशक

हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कलकता मेल, चमेली.

इंदौर जाने का बाद एक ऐसी खाने की चीज जो आज भी पसंद है ः इंदौर का छप्पन दुकान की मिठाईयां. रवि की कचौड़ी, कॉफी हाउस की कॉफी.

मैं मुंबई कभी करियर बनाने नहीं आया था. अगर करियर की सोची होती तो बाकी दोस्तों की तरह इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई की होती. मैंने बस वही काम किया जो मुझे अच्छा लगा. जिस काम को करने में मुझे मजा है. जिससे मुझे खुशी व संतुष्टि मिली. दिल की आवाज सुनी व करियर खुद ब खुद बन गया.

करना तो कुछ क्रियेटिव ही था

शुरू से अपने माता-पिता का संगीत प्रेम देखा था. दोनों ने कुमारगंधर्व के शिष्य थे. तो घर पर संगीत का माहौल होने के कारण रुचि बढ़ी. लगातार थियेटर से भी जुड़ा रहा. हमेशा सीखने व नया जानने की ललक ने मुझे इंदौर से एनएसडी ( नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) पहुंचाया. छोटे शहरों में कला को खास महत्व नहीं दिया जाता था. यह बात लगातार थियेटर करते-करते समझ में आ गयी थी. फिर दुनिया में नयी चीजें देखने व समझने की धुन की वजह से इंदौर से बाहर कदम रखा. नसीरुद्दीन खान व कई मंझें हुए कलाकार की फिल्में देख कर बड़ा हुआ था. सोचा एनएसडी से डिग्री मिल जाये तो मुंबई में काम करना आसान हो जायेगा. रोजगार समाचार में आवेदन भरा. पहले वर्ष फेल हो गया है. दूसरे वर्ष फिर आवेदन भरा. इस बार मेरा चयन हुआ. एनएसडी आने के बाद पूरी दुनिया बदल गयी. इंदौर में सिर्फ हिंदी फिल्में देखते थे. फिल्म का मतलब सिर्फ हिंदी सिनेमा यही समझा करते थे, लेकिन यहां आने के बाद नजरिया बदला. अंतरराष्ट्रीय व कई भाषाओं की फिल्में देखना शुरू किया. कई नयी चीजें सीखीं. अब तक सिर्फ फिल्में देखी थी, लेकिन उसे समझना यहां आकर शुरू किया. वर्ष 1997-19 की बात रही होगीय वही मैंने भगत सिंह पर एक नाटक लिखा था. मुंबई की एक निदर्ेशिका मंजू सिंह वहां गयी थीं. उन्होंने कहा कि वे सीरियल बना रही हैं. क्या तुम लिखोगे. मुझे तो बस इसी मौके की तलाश थी. मैंने तुरंत हां कर दी. मुंबई आ गया. मैं शायद लकी था, क्योंकि मुंबई आने के बाद शुरुआती दौर में छत ढूंढने की मशक्कत के बारे में जो सुन रखा था. मुझे उसकी नौबत न आयी. मंजू सिंह ने ही अलीबाग नामक एक जगह पर अपने बंगले में मुझे रहने के लिए जगह दे दी. मैं लगातार लिखता रहा. बतौर राइटर मुझे मेरा मेहताना भी मिलता था, लेकिन संघर्ष की असली शुरुआत यह नहीं थी. कुछ एक-डेढ़ साल बाद जब सीरियल बंद हुआ, तो मुझे वह जगह छोड़नी पड़ी. मैं थोड़ा परेशान हुआ और वापस दिल्ली लौट गया. जल्द वापस आ गया. इसी दौरान सुधीर मिश्रा से मुलाकात हुई. और यही से जिंदगी ने यूटर्न ली. सुधीर ने सीरियल में लिखने व निदर्ेशन में अस्टिट करने का भी मौका दिया, मुझे याद है उन्होंने कहा था कि शुरुआत है. सीखो. मजाक में यह भी कहा था कि राइटर जैसा सम्मान नहीं मिलेगा, लात मिलेगी. बर्दास्त न होगा तुमको. मैेंने कांफिडेंस से कहा था मंजूर है. वे उस वक्त कलकता मेल, हजार ख्वाहिशें ऐसी बना रहे थे. अस्टिटेंट के रूप में मैंने काम की बारीकी सीखी.

टीम हमेशा जीतती है

अब वह माहौल नहीं, कि लोग टीम में काम करें, लेकिन विदु , राजकुमार के साथ मैंने टीम में काम करना सीखा है. विदु से जुड़ने के बाद लगे रहो मुन्नाभाई व फिर थ्री इडियट्स के गाने लिखने का मौका मिला. बंदे में था दम से राष्ट्रीय पुरस्कार का सम्मान. इतनी बड़ी उपलब्धि. अब लगता है कि हां, यही करने तो आया था. इसलिए तो मेहनत की थी. आज जब आमिर के साथ इंदौर जाने का मौका मिलता है तो अपने शहर पर भी गर्व होता है खुद पर भी.

फ्रसट्रेशन के दौर में लिखी थी बांवरा मन मेरा

जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते ही हैं. मेरी जिंदगी में भी आये, लेकिन मुझे खुद पर भरोसा था कि मैं कर पाऊंगा. और देखिए, कि जो गीत मैंने अपने फ्रस्टेशन के दौर में लिखी थी उसी ने मुझे मंजिल तक पहुंचा दिया. मैंने यूं ही बांवरा मन मेरा देखने चला एक सपना लिखी थी. सुधीर को दिखाई , उन्होंने कहा अरे यह गीत दे दो. मैंने कहा नेकी और पूछ पूछ. गीत लोकप्रिय हो गया और मुझे गीतकार के रूप में स्थापित कर दिया. यहां तक कि शांतनु ने यह गीत मेरी आवाज में भी रिकॉर्ड किया था. मेरी तमन्ना है कि मैं फिल्म बनाऊं. इसलिए इसकी सारी विधाएं सीख रहा हूं.

अंगरेजी सुधारी

इंदौर में आम बोलचाल में हम अंगरेजी नहीं बोलते थे. हालांकि मुझे लगता है कि इंसान को वह भाषा आनी चाहिए, जिसमें वह काम करता है. मुझे हिंदी आती थी. मेरा काम भी हिंदी में ही है. हां, मगर अंगरेजी को भी सुधारी, दोस्तों से कहता था कि बोलने में अगर गलत हो तो सुधार देना. मुझे लगता है कि भाषाएं सीखनी चाहिए.भाषा ज्ञान का दायरा बढ़ा देती है. इंसान को जिद्दी नहीं होना चाहिए. जब जो जो मौका मिले सीखते जाएं, खुद ब खुद रास्ता मिलता जाता है.

खुद से झूठ कभी नहीं बोल सकते

जिंदगी में कुछ भी निर्णय लेने से पहले कि आपको क्या बनना है. यह तय करें कि आप उसके लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं. कितनी निष्ठा से उस काम को पूरा कर रहे हैं. आपने उसके लिए कितना होमवर्क किया है. अगर आप एक्टर बनना चाहते हैं तो गौर कीजिए कि आप अपने अभिनय क्षमता को बढ़ाने के लिए कितना वक्त दे रहे हैं.आप खुद से झूठ कभी नहीं बोल सकते. आप अपनी कमजोरियों को पहचानें. आप जिस भी क्षेत्र में बढ़ना चाहते हैं, पहले यह निर्णय लें कि आप उसके लायक है या नहीं. आप उसे अपना कितना बेहतरीन दे सकते हैं. छोटे शहर से आनेवाले युवाओं के साथ यही परेशानी है वे मुंबई पैसे कमाने का ख्वाब लेकर आते हैं. अगर अधिक पैसे नहीं कमा पाये तो आप कामयाब नहीं, कुछ ऐसा ही सोचते हैं वे. अपने काम को पैसे से मत तौलिए. मुंबई आपके टैलेंट को सही मंच देती है. फिर जब काम बेहतरीन होता है तो पैसा खुद ब खुद आ जाता है. पहले काम, फिर नाम इसके बाद ही पैसे को अहमियत दें.

शब्द जिंदगी से ही जुड़े होते हैं

मैं नीलेशजी व पीयुष मिश्रा से बेहद प्रभावित हूं.कुछ भी लिखते वक्त बस उसे वास्तविक जिंदगी से जोड़ने की कोशिश करता हूं. शब्द खुद ब खुद आ जाते हैं.

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